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Wednesday, June 19, 2019

विवशताएँ .. अपनी-अपनी...

आज की यह रचना/विचार हिन्दी दैनिक समाचार पत्र- दैनिक जागरण, धनबाद के समाचारों से इतर सहायक पृष्ठ पर 20 दिसम्बर, 2005 को "विवशता" शीर्षक से छपी थी, जिसमें कुछ आंशिक परिवर्त्तन करके आज "विवशताएँ .. अपनी-अपनी ..." के शीर्षक के साथ आप से साझा कर रहा हूँ। यह रचना 15 जून, 1995 को हुई अपने वैवाहिक बंधन के बाद हमने रची थी, जिनमें कुछ सच्चाई और कुछ कल्पना का घोल है या यूँ कहें कि यह कॉकटेल है।
मालूम नहीं यह बात वर्षों से ब्राह्मणों ने फैलायी है या सनातनी किताबों ने या फिर पुरुष प्रधान समाज ने कि मृतोपरांत अपने पुत्र की मुखाग्नि से मोक्ष की प्राप्ति होती है। नतीजन एक अदद बेटा यानि तथाकथित पुत्र-रत्न की प्राप्ति के चक्कर में पुत्रियों की एक कतार खड़ी करने वाले कई पिता आज भी हमारे समाज में दिख जाते हैं और जब परिवार नियोजन की मानसिकता नहीं थी प्रचलन में, तब तो यह आम बात थी। तब भी और आज भी बेटा नहीं होना कई समाज में अभिशाप माना जाता है।
फिर चुनौती भरी क़वायद शुरू होती है, अपने समाज में .. अपने देश में दहेज़ विरोधी अधिनियम के बावज़ूद बुढ़ापे के सहारा वाली जीवन भर की कमाई को उन बेटियों की शादी में दहेज़ के रक़म के अनुसार दामाद ख़ोज कर खर्च करने की और उनकी विदाई करने की। दहेज़ की रक़म की उपलब्धता के अनुसार वरीयता सरकारी नौकरी वाले वर को ही मिलता है। ऐसे में खास कर हमारे बिहार में, पहले तो ज़्यादातर .. पर आज भी कमोबेश, सरकारी नौकरी वाले दामाद नहीं मिलने को लोग अभिशाप मानते हैं।
सत्तर के दशक में जब "हम दो, हमारे दो" का नारा हमारे समाज का अभिन्न अंग बना, उसी दरम्यान ट्रेन में सफ़र करते वक्त उस की खिड़कियों से रास्ते में पड़ने वाले गाँव-शहरों की दीवारों पर गेरुए रंग से मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा एक और नारा या प्रचार-वाक्य दिखता था- "वरदान जब बन जाए अभिशाप"। तब के समय, 1985 में सूर्य अस्पताल (Surya Hospitals) की श्रृंखला के खुलने के पहले, अनचाहे गर्भ का गर्भपात इतना आसान नहीं होता था।
खैर .. फ़िलहाल हम लोग आते हैं .. आज की रचना/विचार के क़रीब .. बस यूँ ही ...

समय पर ना आने वाले धोखेबाज़
मौनसून की तरह ही एक और धोखेबाज़ ...
समय-बेसमय बार-बार जाने वाली बिजली के
चले जाने के कारण .. एक उमसभरी शाम
टहलते हुए अपनी खुली छत्त से
एक पड़ोसी के आँगन में देखा और सुना
अपनी मज़बूरी बयां करता एक वृद्ध पिता-

" मधु बिटिया के लिए एक लड़का देखा है,
खाता-पीता घर और कामचलाऊ दरमाहा है
लड़का 'प्राइवेट कम्पनी' में विक्रय-प्रतिनिधि है
बेचता-बेचवाता शायद 'ब्रांडेड' लेमनचूस-टॉफ़ी है "

पर उधर मधु बिटिया मुँह फुलाए बैठी है
मम्मी भी चिंतामग्न नाराज-सी औंधे मुँह लेटी है
पर पिता फिर से समझाता हुआ
अपनी विवशता फिर से बयां करता हुआ -

" अब सरकारी कर्मचारी मैं कहाँ से लाऊँ !?
या बैंक के किरानी के लिए
दस- बीस लाख भला कैसे जुटाऊँ ?
बेटी ! मुझे तो पाँच-पाँच बेटियाँ ब्याहनी है
वीणा, गुड़िया को ब्याह चुका
माना अब तुम तीसरी हो
मगर अभी अन्नू  , नीतू तो बाकी है
और फिर .... ये लड़का 'प्राइवेट' नौकरी वाला
मेरी भी तो पहली पसंद नहीं
मगर क्या करें मजबूरी है
कारण .... पैसा है अल्प
सिवाय इसके और कोई नहीं विकल्प
माना सुरक्षित नहीं साथ उसके तुम्हारा भविष्य
पर कुएँ में धकेलना मेरा भी नहीं लक्ष्य
देखो ... तुम्हारी उम्र बीती जा रही है ...
तुम्हारे चेहरे पीले पड़ने के पहले
हमें तुम्हारे हाथ पीले करने हैं
पड़ोसियों को मुझसे है ज्यादा चिन्ता
उन्हें चैन की नींद देने हैं
अब परिस्थितियों से तो समझौता करना होगा
अपनी ढलती उम्र के लिए ना सही
बाकी दोनों छोटी बहनों की शादी आगे कर सकूँ
इसके लिए तो तुम्हें  'हाँ' करना होगा "

" बेटा ! बिजली आ गई। नीचे आ जाओ। " -
तभी अम्मा की पुकार सुन पड़ोस का
वार्तालाप सुनना बीच में छोड़
विचलित-सा सीढ़ी से उतरता गया मौन
सोचता रहा ... आखिर मेरी भी पहचान है क्या ?
मैं हूँ भला कौन ?
क्या अनचाहे गर्भ की तरह
कल मैं भी अपनाया जाऊँगा
गाँव-क़स्बे की दीवारों पर टंगे गर्भपात के
" वरदान जब बन जाए अभिशाप " वाले
विज्ञापन जैसा टाँगा जाऊँगा ? ...
क्योंकि मैं भी तो एक साधारण-सा
' प्राइवेट कम्पनी ' का कर्मचारी हूँ
चलो .. कम से कम बेरोजगार तो नहीं
इसलिए तथाकथित ईश्वर का आभारी हूँ ...