Thursday, January 4, 2024

पुंश्चली .. (२६) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)

 


प्रत्येक वृहष्पतिवार को यहाँ साझा होने वाली साप्ताहिक धारावाहिक बतकही- "पुंश्चली .. (१)" से "पुंश्चली .. (२५)" तक के बाद पुनः प्रस्तुत है, आपके समक्ष "पुंश्चली .. (२६) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" .. बस यूँ ही ...  :-

गतांक का आख़िरी अनुच्छेद :-

मुकेश - " अगर आप हमको बार-बार नहीं टोकते, प्यार से नहीं समझाते या हमको ज़बरन नशामुक्ति केन्द्र तक नहीं ले जाते .. समय-समय पर मेरे इलाज के लिए आर्थिक मदद नहीं करते, तो हम भी आज .. " 

गतांक के आगे :-

रेशमा - " मुकेश भईया ! .. आर्थिक मदद केवल आपको ही नहीं .. ललन चच्चा तो इस तरह की मदद .. ना जाने कितने जरूरतमंद लोगों की करते आ रहे हैं .. है ना चच्चा ? "

मन्टू - " सच में .. कितनों का उद्धार किया है चच्चा ने .. ये सब बतलाने और कहने-सुनने वाली बात नहीं है और .. चच्चा जी को इन सब बातों के ढोल पीटना पसन्द भी नहीं है। "

चाँद - " इनका शुरू से उसूल रहा है कि नेकी कर दरिया में डाल .. "

भूरा - " और मेरा उसूल है कि गीला कचरा और सूखे कचरे को अलग-अलग उनके तयशुदा डब्बे में ही डाल.. ना कि इधर-उधर कहीं भी उछाल .. " - दूर से मुहल्ले की ओर गाना- "~~ गाड़ी वाला आया, घर से कचरा निकाल ~~~ " बजाते हुए नगर-निगम की आती हुई गाड़ी को देख कर सभी को हँसाने के लिए ऐसा बोल भूरा स्वयं भी हँस रहा है और सभी को सम्बोधित करते हुए - " हमारी गाड़ी आ गयी .. अब हम चले अपनी आज की 'ड्यूटी' के लिए .."

मयंक - " किसी की 'ड्यूटी' करने नहीं .. बल्कि .. मानो, सोचो और बोलो कि आप जा रहे हो अपने लिए रोटी-दाल कमाने "

यहाँ रसिक चाय दुकान पर ललन चच्चा के आने के पहले से ही शशांक और मयंक, दोनों ही, अपने तीनों नए मित्रों- समर, अमर और अजीत के यहाँ से वापस जाने के बाद अपने दो अन्य शैक्षणिक मित्रों के अचानक 'कॉल' आ जाने पर 'कॉन्फ़्रेंस कॉल' पर पढ़ाई से सम्बन्धित कुछ जरूरी बातों पर व्यस्त रहने के कारण थोड़ा हट कर .. यहीं पर पास के पिलखन के पेड़ के नीचे वाले चबूतरे पर बैठे हुए थे। वहीं से उठकर अभी-अभी अपने 'पी जी' जाने के लिए सभी से औपचारिक अनुमति लेने आए हैं। तभी आते-आते में भूरा की 'ड्यूटी' जाने वाली बात सुनकर मयंक ने अभी अपनी प्रतिक्रिया दी है।

भूरा - " हाँ.. हाँ .. वही मयंक भईया .. वही .. मतलब दाल-रोटी कमाने जा रहे हैं .."

मयंक की बोली बात को भूरा के नाटकीय ढंग से दोहराने के कारण .. दोहराते ही सब जोर से हँसने लगे हैं। भूरा नगर-निगम की गाड़ी के पिछले हिस्से में लद कर और सभी को हाथ हिला-हिला कर विदा लेते हुए मुहल्ले की ओर जा रहा है।

चूँकि शशांक और मयंक दुबारा यहाँ अभी-अभी आने के कारण, ललन चच्चा के यहाँ आने के बाद हुई सारी बातों से अनभिज्ञ हैं, इसीलिए दोनों मुस्कुराते हुए ललन चच्चा को अपने दोनों हाथों को जोड़ कर प्रणाम कर रहे हैं। तभी लगे हाथ ललन चच्चा दोनों को पास बुलाकर, दोनों के सिर पर अपने हाथ रखकर अपने आशीर्वचनों से सुसज्जित कर रहे हैं। तभी ...

रेशमा - " मयंक भईया ! .. ललन चच्चा के लिए एक चिन्ता करने वाली मुसीबत आ गयी है .. उनको एक महीने के भीतर घर खाली करने की 'नोटिस' मिली है .. हम सभी को अपना-अपना काम करते हुए भी .. समय निकाल कर इसी मुहल्ले में या आसपास के इलाके में इनके लायक .. इनके लिए किराए का मकान तलाशना होगा .."

मयंक - " जरूर .. "

शशांक - " ये भी कोई बोलने की बात थोड़े ही ना है .."

मयंक - " निःसन्देह .. हम सभी मिलकर खोजेंगे .. आप अपनी चिन्ता भूल जाइए चाचा जी .. "

शशांक - " आपकी चिन्ता, अब .. हम सभी की चिन्ता है .."

मन्टू - " इस काम में हमलोगों की मदद तो .. रसिक भी करेगा .."

चाँद - " हाँ .. सही बोले .. दिन भर इसकी दुकान पर इसकी कड़क चाय पीने तो .. इस मुहल्ले के अलावा आसपास के लोग भी आते-जाते रहते हैं .. "

मयंक - " हम और शशांक मिल कर एक 'चार्ट पेपर' पर मोटे-मोटे अक्षरों में लिख कर रसिक की चाय दुकान पर एक 'नोटिस' टाँग देते हैं .. लिख देंगे कि .. "किराए पर एक घर की आवश्यकता है - विशाखा" .. ठीक रहेगा ना ? " 

अब रसिक दूर ही से अपना नाम सुन कर ख़ुशी से बीच में टपक पड़ा है।

रसिक - " पर .. 'पोस्टर' के नीचे में ललन चच्चा का नाम क्यों नहीं ? .. विशाखा बिटिया का क्यों ? "

ललन चच्चा अपने समर्थन में होने वाली सहायता के लिए बनायी जा रही सभी की योजनाओं को देख-सुन कर मन ही मन आश्वस्त लग रहे हैं, जिसकी झलक उनके चेहरे पर भी दिख रही है। 

वैसे भी अनुभवी लोगों का मानना या कहना है कि पारदर्शी सोच व चरित्र वालों का चेहरा प्रायः पारदर्शी ही होता है .. उन लोगों के जो मन में, वही चेहरे पर झलकता है और कलुषित सोच वालों का चेहरा तो कुछ और दर्शाता है, पर मन ही मन में कुछ और ही चल रहा होता है।

रसिक के अभी वाले ऊहापोह भरे सवाल पर रेशमा की टोली से अचानक अनुष्का बोल पड़ी है ...

अनुष्का - " दरअसल .. रसिक भईया .. ललन चच्चा के बदले, विशाखा का नाम रहेगा तो .. लड़की का नाम देख कर लोग फ़ौरन अपनी प्रतिक्रिया देंगे। "

रसिक - " अच्छा ! .. ऐसा है क्या ? "

अनुष्का - " और नहीं तो क्या ! .. देखते नहीं हैं .. अगर राह चलते दुर्घटनावश कोई लड़का या पुरुष गिर जाता है, तो लोग जल्दी पास भी नहीं फटकते और उल्टा उसका मज़ाक बनाते हैं। वहीं अगर .. कोई लड़की या कोई महिला राह चलते गिर जाती है तो .. लोग अपना सारा काम छोड़ कर उसको उठाने के बहाने .. उसको छूने की होड़ में लग जाते हैं .. नहीं क्या ? "

रसिक - " अरे हाँ .. एकदम सही .. ऐसा तो कई दफ़ा इसी चौक पर देखने के लिए मिल जाता है। "

शशांक - " केवल .. इतना ही नहीं .. इस पुरुष प्रधान समाज के बहुमुखी आकर्षण के केन्द्र में प्रायः महिलाएँ ही होती हैं .. "

मयंक - " तभी तो .. देखते नहीं क्या ? .. कि 'लिपस्टिक-नेल पॉलिश' या फिर 'सैनिटरी नैपकिन' के विज्ञापनों में तो लड़कियों-औरतों को बड़ी-बड़ी 'कम्पनी' वाले दिखलाते ही हैं और .. मर्दों के इस्तेमाल करने वाले 'रेजर-ब्लेड' से लेकर चड्डी-बनियान जैसे उत्पाद हों या फिर 'कॉन्डोम' .. इन सभी के विज्ञापनों में भी मर्दों से ज्यादा औरतों को ही 'फोकस' किया जाता है .."

शशांक - " ताकि पुरुषों के इस्तेमाल किए जाने वाले उन उत्पादों वाले विज्ञापनों की ओर लड़कियों-औरतों के प्रदर्शन के बहाने .. या यूँ कहें कि अंग प्रदर्शन वाले आकर्षण के कारण पुरुष उपभोक्ताओं का ध्यान जाए और उनके उत्पादों के वे लोग तादाद में क्रेता बन सकें और .. उन कम्पनियों द्वारा ऐसे ऊलजलूल विज्ञापनों को बनाने और उसे प्रसारित करने में हुए ख़र्चों से और उत्पादन की लागत से भी कई गुणा ज्यादा मुनाफ़ा उन कम्पनियों को हो सके .. "

मयंक - " ये तो हुई आकर्षण के केन्द्र बिन्दु को भुनाने  वाले विज्ञापनों की बात .. विज्ञापनों का एक स्वरूप और भी है .. वो है .. भयभीत करने वाले अंड बंड विज्ञापनों को दिखला कर .. पहले तो मन में डर पैदा करते हैं .. फिर उस डर से छुटकारा पाने के लिए अपने उत्पादों को इस्तेमाल करने की नसीहत देकर आम जनता से रूपए ऎंठने का काम करते हैं .. मसलन- मच्छरों, चूहों के अलावा रोगाणुओं को नष्ट करने वाले हमारे बाज़ारों में उपलब्ध ढेर सारे उत्पाद .. "

शशांक - " जैसे सदियों से ब्राह्मण लोग स्वर्ग-नर्क, मोक्ष, पाप-पुण्य जैसी बातों का डर दिखला कर पादरियों और मौलानाओं की तरह धर्म-मज़हब की आड़ में आमजन की आस्था का नाजायज फ़ायदा उठाने के लिए उन्हें सदियों से सब्ज़बाग दिखलाते आ रहे हैं .. नहीं क्या ? .."

मयंक - " कई गलतियाँ हमारी भी हैं .. कहीं ना कहीं दोषी हम भी हैं .. हमलोग अपनी जरूरत की चीजें कम खरीदते हैं, बल्कि विज्ञापनों को देख कर अपनी जरूरतें पैदा करते हैं और फिर .. उन आभासी जरूरतों की चीजों को खरीद कर हम बेवकूफ़ बनते रहते हैं .. "

शशांक - " हमें अपने बुद्धिजीवी दिमाग़ पर जोर देकर कभी सोचना चाहिए .. चिंतन-मनन करना चाहिए कि अगर .. गोरा करने वाली क्रीम वास्तव में होती तो अफ़्रीकी मूल के सारे लोग अब तक कश्मीरियों या अँग्रेज़ों की तरह गोरे हो गए होते या फिर बराक ओबामा और उनकी पत्नी मिशेल ओबामा या ओपेरा विनफ्रे और व्हूपी गोल्डबर्ग जैसी प्रसिद्ध और अमीर लोग भी अब तक काली नहीं, बल्कि गोरी नज़र आतीं .. "

मयंक - " सही में .. वैसे ही अगर सचमुच में .. लम्बाई बढ़ाने वाली कोई दवा होती तो चीन-नेपाल के लोग अभी तक नाटे कद के नहीं रहते और अगर बाल उगाने वाले कोई तेल सच में होते बाज़ार में तो .. अब तक कोई टकला नहीं बचता .. "

रेशमा - " सही बात बोल रहे हैं आप दोनों .. पर सभी लोग इतना सोचें तभी ना .. ख़ैर ! .. अब हमलोगों को यहाँ से निकलना चाहिए और अपने-अपने काम में लग जाने के साथ-साथ ललन चच्चा के लिए किराए का मकान भी खोजना है .." मयंक-शशांक को ये कहते हुए रेशमा अपने बटुए में पड़ी कुछ टॉफियाँ निकालते हुए कलुआ को बुला कर दे रही है। वैसे भी राह चलते जाने-अन्जाने बच्चों को प्यार से टॉफियाँ बाँटना रेशमा की आदतों में शुमार है।

【आज बस .. इतना ही .. अब शेष बतकहियाँ .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (२७) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】