Thursday, November 17, 2022

मन की झिझरियों से अक़्सर .. बस यूँ ही ...

देवनागरी लिपि के वर्णमाला वाले जिस 'स' से कास का सफ़र समाप्त होता है, उसी 'स' से सप्तपर्णी की यात्रा का आरम्भ होता है। संयोगवश व्यवहारिक तौर पर भी एक तरफ कास खिलने के उपरांत एक अंतराल के बाद जब किसी पहाड़ी गौरवर्णी चिरायु वृद्ध-वृद्धा के झुर्रीदार परन्तु देदीप्यमान मुखड़े की तरह झुर्रियाने लगते हैं, तभी किसी पहाड़न की सादगी भरे सौंदर्य-से सप्तपर्णी के यौवन की मादकता समस्त वातावरण को सुवासित करने लग जाती है .. बस यूँ ही ...

इन्हीं कास और सप्तवर्णी के आगमन-गमन के दरम्यान ही हर वर्ष की भांति कुछ दिनों पूर्व ही हिन्दू त्योहारों के मौसम के सारे के सारे हड़बोंग, चिल्लपों, अफ़रा-तफ़री, आपाधापी की पूर्णाहुति हुई है .. शायद ... 

जिनके दौरान हम में से अधिकांशतः जन सैलाब संस्कार और संस्कृति की आड़ में इनके अपभ्रंश परम्पराओं के तहत तथाकथित ख़ुशी तलाशने और बाँटने के छदम् प्रयास भर भले ही कर लें, परन्तु आध्यात्मिकता से कोसों दूर रह कर प्रायः हम अपने-अपने आत्मप्रदर्शन की प्रदर्शनी लगाए आपस में मानसिक या आर्थिक स्पर्धा-प्रतिस्पर्धा से जूझते हुए ही ज़्यादातर नज़र आते हैं इन मौकों पर .. शायद ...

पर उत्तराखंड की अस्थायी राजधानी- देहरादून में गत मई' 22 से वर्तमान में रहते हुए ऐसे तथाकथित त्योहारों के मौसम में यहाँ के लोगों की अजीबोग़रीब कृपणता देखने के लिए मिली है। 

वैसे तो बचपन की पढ़ाई के अनुसार हमारे खान-पान, रहन-सहन पर हमारे भौगोलिक परिवेश का प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से असर पड़ता है। परन्तु मालूम नहीं किस कारण से बिहार-झारखंड के परिप्रेक्ष्य में यहाँ के निवासी पूजा-अर्चना में कोताही करते नज़र आते हैं। इस दौरान यहाँ विशाल की बात तो दूर, बौने या मंझोले पंडाल भी नज़र नहीं आए और ना ही शहर या गाँव-मुहल्ले में कहीं भी विराट की विशाल प्रतिमाएँ दिखीं .. और तो और ध्वनि विस्तारक यंत्र से आकाश में तथाकथित विराजमान विधाता तक पैरोडी वाले भजनों की आवाज़ पहुँचाने वाले बुद्धिमान लोग भी नहीं दिखे। अब इनकी इतनी सादगी भरी परम्पराओं से तो कोफ़्त ही हो जाएगा; जिनको पंडालों, मेलों, रेलमपेलों, लाउडस्पीकरों की शोरों में ही अपने पावन परम्पराओं के निर्वहन नज़र आते हों। 

हैरत होती है कि यहाँ उत्तराखंड के लोग अपनी भक्ति-भाव की आवाज़ किस विधि से बिना लाउडस्पीकर के ऊपर आकाश में बैठे विधाता तक पहुँचा पाते होंगे भला ! ?

हो सकता है .. इस अलग राज्य की तरह ही इस राज्य के विधाता का विभाग भी आकाश में कोई अलग ही हो, जहाँ लाउडस्पीकर की आवाज़ के बिना ही उन तक उनके उत्तराखंडी भक्तों की बात पहुँच जाती होगी .. शायद ...

ख़ैर .. हमें इन सब से क्या लेना- देना ...

आज तो इन सब को भुला कर बस .. अभी हाल ही में ऋषिकेश के एकदिवसीय भ्रमण के दौरान आँखों के दृश्य-पटल पर अपनी छाप छोड़ते कुछ दृश्यों या कुछ विशेष घटनाओं के परिणामस्वरूप पनपी कुछ बतकही को छेड़ता हूँ .. बस यूँ ही ...


#(१)

यूँ तो है हर चेहरे पर यहाँ छायी मुस्कान,

पर है किसे भला इनकी वजह का संज्ञान .. बस यूँ ही ...


#(२)

खेलने की उम्र में .. पेशे में लगे बच्चे हों या

खिलने के समय .. पूजन के लिए टूटे फूल।


यूँ समय से पहले कुम्हला जाते हैं दोनों ही,

अब .. इसे संयोग कहें या क़िस्मत की भूल .. बस यूँ ही ...



#(३)

त्रिवेणी घाट पर केवल नदियाँ ही नहीं, 

साहिब ! ... दो दिल भी मिला करते हैं।

आते हैं आप यूँ यहाँ मोक्ष की तलाश में,

गोद में प्रकृति की हम तो मौज करते हैं।


लिए कामना स्वर्ग की आप आ-आकर,

लगा कर डुबकी नदी में स्नान करते हैं।

हम तो बस यूँ ही .. प्रेम में गोता लगाए,

स्वर्ग बने धरती ही, कामना ये करते हैं .. बस यूँ ही ...


#(४)

वज़ह नभ पर आनन के, मुस्कान की घटा छाने की,

आज़ादी ही नहीं, साहिब ! कई बार होती है क़ैद भी।


गोया हथकड़ियों से सजे जेल जाते स्वतन्त्रता सेनानी,

प्रिय की आँखों के रास्ते ह्रदय में समाती प्रेम दीवानी।


बाँहों में बालम के बिस्तर पर खुद को सौंपती संगिनी,

कैमरे के रास्ते गैलरी में क़ैद होती रेहड़ी वाली रमणी .. बस यूँ ही ...



#(५)

नज़रबन्द करने में भले ही लोग छोड़ें ना कोई कसर,

झाँक ही लेते हैं हम तो मन की झिझरियों से अक़्सर .. 

.. बस यूँ ही ...


Thursday, August 25, 2022

दूब उदासियों की .. बस यूँ ही ...

 (१)

सोचों की ज़मीन पर

धाँगती तुम्हारी

हसीन यादों की

चंद चहलकदमियाँ ..


उगने ही कब देती हैं भला

दूब उदासियों की ..

गढ़ती रहती हैं वो तो अनवरत

सुकूनों की अनगिनत पगडंडियाँ .. बस यूँ ही ...



(२)

देखता हूँ जब कभी भी

झक सफेद बादलों के 

अक़्सर ओढ़े दुपट्टे 

यूँ तमाम पहाड़ों के जत्थे ..


गुमां होता है कि निकली हो 

संग सहेलियों के तुम

मटरगश्ती करने

शहर भर के सादे लिबासों में .. बस यूँ ही ...









Thursday, August 11, 2022

धुआँ-धुआँ ही सही .. बस यूँ ही ...

(१) #

तिल-तिल कर,

तिल्लियों से भरी

दियासलाई वाली 

डिब्बी अनुराग की

सील भी जाए गर

सीलन से दूरियों की,

मन में अपने तब भी

रखना सुलगाए पर,

धुआँ-धुआँ ही सही ..

एक छोटी-सी 

अँगीठी यादों की.. बस यूँ ही ...


कायम रहेगी

तभी तो 

तनिक ही सही,

पर रहेगी तब भी

.. शायद ...

आस बाक़ी 

सुलगने की 

तिल-तिल कर

तिल्लियों से भरी

दियासलाई वाली

डिब्बी अनुराग की .. बस यूँ ही ...


अब दो और बतकहियाँ .. अपने ही 'फेसबुक' के पुराने पन्नों की पुरानी बतकहियों से :- 

(२) #

साहिब ! ..

आप सूरज की

सभी किरणें 

मुट्ठी में अपनी

समेट लेने की

ललक ओढ़े 

जीते हैं .. शायद ...


और .. हम हैं कि 

चुटकी भर 

नमक की तरह

ओसारे के

बदन भर 

धूप में ही

गर्माहट चख लेते हैं .. बस यूँ ही ...


(३) #

साहिब ! ..

आपका अपनी

महफ़िल को 

तारों से सजाने का

शौक़ तो यूँ 

लाज़िमी है ..

आप चाँद जो ठहरे .. शायद ...


हम तो बस 

एक अदना-सा 

बंजारा ही तो हैं ..

एक अदद 

जुगनू भर से

अपनी शाम

सजा लेते हैं .. बस यूँ ही ...






Sunday, August 7, 2022

कभी तिमला, तो कभी किलमोड़ा ...



देखता हूँ .. अक़्सर ...

कम वक्त के लिए

पहाड़ों पर आने वाले

सैलानियों की मानिंद ही

कम्बख़्त फलों का भी

पहाड़ों के बाज़ारों में 

लगा रहता है सालों भर

आना-जाना अक़्सर।

आने के कुछ ही दिनों बाद 

जो हो जाते हैं बस यूँ ही छूमंतर।

चाहे बाज़ारें हों गढ़वाली देहरादून के 

या कुमांऊँ वाले पिथौरागढ़ या 

फिर हो बाज़ारें अल्मोड़ा के।

कभी काफल, कभी पोलम,

कभी खुबानी, कभी आड़ू,

कभी बाबूगोशा, कभी घिंगोरा,

कभी तिमला, तो कभी किलमोड़ा ये सारे।

मानो पहाड़ी पेड़-पौधों पर

और .. स्वाभाविक है तभी तो

पहाड़ी बाज़ारों में भी

टिकना जानते ही नहीं फल,

ख़ास कर काफल,

किसी बंजारे की तरह .. शायद ...  


और तो और ..

पहाड़ी आसमानों में

टिकते हैं कब भला

बला के बादल यहाँ।

फट पड़ते हैं अक़्सर

मासूम पहाड़ियों पर 

ढाने के लिए क़हर।

स्वयं पहाड़ों को भी तो 

है आता ही नहीं टिकना,

ख़ास कर बरसातों में

सरकते हैं परत-दर-परत,

होते रहते हैं बारहा यहाँ

भूस्खलन बेमुरौवत। 

और हाँ .. मौसम भी तो यहाँ

होते नहीं टिकाऊ प्रायः।

यूँ तो सीखने चाहिए रफ़्तार

गिरगिटों को भी रंग बदलने के,

एक ही दिन में

पल-पल में बदलने वाले

इन पहाड़ी मौसमों से,

जो करा देते हैं एहसास कई बार

गर्मी, बरसात और जाड़े के भी

एक ही दिन में क्रमवार .. शायद ... 


क्या मजाल जो ..

थम जाएँ, 

टिक पाएँ,

यहाँ बरसाती पानी भी

कहीं भी, 

कभी भी सड़कों पर।

तरस जाती हैं आँखें यहाँ

बरसाती झीलों वाले नज़ारों को

देखने के लिए नज़र भर।

पर .. साहिब ! ...

सुना है कि ..

अक़्सर  'टी वी ' पर

दिखने वाले किसी भी

टिकाऊ सीमेंट के

मनोरंजक विज्ञापनों की मानिंद ही

पहाड़ों के निवासियों के आपसी

या प्रायः प्रवासियों के साथ भी

या फिर यदाकदा

सैलानियों के संग भी

बनने वाले ..

रिश्ते ...

होते हैं टिकाऊ बहुत ही .. शायद ...

जिसे निभाते हैं ये जीवन भर .. बस यूँ ही ...














Wednesday, August 3, 2022

बस मन का ...


 (१)

बतियाने वाला स्वयं से अकेले में, कभी अकेला नहीं होता,

खिलौने हों अगर कायनात, तो खोने का झमेला नहीं होता 

 .. शायद ...



(२)

साहिब ! यहाँ संज्ञा, सर्वनाम या विशेषण नहीं होता,

कुछ रिश्तों के लिए कभी कोई व्याकरण नहीं होता 

.. शायद ...




(३)

साहिब ! ..जगह दिल में वो भला क्या ख़ाक देगा,

जो किराए में ग़ैर-मज़हबी को कभी घर नहीं देता

.. शायद ...










(४)

आबादी भी भला शहर भर की थी कब सुधरी,

ना थी, ना है और ना रहेगी कभी साफ़-सुथरी।

साहिब ! है सच तो ये कि सफाईकर्मियों से ही,

हैं चकाचक चौराहे, मुहल्ले, सड़क-गली सारी

.. शायद ...




(५)

परिभाषा कामयाबी की है सब की अलग-अलग,

है किसी को पद या दौलत का मद, कोई है मलंग 

.. शायद ...








(६)

चाहे लाखों हों यहाँ पहरे ज़माने भर के, अनेकों बागडोर,

पर खींचे इन से इतर सनम, बस मन का एक कच्चा डोर 

.. बस यूँ ही ...

Sunday, July 31, 2022

भींजे ख़्वाबों में .. बस यूँ ही ...


 

यूँ तो कहते हैं सब कि

"समुन्दर में 

नहा कर तुम 

और भी 

नमकीन हो गई हो ~~~",

पर पता है कहाँ उन्हें, 

कि ..

समुन्दर में कम ..

सनम ...

तुम तो 

मेरे नयनों के

खारे पानी वाले 

भींजे ख़्वाबों में

भींज-भींज कर ही

तनिक ज्यादा

या तनिक कम 

नमकीन हुई हो .. बस यूँ ही ...