नववधू-सी पर ..
बिन वधू प्रवेश मुहूर्त के
वक्त-बेवक्त .. आठों पहर
तुम्हारी यादों की दुल्हन
मेरे ज़ेहन की चौखट वाली
ख़्यालों की देहरी से,
पल-पल से सजे
वर्तमान समय सरीखे
चावल के कण-कण से भरे
नेगचार वाले कलश को
अपने नर्म-नाज़ुक पाँव से
धकेल कर हौले से परे,
संग-संग गुज़ारे लम्हों की
टहपोर लाल आलते में
सिक्त पाँवों से
मेरी सोचों के
गलियारे से होते हुए
मन के आँगन तक
एहसासों के पद चिन्ह
सजाती रहती है,
आहिस्ता-आहिस्ता,
अनगिनत ..
अनवरत ..
बस यूँ ही ...