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Friday, October 16, 2020

किस्तों में जज़्ब ...

 " मानव-शरीर में पेट का स्‍थान नीचे है, हृदय का ऊपर और मस्तिष्‍क का सबसे ऊपर। पशुओं की तरह उसका पेट और मानस समानांतर रेखा में नहीं है। जिस दिन वह सीधे तनकर खड़ा हुआ, मानस ने उसके पेट पर विजय की घोषणा की। " - " गेहूँ बनाम गुलाब " नामक रचना में रामवृक्ष बेनीपुरी जी की ये विचारधारा उच्च विद्यालय में हिन्दी साहित्य के अपने पाठ्यक्रम के अन्तर्गत पढ़ने के बाद से अपने टीनएज वाले कच्चे-अधपके मन में स्वयं के मानव जाति (?) में जन्म लेने पर गर्वोक्ति की अनुभूति हुई थी।

बेनीपुरी जी के इस तर्क को अगर सआदत हसन मंटो जी अपनी भाषा में विस्तार देते तो वह पेट के नीचे यानि प्रजनन तंत्र वाले कामपिपासा की भी बात करते और कहते कि पशुओं की तरह मानव शरीर में यह अंग भी पशुओं की तरह समानांतर नहीं है, बल्कि क्रमवार मस्तिष्‍क, हृदय और पेट से भी नीचे है। एक और ख़ास ग़ौरतलब बात कि पशुओं से इतर मानव-शरीर काम-क्रीड़ा के क्षणों में आमने-सामने होते हैं। मानव के सिवाय धरती पर उपलब्ध किसी भी अन्य प्राणियों में ऐसा नहीं देखा गया है या देखा जाता है कि रतिक्रिया के लम्हों में उनकी श्वसन तंत्र और उसकी प्रक्रिया एक-दूसरे के आमने-सामने हों .. शायद ...

पर इतनी सारी विशिष्टता की जानकारी के बावज़ूद भी बाद में ना जानें क्यों .. हमारे वयस्क-मानस को लगने लगा कि कई मायनों में पशु-पक्षियों की जातियाँ-प्रजातियाँ हम मनुष्यों की जाति-प्रजाति से काफ़ी बेहतर हैं। उनके समूह में कभी मानव समाज की तरह किसी बलात्कार की घटना के बारे में ना तो सुनी गयी है और ना ही देखी गयी है। पशु-पक्षियों के नरों को क़ुदरत से वरदानस्वरुप मिली अपनी-अपनी मादाओं को रिझाने की अलग-अलग कलाओं द्वारा वे सभी अपनी-अपनी मादाओं को रिझाते हैं, फिर उनकी मर्ज़ी से ही काम-क्रीड़ा या रतिक्रिया करते हैं। और तो और हम मानव से इतर क़ुदरत ने उनके काम-क्रीड़ा का अलग-अलग एक ख़ास मौसम प्रदान किया है, जिसके फलस्वरूप उनकी भावी नस्लों की कड़ियाँ आगे बढ़ती है। साथ ही हम मानव की तरह ना तो वे हस्तमैथुन करते हैं और ना ही अप्राकृतिक या समलैंगिक सम्बन्ध बनाते हैं।

ऐसे मामलों के कारण सारे अंग यानि मानस, हृदय, पेट और पेट के नीचे वाले प्रजनन अंगों के समानांतर होते हुए भी पशु-पक्षी हम मानव से बेहतर प्रतीत होते हैं, भले हम मानवों में यही सारे अंग क्रमशः क्रमबद्ध ऊपर से नीचे की ओर ही क्यों ना प्रदान किया हो क़ुदरत ने। कम-से -कम उनके समाज में बलात्कार तो नहीं होता है ना .. शायद ...

वैसे तो क़ुदरत ने हमें पशु-पक्षियों के तरह ही अपनी नस्लों की कड़ियों को आगे निरन्तर बढ़ाने के लिए ही प्रजनन-तंत्र प्रदान किया है। पर हम भटक कर या यूँ कहें कि बहक कर इनका दुरुपयोग करने लगे। सरकार ने 9वीं व 10वीं के जीव-विज्ञान के पाठ्यक्रम में हमारी भावी पीढ़ी के समक्ष उनके भावी जीवन में यौन-शिक्षा के उपयोग पर विस्तार  से प्रकाश डालने की कोशिश की है। पर हम अपने युवा से इन विषयों पर बात-विमर्श करने से कतराते हैं अक़्सर। हमारे तथाकथित सुसभ्य और सुसंस्कृत समाज में इन विषयों पर लोगबाग प्रायः बात लुक-छिप कर करते हैं या फिर करने वाले को बुरा इंसान मानते हैं, जबकि आज हम उसी के कारण ही तो पूरे विश्व में चीन के बाद दूसरे नम्बर पर पहुँचने का गर्व प्राप्त किये हैं। हो सकता है कल ..  कुछ दशकों के बाद चीन को मात देकर जनसंख्या के संदर्भ में हम विश्वविजयी बन जाएं .. शायद ...

हालांकि हमारे पुरखे साहित्य और संगीत के योगदान से हम मानवों को पशु से बेहतर साबित करने की युगों पहले से प्रयास करते आ रहे हैं। लेकिन दोहरी मानसिकता वाले मुखौटे अगर हम उतार फेंके अपने वजूद से , तभी बेनीपुरी जी की सोच सार्थक होने की सम्भावना दिख पाएगी .. शायद ...

वैसे तो पशु-पक्षियों के मन में भी तो प्रेम-बिम्ब बनते ही होंगे .. शायद ... परन्तु उनसे इतर हम इंसान अपने मन-मस्तिष्क में जब कभी भी प्रेम से ओत-प्रोत बिम्ब गढ़ते हैं तो उन्हें कागज़ी पन्नों पर या वेब-पन्नों पर शब्दों का ज़ामा पहना कर उतार पाते हैं और अन्य कुछ लोगों से साझा भी कर पाते हैं। वैसे तो .. अनुमानतः .. बिम्ब तो बलात्कारी भी गढ़ते होंगे ,  पर वीभत्स ही .. शायद ... 

ख़ैर ! .. हमें क्या करना इन बातों का भला ! है कि नहीं ? हमें तो अपने पुरखों के कहे को लकीर का फकीर मान कर उनका अनुकरण करते जाना है .. बस .. और मन ही मन दोहराना या बुदबुदाना है कि - 

" सीता राम सीता राम, सीताराम कहिये,

 जाहि विधि राखे राम, ताहि विधि रहिये। "

फिलहाल तो  ..  प्रेम से ओत-प्रोत ऐसे ही कुछ बिम्बों को शब्दों का जामा पहना कर आज दो रचनाओं/विचारों से वेब-पन्ने को भरने की हिमाक़त कर रहा हूँ .. बस यूँ ही ...

(1)  तमन्नाओं की ताप में

चाहत के चाक पर तुम्हारे

मेरी सोचों की नम मिट्टी 

गढ़ सकी जो एक सुघड़ सुराही

और फिर पकी जो तुम्हारी 

तमन्नाओं की ताप में कहीं ..


तो भर लूँगा उस पकी

सुराही में अपनी, सोचों की 

गंगधार को प्रेम की तुम्हारी

और अगर पक ना पायी

और गढ़ भी ना पायी 

कहीं जो सोचों की नम मिट्टी ..


तो बह चलेगी फिर

मेरी सोचों की नम मिट्टी 

संग-संग .. कण-कण ..

अनवरत .. निर्बाध .. 

प्रेम की गंगधार में तुम्हारी ..

बस यूँ ही ...


(2)  किस्तों में जज़्ब


मन के 

लिफ़ाफ़े में

परत-दर-परत

किस्तों में जज़्ब

जज़्बातों को मेरे,


कर दो ना

सीलबंद 

कभी अपने नर्म-गर्म 

पिघलते-पसरते

एहसासों की लाह से,


ब्राह्मी लिपि में उकेरे

शब्दों वाले अपने 

लरज़ते होठों की

मुहर रख कर .. 

बस .. एक बार

शुष्क होठों पर मेरे ...





Saturday, June 6, 2020

नासपीटा कहीं का ...


यूँ तो अच्छी नस्लों को कब और कहाँ ..
अपने समाज के लिए सहेजा हमने ?
सुकरात को ज़हर दे कर मारा हमने,
ईसा को भी सूली पर चढ़ाया हमने,
दारा शिकोह को मार डाला उसके ही अपनों ने
ऐसे कई अच्छे डी एन ए को तो
सदा वहीं नष्ट कर डाला हमने।
और कई दार्शनिक, वैज्ञानिक और
बुद्धिजीवी भी तो रह गए कुँवारे ताउम्र।
ना इनकी भी कोई संतति मिल पायी
बहुधा समाज को हमारे।

फिर ईसा पूर्व में हखामनी साम्राज्य के
दारा प्रथम का पहला सफल हमला
और फिर यूनान, शक़, हूण से लेकर
अंग्रेजों तक का निरन्तर आना
हुए यहाँ कई-कई समर ..
हुए यहाँ कई-कई ग़दर,
हुए कई-कई देखे-अनदेखे जुल्मोंसितम ..
कई कहे-अनकहे क़हर,
लूटे गए कई बसे गाँव-घर ..
कई-कई बसे-बसाए शहर।

आक्रमण कर के कुछ का लूटपाट करना, 
कुछ का शोषण करना,
कुछ का तो वर्षों तक शोषण
और शासन भी करना।
कुछ का औपनिवेशिक जमीन से
अपने वतन लौट जाना,
कुछ का अपनी आबादी का
तादाद बढ़ाते हुए यहीं बस जाना।
जाने वालों का कुछ-कुछ यहाँ से ले जाना
और साथ ही कुछ-कुछ हमें दे जाना।

कुछ-कुछ नहीं .. शायद ... बहुत-बहुत कुछ ..
ले जाना भी और दे जाना भी।
बड़ी से बड़ी भी ..  मसलन- कई इमारतें
और छोटी से छोटी भी .. मसलन- अपने डी एन ए को
शुक्राणुओं की शक़्ल में .. शायद ...
हाँ , सूक्ष्म शुक्राणुओं की बौछार ..
ज़बरन, ज़ोर-ज़बर्दस्ती लूटी औरतों की
चीखों से बेख़बर हर बार..
उनकी कोखों में .. हर बार .. बारम्बार
बस बलात्कार ही बलात्कार।
अब भला उनकी वो संकर
औलादें कहाँ हैं ? .. कौन हैं ?
हम में से ही कोई ना कोई तो है ? .. है ना ? ..

अब जीव-विज्ञान तो है महज़ एक विज्ञान ..
क़ुदरत का एक है वरदान।
अब इन शुक्राणुओं को और
अंडाणुओं को भी भला कहाँ है मालूम कि ..
सम्भोग करने वाला .. पति है या प्रेमी
या फिर लूटेरा या बलात्कारी कोई।
वो तो मिलते ही बस .. बनाने लग जाते हैं
युग्मनज गर्भों में बस यूँ ही ...।
ये विज्ञान या क़ुदरत भी न अज़ीब है ..
मतलब .. नीरा बेवकूफ भी।
पूरी तरह धर्मनिरपेक्ष है।
जाति निरपेक्ष और देश निरपेक्ष भी।
जरा भी .. भेद करना जानता ही नहीं
नासपीटा कहीं का ... हमारी तरह कभी।

फिर जब राजतंत्र और शासन थे तो ..
शासक का होना था लाज़िमी
और इन राजाओं और बादशाहों की
रानियां, पटरानियाँ और बेग़में भी तो थीं ही
साथ ही हरम में रखैलें, दासियाँ भी
अनगिनत थीं हुआ करतीं।
अनगिनत रखैलों की नस्लों की तादाद भी तो
वाजिब है अनगिनत ही होगी .. है कि नहीं ?
हमारे बीच ही तो हैं ना वो हरम में
जन्मीं औलादों की नस्लें आज भी ?

सोचता हूँ कभी-कभी कि ..
लगभग हजार साल पहले
महमूद गजनवी के सोलहवें
आक्रमण के समय 1025 ईस्वी में
कोई ना कोई तो हमारा भी
एक अदना-सा पूर्वज रहा होगा ?
पर भला कौन रहा होगा ?
जिसके डी एन ए का अंश आज हमारा होगा
मुझे तो पता ही नहीं .. तनिक भी नहीं।

शायद आपको पता होगा ..
शायद नहीं .. पक्का ही ..
हाँ .. हाँ .. आपको तो पता होगा ही ..
हजार क्या, हजारों-हजार साल पुराने भी
वंश बेल की अपनी हर पुरानी
शाखाओं-उपशाखाओं की जानकारी।
शान से कहते हैं तभी तो
अकड़ा कर गर्दन आप अपनी कि ..
आप हैं किसी ना किसी देवता
या ऋषि के कुल की विशुद्ध संतति।


पर हमने जो अपने गिरेबान में झाँका ..
जब कभी भी .. जहाँँ कहीं भी .. बार-बार झाँका,
हजार साल पहले के मेरे पुरख़े का
फिर भी मालूम कुछ भी मुझे चला नहीं।
तभी तो हम अपनी जाति-धर्म के लिए
अपनी गर्दन कभी भी अकड़ाते  नहीं।



Thursday, April 30, 2020

मेरी ख़ातिर गाओ ना पापा ...



● (अ) ख़ासकर गर्मी की छुट्टियों की दुपहरी में :-
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Storytelling यानी हिन्दी में जिसे कहानीकारी कहते हैं। हाँ , यही कहते हैं इस विधा को। जिसमें Storyteller अर्थात कहानीकार अपनी बात प्रभावी तरीके से कहता है।
कहानीकारी आज की युवा पीढ़ी के लिए ओपन मिक (Open Mic ) के मंच से रूबरू या यूट्यूब के माध्यम से इंटरनेट के माध्यम से अपने दर्शकों को कोई भी कहानी, घटना, संस्मरण या आपबीती संवेदनशील और जीवंत तरीके से कहने के लिए या यूँ कहें कि श्रोता या दर्शक के दिल में उतरने के लिए एक सशक्त माध्यम है।
कहानीकारी या Storytelling संज्ञा भले ही नयी युवा पीढ़ी को नयी लग रही हो पर बात पुरानी है। मोबाइल और टी वी के आने से पहले तक के बाल या युवा पीढ़ी के लिए अपने-अपने बुजुर्गों द्वारा रातों में या छुट्टी के दिनों में ख़ासकर गर्मी की छुट्टियों की दुपहरी में भावपूर्ण सुनाई गई राजा-रानी की कहानियाँ या जातककथाएं कहानीकारी ही तो थी। जिसमें कई दफ़ा हम डरते भी थे, रोते भी थे, हँसते-हँसते लोटपोट भी होते थे। किसी चलचित्र की तरह कहानी का पात्र और घटनाएँ आँखों के सामने से गुजरती हुई महसूस होती थी।
हिन्दी विकिपीडिया के अनुसार कहानीकारी (Storytelling) कहानियाँ बनाने व सुनाने की समाजिक व सांस्कृतिक क्रिया होती है। हर संस्कृति की अपनी कहानियाँ होती हैं, जिन्हें मनोरंजन, शिक्षा, संस्कृति के संरक्षण और नैतिक सिद्धांतों के प्रसार के लिये सुनाया जाता है। कहानियों और कहानिकारी में कथानक, पात्रों, घटनाओं और दृष्टिकोणों को बुनकर प्रस्तुत किया जाता है।


● (ब) सारे मर्द भोंकार पार कर रोने लगते हैं :-
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वैसे तो एक-दो और भी सदियों पुराने सशक्त उदाहरण हैं इस कहानीकारी के। वैसे इसे कहानीकारी कहने से शायद किसी की धार्मिक भावना आहत हो। तो इसको कहानीकारी जैसी कह सकते हैं। प्राचीनकाल में मनीषीजन अपने भक्तसमूह या भक्तवृंद को श्लोकों के माध्यम से मुँहजुबानी कथा के तौर पर ही तो सुनाया करते होंगे शायद।
पर शामे गरीबा तो इसका जीता-जागता उदाहरण है।
चूँकि हमारे पापा 90 के दशक में लगभग आठ वर्षों तक बिहार के सीवान जिला के हुसेनगंज प्रखंड में बिहार सरकार के मुलाज़िम थे, तो प्रायः छुट्टियों में वहाँ जाने और वहाँ की जिन्दगानी से रूबरू होने का मौका भी मिलता था। वहाँ के कुछ मूल निवासी तथाकथित शिया मुसलमानों से गहरी दोस्ती हो गई थी, तो हम दोनों एक दूसरे के त्योहारों और पारिवारिक या सामूहिक आयोजनों में बिंदास पारिवारिक सदस्य की तरह एक दूसरे के घर आते-जाते थे। तब आज की तरह कोई भेद-भाव नहीं होता था हमारे बीच। वैसे तो इंशा अल्लाह आज भी नहीं है। वहीं मुझे शामे गरीबा में शरीक होने का मौका मिला था।
मोहर्रम के समय कर्बला में ताजिया दफन करने के बाद शिया आबादी वाले इलाकों में शामें गरीबा की मजलिस आयोजित की जाती है। इस दौरान लोग बिना फर्शे अजा बिछाए खाक पर बैठ कर खिराजे अकीदत पेश करते हैं। मजलिस के दौरान चिराग गुल कर दिए जाते हैं। इस दौरान करबला का वाकया सुनाया जाता है। 
इन की मान्यता के अनुसार दस मोहर्रम को इमाम हुसैन को उनके 71 साथियों के साथ यजीदी फौज ने शहीद कर दिया और उसके बाद यजीदी फौज ने ख्यामे हुसैनी में आग लगा दी, जिससे ख्यामे हुसैनी के बच्चे सहम गए तथा यजीदी फौज ने इमाम हुसैन की बहन व नवासी ए रसूल जनाबे जैनब व अन्य औरतों की चादरें छीन लीं तथा शाहदते इमाम हुसैन के बाद यजीदी फौज ने इमाम हुसैन के छः  माह के बेटे हजरत अली असगर की कब्र खोदकर हजरत अली असगर के तन व सिर जुदा कर दिया तथा इमाम हुसैन की चार साल की बेटी जनाबे सकीना के गौहर छीन लिए थे।
शामे गरीबा की मजलिस में शाहदते इमाम हुसैन व असीरा ने कर्बला का बयान सुनकर अजादारों की आँखें नम हो जाती हैं। इसे सुनकर  उपस्थित जनसमूह विशेषकर सारे मर्द भोंकार पार कर रोने लगते हैं।
                                     तात्पर्य यह है कि कर्बला की शहादत को इतनी शिद्दत से कही जाती है कि सुनने वाला उस दृश्य में डूब कर ग़मगीन हो कर रोने लगता है। तो ये है ताकत कहानीकारी की।
                                    

● (स) मेरे सामने खड़ी मेरी बेटी मुझ से कह रही है :-
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हमने भी एक प्रयास किया है कहानीकारी की एक स्क्रिप्ट लिखने की और कहने/पढ़ने/अभिनीत करने की भी। इसे लिखते वक्त मैं स्वयं को उस बेटी का पिता महसूस कर रहा था। लिखते वक्त लग रहा था कि मेंरे सामने खड़ी मेरी बेटी मुझ से कह रही है ये सारी बातें। वही सारी बातें स्क्रिप्ट में उतर कर आई है। ना जाने क्यों आँखें बार-बार नम हो जा रही थीं हमारी।
                           गत वर्ष 07.04.2019 को एक Open Mic में युवाओं के बीच इसे पढ़ा भी था। जिसे उन लोगों ने यूट्यूब पर उपलोड भी किया था। इस कहानी/घटना में एक बेटी अपने ग़मगीन, ख़ामोश .. मौन पापा से अपनी बात कह रही है। पापा के मौन की वजह और बेटी की बातें या मनुहार का कारण आपको इस की स्क्रिप्ट से या वीडियो से पता चल जाएगा। इसके स्क्रिप्ट के साथ वो वीडियो भी संलग्न है आप लोगों के लिए।


● (द) मैं चीख़ती तो .. आप आते ना पापा? .. आते ना पापा?..
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 ( कहानीकारी का मूल स्क्रिप्ट :-)
" पापा ! .. आज फिर से एक बार मेरी ख़ातिर गाओ ना पापा। जो मेरे बचपन में अक़्सर मेरे लिए गाया करते थे आप - ' मेरे घर आई एक नन्हीं परी ... ' ... आप .. ख़ामोश क्यों हो पापा ? आपकी लाडली परी के पर क़तर दिए गए हैं इसीलिए ? बोलो ना पापा ! 
याद है पापा, जब पहली बार अपने कपड़े पर ख़ून के धब्बे देख कर कितनी डर गई थी मैं। कितनी घबरायी हुई स्कूल से घर आई थी मैं। पर जब माँ ने समझाया कि बेटा ! ये तुम्हारे बच्ची से बड़ा हो जाने का संकेत है। भगवान ने हम औरतों को ही तो ये अनमोल तोहफ़ा दिया है। हम मानव नस्ल की रचयिता हैं। हम पीढ़ी दर पीढ़ी की रचना करते हैं बेटी। तब मैं बहुत गर्व महसूस कर रही थी। आप कुछ बोल नहीं रहे थे। केवल मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे। मैं कितना शरमा रही थी तब आप से। है ना पापा? रोज़ प्यार से आपके गले लगने वाली आपकी लाडली आपके सामने आने से भी क़तरा रही थी।
पर उस दिन तो ... उन चारों ने मिल कर नंगा ही कर दिया था पापा। पूरी तरह नंगा। मैं कितना शरमायी थी पापा। "

" याद है एक बार मेरी ऊँगली कट गई थी। ख़ून बह रहा था और मैं जोर-जोर से रो रही थी। आप दौड़े-दौड़े आनन-फानन में गलती से Dettol की शीशी ले आये थे मेरे पास ... मैं और भी जोर से रोने लगी थी। फिर आपको अपनी भूल की एहसास हुई थी और आप दुबारा जाकर Savlon की बोतल ले कर आये थे, क्योंकि आपको पता था पापा कि Dettol से आपकी लाडली बिटिया को बहुत जलन होती है। पर घर में तो रखना पड़ता है ना। कारण .. माँ को इसकी महक पसंद है।
पर उस दिन तो ना Dettol था और ना Savlon .. सिर्फ़ .. ख़ून .. दर्द .. और मैं ... मैं किस तरह झेल रही थी पापा ...। पर .. उन चारों को कोई एहसास नहीं था मेरे दर्द का। होता भी भला कैसे ? वे चारों भी तो उसी समाज की पैदाइश थे ना पापा, जहाँ बलि और क़ुर्बानी के नाम पर मासूमों का ख़ून बहाया जाता है। उस बलि और क़ुर्बानी के वक्त उन्हें उन निरीह मासूम पशुओं की चीख कहाँ सुनाई देती है भला? उनकी मौत और ख़ून पर जश्न मनाते हैं ये समाज वाले। मैं तो कम से कम ज़िन्दा हूँ ना पापा .. पर कतरी परी की तरह ही सही .. पर ज़िन्दा हूँ ना पापा? गाओ ना पापा -' मेरे घर आई एक नन्हीं परी .... ' "

" याद है ना पापा .. एक रात पढ़ते वक्त मेरे study table पर छत्त से छिपकली टपक पड़ी थी। मैं कितनी जोर से चीख़ी थी। याद है ना पापा ? आप दूसरे कमरे से शायद अपना favorite T.V. show .. रजत अंकल वाली 'आप की अदालत' .. वो भी अपने favorite artist पंकज कपूर की अदालत छोड़ कर दौड़े-दौड़े आये थे और मिनटों मुझे गले से लगाए रखे थे। ताकि उस वक्त मेरा डर और heart beat दोनों कम हो।
पर उस दिन .. उस दिन तो चीख भी नहीं पाई थी पापा। उन चारों ने पूरी तरह जकड़ रखा था। एक ने मेरे दोनों हाथ .. एक ने दोनों पैर .. एक ने जोर से मुँह दबा रखा था और एक ........... बहुत दर्द हो रहा था पापा .... चारों ने बारी-बारी से आपस में अपने जगह बदले और मैं ... चारों बार तड़पी .. बस तड़पी पापा ... चीख भी नहीं पा रही थी पापा। मेरी हालत का अंदाजा नहीं लगा सकते आप .. उस से अच्छा माँ के गर्भ में ही मुझे मार देते पापा।
मैं चीख़ती तो .. आप आते ना पापा? .. आते ना पापा?.. आप .. आप आते ना पापा? मैं चीख़ती .. आप आ जाते .. फिर मैं बच जाती ना पापा .. आँ ?
आप ठीक ही कहते हैं - ये भगवान नहीं होता। "

" माँ !! अब आप भी मान लो पापा की बात कि भगवान नहीं होता है। भगवान या अल्लाह केवल इंसान के बनाए धर्मग्रथों और मंदिर-मस्जिदों में होता है। फिल्मों और टी वी सीरियलों में होता है। अगर सच में होता तो मुझे बचा लेता ना माँ उन वहशी दरिंदों से? बचा लेता ना ? "

" है ना पापा ? बोलो ना पापा। गाओ ना पापा .. प्लीज .. एक बार .. बस एक बार .. अपनी पर कटी परी के लिए - ' मेरे घर आई एक नन्हीं परी, एक नन्हीं परी .. एक नन्हीं परी ...' "                       
********************************************** आप इसे पढ़िए या देखिये या दोनों ही कीजिए। पर बतलाना मत भूलियेगा कि इस वीडियो ने आपकी आँखों को नम किया या नहीं ... 🤔🤔🤔

◆ वीडियो ( Video ) ◆ :-



Sunday, December 22, 2019

भला कौन बतलाए ...

कर पाना अन्तर हो जाता है मुश्किल
न्याय और अन्याय में रत्ती भर भी 
हो जब बात किसी की स्वार्थसिद्धि की
या फिर रचनी हो कड़ी कोई नई सृष्टि की
ये न्याय है या अन्याय .. भला कौन बतलाए ...

जिसे कहते हैं माँ हम शान से बड़े ही
कब सुन पाते हैं भला हम चीत्कार धरती की
अनाज की ख़ातिर चीरते हैं इसकी छाती
चलाते हैं हल बेझिझक रौंद कर इसकी मिट्टी
ये न्याय है या अन्याय .. भला कौन बतलाए ...

और कब महसूस कर पाते हैं हम भला
पीड़ा मूक कसमसाती शीलभंग की
अनदेखी की गई रिसते लहू में मौन
पीड़ा पड़ी जब कभी भी है छटपटाती
ये न्याय है या अन्याय .. भला कौन बतलाए ...

हाँ .. कर ही तो देते हैं अनदेखी
हर बार चित्कार हर प्रसव-पीड़ा की
वो जानलेवा दर्द .. वो छटपटाहट .. और
चीखें अक़्सर नव-रुदन में हैं दब जाती
ये न्याय है या अन्याय .. भला कौन बतलाए ...

"अरुणा शानबाग " .. बलात्कृत एक नाम
रही जो 42 सालों तक 'कोमा' में पड़ी
तब भी क़ानून से इच्छा-मृत्यु नहीं मिली
अपनों (?) से उपेक्षित वर्षों लाश बनी रही
ये न्याय है या अन्याय .. भला कौन बतलाए ...

"सुकरात" हो या फिर "सफ़दर हाशमी"
"निर्भया".. "गौरी लंकेश" हो या "कलबुर्गी"
फ़ेहरिस्त तो है इनकी और भी लम्बी
क्षतिपूर्ति है क्या दोषी को सजा मिलना भर ही
ये न्याय है या अन्याय .. भला कौन बतलाए ...

वैसे भी भला न्याय की उम्मीद कैसी
जहाँ हुई जाती है हर बार ये तो दुबली
भुक्तभोगी से भी ज्यादा चिन्ता में
अपराधीयों के मानवाधिकार की
ये न्याय है या अन्याय .. भला कौन बतलाए ...

(निश्चेतवस्था-कोमा-Coma)



Thursday, December 19, 2019

हम कब होंगें कामयाब ...?

" हम होंगे कामयाब एक दिन "... जैसा मधुर , कर्णप्रिय और उत्साहवर्द्धक समूहगान जिसे हम में से शायद ही कोई होगा, जिसने जन्म लेने और बोलना शुरू करने के बाद विद्यालय जाने वाले बचपन से लेकर अब तक ..चाहे वह जिस किसी भी आयुवर्ग का हो, वह लयबद्ध गाया ना हो या फिर सुना या गुनगुनाया ना हो। जब कभी भी हम निजी जीवन में भी नकारात्मक भाव से ग्रसित होते हैं तो यह समूहगान हमें तत्क्षण ऊर्जावान कर देता है। कई बार तो इस गाने को हम गुनगुनाते हुए स्वयं को और कभी कभार अपनों या अन्य को भी आशावान बना देते हैं। उम्मीद के पौधों को कुम्हलाने से बचाने का प्रयास करते हैं।
इसके विषय में कुछ अन्य बातों की चर्चा आगे बढ़ाने के पहले , उस गाने को हम गा या गुनगुना या सुन नहीं सकते तो कम से कम आइए एक बार हम सब मिल कर पढ़ ही लेते हैं -

"होंगे कामयाब, होंगे कामयाब
हम होंगे कामयाब एक दिन
हो-हो मन में है विश्वास, पूरा है विश्वास
हम होंगे कामयाब एक दिन
होंगी शांति चारो ओर
होंगी शांति चारो ओर
होंगी शांति चारो ओर एक दिन
हो-हो मन में है विश्वास, पूरा है विश्वास
होंगी शांति चारो ओर एक दिन
नहीं डर किसी का आज
नहीं भय किसी का आज
नहीं डर किसी का आज के दिन
हो-हो मन में है विश्वास, पूरा है विश्वास
नहीं डर किसी का आज के दिन
हम होंगे कामयाब एक दिन ... "

दरअसल यह समूहगान अंग्रेजी भाषा की रचना (जिसकी चर्चा आगे करते हैं) से हिन्दी में अनुवाद भर है, जिसका अंग्रेजी रूप इस प्रकार है -

"We shall overcome,
We shall overcome,
We shall overcome,
We shall overcome,
We shall overcome, some day.
We shall overcome, some day.
Oh, deep in my heart,
Oh, deep in my heart,
I do believe
I do believe
We shall overcome, some day.
We shall overcome, some day.
We'll walk hand in hand,
We'll walk hand in hand,
We'll walk hand in hand,
We'll walk hand in hand,
We'll walk hand in hand, some day.
We'll walk hand in hand, some day.
Oh, deep in my heart,
Oh, deep in my heart,
We shall live in peace,
We shall live in peace,
We shall live in peace,
We shall live in peace,
We shall live in peace, some day.
We shall live in peace, some day.
Oh, deep in my heart,
Oh, deep in my heart,
We shall all be free,
We shall all be free,
We shall all be free,
We shall all be free,
We shall all be free, some day.
We shall all be free, some day.
Oh, deep in my heart,
Oh, deep in my heart,
We are not afraid,
We are not afraid,
We are not afraid,
We are not afraid,
We are not afraid, TODAY
We are not afraid, TODAY
Oh, deep in my heart,
Oh, deep in my heart,
We shall overcome,
We shall overcome,
We shall overcome,
We shall overcome,
We shall overcome, some day.
We shall overcome, some day.
Oh, deep in my heart,
Oh, deep in my heart,
I do believe
I do believe
We shall overcome, some day.
We shall overcome, some day."

हम में से कई लोगों को इसके अंग्रेजी से हिंदी रूपांतरण वाली बात  की सच्चाई का शायद पता भी हो ।
परन्तु शायद अधिकांश लोगों को ये ज्ञात हो कि ... इसे गिरिजा कुमार माथुर जी ने पहले हिन्दी में लिखा है और बाद में हिन्दी से अंग्रेजी में रूपांतरण हुआ है।
परन्तु ... इतिहास पर गौर करें तो इस विश्व-प्रसिद्ध समूहगान के अंग्रेजी भाषा से  हिन्दी भाषा में रूपांतरण होने की बात की पुष्टि होती है। दरअसल .. इसे सर्वप्रथम अमेरिकी मेथोडिस्ट मंत्री ( American Methodist ( प्रोटेस्टेंट चर्च के एक सदस्य )  Minister ) - Charles Albert Tindley द्वारा अंग्रेजी में ईसामसीह के सुसमाचार भजन (Hymn) के रूप में लिखा गया था, वे संगीतकार भी थे। यह लगभग 1900 में प्रकाशित हुआ था। बाद में इसे 1954 से 1968 तक चलने वाले नागरिक अधिकारों के आंदोलन ( Civil Rights Movement ) में विरोध-गान (Protest-Anthem) के रूप में गाया गया था।

भारत में भी इसका भावान्तर रूप सहर्ष बिना भेद भाव किए अपनाया गया। मध्यप्रदेश के रहने वाले गिरिजा कुमार माथुर जी , जो स्वयं स्कूल-अध्यापक थे,  ने इसका हिन्दी अनुवाद किया था। इस तरह यह भावान्तर-गीत एक समूह-गान के रूप में प्रचलित हो गया। हमारे रगों में रच-बस गया। तब से अब तक बंगला भाषा ( "आमरा कोरबो जॉय..." के मुखड़े के साथ) के साथ-साथ कई सारी भाषाओं में रूपांतरित किया जा चुका है। कहते हैं कि गिरिजा कुमार माथुर जी को साहित्य अकादमी पुरस्कार के साथ-साथ व्यास सम्मान, शलाका सम्मान से भी सम्मानित किया गया था। उन्हें साहित्य और संगीत से काफी लगाव था। उन्होंने कई कविताएँ भी रची थी। कहते हैं कि वे एक लोकप्रिय रेडियो चैनल - विविध भारती - के जन्मदाता थे।
इस तरह अमेरिकी Charles Albert Tindley की लेखनी और सोचों से जन्म लेकर यह उत्साहवर्द्धक समूहगान गिरजाघर में शैशवास्था बीता  कर और फिर भारतीय गिरिजा कुमार माथुर की लेखनी से रूपान्तरित हो कर विरोध-गीत और उत्साह-गान तक का यौवनावस्था का सफर तय कर .. आज भी हमारे देश-समाज का चिरयुवा समूहगान बन कर हमारा तन-मन अनवरत तरंगित करता आ रहा है।
दरअसल आज इसका उल्लेख उन बुद्धिजीवियों तक पहुँचाना जरूरी महसूस हुआ, जो लोग अक़्सर अपनी भाषा, बोली, जाति-धर्म, सभ्यता-संस्कृति की अक्षुण्णता बनाये रखने के नाम पर एक दायरे में बाँध कर उन्हें जकड़े रहने की कोशिश करते हैं या सपाट भाषा में कहें तो एक बाड़े में उन्हें घेरने की बात करते हैं। अपने से इतर इन्हें अन्य सभ्यता-संस्कृति, भाषा-बोली, जाति-धर्म सभी हेय लगते हैं।
ऐसे सोंचों पर तरस तो तब आती है, जब कुछ बुद्धिजीवी वर्ग विश्व में हजारों की संख्या में बोली जाने वाली किसी एक बोली या भाषा को लेकर मिथ्या भरी अपनी गर्दन अकड़ाते हैं। अपनी भाषा या बोली पर गर्व करना एक अच्छी बात है। करनी भी चाहिए और स्वभाविक भी है। पर समानान्तर में अपनी भाषा को बोलने वाली जनसंख्या को ज्यादा या कम की तुलनात्मक अध्ययन के होड़ में अन्य भाषा या बोली का तिरस्कार करना या उसे लघुतर व कमतर मानना, कहना या किसी मंच से बार-बार ऊँची आवाज़ में इसकी घोषणा करना .. शायद मेरी समझ से उस व्यक्ति विशेष की संकुचित मानसिकता को दर्शाता है।
खैर ! अब आते हैं - इस समूहगान ..  जिसे गाते-गाते, सुनते-सुनते हम पीढ़ी-दर-पीढ़ी बड़े हो कर इस धरती से अनन्त, अंतहीन यात्रा पर गमन कर जाते हैं, पर  ... सच में हम सभी जीवनकाल में पूर्णरूपेण कभी कामयाब हो भी पाते हैं क्या !?
हमें अगर कामयाबी का सही अर्थ जानना हो तो पूछना चाहिए उस आम युवा से या उसके आम गरीब अभिभावक से जो उच्च ब्याज़-दर पर कर्ज़ लेकर, अपने कुछ सपनों का गला घोंट कर, अपने बुढ़ाते भविष्य को असहाय कर के अपनी भावी पीढ़ी को उच्च शिक्षा दिलवाने का प्रबन्ध करता हो और ... ऐन मौके पर उसे एक मानसिक आघात तब लगता हो, जब उसे मालूम होता है कि उनकी संतान से बहुत कम प्राप्तांक के बावजूद .. एक औसत प्राप्तांक के आधार पर ही पड़ोस के या मुहल्ले या शहर के एक उच्च-अधिकारी दम्पति या फिर कोई धनाढ्य दम्पति की संतान का नामांकन देश के किसी उच्च शैक्षिक-संस्थान में हो गया या कोई यथोचित नौकरी मिल गई ... परन्तु उनकी संतान को नहीं ... कारण ... केवल और केवल जाति के आधार पर मिलने वाले आरक्षण के कारण। उस पल यह उत्साहवर्द्धक समूहगान उस युवा और उसके अभिभावक के कान में पिघले शीशे की तरह जलाता है। लगता है कि आखिर आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी कामयाबी का क्या यही मतलब है - आरक्षण ?

आज़ादी की रात विभाजन के आड़ में या फिर जाति-धर्म के नाम पर समाज, शहर, देश में होने वाले तमाम दंगों से हताहत परिवार .. चाहे दंगे की वजह जो भी रही हो .. को भी ये समूहगान मुँह चिढ़ाता लगता होगा।
सोचते होंगे कि आखिर इस गाने की पंक्तियाँ कब चरितार्थ होगी भला !!! है ना? यही हमारी कामयाबी है क्या ???
आज हमारी सामाजिक मानसिकता की मनःस्थिति बद-से-बदतर होने की वजह से अगर उस तेज़ाब-ग्रस्त लड़की से या फिर बलात्कृत लड़की या मासूम बच्ची से या फिर बलात्कार के बाद जलाई या मारी गई युवती के परिवार से पूछा जाए तो इस गाने का अर्थ उनके लिए बेमानी होगा शायद ...

बचपन में स्कूल के सांस्कृतिक-कार्यक्रमों के सुअवसरों पर सजे मंचों से लेकर युवाकाल में कॉलेजों और सरकारी या राजनीतिक कार्यक्रमों में सजे मंचों से भी गाया और सुना जा रहा यह गाना जब व्यवहारिक जीवन में , समाज में ... समझ से परे और निर्रथक लगने लगता है, तो मन में बस एक ही सवाल कौंधता है ... कि ..
आखिर हम कब होंगें कामयाब ? कब होगी शांति चारों ओर ?
कब चलेंगें हम साथ-साथ ? भला कब हम किसी से डरेंगें नहीं ?
कब नहीं होगा किसी का भी भय ?
आखिर कब तक ..आखिर कब तक रखें .. मन में विश्वास ?
आखिर इन सारे सवालों का जवाब कब तलाश पायेंगें हम सब ?
आइए मिल कर पूछते हैं .. पहले स्वयं से ही .... कि ...
हम कब होंगें कामयाब ...???


Saturday, December 7, 2019

हालात ठीक हैं ...

1947 की आज़ादी वाली कपसती रात हों
या हो फिर 1984 के उन्मादी दहकते दंगे
मरते तो हैं लोग .. जलती हैं कई ज़िन्दगियाँ
क़ुर्बानी और बलि के चौपायों से भी देखो ना
ज्यादा निरीह हैं आज भी यहाँ लड़कियाँ
बस मंदिरों-गिरजों में हिफाज़त से रखी
बेजान "मूर्त्तियों" के हालात ठीक हैं ...

पुस्तकालयों के फर्नीचर हैं कुछ जर्जर
सरकारी अस्पतालों की स्थिति है बद से बदतर
सरकारी स्कूलों के "डे-मील" खा रहे हैं "बन्दर"
बस शहर के मंदिरों-मस्जिदों के फर्श चकाचक
और इनके कँगूरे-मीनारों के हालात ठीक हैं ...

उतरते हैं खादी कुर्ते .. और नंगी तोंदों के नीचे
नग्न बेटियाँ होती हैं दफ़न .. घुंट जाती हैं कई चीखें
फिर भी "विधाता" मौन .. कसाईखाना बन जाता है
"बालिका सुरक्षा गृह" रात के अँधियारे में
और जो पोल ना खुले जो दिन के उजियारे में
तो समझो रजिस्टर में नाम और गिनतियों के
सरकारी सारे आंकड़ों के हालात ठीक है ...

कुछ लड़कियों के लिए कोख़ बना है दोजख़
कुछ दहेज़ के लिए सताई या फिर जलाई गई है
टूटती हैं कानूनें .. उड़ती हैं इनकी धज्जियाँ
'नेफ्थलीन' वाली अलमारियों में कानूनों की
मोटी-मोटी किताबों के हालात ठीक हैं ...

बलात्कार सरेराह है हो रहा .. दिन हो या रात
हो गई है दिनचर्या .. जैसे हो कोई आम बात
बच्ची हो या युवती .. फटेहाल या फिटफाट
या फिर बुढ़िया कोई मोसमात
बलात्कार रुके ना रुके पर लग रहा
यहाँ सोशल मीडिया और मीडिया की
'टी.आर.पी.यों' के हालात ठीक हैं ...

दरअसल .. सजती हो जब अक़्सर यहाँ
पांचसितारा होटलों की मेजों पर प्लेटें
या 'डायनिंग टेबल' पर घर की थालियाँ
ज़िबह या झटका से मरे मुर्गों के टाँगों से
तो भला "मुर्गों" से पूछता कौन है कि -
" क्या हालात ठीक है ??? "...