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Wednesday, June 9, 2021

राजा आप का .. तड़ीपार ... (भाग-४). 【अन्तिम भाग】.

(१) "कलम आपकी, राजा आप का, अखबार आप का, लिखें, कौन रोक रहा है ?  जितना चाहे लिखें।" 

(२) "उन्हें मोहतरमा इसलिए कह रहा हूँ, क्योंकि वह हमेशा स्त्री-पोशाक में ही रहती हैं। उन लोगों में भी नर-मादा जैसा, कुछ-कुछ भेद होता हो शायद।"

(३) "हम भी उस विज्ञापन के फंतासी या तिलिस्म में सम्मोहित होकर सनक जाते हैं- गोरा होने के लिए, ठंडा होने के लिए, सेहत बेहतर करने के लिए और अब तो 'इम्युनिटी पॉवर' (Immunity power) बढ़ाने के लिए भी।"

(४) "ठीक यही "तड़ीपार" की सजा देने वाली सामंती या मनुवादी मानसिकता, मुखौटों के साथ आज हमारे सोशल मीडिया के उपभोगकर्ता बुद्धिजीवियों के बीच भी अक़्सर पनपती दिखती है। नहीं क्या ?"

(५) "ये 'अनफ्रैंड' करना भी हमें "तड़ीपार" करने जैसा ही कुछ-कुछ लगता है .. शायद ..."

: - (आज के इसी "राजा आप का .. तड़ीपार ... (भाग-४). 【अन्तिम भाग】."  के कुछ अंश ... ।).

ख़ैर ! .. बहुत हो गई फिल्मों और अंजान भाषाओं के शब्दों की बतकही .. अब "राजा आप का .. तड़ीपार ... (भाग-४). 【अन्तिम भाग】." में बकैती कर लेते हैं, प्रसंगवश आये हुए शब्दों - "राजा आप का .." और "तड़ीपार" की।

इस से पहले बस .. केवल एक बार और ज़िक्र कर लेते हैं, हम सिनेमा के सम्मोहन, तिलिस्म, फंतासी (फैंटेसी) और सनक के असरों के विराट रूप वाले जाल या यूँ कहें, मायाजाल के बारे में। सुबह जागने पर किसी-किसी की चाय की तलब से लेकर लोगबाग के साबुन (या हैंड वाश भी) या दंतमंजन (या टूथ पेस्ट भी) तक की जरुरतों से लेकर रात में सोने के पहले पी जाने वाली किसी हेल्थ-ड्रिंक्स (Health Drinks) या फिर कंडोम जैसे उपयोग या उपभोग किए जाने वाले हरेक वस्तुओं के विज्ञापनों का जाल, हमारे आसपास सोते-जागते .. मोबाइल के पर्दे से लेकर, टीवी के पर्दे तक, दैनिक समाचार पत्र से लेकर चौक-चौराहों के बड़े-बड़े विज्ञापन-पट्ट (होर्डिंग/ Hoardings) तक भरे पड़े रहते हैं। ख़ासकर कुछ ख्यातिप्राप्त व्यक्ति (सेलिब्रेटी/Celebrity) को उस वस्तु विशेष को इस्तेमाल करते हुए दिखाया जाता है। भले ही वह विज्ञापन वाला पेय या खाद्य-पदार्थ, सौंदर्य-प्रसाधन वग़ैरह हमारे स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह हो या विज्ञापन में दिखने वाला या वाली, वो 'सेलिब्रेटी' उनका कभी उपभोग भी ना करता/करती हों। परन्तु .. चूँकि उस विज्ञापन में अभिनय करने के लिए उन्हें लाखों रुपए मिलते हैं और वह इंसान धन के लिए, यानी अपने फ़ायदे के लिए, उस विज्ञापन देने वाली कम्पनी के साथ मिलकर हम लोगबाग को धोखा देने यानी ठगने के लिए आगे आ जाता है। हम भी उस विज्ञापन के फंतासी या तिलिस्म में सम्मोहित होकर सनक जाते हैं- गोरा होने के लिए, ठंडा होने के लिए, सेहत बेहतर करने के लिए और अब तो .. 'इम्युनिटी पॉवर' (Immunity power) बढ़ाने के लिए भी। ये सारी की सारी प्रक्रियाएं सिनेमा के उसी सम्मोहन, तिलिस्म, फंतासी (फैंटेसी) और सनक के असर जैसा ही हमारे ऊपर असर करता भी है। ख़ासकर .. बच्चों, युवाओं और महिलाओं पर। कई महिलाओं के तो कई सारे फैशन (Fashion) के पैमाने टीवी सीरियलों की नायिकाओं के फैशन के आधार पर ही तय होते हैं। बिलकुल दक्षिण भारतीय राजनीति में, वहाँ के सिनेमा-जगत के सम्मोहन भरे हस्तक्षेप के जैसा .. शायद ...

यूँ तो "तड़ीपार" जैसी सजा, सामंतवादी या मनुवादी सोच की उपज ही प्रतीत होती है। जो आज भी खाप पंचायत या गोत्र पंचायत के रूप में अनेक राज्यों में सिर उठाए खड़ी है। तथाकथित लोकतंत्र इन परिस्थितियों में एक लकवाग्रस्त रोगी से ज्यादा कुछ ख़ास नहीं जान पड़ता है। ठीक यही "तड़ीपार" की सजा देने वाली सामंती या मनुवादी मानसिकता, मुखौटों के साथ आज हमारे सोशल मीडिया के उपभोगकर्ता बुद्धिजीवियों के बीच भी अक़्सर पनपतती दिखती है। नहीं क्या ? कभी-कभार .. किसी के अपने फेसबुक (Facebook) की मित्रता सूची (Friend List) से किसी को, किसी बात पर, हटाना (Unfriend करना) एक आम बात है। चाहे वह बात या इंसान उचित हो या अनुचित। बस .. हटाने वाले के मन-मुताबिक़ किन्हीं बातों का नहीं होना ही काफ़ी होता है। ये 'अनफ्रैंड' करना भी हमें "तड़ीपार" करने जैसा ही कुछ-कुछ लगता है .. शायद ...

मेरे साथ ही घटित कई घटनाओं में से तीन घटनाएँ अभी भी याद हैं। वैसे घटनाओं की ज़िक्र करने के समय उन तीनों का नाम लेकर, गोपनीयता के नियम का उल्लंघन करना उचित नहीं रहेगा। तो.. बिना नाम लिए हुए ही ...

पहली घटना :-

यह किसी पुरुष या महिला के साथ घटित ना होकर, किसी किन्नर मोहतरमा के साथ घटी घटना है। उन्हें मोहतरमा इसलिए कह रहा हूँ, क्योंकि वह हमेशा स्त्री-पोशाक में ही रहती हैं। उन लोगों में भी नर-मादा जैसा, कुछ-कुछ भेद होता हो शायद। ख़ैर ! .. आपको ये भी स्पष्ट कर दें कि वह कोई आम किन्नर नहीं हैं, बल्कि बिहार की राजधानी, पटना में वह काफ़ी विख्यात हैं। कुछ महकमें में उनका बड़ा नाम है। कई-कई कवि सम्मेलनों, मुशायरों में, सामाजिक संस्थानों द्वारा आयोजित समारोहों में, राजनीतिक गलियारों में आयोजकगण उन्हें अपने मंच पर सम्मानित कर के खुद को गौरवान्वित महसूस करते हैं। गत वर्ष के लॉकडाउन की शुरुआत होने के कुछ पहले तक, कई मंचों पर या चित्र-प्रदर्शनियों में भी उन से यदाकदा मुलाकातें और कई विषयों पर बातें भी हुईं हैं, विचार-विमर्श या बहस के रूप में।

ठीक-ठीक .. अक्षरशः याद तो नहीं, पर संक्षेप में इतना याद है कि एक बार अपने फेसबुक पर उन्होंने जातिगत आरक्षण के लिए, वर्तमान से और भी ज्यादा प्रतिशत को बढ़ाने के पक्ष में कुछ पोस्ट (Post) किया था। साथ ही, वर्तमान में बिहार की सत्ता से बाहर एक राजनीतिक दल के नाम के क़सीदे भी पढ़ी/लिखी थीं उस पोस्ट में। उसी राजनीतिक दल की तारीफ़ की गई थी, जिस के शासन-काल में काल ही काल घिरा हुआ था। अपहरण, ट्रेन-डकैती, राहजनी, डकैती, हत्या, बलात्कार, भ्रष्टाचार जैसे कई अपराध "छुट्टा" (खुला) साँढ़ की तरह चारों ओर मुँह मारने के लिए आज़ाद थे। उनकी मित्रता-सूची में होने के कारण मेरी नज़र से जब वह पोस्ट गुजरी तो आरक्षण के पक्ष वाली बात आदतन मुझे नागवार गुजरी। मैंने प्रतिक्रियास्वरुप उचित तर्क के साथ जातिगत आरक्षण के विरोध में अपनी कुछ बातें रखी। इस तरह एक-दो घन्टे के अंदर ही, 'न्यूटन के तीसरे नियम' के अनुसार दो-तीन बार क्रिया-प्रतिक्रियाएँ हुई। शायद, छुट्टी का दिन रहा होगा, तभी मैं भी त्वरित प्रतिक्रिया कर रहा था।

हमारी चल रही विषय विशेष की स्वस्थ बातें, तर्क-वितर्क और विचार-विमर्श अचानक उनकी ओर से उग्र हो गया। अंततः शर्मनाक बातें उनकी ओर से वेब पन्ने पर छपने लगीं। बहस की बेशर्मी वाले पहलू की पराकाष्ठा तो तब हो गयी, जब गुस्से में उन्होंने आरक्षण के समर्थन में "हमारी (उनके अनुसार तथाकथित सवर्णों की) माँ-बहनों को तथाकथित दलितों और आरक्षण-प्राप्त अन्य जातियों के पुरुषों के साथ बिस्तर पर सोने की छूट मिलने जैसी बातें लिख डाली।" हम तो हतप्रभ हो गए। वैसे तो उनकी इस तरह की कुछ अभद्र कही/लिखी बातें, मेरे लिए ज्यादा आश्चर्यजनक बातें नहीं थी। क्योंकि तब मुझे पुरखों की कही गयी, बहुत पते की एक पुरानी बात मेरे दिमाग में अचानक कौंध कर मेरे मन को शांत कर गयी; कि "बहुत गुस्से में या बहुत ही ख़ुशी में इंसान अपनी मातृभाषा का ही उपयोग कर जाता है। उस समय उनकी स्व-भाषा के साथ-साथ उनकी मानसिकता के अंतस का भी पता चल पाता है।" ऐसा ही उस विख्यात किन्नर मोहतरमा ने दिखलाया भी। पर उस वक्त तो तत्क्षण फेसबुक को देखना उचित नहीं समझते हुए, देखना बन्द कर दिया।

पर जब उसी दिन शाम तक दुबारा फेसबुक पर झाँका, तो पाया कि उनकी तरफ से हम 'अनफ्रैंड' यानी तड़ीपार किए जा चुके हैं। अफ़सोस इस बात की रही, कि हम वेब पन्ने के उस अपशब्द वाले हिस्से का स्क्रीन शॉट (Screen shot) नहीं ले पाए थे, जिसे उन किन्नर मोहतरमा की कलुषिता को प्रमाण के तौर पर, उस दिन या आज भी दिखलाने पर, उनको आदर देने वाले सभी पटना के बुद्धिजीवियों की आँखें फटी की फटी रह जाती .. शायद ...

दूसरी घटना :-

यह घटना भी एक मोहतरमा से ही जुड़ी हुई है, पर वह किन्नर नहीं हैं। सचमुच में महिला ही हैं और ऐसी-वैसी नहीं, बल्कि पटना शहर में सोशल मीडिया की एक जानी मानी आरजे (RJ -Radio Jockey) रह चुकी हैं या हैं। कई मंचों पर उन के साथ में शरीक़ होने का मौका भी मिला है। लगभग दो-ढाई साल पहले, एक बार उन्होंने कॉपी-पेस्ट (Copy & Paste) कर के दो पंक्तियाँ अपने फेसबुक पर कुछ यूँ चिपका दिया था, कि -"अक़्सर हम साथ साथ टहलते हैं ! / तुम मेरे ज़ेहन में और मैं छत पर !! " हूबहू दो पंक्तियाँ कुछ दिन पहले मेरी नज़रों से किसी एक के इंस्टाग्राम (Instagram) पर गुजरी थी। हमें लगा कि इनमें से कोई एक तो है, जो नक़ल कर रहा/रही है। हमने फेसबुक पर ही 'पब्लिकली' (Publicly) अपनी बतकही वाले मजाहिया अंदाज़ में कुछ यूँ बकबका दिया कि - "एक ही रचना की दो दावेदारी, एक FB पर, दूसरा इंस्टाग्राम पर, बहुत बेइंसाफी है ('शोले' वाले dialogue की पैरोडी के तर्ज़ पर .. आदमी दो और गोली तीन, बहुत बेइंसाफी है रे कालिया) ... वैसे copy & paste का जमाना है भाई 😪😪 "। (वैसे तो शोले फ़िल्म का संवाद था- "गोली छः .. और आदमी तीन .. बहुत बेइंसाफी है रे ...")

यह बात उन मोहतरमा को इतनी नागवार गुजरी कि उन्होंने कुछ दिनों बाद मुझे अपनी मित्रता-सूची से तड़ीपार कर दिया। फिर बाद में इन दो पंक्तियों के सही लेखक/लेखिका को खोजने की हमने कोशिश गूगल पर की तो पता चला कि ये दोनों पंक्तियाँ सोशल मीडिया के तमाम मंचों- फेसबुक, इंस्टाग्राम, यौरकोट, यूट्यूब इत्यादि पर हज़ारों लोगों ने अपने-अपने नाम से कॉपी-पेस्ट कर रखा है। पर इसके मूल रचनाकार का पता नहीं चल पाया। अगर आपको मालूम हो तो बतलाने का कष्ट कीजियेगा। धन्य हैं ! .. ऐसे साहित्य-चोर-चोरनियाँ ! .. नमन है उन सबों को .. बस यूँ ही ...

तीसरी घटना :-

अब संयोग कहें या क़ुदरत का क़माल, तीसरी घटना भी एक मोहतरमा के साथ ही हाल-फिलहाल ही में घटी है। यह भी पटना के कवि सम्मेलनों और मुशायरों में नज़र आती हैं। समाजसेविका भी बतलाती हैं स्वयं को। कई मंचों पर उनके साथ सहभागी बनने का मौका भी मिला है। एक दिन उनकी बिटिया द्वारा पढ़ी गई, अपनी ही एक रचना की वीडियो को उन्होंने अपने फ़ेसबुक पर साझा किया। कविता स्वतंत्रता से जुड़ी हुई थी और कविता व वाचन, दोनों ही, क़ाबिलेतारीफ़ भी थी। उनके घर के बैठकख़ाने में पढ़ी गई, कविता के समय, उनकी बिटिया के पीछे अलमारी पर रखी एक 'एक्वेरियम' (Aquarium) में कुछ मचलती रंगीन समुद्री मछलियाँ दिख रही थीं। स्वतंत्रता की कविता के समय, परतंत्र मछलियों को देख कर, कुछ-कुछ आँखों को खटक रही थी। बस फिर क्या था .. हमने औरों की तरह केवल तारीफ़ के पुल नहीं बाँधे, बल्कि तारीफ़ के साथ-साथ बिटिया को दुआ भी दिया और ... स्वतंत्रता की कविता के समय 'एक्वेरियम' में रखी परतंत्र मछलियों के खटकने की बात भी कह डाली। उस दिन औरों की प्रतिक्रियाओं पर उन्होंने प्रतिदान-प्रतिक्रिया तो दिया, पर मेरे लिए ख़ामोश ही रहीं। उनकी मर्ज़ी। ख़ैर ! ... बात आयी-गयी हो गई। मैं भी भूल गया।

इस साल तथाकथित किसान आंदोलन के नाम पर 26 जनवरी को लाल किले पर हुए हमले और तोड़फोड़ वाली घटना के लगभग सप्ताह-दस दिनों के बाद, लाल किला से सम्बंधित वर्षों पुराने अपने एक लम्बे रोचक यात्रा-वृत्तांत को मोहतरमा ने अपने फ़ेसबुक पर साझा किया। संक्षेप में कहें तो, उस के शुरू और अंत के अंश कुछ यूँ थे - 

"लाल किला

मैं लाल किला हूँ  । जहाँ हमारे देश के प्रधानमंत्री झंडा फहराते हैं।ऊँची -ऊँची दीवारें ,लाल रंग से सजी  हैं। लाल किला अपने दोनों हाथों से वहां आ रहे लोगों का स्वागत करता है, आओ मेरे अन्दर एक इतिहास छिपा है ,मेरी दिवारों को छू कर महसूस करो ।

बात उस वक्त की है, जब मैं अपने परिवार के साथ भारत का दिल कहे जाने वाली दिल्ली गई । गोद में 9 माह का बेटा और 7 साल की बिटिया। .............................................................................

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वहां पर फूलों का बाग भी है। पूरा लाल किला ही अद्भुत है ,पर *लता मंडप तो नायाब है ।बादशाह शाहजहाँ ने कहा था - अगर जमीं पर जन्नत है तो वो *लता मंडप है ,क्योंकि  नमाज़ के बाद बादशाह  शुकून के लिए यहीं बैठा करते थे,  मैं ये सोच रही थी कि पहले के बादशाह अधिक ज्ञानी थे या आज के शासक ,खैर, मेरे अंदर अनेकों सवाल थे। मैं अपने ख्यालों में खो गई और उस वक्त को महसूस करने लगी । मैं लाल किले की शान को देख रही थी । घूमते -,घूमते सूरज कब डूब गया, वक्त का पता ही नहीं चला।रंग बिरंगी रौशनी में नहाया लाल किला बेहद खूबसूरत लग रहा था   ।   मैं अपने बच्चों के साथ सड़क किनारे खड़ी इसे निहार रही थी ।।"

उनके इस संस्मरण के उपर्युक्त अंतिम अनुच्छेद में कही गई दो बातों में पहला- एक "सोच", कि - (1) "बादशाह शाहजहाँ ने कहा था - अगर जमीं पर जन्नत है तो वो *लता मंडप है ,क्योंकि  नमाज़ के बाद बादशाह  शुकून के लिए यहीं बैठा करते थे," और दूसरा- एक "सवाल", कि- (2) "पहले के बादशाह अधिक ज्ञानी थे या आज के शासक " ... कुछ-कुछ अटपटा-सा लगा। पहली वाली बात या सोच तो किसी के आस्था की बात हो सकती थी, पर दूसरी बात वाले उस सवाल पर मन में कई सवाल कौंध गए। हमने अपने मन में आये कुछ ऊहापोह को उस पोस्ट के नीचे सामान्य प्रतिक्रियास्वरूप लिख डाला कि :-

"आपका आलेख-सह-यात्रा वृत्तांत बहुत ही प्यारा है। पर अंतिम अनुच्छेद में पहले के बादशाह और आज के शासक की तुलनात्मक बात कुछ और भी लिखने के लिए मुझे मज़बूर कर गया, सुबह की व्यस्तता भरी दिनचर्या में भी ...

पहले के बादशाह ज़्यादा ज्ञानी थे और ताकतवर के साथ-साथ क्रूर भी , तभी तो उनके पूर्वज दूर-दराज़ के पड़ोसी देशों से यहाँ आ कर आक्रमण कर के अपना नाजायज़ कब्ज़ा जमाते गए और कई अपने से इतर तथाकथित धर्म-स्थलों को तहस-नहस तो करवाया ही और ज़बरन कइयों को धर्मान्तरण के लिए मज़बूर भी किया, तंग करने के लिए अन्य धर्म वालों पर "जजिया कर" तक लगाया।

ख़ैर ! लाल क़िला भले ही गर्व करने की बात हो, पर दिल्ली तो दूर है, कभी अपने पास के बड़ा गुरुद्वारा के मुख्य द्वार के पास बने अज़ायबघर की दीवारों पर टंगी तस्वीरें झाँक भर लें तो .. उन तथाकथित ज्ञानी बादशाहों की काली करतूतों की शर्मनाक दास्ताँ शर्मसार करने के लिए काफ़ी महसूस होती हैं .. शायद ...

अब आज के शासक भला उतने ज्ञानी तो हो ही नहीं सकते क्योंकि वे ज़बरन नहीं शासक बनते, बल्कि हमारी तथाकथित बुद्धिजीवी आबादी के मतों से ही तो चुन कर आते हैं .. शायद ..."





बड़ा गुरुद्वारा,पटना साहिब, पटना के संग्रहालय में इतिहास की चीखों और ख़ून से सनी टंगी तस्वीरों के और उसके नीचे लिखे अनुशीर्षकों के कुछ कोलाज़ हैं, जो बदनाम बादशाहों की क्रूरता को बयान करने के लिए काफ़ी हैं, .. शायद ... सम्बन्धित कई तस्वीरें अंत में भी ..】.

फिर क्या था .. वह अपने फ़ेसबुक पर तो शालीनता के साथ प्रतिदान-प्रतिक्रिया दीं, जिसका screen shot हम नहीं ले पाए। उसके बाद मैसेंजर (Messenger) पर अपनी निम्नलिखित उग्र प्रतिक्रिया देने के बाद .. हमें अपनी तथाकथित मित्रता-सूची से तड़ीपार भी कर दिया। हैरान कर देने वाली उनकी प्रतिक्रिया अक्षरशः :- "नमस्कार भैया मैंने अपनी यादो को लिखा  आप भी गुरुद्वारे या सिख समुदाय को मुस्लिम बादशाह ने जो किया लिखे कलम आपकी राजा आप का अखबार आप का लिखे कौन रोक रहा है  जितना चाहे लिखे" 

प्रतिक्रिया में सबसे चौंकाने वाली बात थी - "राजा आप का" - यहाँ समझ नहीं पाया कि ये "राजा" किस के लिए लिखा गया और "आप का" किसके लिए कहा गया ? यह "राजा" और "आप का" एक प्रश्नवाचक चिन्ह छोड़ गया मन को मथने के लिए .. शायद ...

आइए इन .. "आप का" और "मेरा" के भेद को मिटाने वाली साहिर लुधियानवी जी की एक रचना, मोहम्मद रफ़ी साहब की आवाज़ में एक पुरानी फ़िल्म- "धूल का फूल" के गाने की शक़्ल में सुनते हैं और इस जाहिलियत से भरे मतभेद (मनभेद) को भुलाने की कोशिश करते हैं .. बस यूँ ही ...】.

























Friday, May 8, 2020

बेचारी भटकती है बारहा ...



सारा दिन संजीदा लाख रहे मोहतरमा संजीदगी के पैरहन में
मीन-सी ख़्वाहिशें मन की, शाम के साये में मचलती है बारहा

निगहबानी परिंदे की है मिली इन दिनों जिस भी शख़्स को
ख़ुश्बू से ही सिंझते माँस की, उसकी लार टपकती है बारहा

सोते हैं चैन की नींद होटलों में जूठन भरी प्लेटें छोड़ने वाले
खलिहानों के रखवालों की पेड़ों पे बेबसी लटकती है बारहा

मुन्ने के बाप का नाम स्कूल-फॉर्म में लिखवाए भी भला क्या
धंधे में बेबस माँ बेचारी हर रात हमबिस्तर बदलती है बारहा

पा ही जाते हैं मंज़िल दिन-रात साथ सफ़र करते मुसाफ़िर
पर यहाँ से वहाँ, वहाँ से यहाँ रेल बेचारी भटकती है बारहा

आवारापन की खुज़ली चिपकाए बदन पर हमारे शहर की
हरेक शख़्सियत संजीदगी के लिबास में टहलती है बारहा