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Tuesday, June 27, 2023

मूँदी पलकों से ...

धुँधलके में जीवन-संध्या के 

धुंधलाई नज़रें अब हमारी,

रोम छिद्रों की वर्णमाला सहित 

पहले की तरह पढ़ कहाँ पाती हैं भला

बला की मोहक प्रेमसिक्त .. 

कामातुर मुखमुद्राओं की वर्तनी तुम्हारी ...


पर .. मुश्किल कर देता है हल .. पल में ..

तीव्रता से चूमता मेरी कर्णपाली को 

तुम्हारी नम-नर्म साँसों का शोर,

और .. तख़्ती पर मेरे तपते बदन की 

कुछ कूट भाषा-सी गहरी उकेरती

तुम्हारी तर्जनी की पोर ...


पर .. पगली ! .. यूँ भी युवा आँखें 

इन मौकों पर तब वैसे भी तो

खुली कहाँ होती थीं भला !?

खुली-अधखुली-सी .. मूँदी पलकों से ही तो 

पढ़ा करते थे हम 'ब्रेल लिपि' सरीखी 

एक-दूजे की बेताबियाँ .. बस यूँ ही ...




Saturday, February 20, 2021

मन का व्याकरण ...

शुक्र है कि 

होता नहीं

कोई व्याकरण

और ना ही 

होती है 

कोई वर्तनी ,

भाषा में

नयनों वाली

दो प्रेमियों की 

वर्ना .. 

सुधारने में ही

व्याकरण 

और वर्तनी ,

हो जाता 

ग़ुम प्यार कहीं .. शायद ...


कभी भी 

कारण भूख के 

ठुनकते ही

किसी भी

अबोध के ,

कराने में फ़ौरन 

स्तनपान या

सामान्य 

दुग्धपान में भी

भला कहाँ

होता है 

कोई व्याकरण

या फिर

होती है 

कोई भी वर्तनी .. शायद ...


व्याकरण और

वर्तनी का

सलीका 

होता नहीं

कोई भी ,

टुटपुँजिया-सा

सड़क छाप 

किसी आवारा 

कुत्ते में या 

विदेशी मँहगी 

नस्लों वाले

पालतू कुत्ते में भी ,

तब भी तो होती नहीं 

कम तनिक भी

वफ़ादारी उनकी .. शायद ...


काश ! कि ..

गढ़ पाते जो 

कभी हम

व्याकरण

मन का कोई

और पाते

कभी जो

सुधार हम

वर्तनी भी

वफ़ादारी की ,

किसी ज़ुमले या

जुबान की जगह ,

तो मिट ही जाता

ज़ख़ीरा ज़ुल्मों का

जहान में कहीं .. शायद ...