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Saturday, March 27, 2021

सुलग रही है विधवा ...

गहनों से सजानी थी उसे जो अगर अपनी दुकानें,

तो खरा सोना पास अपने यूँ भला रखता क्योंकर?


सकारे ही तोड़े गए सारे फूल, चंद पत्थरों के लिए,

बाग़ीचा सारा, सारा दिन यूँ भला महकता क्योंकर?


रक़ीब को लगी है इसी महीने जो सरकारी नौकरी,

तो सनम, संग बेरोज़गार के यूँ भला रहता क्योंकर?


गया था सुलझाने जो जाति-धर्म के मसले नासमझ,

तो शहर के मज़हबी दंगे में यूँ भला बचता क्योंकर?


रोका है नदियों को तो बाँध ने बिजली की ख़ातिर पर,

है ये जो सैलाब आँखों का, यूँ भला ठहरता क्योंकर?


बिचड़ा बन ना पाया, जब जिस धान को उबाला गया,

आरक्षण न था, ज्ञानवान आगे यूँ भला बढ़ता क्योंकर?


अब पहुँचने ही वाला है गाँव ताबूत तिरंगे में लिपटा,

सुलग रही है विधवा, चूल्हा यूँ भला जलता क्योंकर?


नाम था पूरे शहर में, वो कामयाब कलाबाज़ जो था,

रस्सियाँ कुतरते रहे चूहे, यूँ भला संभलता क्योंकर?


व्यापारी तो था नामचीन, पर दुकान खोली रोली की

पास गिरजाघर के, व्यापार यूँ भला चलता क्योंकर?


रंग-ओ-सूरत से जानते हैं लोग इंसानों को जहां में, 

मन फिर किसी का कोई यूँ भला परखता क्योंकर?