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Tuesday, August 6, 2019

चन्द पंक्तियाँ - (७) - बस यूँ ही ....

(1)#
माना कि ... पता नहीं मुझे
पता तुम्हारा,
पर सुगन्धों को भला
कब चाहिए साँसों का पता
बोलो ना जरा ...

चलो बन्द कर भी दो
अपनी दो आँखों की
दोनों खिड़कियाँ
दोनों बाँहों के
दो पल्ले दरवाजे के ...

हम तो ठहरे
आवारा सुगन्ध
आ ही जायेंगे
तुम्हारी साँसों तक
तुम्हारे मन के
रोशनदान के रास्ते .. है ना !?

(2)#
एक सूनी-पुरानी
इमारत की
किसी बदरंग दीवार पर
अनायास उग आये
पुष्पविहीन फर्न की तरह
पनप जाते हैं अनायास
कुछ रिश्ते ..जो ...
बेशक़ बागों में पनाह
पायें ना पायें पर ...
मन की आँखों में
प्रेम की हरियाली
सजाते हैं अनवरत
ठीक सावन की
हरियाली की तरह ...
है ना !?...

(3)#
प्रकृत्ति प्रदत्त
सृष्टि स्रोत
शुक्राणुओं के
महासमर-सी
कई सोचें ... कई कल्पनाएँ ...
उद्देश्यहीन रह जाती हैं
अक़्सर बस यूँ ही ...

बस एक सोच ही
जिनमें तुम रहती ... पलती...
बन विजेता इकलौती ही
बारहा प्रकृत्ति-नियम सी
है रचने बढ़ पाती
मन के कोख़ में
भावना की एक नई सृष्टि  .....