Saturday, April 23, 2022

'मेन एट वर्क' ...


जितनी ही ज्यादा स्वयं को 

'वर्किंग लेडी' कह के जब-जब 

आपने अपनी गर्दन है अकड़ाई ;

उतनी ही ज्यादा उन्होंने ख़ुद को 

'हाउस वाइफ' बतलाते हुए तब-तब 

अपनी गर्दन है झुकाई .. शायद ...


साहिबान !!  तनिक देखिए तो ..

भला अब किसने वहाँ पे तख़्ती 

'मेन एट वर्क' की है लगाई ?

पर उनकी डगमगाती गर्दन पे अड़े

सिर पर धरे बोझ ईंटों के देख के भी

लज्जा जिन्हें आयी ना आयी .. शायद ...



【 हमारे तथाकथित सभ्य और बुद्धिजीवी समाज की विडंबना  एक तरफ ये है, कि एक दिन के चंद तय घंटों के लिए नौकरीशुदा महिलाएँ अपनी गर्दनें अकड़ाती हैं और चौबीसों घंटे स्वयं को समर्पित की हुई औरतें झेपतीं हैं अक़्सर ये कहते हुए कि "कुछ नहीं करती हम .. हम बस 'सिम्पली हाउस वाइफ' हैं जी" .. और ... दूसरी ओर मेरी सोच से .. ये 'मेन एट वर्क' वाली तख्तियाँ भी शायद पुरुष प्रधान सोच की उपज की ही द्योतक हैं , जब कि 'पीपल एट वर्क' की तख़्ती लगानी ही तर्कसंगत होनी चाहिए .. शायद .. बस यूँ ही ... 】






Friday, April 22, 2022

कुम्हलाहट तुम्हारे चेहरे की ...

अक़्सर .. अनायास ...

कुम्हला ही जाता है चेहरा अपना,

जब कभी भी .. सोचता हूँ जानाँ,

कुम्हलाहट तुम्हारे चेहरे की

विरुद्ध हुई मन के तुम्हारे  

बात पर किसी भी।


हो मानो .. आए दिन 

या हर दिन, प्रतिदिन,

किए हुए अतिक्रमण

किसी 'फ्लाईओवर' के नीचे

या फिर किसी 'फुटपाथ' पर,

देकर रोजाना चौपाए-से पगुराते 

गुटखाभक्षी को किसी, 

कानूनी या गैरकानूनी ज़बरन उगाही,

सुबह से शाम तक बैठी, 

किसी सब्जी-मंडी की 

वो उदास सब्जीवाली की

निस्तेज चेहरे की कुम्हलाहट।


देर शाम तक टोकरी में जिसकी 

शेष बचे हों आधे से ज्यादा 

कुम्हलाए पालक और लाल साग,

तो कभी बथुआ, खेंसारी या चना के,

या कभी चौलाई या गदपूरना के भी साग,

अनुसार मौसम के अलग-अलग।


और तो और ..

मुनाफ़ा तो दूर, पूँजी भी जिसकी

देर शाम तक भी हो ना लौटी।

तो तरोताज़े साग-सी,

मुस्कराहट सुबह वाली जिसकी, 

देर शाम तक तब 

शेष बचे कुम्हलाए साग में हो,

जो यूँ बेजान-सी अटकी।

सोचती .. बुझेगी भला आज कैसे ..

बच्चों के पेट की आग ?

बेसुरा-सा हो जिस बेचारी के

जीवन का हर राग .. बस यूँ ही ...





Sunday, April 17, 2022

चौपाई - जो समझ आयी .. बस यूँ ही ...


आराध्यों को अपने-अपने यूँ तो श्रद्धा सुमन,

करने के लिए अर्पण ज्ञानियों ने थी बतलायी।

श्रद्धा भूल बैठे हैं हम, सुमन ही याद रह पायी,

सदियों से सुमनों की तभी तो है शामत आयी .. शायद ...




वजह चिल्लाने की अज्ञात, ऊहापोह भी, क्या बहरे हैं "उनके वाले"?
प्रश्न अनुत्तरित जोह रहा बाट, आज भी कबीर का सैकड़ों सालों से।
खड़ा कर रहे अब तुम भी एक और प्रश्न, 'लाउडस्पीकर' बाँट-२ के,
कबीर भौंचक सोच रहे, बहरे हो गए साहिब ! अब "तुम्हारे वाले"?