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Saturday, December 28, 2019

ब्रह्माण्ड की बिसात में ...

हाथों को उठाए किसी मिथक आस में
बजाय ताकने के ऊपर आकाश में
बस एक बार गणित में मानने जैसा मान के
झांका जो नीचे पृथ्वी पर उस ब्रह्माण्ड से
दिखा दृश्य अंतरिक्ष में असंख्य ग्रह-उपग्रहों के
मानो हो महासागर में लुढ़कते कई सारे कंचे
तुलनात्मक इनमें नन्हीं-सी पृथ्वी पर
लगा मैं अदृश्य-सी एक रेंगती कीड़ी भर ...पर..
पूछते हैं सभी फिर भी कि मेरी क्या जात है ?
सोचता हूँ अक़्सर इस ब्रह्माण्ड की बिसात में
भला मेरी भी क्या कोई औकात है ?

यूँ बुरा तो नहीं उपलब्धियों पर खुश हो जाना
शून्य की खोज पर छाती तो हम फुलाते रहे
पर रोजमर्रा के जीवन में अपनाए हैं हमने
कई-कई बार कई सारी विदेशी तकनीकें
पर अपनी सभ्यता-संस्कृति पर ही अकड़ाई
फिर भी बारहा हमने केवल अपनी गर्दनें
उस वक्त भी अकड़ी होगी वहाँ गर्दनें कई
पर हो गया नेस्तनाबूत मेसोपोटामिया वर्षों पहले
बह रहीं वहीं आज भी दजला-फरात हैं
कमाल के करम सभी क़ुदरती करामात हैं
भला मेरी भी क्या कोई औकात है ?

माना भाषा-भाषी अनेक .. रंग-रूप अनेक हैं
सबकी पर यहाँ रहने की पृथ्वी तो एक है
पृथ्वी को करते रोशन सूरज-चाँद एक हैं
निर्माता प्रकृत्ति एक है .. विज्ञान एक है
सबके हृदय-स्पन्दन एक-से हैं .. साँस एक है
इंसान-इंसान में क्यों जाति-धर्म का भेद है
फिर क्यों भला यहाँ पीर-पैगम्बर अनेक हैं
कहते सभी कि देवालयों में विधाता अनेक हैं
फिर क्यों नहीं बनाता वह नेक आदम जात है ?
भला यहाँ किसने ये फैलाई ख़ुराफ़ात है ?
भला मेरी भी क्या कोई औकात है ?