Showing posts with label कृष्ण मृग. Show all posts
Showing posts with label कृष्ण मृग. Show all posts

Saturday, April 18, 2020

मरूस्थल की कोख़ में ...

तय करता हुआ, डग भरता हुआ जब अपने जीवन का सफ़र
बचपन के चौखट से निकल चला मैं किशोरावस्था की डगर
तुम्हारे प्यार की गंग-धार कुछ लम्हें ही सही .. ना कि उम्र भर
जाने या अन्जाने पता नहीं .. पर हाँ .. मिली ही तो थी मगर
अनायास मन मेरा बन बैठा था बनारसिया चौरासी घाट मचल ...

बीच हमारे-तुम्हारे ना जाने कब .. कैसे जाति-धर्म आई उभर
संग ख़्याल लिए कि कम ना हो सामाजिक प्रतिष्ठा का असर
फिर तो हो कर अपने ही किए कई कसमें-वादों से तुम बेख़बर
बनी पल भर में परायी भरवा कर अपनी मांग में सिंदूर चुटकी भर
रह गया जलता-सुलगता मन मेरा मानो जलता हुआ थार मरुस्थल ...

जन्माया उस मरूस्थल की कोख़ में एक मरूद्यान हमने भी पर
फैलायी जहाँ कई रचनाओं की सोन चिरैयों ने अपने-अपने पर
होने लगे मुदित अभिनय के कई कृष्ण-मृग कुलाँचे भर-भर कर
हस्तशिल्प के कैक्टसों ने की उदासियाँ सारी की सारी तितर-बितर
जल मत जाना देख कर अब तुम मेरी खुशियों की झीलों के जल ...