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Saturday, May 16, 2020

जल-स्पर्श नदारद ...

गाँव के खेत-खलिहानों में कहीं
तो खेल के मैदानों में कभी
लालसा बस छू भर लेने की
उस जगह को जो अक़्सर थी 
आभास-सी कराती कि .. धरती
आसमान से हो मानो मिल रही ...

बालमन ने होड़ लगाई कितनी
कई लगाई बालतन ने दौड़ भी
ना मिलनी थी .. ना ही मिली कभी
सफलता किसी जगह .. कभी भी
राह रोकता हुआ कोई जब कि
दिखा नहीं व्यवधान कहीं भी ...

है तो बस केवल एक आभासी
आँखों का एहसास भर ही
जिसे क्षितिज कहते थे गुरु जी
ये शब्द .. ये बातें .. सारी ज्ञान की
बाद में मैं था जान पाया
स्कूल की पढ़ाई के दौरान ही ...

घने अरण्य में बारहा
है बीच तपती दुपहरी
प्यासी भटकती झुण्ड हिरणों की
जिन्हें मृग मरीचिका है लुभाती
पर जल-स्पर्श नदारद
हर बार ठीक क्षितिज-सी ...

बालतन लाख हो गया बड़ा
आज बड़ा और बूढा भी
पर बालमन था जहाँ
है ठिठका खड़ा वहीं
चाह लिए मन में अपने
मिल जाने के आज भी ...

काश ! मिल पाते कभी
सच्चे मन से दो रिश्तेदार सगे
रिश्तों के आभासी क्षितिज पर
मिल पाती उसे तृप्ति भी कभी
जो भटक रहा ताउम्र अनवरत 
रिश्तों की मृग मरीचिका के पीछे
प्यास लिए अपनापन की ...

प्यास लिए .. ये आस लिए कि
क्षितिज-से आभासी रिश्तों के बीच
इन्हीं आभासी क्षितिज से
कभी तो उगेगा कोई दूर ही सही
पर एक अपना-सा सूरज
अपनापन की किरणों वाली
गर्माहट लिए एहसासों के धूप की ...