Saturday, October 14, 2023

हे प्रिये ! .. काश ! .. कभी ...

हे प्रिये ! .. 

काश ! .. कभी ...

ले पाओ जो तुम दृष्टि मेरी 

और कभी ले लें तुम्हारी हम।


मन्दिरों में फिर हमें शायद 

दिख जाएँ तुम्हारे पूज्य भगवन

और दिखने लग जाए प्रिये तुम्हें 

पूजा की थाली में निर्मम पुष्प हनन।


हे प्रिये ! .. 

काश ! .. कभी ...

ले पाओ जो तुम दृष्टि मेरी 

और कभी ले लें तुम्हारी हम।


श्रद्धा से पढ़ पाएँ शायद तब हम

दोहे-चालीसे, कर पाएँ भजन-कीर्तन

और तुम्हें दिख पाए कभी भी, 

कहीं भी .. मुरली की तानों में ही वृंदावन।


हे प्रिये ! .. 

काश ! .. कभी ...

ले पाओ जो तुम दृष्टि मेरी 

और कभी ले लें तुम्हारी हम।


देख सकें हम अनायास विधाता

मंदिरों-धामों के गढ़े हुए पाषाणों में और 

हो दिव्य दर्शन प्रिये तुम्हें देख हर कीट-खग, 

पशु-पादप, नदी-सागर, अनगढ़ पर्वत, बाग़-वन।


हे प्रिये ! .. 

काश ! .. कभी .. 

ले पाओ जो तुम दृष्टि मेरी 

और कभी ले लें तुम्हारी हम।


सिर झुका पाएँ हम, मूँदें अपनी आँखें,

ढाक की थाप संग हो जब रक्तरंजित मंदिर प्राँगण

और दिख जाएँ तुम्हें वीभत्स छटपटाहट,

साथ सुन पाओ निरीह पठरुओं के तुम करुण क्रंदन।


हे प्रिये ! .. 

काश ! .. कभी ...

ले पाओ जो तुम दृष्टि मेरी 

और कभी ले लें तुम्हारी हम।


जिह्वा मचले तब हमारी लार भरे मुँह में,

देख कर कोई भी माँसाहारी व्यंजन

और हो भान तुम्हें प्रिये .. वध किए 

प्राणी के मृत अंगों पे तेल-मसालों का लेपन।


हे प्रिये ! .. 

काश ! .. कभी ...

ले पाओ जो तुम दृष्टि मेरी 

और कभी ले लें तुम्हारी हम।


दिख पाए हमें दाह-संस्कार से ही 

सम्भव हमारे मृत तन का निष्पादन 

और शव में भी प्रिये तुम्हें दिख जाएँ,

सूरों के लिए शेष बचे मेरे दो अनमोल नयन।


हे प्रिये ! .. 

काश ! .. कभी ...

ले पाओ जो तुम दृष्टि मेरी 

और कभी ले लें तुम्हारी हम।


लग जाएँ करने हम मानव-मानव में अंतर,

जाति-धर्म, भाषा-भूषा, वर्ण-वर्ग के मापदण्ड पर

और हो जाए प्रिये प्रतीत तुम्हें सारे मानव समान,

सबकी एक ही धरती, एक ही सूरज-चाँद के आलंबन,

समान प्राणवायु में श्वसन, एक जीवन-स्रोत हृदय स्पंदन।



Thursday, October 12, 2023

पुंश्चली .. (१४) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)

प्रत्येक वृहष्पतिवार को यहाँ साझा होने वाली साप्ताहिक धारावाहिक बतकही- पुंश्चली .. (१) से पुंश्चली .. (१३) तक के बाद पुनः प्रस्तुत है आपके समक्ष पुंश्चली .. (१४) .. (साप्ताहिक धारावाहिक) .. बस यूँ ही ...  :-

गतांक का आख़िरी अनुच्छेद :-

अभी बेसुध होकर पुष्पा की आँख लगी ही थी, कि पानी पूड़ी खाने के बाद अपनी सभी सहेलियों को अलविदा करके घर में पाँव रखते ही उसकी मामी चंडालिन का रूप ले लीं थीं और उसे झकझोर कर जगाने लगीं थीं - " अरे ! .. जरा-सा बाहर क्या गयी, तुम्हारी तो बहार ही आ गयी है जैसे। पेट भर खाना मिला, बस महारानी जी पसर गयीं। जूठे बर्त्तन सारे पड़े हैं .. कौन साफ़ करेगा ? तुम्हारा भूत ? बाहर कपड़े सूख रहे है, कौन उठा कर रखेगा ? आयँ ? .."

पुष्पा - " मामी जी तबियत ठीक नहीं है हमारी ..."

मामी जी - " ख़ूब अच्छे से समझती हूँ, तुम जैसी लोगों की बहानेबाज़ी .."

गतांक के आगे :-

यूँ तो इस ब्रह्मांड में सभी प्राणी अपनी-अपनी समझदारी के पैमाने के अनुसार अपनी-अपनी समझ रखते हैं। पर कोई उसे व्यक्त या साझा कर पाने की मादा रखता है और समय-समय पर कर भी पाता है और ... कोई अपने में ही दफ़न किए हुए एक दिन दुनिया में ही कफ़न ओढ़े दफ़न हो जाता है या फिर दाह संस्कार के हवाले हो कर विलुप्त हो जाता है। पुष्पा भी तो अपनी समझदार मामी जी की तरह ही अपनी समझ के अनुसार समझती है कि वह अपने पिता जी और माँ के ग़रीब होने की सजा भुगत रही है। पर उसके मुँह पर मज़बूरी के ताले जड़े पड़े हैं। 

कई दफ़ा तो कई लोगों के जीवन में पीड़ा की सबसे बड़ी वजह होती है कि उन्हें समझने वाला कोई नहीं होता .. ना घर-परिवार में और ना ही बाहर-समाज में .. या यूँ कह सकते हैं कि जिस मान-सम्मान, स्नेह-श्रद्धा के वो हक़दार होते हैं .. वह उन्हें जीते जी नहीं मिल पाता है। अगर मरने के बाद मिल भी जाए तो भला उनका क्या ?

वैसे तो पाँच साल की उम्र तक तो पुष्पा ने अपने घर की अमीरी नहीं भी तो .. कम से कम एक सामान्य खुशहाल दिनचर्या अवश्य देखी है। घर में ना तो खाने-पीने की कमी थी और ना ही पहनने-ओढ़ने की। भला और चाहिए ही क्या इंसान को ? भोजन, वस्त्र, पढ़ाई और दवाई ही तो ? .. इन सब की कोई कमी नहीं थी उसके घर में। उसका परिवार इन चारों ही उपलब्धियों की दृष्टिकोण से एक खुशहाल परिवार था।

परन्तु .. उसकी माँ अपनी रीढ़ की हड्डी में अक़्सर होने वाली पीड़ा में विज्ञापनों से महिमामंडित पीड़ाहारी 'बाम' लगाने के पश्चात भी आराम ना मिलने पर एक बार अपने शहर के सरकारी अस्पताल में चिकित्सा कराने क्या गयी, उस दिन से उस परिवार की आर्थिक स्थिति की रीढ़ की हड्डी ही टूट गयी। माँ की रीढ़ की हड्डी की पीड़ा से दिन-प्रतिदिन बढ़ती शारीरिक अशक्तता, अस्पताल के चक्कर, इलाज, दवाई, 'ऑपरेशन', शय्याग्रस्त दिनचर्या, बीमार की सेवा-शुश्रुषा .. इन सब ने बीमार माँ के साथ-साथ समस्त परिवार को मानसिक, शारीरिक और आर्थिक रूप से पूरी तरह असहाय बना दिया था। 

पिता जी की इकलौती कमायी इलाज के लिए लिए गए उधार को चुकाने में भी कम पड़ने लगी थी। शादी के समय मिले और घर में रखे सारे ज़ेवर तो पहले ही बंधक रखे जा चुके थे। जिनके छुट कर घर वापसी की उम्मीद तो ठीक वैसी ही थी, जैसी किसी बिसुक गयी गाय से दूध दुह लेने की दुरूह कोशिश। 

सारे नाते-रिश्तेदार आगे उधार माँगने पर मुँह पर ही ये बोल कर चुप करा कर लौटा देते कि - " अगर अभी कुछ उधार दे भी दें उद्धार करने की सोच के तो भविष्य में वह उधार अगले सात जन्मों तक लौटा पाना तुम लोगों के वश की बात नहीं लगती। आख़िर हमारे घर भी बाल-बच्चे हैं। उन्हें पढ़ाना-लिखाना है .. फिर बेटी की शादी भी करनी है। " - जितने मुँह, उतनी बातें .. कोई कहता - " ये सब जैसे चल रहा है, चलने दो। ये सब तुम लोगों के ही इस जन्म या उस जन्म के कर्मों के फल हैं। इसे भुगतना तो पड़ेगा ही। यहाँ भुगत लोगे तो "ऊपर" शायद स्वर्ग नसीब हो जाए। यही सब तो विधि का विधान है ना 'पुसपेन्दर' (पुष्पेन्द्र) ? इसमें हम लोग को क्यों घसीट रहे हो ? .. बोलो ? "

अंत में थक-हार कर पुष्पा के माता-पिता .. ख़ासकर पिता जी- पुष्पेन्द्र महतो अपने मन को कठोर कर के उसकी आगे की पढ़ाई .. उसके बेहतर भविष्य, उसकी भावी शादी इत्यादि सोच कर उसे अपने बड़े साले साहब के घर पहुँचा आए थे। माँ भी सोची थी कि बड़का भईया-भाभी के पास रहेगी तो खाने-पहनने की कमी नहीं रहेगी और उनके स्कूल में पढ़ेगी तो इसकी पढ़ाई-लिखाई भी जारी रहेगी। पर आज की वास्तविक वस्तुस्थिती तो पुष्पा ही अकेली जान रही है और झेल रही है। वह नहीं चाहती है अपनी माँ या पिता जी को ये सारी बातें .. अपनी मानसिक और शारीरिक पीड़ा बतला कर उन्हें मानसिक कष्ट देना। जीवन की कठोर परिस्थितियाँ कई दफ़ा कोमल बालमन को भी अपने जैसी ही कठोर बना देती हैं, जो जीवन-पथ की हर कठिनाइयों को आसानी से झेलने की मादा से सुशोभित हो जाता है .. शायद ...

रंजन के जाने के बाद अंजलि और पुष्पा की एक दूसरे के प्रति समानुभूति और नैतिक समर्थन का आलंबन ही उनके लिए प्राणवायु की तरह काम कर रहा है। अक़्सर कई पीड़ाएँ, ख़ासकर मानसिक, किसी व्यक्ति विशेष के मौखिक समर्थन से ही विलुप्त हो जाती हैं। कभी-कभी तो किसी का मूक समर्थन ही किसी के लिए एक सख़्त आलंबन सिद्ध हो जाता है।

कभी रंजन के ऐसे ही मूक समर्थन ने कभी अंजलि के दुःखी दिल में रंजन के प्रति कोमल भावनाओं ने अपना डेरा जमा लिया था। दरअसल पहले ही बतला चुके हैं कि रंजन के अपने गाँव से इस शहर में आने के बाद शुरुआती दौर में काम के लिए भटकने के दौरान मन्टू ने उसकी काफ़ी सहायता की थी। किसी सगे से भी बढ़ कर। उसी समय मन्टू ने उसे भाड़े पर चलाने के लिए चंदर कबाड़ी से किराए पर टोटो दिलवाया था .. वो भी एक अजनबी के लिए ज़मानती बन कर। तभी मन्टू ने अपने स्कूल, अपने स्कूल कहने का मतलब .. जिस स्कूल के बच्चों को उनके घर से स्कूल लाने और फिर छुट्टी होने पर उन्हें उनके घर तक ले जाने का काम अपने टोटो से करता था .. उसी स्कूल में और भी अन्य बच्चों के लिए उनके अभिभावकों से रंजन की बात करवा दी थी। दिन भर भाड़े की सवारी के अलावा स्कूल से भी एक निश्चित आय का स्रोत रंजन को मन्टू के मार्फ़त मिल गया था। प्रतिदिन स्कूल आते-जाते रंजन वहाँ के सभी तथाकथित चतुर्थवर्गीय कर्मचारियों से घुलमिल-सा गया था। उन्हीं में से एक अंजलि भी थी। 

बच्चे लोग भी रंजन को बहुत प्यार करते थे। वह सभी बच्चों का "ड्राईवर अंकल" बन गया था। उसकी भी वजह थी .. रंजन अपने विद्यार्थी जीवन में तो पढ़ाकू था ही, पाठ्यक्रम की पुस्तकों के अलावा कहानी-उपन्यास की किताबों को पढ़ने का शौक़ था उसे और वह आदत आज भी उस से नहीं छूटी थी। जब भी मौका मिलता उसे टोटो के अलावा पन्ना-दर-पन्ना कर के कई तरह की किताबें पढ़ लेता था। जब से बच्चों को लाने- ले जाने का काम पकड़ा था, तो जातक कथा के जैसी किताबें ज्यादा पढ़ने लगा था। साथ ही उसे अभिनय का भी शौक़ था, तो अपने गाँव में होने वाली रामलीला में या अन्य कार्यक्रमों के तहत होने वाले नाटकों में बढ़-चढ़ कर भाग लेने के कारण .. उन्हीं कहानियों को वह अपनी नाटकीय शैली में बच्चों को स्कूल आते-जाते रास्ते में और उस से भी ज्यादा 'टिफ़िन' के वक्त बच्चों के साथ-साथ उपस्थित कर्मचारियों को भी सुनाता था। 

धीरे-धीरे सभी की इनमें दिलचस्पी बढ़ती गयी थी। फिर तो रंजन की दिनचर्या में ये शामिल हो गया था। बाद में तो बच्चे लोग अपनी लायी हुई 'टिफ़िन' अपने "ड्राईवर अंकल" के साथ साझा करने लगे थे। बल्कि अपनी-अपनी 'मम्मी' या आया को बोल कर अपने-अपने घर से अपने "ड्राईवर अंकल" के लिए अतिरिक्त पराठा या 'सैंडविच' बनवा कर लाने लगे थे। गाहे-बगाहे रंजन भी उनलोगों के लिए बदले में प्यार से 'टॉफ़ी-चॉकलेट' ले जाता था और कभी कर्मचारियों के लिए कुछ मिठाइयाँ भी। साथ ही वह उन्हीं लोगों के साथ मिल बाँटकर खाता था। बच्चों की तो 'टिफ़िन' होती थी, पर रंजन के लिए दोपहर का भोजन हो जाता था। उसी क्रम में एक दिन वह मिठाई के तौर पर पन्तुआ खरीद कर ले गया था। 

पन्तुआ या पैंतुआ एक पारम्परिक बंगाली मिठाई है, जो गुलाब जामुन से भिन्न होती है। गुलाब जामुन की मूल सामग्री मैदा और खोवा होता है। जबकि इसके विपरीत पन्तुआ सूजी, छेना, दूध, घी के सम्मिश्रण से बने बेलनाकार या गोला की आकृति को घी या वनस्पति तेल में तल कर और उसे चीनी की चाशनी में डाल कर बनायी जाती है। 

उस दिन रंजन के द्वारा खरीद कर लायी गयी पन्तुआ को देखते ही अंजलि मानो रुआँसी हो गयी थी। सभी उपस्थित लोग ये देख कर हैरान हो गए थे, कि आख़िर अचानक क्या हो गया इसको .. जो इसकी आँखें भर गयी हैं। सबके सामने ही पुष्पा द्वारा बहुत बार जोर देकर रोने की वज़ह पूछे जाने पर बड़ी मुश्किल से वह बोल पायी थी, कि मीठा तो उसे पसन्द है ही और सभी मिठाईयों में पन्तुआ उसे बचपन से ही सबसे ज्यादा पसन्द है। जिस स्थान की वह रहने वाली थी, वहाँ सभी मिठाई दुकानों में पन्तुआ बिकती भी थी और बाबू जी भी उसकी पसंद जानकर लगभग हर शाम छः नग पन्तुआ लाने लगे थे। तीन सदस्यी परिवार में सभी के लिए दो-दो नग। पर होता ये था कि माँ तो अपने हिस्से का दोनों खा जाती थी, पर बाबू जी एक ही नग खाते थे और इस तरह अंजलि को तीन नग पन्तुआ मयस्सर हो जाता था। यही सब याद करके उसकी मासूम आँखें आँसुओं में तैरने लगी थीं। उस दिन अंजलि की पसन्द जान कर आगे से रंजन लगभग हर दूसरे दिन पन्तुआ ही लेकर आ जाता था और वह भी अंजलि के नाम पर एक 'पीस' अलग से सभी के हिस्से के अतिरिक्त लाने लगा था। 

धीरे-धीरे पन्तुआ की चाशनी की मिठास इनके यानी तेईस साल के रंजन और बीस वर्षीया तरुणी अंजलि के भावनात्मक सम्बन्धों पर तारी होती चली गयी थी और परिणामस्वरुप दोनों ने एक मंदिर में प्रेम विवाह कर लिया था। जिसका विवरण हमलोग पहले ही पढ़ चुके हैं। इस शादी से अंजलि के संरक्षक- मेहता जी नाख़ुश थे, इसी कारण से वे इन दोनों की शादी में शामिल नहीं हुए थे। 

【 आज बस .. इतना ही .. अब शेष बतकहियाँ .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (१५) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】