Saturday, March 23, 2024

खुसुर-फुसुर ...


ऐ जानम ! ..

आओ ना आज ..

आज की रात ..

मिलकर साथ-साथ ..

छत पर चाँदनी में

डुबकी लगायी जाए

और डाले हुए गलबहियाँ

खुसुर-फुसुर की जाए ..

सारी-सारी रात 

बातें आपसी प्रेम भरी .. बस यूँ ही ...


पास आयेंगे भी जो

हम दोनों तो ..

इतने पास कि ..

बस्स .. गूँथ ही जाएँ 

एक-दूजे में

पपनियाँ हमारी,

ताने-बाने की तरह 

और बुन ही डालें

इक चटाई 

हमारे सतरंगी सपनों की .. बस यूँ ही ...

वस्तु (चित्र ) सौजन्य - "निफ्ट " हैदराबाद )

Thursday, March 21, 2024

पुंश्चली .. (३६) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)

प्रत्येक वृहष्पतिवार को यहाँ साझा होने वाली साप्ताहिक धारावाहिक बतकही- "पुंश्चली .. (१)" से "पुंश्चली .. (३५)" तक के बाद पुनः प्रस्तुत है, आपके समक्ष "पुंश्चली .. (३६) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" .. बस यूँ ही ...  :-

( वैसे गत सप्ताह कुछ अपरिहार्य परिस्थितियों के कारण "पुंश्चली .. (३६)" की बतकही को नहीं बकबका पाने लिए क्षमाप्रार्थी हैं हम .. 🙏 ).

गतांक का आख़िरी अनुच्छेद :-

रेशमा - " दरअसल ये एक गंभीर मानसिक बीमारी है, जिसको 'नेक्रोफिलिया' कहा जाता है। इसके लिए भारत में तो नहीं पर .. ब्रिटेन, कनाडा, न्यूजीलैंड, दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों में तो सजा वाले कानून हैं .. "

गतांक के आगे :-

बेवकूफ़ होटल से खाकर चलते वक्त रेशमा सभी के खाने का भुगतान करने के समय 'काउंटर' पर रखी सौंफ़ और 'कटिंग' मिश्री की कटोरियों में से बेमन से ही सही, पर .. एक-एक चम्मच अपनी बायीं हथेली पर लेकर अपने मुँह के सुपुर्द कर दी थी, अभी भी उसी को चबाते-चूसते हुए .. किसी गुटखे खाने वाले व्यक्ति की तरह सभी के साथ बतियाते हुए एक झुंड की शक़्ल में उस स्थान की ओर बढ़ रही है, जहाँ वक़ील साहब के अनुसार मंगड़ा के 'केस' की आज आख़िरी सुनवाई होनी है और सम्भवतः फ़ैसला भी आने वाला हैं। 

वहाँ पर काफ़ी लोगों की भीड़ में 'मीडिया' वालों के 'कैमरे' और 'माइक' भी नज़र आ रहे हैं। भीड़ के पास आने पर रेशमा और मन्टू को यहाँ के माहौल की गहमागहमी का बरबस ही एहसास हो रहा है। भीड़ के पास आते ही अचानक रेशमा की नज़र शहर के एक नामचीन दैनिक समाचार पत्र के 'रिपोर्टर'- अभिषेक वर्मा पर पड़ी है और उस 'रिपोर्टर' ने भी ठसम-ठस भीड़ के बीच रेशमा को देख लिया है।

अभिषेक - " नमस्कार .. रेशमा जी .. आप यहाँ ?.."

रेशमा - " नमस्कार ! .. दरअसल हमलोग तो यहाँ के बेवकूफ़ होटल में खाने आये थे, तो .. "

अभिषेक - " तो ? .. तो क्या हो गया ? "

रेशमा - " ना .. ना .. हुआ तो कुछ भी नहीं .. पर आपलोगों की भीड़ .. यहाँ ? "

अभिषेक - " हाँ .. एक गूँगे के द्वारा एक नाबालिग लड़की के बलात्कार और उसकी हत्या के ज़ुर्म का आज फ़ैसला आने वाला है। उसी का 'कवरेज' करना है अभी .. "

रेशमा - " पर .. एक बात बोलूँ ? .. "

अभिषेक - " क्या ? "

रेशमा - " इस 'केस' में तो .. ना तो बलात्कारी कोई बड़ा आदमी है और ना ही वो अभागिन बलात्कृत व मृत नाबालिग लड़की .. फिर इस तरह 'कवरेज' करने का मतलब ? .."

अभिषेक - " पता चला है कि उस गूँगे को आज फ़ाँसी की सजा मिलने वाली है। प्रशासन की ओर से इशारा है कि इस ख़बर को अख़बारों और 'न्यूज़ चैनलों' में जगह देनी चाहिए, ताकि बाकी मुज़रिम भविष्य में कभी बलात्कार या हत्या जैसे नृशंस कृत्य करने की हिम्मत नहीं कर पाएँ .."

रेशमा - " आप जिसे दोषी जान या मान रहे हैं .. सच में तो वो निर्दोष है बेचारा .. ( माखन की ओर इशारा करते हुए ) ... यही हैं उस गूँगा के पिता जी .. माखन पासवान .. लाचार और मज़बूर .. "

अभिषेक - " अब सही या गलत का फ़ैसला तो आज अदालत करेगी .. हम सभी तो मूक दर्शक भर हैं .. ख़ैर ! .. छोड़िए भी इन सब बातों को जाने दीजिए .. पहले आप बतलाएं कि .. आजकल आप कवि गोष्टियों में नहीं नज़र आती हैं .. क्यों ? .. "

यूँ तो वर्तमान परिस्थितिवश रेशमा की मानसिक स्थिति या इच्छा भी ऐसी नहीं है, जो अभिषेक के इस प्रश्न का उत्तर दे सके। पर .. अधिकांश भारतीय विवाहिता नारी की तरह ना चाहते हुए भी औपचारिकतावश कई कृत्यों के करने की तरह ही उसे उत्तर देना पड़ रहा है।

रेशमा - " जिन माहौल में पारदर्शिता नहीं हो, वहाँ तो अपना दम घुटता है। उन गोष्टियों में पक्षपात और चाटुकारिता की पराकाष्ठा होती हैं। .. "

अभिषेक - " ओह ! .. अच्छा ? .."

रेशमा - " और नहीं तो क्या .. आप तो बस कुछ मिनटों के लिए आते हैं और एक या दो रचनाकरों के सामने अपने कैमरे की 'फ़्लैश लाइट' चमका कर निकल लेते हैं। 

अभिषेक - " वो तो है .. और भी तो कई जगह 'कवरेज' करनी होती है ना .."

रेशमा - " वैसे भी मैं दावा तो नहीं कर रही, पर .. कम से कम मुझे तो ऐसा ही लगता है, कि वहाँ जिनके नाम के आगे 'डॉक्टर' चिपका होता है .. वो अगर अर्थहीन व बेतुकी तुकबंदी भी कर देते हैं, तो ... उनकी वाहवाही में कोई कसर नहीं छोड़ी जाती .. "

अभिषेक - " अच्छा ! .."

रेशमा - " जब ऊँचे ओहदे वाले कार्यरत या सेवानिवृत्त सरकारी पदाधिकारियों द्वारा अगर कोई फूहड़ 'पैरोडी' भी सुनायी जाती है, तो तारीफ़ करते हुए लोग थकते तक नहीं हैं। .. मुझे तो वैसे भी किन्नर होने के नाते कुछ-कुछ तवज्जो मिल भी जाती है वहाँ .. मुझे एक 'शो पीस' की तरह प्रस्तुत करके .. पर .. उन सब से कहीं बेहतर ही नहीं, बल्कि उम्दा लिखने वाले आम जन की वहाँ कोई क़द्र नहीं होती .."

अभिषेक - " ओह ! .. इतनी राजनीति ! .."

रेशमा - " राजनीति शब्द का अपभ्रंश मत कीजिए .. इसे राजनीति तो नहीं, पर हाँ ..कूटनीति अवश्य कहनी चाहिए "

अभी कचहरी के 'मेन गेट' से जेल की गाड़ी के प्रवेश करने के कारण सभी का ध्यान उस ओर चला गया है। पर मन्टू का ध्यान तो रेशमा और 'प्रेस रिपोर्टर' की बातों पर अटका हुआ है। इतनी अफ़रातफ़री में भी उस से रहा नहीं गया और रेशमा से आश्चर्य के साथ पूछ रहा है।

मन्टू - " ये गोष्टी-मुशायरे में कब से जाने लगी हो ? .. हम तो आज पहली बार जान पा रहे हैं .. "

रेशमा - " (मुस्कुराते हुए) अरे भई .. इसमें जानने जैसी कोई बात ही नही है .. वैसे मयंक और शशांक भईया को इसकी जानकारी है, क्योंकि कभी कभार हम अपनी लिखी हुई बक़वास उन्हीं लोगों से 'चेक' करवाते हैं .. "

मन्टू - " अच्छा ! .."

रेशमा - " जब कभी उन लोगों को फ़ुर्सत रहती है, तो वे लोग आते भी हैं उन कार्यक्रमों में .. वैसे आपको इस बात पर इतनी हैरानी क्यों हो रही है ? .. जो मन की बातें हम जैसे संवेदनशील लोग किसी भी सजीव प्राणी को साझा कर पाने में स्वयं को अक्षम मानते हैं, तो .. उन्हीं बातों को बेजान पन्नों से साझा कर देते हैं .. उसी को लोग कविता, कहानी, गीत, दोहा-चौपाई, शायरी, ग़ज़ल इत्यादि का नाम दे देते हैं .."

अब तक जेल वाली गाड़ी वहाँ उपस्थित उतावली भीड़ के पास आकर रुक गयी है। माखन का ठठरीनुमा कमजोर शरीर भीड़ को चीर कर उस गाड़ी से बाहर निकल रहे अपने मंगड़ा के पास तो नहीं जा पा रहा है, पर उसकी कोटर में धँसी हुई डबडबायी कमजोर व निस्तेज आँखें टकटकी लगाए मंगड़ा को ही देखना चाह रहीं हैं।

रेशमा की नज़र अचानक पास ही खड़े माखन के कंपकंपाते शरीर पर पड़ी है, जो स्वयं की रुलाई को रोकने के कारण काँप रहा है। रेशमा उनके दोनों कंधे पर अपनी दोनों हथेलियों का दबाव महसूस करवाते हुए उन्हें सांत्वना देने की कोशिश कर रही है। ऐसा करते हुए उनकी आवाज़ भी भर्रा गयी है। 

कोई भी इंसान जब कभी भी किसी अन्य दुःखी इंसान के लिए पनपी सहानुभूति के दायरे को फाँद कर समानुभूति के दामन में समाता है, तो .. उसकी भी मनोदशा .. कुछ-कुछ रेशमा जैसी ही हो जाती है। कहते हैं कि .. बहुत ही उत्तम प्रारब्ध होता है उनलोगों का .. जिनके लिए हर परिस्थिति में हर पल किसी अपने या पराए की समानुभूति की प्रतीति होती हैं .. शायद ...

【आज बस .. इतना ही .. अब शेष बतकहियाँ .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (३७) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】


Monday, March 18, 2024

तीन तार की चाशनी ...


परतों के पल्लू में

सिमटी-सी,

सिकुड़ी-सी,

मैं थी ..

पके धान-सी।

मद्धिम .. मद्धिम 

आँच जो पायी,

प्रियतम 

तेरे प्यार की;

खिलती गयी,

निखरती गयी, 

मंद-मंद ..

मदमाती-सी,

खिली-खिली-सी

खील-सी खिल कर .. बस यूँ ही ...


था मन मेरा 

चाशनी ..

एक तार की, 

जो बन गयी

ना जाने कब ..

ताप में तेरे प्रेम के,

एक से दो .. 

दो से तीन ..

हाँ .. हाँ .. तीन ..

तीन तार की चाशनी

और ..

जम-सी गयी,

थम-सी गयी ..

मैं बताशे-सी 

बाँहों में तेरे प्रियवर .. बस यूँ ही ...


अमावस की रात-सी

थी ज़िन्दगी मेरी,

हुई रौशन 

दीपावली-सी,

दीपों की आवली से

तुम्हारे प्रेम की।

यूँ तो त्योहार और पूजन

हैं चोली-दामन जैसे।

फिर .. पूजन हो और ..

ना हों इष्ट देवता या देवी,

ऐसा भला होगा भी कैसे ?

अब .. तुम्हीं तो हो

इष्ट मेरे और .. तेरे लिए नैवेद्य ..

खील-बताशे जैसा मेरा तन-मन,

समर्पित तुझको जीवन भर .. बस यूँ ही ...