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Monday, August 2, 2021

चंचल चटोरिन ...

ऐ ज़िन्दगी !
मेरी जानाँ ज़िन्दगी !!
जान-ए-जानाँ ज़िन्दगी !!!

चंचल चटोरिन 
किसी एक
बच्ची की तरह
कर जाती है,
यूँ तो तू चट 
चटपट,
मासूम बचपन 
और ..
मादक जवानी,
मानो किसी 
'क्रीम बिस्कुट' की 
करारी, कुरकुरी, 
दोनों परतों-सी।

और फिर .. 
आहिस्ता ...
आहिस्ता ....
चाटती है तू
ले लेकर
चटकारे,
लपलपाती, लोलुप
जीभ से अपने,
गुलगुले .. 
शेष बचे बुढ़ापे के 
'क्रीम' की मिठास,
मचलती हुई-सी,
होकर बिंदास .. बस यूँ ही ...



Wednesday, June 10, 2020

जलती-बुझती लाल बत्ती ...


एक दिन मन में ख़्याल आया कि .. क्यों ना .. कागजी पन्नों वाले डायरी, जो बंद और गुप्त नहीं, बल्कि हर आयुवर्ग के लिए खुले शब्दकोश के तरह हो, की जगह वैज्ञानिकों के बनाए हुए अंतरिक्ष यानों के भरोसे चलने वाले इस ब्लॉग के इन वेव-पन्नों को ही अपना हमदर्द बनाया जाए। अब आपको इतना तो मालूम होगा ही कि अंतरिक्ष यानों के बदौलत ही ये सारे सोशल मिडिया के आपके पन्ने हम तक और हमारे पन्ने आप तक पहुँच पाते हैं और हाँ ..  मोबाइल से होने वाले बातचीत भी तो।

अब विश्व के विभिन्न प्रकार के आस्थावानों में से विश्व की कुल आबादी का लगभग 31-32% लोगों के देवदूत को ही गॉड (God) के रूप में विश्वास करने, 20-21% लोगों के पैगम्बर में विश्वास करने, 14-15% लोगों ( जो वास्तव में धर्मनिरपेक्ष हैं शायद )  के क़ुदरत में विश्वास करने और 13-14% लोगों के द्वारा अवतारों और मिथक कथाओं पर या फिर शेषनाग नामक साँप के फन पर पृथ्वी के टिकी होने और विश्वकर्मा नामक भगवान विशेष द्वारा ब्रह्माण्ड के रचने जैसे चमत्कार में विश्वास करने से तो कुछ ज्यादा ही विश्वास किया ही जा सकता है वैज्ञानिकों द्वारा निर्मित इन अंतरिक्ष यानों पर। यानि जब तक ये यान हैं, तब तक तो हमारे-आपके ये सारे वेव-पन्नों वाले ब्लॉग, फेसबुक जैसे सोशल मिडिया साँस ले ही सकते हैं ना ? है कि नहीं ?

इस तरह डायरी वाला ख़्याल आने से ही हम .. अपने जीवन के गुजरे पलों में मन को स्पर्श करने वाले सारे सकारात्मक या नकारात्मक पलों को भी बकबक करते हुए अपने मन के बोझ को यहाँ इस ब्लॉग के वेव-पन्नों पर उकेर कर या उड़ेल कर मन को हल्का करने का कुछ दिनों से प्रयास करते आ रहे हैं। 

ऐसे में आज बचपन की मेरी लिखी पहली कविता (?) और कुछ अन्य रचनाएँ  हाथ लगने पर यहाँ साझा करने का ख़्याल आते ही बचपन की कुछ यादें ताजा हो आयीं।

बचपन की बात हो तो बिहार की राजधानी पटना के बुद्धमार्ग पर बसे लोदीपुर मुहल्ले में स्थित बिहार फायर ब्रिगेड (दमकल ऑफिस) से कुछ ही दूरी पर अपने निवास स्थान से लगभग ढाई सौ मीटर की दूरी पर अवस्थित आकाशवाणी, पटना से 1972 से 1981 तक प्रत्येक रविवार को सुबह (अभी इस समय उन दिनों कार्यक्रम प्रसारित होने का समय ठीक-ठीक याद नहीं आ रहा) बच्चों के लिए जीवंत प्रसारण  ( Live Broadcast) प्रसारित होने वाले कार्यक्रम "बाल मण्डली" की याद आनी स्वाभाविक है।
साथ ही इसके संचालक द्वय- "दीदी" और "भईया" की वो कानों में रस घोलती गुनगुनी और खनकती आवाज़ और स्टूडियो की वो जलती-बुझती लाल बत्ती की याद भी अनायास आनी लाज़िमी है।
इतने दिनों बाद क्या .. अगर सच कहूँ तो उस वक्त भी .. 1975 में अपने नौ साल की उम्र में भी उन दीदी और भईया का मूल नाम मुझे नहीं मालूम था। बस दीदी और भईया ही मालूम था आज तक।
                                                 
                                    परन्तु आज ये संस्मरण लिखते हुए मन में एक उत्सुकता हुई नाम जानने की तो .. गूगल पर बहुत खोजा। गूगल पर कार्यक्रम के बारे में तो कुछ विशेष नहीं पर .. दीदी के कभी सदस्य, बिहार विधान परिषद रहने के कारण उनके नाम- श्रीमती किरण घई सिन्हा का पता चल पाया और उनके मोबाइल नम्बर का भी। उन के नम्बर मिलने पर खुद को रोक नहीं पाया और हिचकते हुए उनको फोन लगाया .. भईया का नाम जानने के लिए, क्यों कि उनका पता नहीं चल पा रहा था। खैर .. उनकी प्रतिक्रियास्वरूप बातचीत मेरी हिचक के विपरीत .. सामान्य से उत्साहित होती प्रतीत हुई। उनको भी अपने आपसी औपचारिक वार्तालाप के दौरान जब याद दिलाया ...  रेडियो स्टेशन के स्टूडियो में उस दौर के हम बच्चों का माईक के पास स्टूडियो के एक कमरे में जलती-बुझती हुई सूचक लाल बत्ती, जिसे ऑन-एयर लाइट (On-Air Light) कहते हैं, के इशारों के बीच उन दोनों को घेर के पालथी मार कर सावधानीपूर्वक बैठना और कार्यक्रम के तहत किसी देशभक्ति या बच्चों वाले गीत के बजते रहने तक स्टूडियो के उस कमरे की लाल बत्ती बुझते ही अपनी-अपनी रचना के पन्ने को अपने-अपने हाथ में लेकर भईया-दीदी को पहले दिखाने की होड़ में हमारा शोरगुल करना ... तो फोन के उस तरफ उनके  मुस्कुराने का एहसास हुआ। उनसे बालमंडली के भईया का नाम- श्री (स्व.) के. सी. गौर पता चला। उनसे ये भी पता चला कि वे अब इस दुनिया में नहीं रहे। उनका पूरा नाम याद नहीं आ रहा था उन्हें इस वक्त, तो उन्होंने शायद लगाते हुए कृष्ण चन्द्र बतलाया और आश्वासन भी दीं कि आकाशवाणी, पटना से किसी परिचित से मालूम कर के बतलाऊँगी सही-सही नाम। वैसे गूगल पर आकाशवाणी,पटना का एक सम्पर्क-संख्या उपलब्ध मिला भी तो उस पर घंटी बजती रही, पर उस तरफ से कोई प्रतिक्रिया मुझे नहीं मिली।

खैर .. उसी "बाल मण्डली" कार्यक्रम में पढ़ने के लिए अपने जीवन की ये पहली कविता (?), जो संभवतः 1975 में पाँचवीं कक्षा के समय लगभग नौ वर्ष की आयु में लिखी थी; जिसे पढ़ कर अब हँसी आती है और शुद्ध तुकबन्दी लगती है। यही है वो बचपन वाली तुकबन्दी, बस यूँ ही ...  :-

जय  जवान  और जय  किसान
जय  जवान  और जय  किसान,
भारत     के      दो     नौजवान।
जय   जवान  करे   दुश्मन   दूर,
जय किसान करे फसल भरपूर।

हम  सब  का भारत देश चमन,
जहाँ कमल,मोर जैसे कई  रत्न।
हम    नहीं   डरेंगे   तूफ़ान   से,
हम   सदा   लड़ेंगे   शान    से।

सदा   ही  दुश्मन  दूर  भगायेंगे,
सदा  आगे   ही   बढ़ते  जायेंगे।
खेतों में फसल खूब उपजाएंगे,
हम  सब  भारत नया  बसाएंगे।

आओ!    याद   करें    क़ुर्बानी,
वीर कुँवर सिंह, झाँसी की रानी।
क्या   शान  उन्होंने   थी  पायी,
हो शहीद आज़ादी हमें दिलायी।

आओ हम मिल हो जाएं क़ुर्बान,
रखें  बचा  कर वतन  की  शान।
जय  जवान  और जय  किसान,
भारत     के      दो     नौजवान।





Sunday, February 16, 2020

हाईजैक ऑफ़ पुष्पक ... - भाग- ३ - ( आलेख /संस्मरण/ एक विचार ).


" नालायक हो गया है। इतना बुलाने पर भी नहीं आया ना पप्पुआ !? " - ये पप्पू के चचेरे बड़े चाचा जी की आवाज है जो पप्पू के छोटे सगे भाई बबलू को अपने पप्पू भईया को संयुक्त पारिवारिक पूजा में साथ बैठने के लिए उसके अध्ययन-कक्ष से बुलाने कुछ देर पहले भेजे थे और उसके साथ नहीं आने पर लौटे हुए बबलू से पूछ रहे हैं।

फिर मँझले दादा जी यानी पप्पू के इसी चचेरे बड़े चाचा जी के पिता जी यानी उसके मृत दादा जी के मँझले भाई की आवाज आई - " साल भर में एक बार आने वाला त्योहार है। पता नहीं अपने आप को समझता क्या है। चार अक्षर पढ़-लिख क्या गया है , एकदम दिमाग सातवें आसमान पर चढ़ा रहता है इसका। "
" नहीं आना है ना आए .. कम से कम अपना कलम-दवात तो भेज देता पूजा के लिए ..." - छोटे वाले दादा जी बीच का रास्ता निकालते हुए बोले।

" नहीं आ रहा है तो छोड़िए उसको। पूजा की मुहूर्त निकली जा रही है। सबको तेज भूख भी लगी है। अभी बजरी खाने में भी समय लगेगा वह अलग। एकदम बदतमीज हो गया है।"- उन्हीं बड़े चचेरे चाचा जी की बड़बड़ाहट थी, जिनको उनके द्वारा पप्पू के बुलाने पर भी उसके ना आने के कारण उनको अपनी मानहानि लगने से उत्पन्न गुस्से को शांत करने के लिए निकल रही थी - " देखे नहीं उस दिन बांसघाट (बिहार की राजधानी पटना में गंगा नदी के किनारे बसे कई श्मशान घाटों में से एक) पर छोटका बाबू जी के 'दसमा' (पप्पू जिस सम्प्रदाय विशेष से सम्बन्ध रखता है, वहाँ किसी सगे के मरने के बाद दाहसंस्कार के दसवें दिन सभी पुरुष अपना बाल मुड़वाते हैं और दोनों हाथों-पैरों के सारे नाखून कटवाते हैं) में बाल नहीं ही मुंडवाया, केवल नाखून कटवाया। हीरो बन गया है। खाली कुतर्क करता रहता है। "

अक़्सर हमारे अभिभावक अपने बच्चों को डांटने , कोसने या मारने-पीटने का काम उस बच्चे के सुधारने या सुधरने के लिए कम बल्कि  अपने स्वयं के मन के गुस्सा को शांत करने के लिए ज्यादा ही करते हैं।
जिस त्योहार की बात हो रही है वह दरअसल दीपावली के एक दिन बाद हिन्दी कैलेंडर के मुताबिक़ कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष के दूसरे दिन हिन्दू सम्प्रदाय के तथाकथित कायस्थ जाति के लोग अपने तथाकथित कलम-दवात के देवता यानी ईष्ट भगवान- चित्रगुप्त का पूजन कर के मनाते हैं। इसे चित्रगुप्त-पूजा या दवात-पूजा या कलम-दवात की पूजा भी कहते हैं। बिहार में इस जाति को लाला भी कहते हैं। ये जाति बारह उपजातियों में बँटी हैं जो पूरे देश और विदेश में भी अलग-अलग जातिसूचक उपनाम के साथ पाई जाती हैं।इस त्योहार के दिन अन्य हिन्दू जाति के लोग यमद्वितीया के नाम से मनाते हैं। कहीं-कहीं बजरी कूटने के नाम से भी जाना जाता है।

"चित्रगुप्त व्रत कथा" नामक धार्मिक पुस्तिका में लिखी गई पूजन-विधि का अनुसरण करते हुए उस कथा का संस्कृत या हिन्दी या फिर बारी-बारी से दोनों भाषा में वाचन किया जाता है। कहीं-कहीं तथाकथित ब्राह्मण यानि पंडी (पंडित) जी को इस वाचन के लिए बुलाया जाता है या फिर घर का ही कोई भी एक सदस्य इसे पढ़ता है और अन्य सभी ध्यानपूर्वक सुनते हैं। परिवार के सभी सदस्य सुबह से उपवास में रहते हैं और पूजन-समापन के बाद ही चरणामृत और प्रसाद ग्रहण करने के बाद अगर किन्ही पुरुष की बहन रही तो उसके हाथों से कूटे गए बजरी (इसको बजरी कूटना ही कहते हैं) खाकर उसके हाथों बने शुद्ध शाकाहारी भोजन ग्रहण करते हैं।

हम में से अधिकांश को यह ज्ञात होगा कि एक समय था जब फाउन्टेन पेन यानि कलम और दवात की स्याही का संगम ही लिखने का एकमात्र साधन था। एक दिन पहले ही रात में घर के सारे कलम-दवात इक्कठे कर लिए जाते थे। सुबह उन सब की पानी-साबुन के साथ धुलाई होती थी। उस दिन कोई भी कलम नहीं छूता था यानि लिखने का काम नहीं होता था। बच्चे लोग खुश होते थे कि उस दिन पढ़ाई-लिखाई से छुटकारा मिल जाती थी या आज भी मिल जाती है। पूजा के लिए विशेष कंडे लाए जाते थे और उसे चाकू से छील कर पुरखों की संस्कृति और परम्परा को निभाते हुए उसी को दवात वाले स्याही में डूबा कर एक कागज़ पर रोली और घी से बनाए गए चित्रगुप्त भगवान की कार्टूननुमा चित्र के नीचे कुछ मंत्र लिखे जाते थे और आज भी इस परम्परा की निर्वाह की जाती है। मंत्रों के नीचे फिर सभी उसी कागज पर अपनी-अपनी सालाना आमदनी और खर्च लिखते हैं। बड़ी चतुराई से आमदनी से ज्यादा खर्च लिख कर दिखाया जाता है, इस मान्यता के साथ कि आमदनी से ज्यादा खर्च लिख कर दिखाने से भगवान जी उस अंतर की भरपाई करने के लिए आमदनी अपनी कृपा से बढ़ा देंगें। मतलब बच्चों को बचपन से ही अन्जाने में बड़े-बुजुर्ग छल-प्रपंच सिखाते हैं।
वैसे डॉट पेन और बॉल पेन के आने के पहले तक लिखने का एकमात्र साधन फाउंटेन पेन और पेन्सिल ही थी। उस कलम के लिए नीले, काले, लाल और हरे रंग की तरल स्याही, जो काँच के दवात में उपलब्ध थी , को भर कर कलम में लगे नीब के सहारे लिखा जाता था।

हाँ तो .. वे लोग पप्पूआ के नहीं आने पर पूजा प्रारम्भ कर दिए। ना चाहते हुए भी कानों में बड़े चचेरे भईया द्वारा उस तथाकथित पावन कथा की आवाज़ कान तक आ रही है। पहले कुछ अंश संस्कृत में फिर उसके अर्थ हिन्दी में पढ़ा जा रहा है। प्रायः संस्कृत तो बस अंक लाने तक ही रट कर समझ कर आता है .. तो हिन्दी वाले वाक्य पप्पू समझ पा रहा है।

" भीष्म जी बोले - हे युधिष्ठिर ! (शायद वही महाभारत वाले हैं) पुराण संबंधी कथा कहता हूँ। इसमें संशय नहीं कि इस कथा को सुनकर प्राणी सब पापों से छूट जाता है। "

पप्पू मन ही मन बुदबुदाता है - " मन तो कर रहा कि पूरे परिवार, समाज, देश .. सभी बुद्धिजीवियों से सवाल करूँ कि अगर किसी कथा के सुन भर लेने से पाप से छुटकारा मिल जातीA हो तो क्या ऐसी कथा सुननी चाहिए !? ऐसी कथा समाज में पाप के फैलाव में मददगार साबित नहीं होगा क्या !? तब तो रोज पाप करो और एक दिन क्यों साल के 365 - 366 (अधि/वृद्धि वर्ष में) दिन ये कथा सुनकर पापी पापमुक्त हो जाए। नहीं क्या !???

" सतयुग में नारायण भगवान् से , जिनकी नाभि में कमल है। उससे चार मुँह वाले ब्रह्मा जी पैदा हुए ... ब्रह्मा जी ने मुख से ब्राह्मणों को, बाहुओं से क्षत्रियों को , जंघाओं से वैश्यों को और पैरों से शूद्रों को उत्पन्न किया और ... "

अब नाभि में कमल, चार मुँह वाले ब्रम्हा जी और उनके मुख, बाँह, जाँघ व पैर से अलग-अलग जाति के मनुष्य का जन्म लेना जैसी ऊटपटाँग बातें वहाँ अपने बुजुर्गों के साथ पालथी मारकर बैठे और कथा सुन रहे अंग्रेजी मीडियम से प्राइवेट स्कूल में पढ़ने वाले चचेरे छोटे भाई बंटी के समझ से परे थी। वह चुपके से सू-सू के बहाने उठ कर एक सरकारी स्कूल में दसवीं कक्षा में पढ़ने वाले अपने उसी पप्पू भईया के पास भाग आया। सवाल दागने लगा - " पप्पू भईया ऐसा सच में होता है क्या !? मतलब हम सोच रहे हैं कि आगे की उच्च क्लासों में या कहीं कॉलेज में इस तरह का विज्ञान भविष्य में हमको पढ़ाया जाए। अभी तक के जीव-विज्ञान के किताब, कोर्स या क्लास में ऐसा सब नहीं पढ़ाया गया है। "
पप्पू के छः दादा जी में से चार दादा जी का भरा-पूरा परिवार परदादा जी की संपत्ति वाले एक ही बड़े से मकान के अलग-अलग हिस्से में रहता है। कुल तैंतीस लोगों की सदस्यता है। बाक़ी के दो दादा जी का परिवार पटना से बाहर के शहरों में जहाँ नौकरी करने गए वहीं जगह-जमीन लेकर बस गए।

गुस्से से पप्पू की मुट्ठियाँ भींच जाती है और वह जोर से अपनी भिंची मुट्ठी अपने और सामने ही आकर बैठे बंटी के बीच पड़े मेज पर पटकता है - " बंटी ... ऐसा कुछ भी सच ना था  और ना है। अगर सच होती ये सारी बातें तो निश्चित तौर पर हमारे-तुम्हारे पाठ्यक्रम में जोड़कर हमें पढ़ाई जाती। अचरज तो इस बात की है कि पोंगापंथी वाला इंसान अगर कोई नासमझी करे तो बात समझ में आती है पर अपने ही घर में देखो ना सारे चाचा जी लोग, दादा जी लोग, मेरे पापा , तुम्हारे पापा .. कोई पदाधिकारी, कोई वकील, कोई डॉक्टर, कोई इंजिनीयर, कोई प्रोफेसर .. सारे के सारे पढ़े-लिखे लोग हैं ... साथ में सारे पढ़ने वाले भाई-बहन ... सब के सब साल-दर-साल इस कथा को अन्धानुसरण करते हुए दुहरा रहे हैं। अपनी जाति-विशेष और उनमें भी कई उपजाति-विशेष की धारणा पाले गर्दन अकड़ाए हुए हैं। " - जग से गिलास में पानी डाल कर पी कर आगे बोला - " चलो ... तुम आ गए .. अच्छा किए। इनको बोल कर समझा नहीं सकते, बोल कर विरोध नहीं कर सकते तो ... कम-से-कम ऐसे मौकों में शामिल ना होकर तो विरोध जताया ही जा सकता है ना भाई। "
दोनों आँखों में आँखें डाले मुस्कुराते हैं। अब बंटी के बोलने की बारी थी - " अपने वर्त्तमान अभिभावक या गुजरे पुरखे ना सही भईया .. हमारी और आगे आने वाली पीढ़ी कभी ना कभी तो इस मिथक की कलई उघाड़ सकेगी और मिथक के पीछे का ठोस धातु हम अंधपरम्परा और अंधश्रद्धा के चश्मे को हटाकर अपनी नंगी आँखों से निहार पायेंगें।"

लगभग 1980 के इस बीते घटना का चौदह वर्षीय चश्मदीद कुतर्की पप्पू  दरअसल  मैं  ही हूँ।