Sunday, July 21, 2024

असाध्य दंतहीन दंश ... (२)


"असाध्य दंतहीन दंश ... (१)" वाली गत बतकही में हम सभी ने देखा, कि समीर माथुर द्वारा .. अपनी दिनचर्या के तहत उस दिन सुबह-सुबह 'स्ट्रीट डॉग्स' को सामान्य दूध-रोटी देने के बजाय .. एक दिन पहले अपने घर आए मेहमानों के स्वागत में बने 'नॉन वेज' व्यंजनों की कुछ चूसी-चबाई, बची-खुची, जूठी हड्डियाँ ही परोसे जाने पर .. उन्हीं कुत्तों में से एक कुत्ते ने मांसाहार के कारण उनकी दायीं हबक (हथेली) को किस तरह हबक लिया था .. बस यूँ ही ...

अब आज उसी बतकही के दूसरे भाग - "असाध्य दंतहीन दंश ... (२)" में प्रसंगवश समीर माथुर से जुड़ी अतीत की दो अन्य घटनाओं (कहानियों को नहीं) को दोहराते हैं, जो यहाँ बतलाना नितांत आवश्यक है .. तो आगे .. पहले .. पहली घटना बकते हैं .. बस यूँ ही ...

एक बार समीर माथुर के एक पड़ोसी का एक रिश्तेदार .. फ़िलहाल "पड़ोसी का एक रिश्तेदार" ही कह रहा हूँ, क्योंकि .. समीर माथुर के किसी रिश्तेदार से सम्बंधित जातिवाचक संज्ञा की भी बात करने भर से ही तदनुसार उनके व्यक्तिवाचक संज्ञा वाले रिश्तेदार विशेष को .. उस कही गयी बातों को अपने लिए मान कर .. समीर माथुर से मुँह फुलाने का एक सुनहरा अवसर मिल जाता हैं।

हाँ तो .. फिलहाल उनके किसी "रिश्तेदार" की जगह उनके एक "पड़ोसी के एक रिश्तेदार" को ही इस घटना का पात्र मानते हुए ... ... समीर माथुर के एक पड़ोसी और उस पड़ोसी के रिश्तेदार की ही बात करते हैं, तो ... ...  एक बार उनके उस पड़ोसी की एक बच्ची का पाँचवा जन्मदिन मनाया जा रहा था, जहाँ हम भी सपरिवार आमंत्रित थे। ऐसे सुअवसर पर वहाँ उस बच्ची के एकलौते मामा जी भी सपरिवार मेहमान के रूप में पधारे हुए थे। 

'केक' कटने और बँटने के बाद रात्रिभोज यानी भोजन में 'वेज' पुलाव, मूँग दाल की कचौड़ी, शाही पनीर, परवल 'फ्राई', बूँदी रायता, पापड़, तसमई और गर्मागर्म गुलाबजामुन के साथ-साथ 'आइसक्रीम ब्रिक' के टुकड़ों को भी मेहमानों के समक्ष परोसा गया था। 

भले ही आयुर्वेदिक दृष्टिकोण से खाने का उपरोक्त संयोजन अस्वास्थ्यकर हो, पर ऐसे आयोजन-प्रायोजन के अवसरों पर आयुर्वेदिक आहार तालिका के मापदंडों के निर्देश किसे याद रह पाते हैं भला ! .. स्वघोषित घोर सनातनी लोग भी अपनी दिनचर्या में योग और आयुर्वेद को किंचित् मात्र भी समाहित करते नहीं जान पड़ते हैं .. शायद ...

मानो .. जैसे कि धूम्रपान के व्यसन से ग्रसित लोगबाग सिगरेट के डिब्बों पर या विज्ञापनों में कैंसर से ग्रस्त वीभत्स चेहरों को लाख बार देखने के बावज़ूद अपनी बुरी लत को नहीं छोड़ पाते हैं .. शायद ...

अब तक पड़ोस की उस बच्ची के जन्मदिन का रात्रिभोज समापन के क़रीब था। सभी लोग अंत में 'आइसक्रीम' खाते हुए आपसी गपशप में तल्लीन थे। तभी उस बच्ची के आये हुए मेहमान मामा जी वहाँ उपस्थित समस्त परिजनों को सपरिवार औपचारिक प्रणाम-नमस्ते करते-स्वीकारते .. 'रिटर्न गिफ़्ट' को भी सम्भालते-सहेजते अपने घर जाते-जाते .. हँस कर बच्ची की 'मम्मी' यानी अपनी छोटी बहन को सम्बोधित करके बोलते हुए गए, कि ...

" बीनू ! .. मजा नहीं आया आज की 'पार्टी' में .. केवल घास-फूस खिला के टरका दी तुम .. हमलोगों को .. है ना ? .. बिना "हड्डी" ('नॉन वेज') के .. 'पार्टी' में मजा आता है क्या ? .."

बच्ची के मामा जी तो हँसते-हँसते ये बोल कर चले गए, परन्तु उस रात बच्ची की 'मम्मी' का रोते-रोते बुरा हाल हो गया था। स्वाभाविक ही/भी था, क्योंकि .. बातों-बातों में पता चला था, कि उपरोक्त परोसे गए सारे शाकाहारी व्यंजनों की फ़ेहरिस्त बच्ची की 'मम्मी' के स्वयं अकेले का .. दिनभर के परिश्रम व लगन का ही परिणाम था ..  सिवाय गुलाबजामुन और 'आइसक्रीम ब्रिक' के, जो कि बाज़ार से बना-बनाया 'रेडीमेड' आया था।

अब दूसरी घटना को भी समीर माथुर के आत्म संस्मरण कहने की भूल ना तो .. हम करेंगे और ना ही आप समझने की भूल कीजियेगा। इस दूसरी घटना के पात्र को भी समीर माथुर के "एक अन्य पड़ोसी के मामा-मामी" को ही मान कर विस्तार देते हैं। 

हाँ .. तो .. एक दिन उस पड़ोसी के मामा-मामी उनके यहाँ दोपहर के भोजन के लिए आमंत्रित थे। शायद रविवारीय अवकाश का दिन रहा होगा। उस दिन उस सुअवसर पर मैं आमंत्रित तो नहीं था, पर बाद में एक दिन वह पड़ोसी स्वयं ही उस दिन वाली घटना से जन्मी अपने मन की व्यथा मुझ से साझा कर रहे थे, कि .. एक दिन दोपहर में उनके द्वारा दिए गए आमंत्रण को पाकर, उनके मामा- मामी के उनके घर आने के बाद अन्य सारी औपचारिकताओं के पश्चात .. उन दोनों के समक्ष जब दोपहर का भोजन 'डाइनिंग टेबल' पर पेश किया गया, तब .. उनके सेवानिवृत्त मामा जी मुस्कुराते हुए सर्वप्रथम .. अतिविशेष शोरबेदार सब्जी से भरे कटोरे में 'टेबल स्पून' से टटोलते हुए पूछ बैठे थे, कि ..

" क्या बना है ? .. म-ट-न है क्या ? "

तब उनके मेजबान भांजा यानी समीर माथुर के पड़ोसी ने आदरपूर्वक उत्तर दिया था, कि ..

" नहीं .. मामा जी .."

तभी मामी जी मुस्कुराते हुए बोल पड़ीं थीं, कि ..

" तब .. जरूर 'चि-के-न' बना होगा ? .. है ना ? .. "

पुनः समीर माथुर के पड़ोसी यानी उन मामा-मामी के भांजा को उत्तरस्वरुप बोलना पड़ा था, कि ..

" नहीं मामी जी .. 'चिकेन' भी नहीं है .. "

तभी तपाक से पुनः मामा जी ..

" तब तो जरूर 'फ़िश करी' या फिर 'एग करी' .."

तभी समीर माथुर के पड़ोसी की धर्मपत्नी रसोईघर से दो प्रकार के गर्मागर्म तले पापड़ों और तिसियौरी (तीसी यानी अलसी और मसूरदाल से बनने वाली बिहार की एक प्रकार की बड़ी, जिसे तेल में तल कर खाया जाता है) से भरी एक तश्तरी लिए 'डाइनिंग टेबल' की ओर आती हुई .. उन दोनों मामा-मामी जी की ऊहापोह को विराम देते हुए बोल पड़ी थी, कि ..

" नहीं मामा जी .. 'मटन' नहीं, मटर-पनीर की सब्जी बनाए हैं .. "

इतना सुनने-जानने के बाद उन दोनों यानी मामा-मामी के मुँह अनायास उदास-निराश जैसे हो गए थे। मानो घड़ी की साढ़े छः बजे की सुइयों की तरह लटक गए हों। जबकि उनके समक्ष खाने के लिए मटर-पनीर की शोरबेदार सब्जी के अलावा चना दाल का तड़का, बासमती चावल का शुद्ध देसी घी में पका जीरा 'फ्राइड राइस' के साथ-साथ सत्तू की कचौड़ी या विकल्प में सत्तू भरी रोटी, मसालेदार गोभी 'फ्राई', मूली-गाजर-टमाटर के सलाद, तले हुए दो तरह के पापड़, तिसियौरी के अलावा 'यू ट्यूब' पर देख कर बनाया गया .. मीठा ज़र्दा पुलाव व गाजर का हलवा .. यूँ तो मीठे व्यंजन विशेष रूप से मामी जी के लिए ही बने थे, क्योंकि मामा जी को मधुमेह की शिकायत है। हालाँकि दो-चार चम्मच वे भी चख ही लिए थे .. दोनों ही मीठे व्यंजनों- मीठा ज़र्दा पुलाव और गाजर के हलवा में से। हँसते हुए ये कह कर कि ..  " आज रात में दो 'पॉइंट' ज्यादा इन्सुलिन ही लेना पड़ेगा ना .. ले लेंगे .. पर सब व्यंजनों का स्वाद तो चखना ही पड़ेगा ना .."

इधर मामा जी की हसरत भरी नज़रें खानों के बीच जिस बेसब्री से अपने मेहमाननवाजी में 'मटन-चिकेन' या 'फ़िश-एग' तलाश करने के बाद भी .. ना मिलने पर .. निराशा से भर गयीं थीं .. साथ में मामी जी की भी .. तो उधर .. समीर माथुर के पड़ोसी और उनकी धर्मपत्नी को इतनी सारी तैयारी करने के बाद भी आत्मग्लानि की अनुभूति हो रही थी .. शायद ...

थाली से उनके मुँह तक निवाले ले जाने वाले हाथों की गति धीमी-सी ही रही थी। वो तो शुक्र है, कि .. हँस के या फिर .. रो के-गा के .. जैसे भी हो .. थाली में वो लोग जूठन नहीं छोड़े, वर्ना .. मांसाहारी भोजन में विशेष चाव रखने वाले कई लोग तो परोसे गए शाकाहारी भोजन को गिंज-मथ के और कुछ लोग तो उन व्यंजनों को बिना छुए ही .. उस शाकाहारी भोजन को घास-फूस की संज्ञा देकर .. बस यूँ ही ... बेमन से जूठन छोड़ देते हैं।

समीर माथुर के पड़ोसियों के रिश्तेदारों से जुड़ी उपरोक्त दोनों घटनाओं के आलोक में हमने पाया, कि कई मांसाहारी मानवों की मांसाहार के लिए कितनी ज्यादा आसक्ति व मंत्रमुग्धता है, तो .. फिर भला मांसाहारी पशुओं का आसक्त व मंत्रमुग्ध होना तो स्वाभाविक ही है .. है ना ?

सबसे मजेदार पक्ष तो ये है, कि यही मांसाहार के आसक्त लोग सालों भर किसी वार विशेष .. जैसे- मंगलवार, वृहष्पतिवार या .. कोई-कोई शनिवार को या फिर .. भर माह सावन में या दस दिनों तक नवरातरा (नवरात्रि) या एकादशी-पूर्णिमा के दिन .. दुनिया के सबसे बड़े वाले शाकाहारी मानव होने का ढोंग करेंगे। मानो पेटा (PETA) के 'प्रेसिडेंट' वही हैं .. शायद ...

इन पेटा (PETA) के तथाकथित स्वघोषित 'प्रेसिडेंट' जन की उपरोक्त दिनों की स्वाद लोलुपता भरी बेचैनी की एक बानगी भी प्रसंगवश बहरहाल देख ही लेते हैं। 

किसी एक साल समीर माथुर के एक अन्य पड़ोसी (समीर माथुर के नहीं) के मंझले मामा जी भी सपरिवार छठ (बिहार में सूर्य उपासना से जुड़ा चार दिवसीय एक महिमामंडित व्रत) मनाने के लिए उन पड़ोसी के घर आए हुए थे। व्रत-अनुष्ठान के आख़िरी व चौथे दिन सुबह ही, जैसाकि अमूमन होता है, समापन हो जाने के बाद और प्रसाद ग्रहण करने के बाद मामा जी अपनी रसना के रस को लगभग सुड़कते हुए अपने भांजे यानी समीर माथुर के पड़ोसी से बोले कि - 

" अब तो .. आज शाम तक सब 'गेस्ट' लोग चले ही जायेंगे, तो .. क्यों ना .. दोपहर में 'मटन' बनवाओ .. सभी का "मुख शुद्धिकरण" (उनकी भाषा में किसी निरामिष व्रत-त्योहार के बाद 'नॉन भेज' को उदरग्रस्त करने की प्रक्रिया है ये) हो जाएगा .."

उसी पड़ोसी की मामी जी - " हाँ जी ! .. ढेर दिन हो गया मन को रोके हुए .. ले आइए 'मटन' .. चाहे 'चिकेन' .. कुच्छो (कुछ भी) ले आइए .. "

पड़ोसी के मामा जी - " ना - ना .. ना 'मटन', ना 'चिकेन' .. व्रत-पूजा के बाद तो मछली से ही 'नॉन भेज' शुरू करना चाहिए .." - ऐसा कह रहे थे, मानो किसी गीता-ग्रंथ में ऐसा लिखा गया हो। 

ख़ैर ! .. उपरोक्त दोनों घटनाओं से इतना तो पता चल ही गया, कि मांसाहारी पशुओं की तरह मांसाहारी मानवों में भी मांसाहार के प्रति सम्मोहन, आकर्षण, स्वाद लोलुपता भरी पड़ी है .. शायद ... 

लेकिन .. मांसाहारी पशुओं का मांसाहार के प्रति सम्मोहन होना तो स्वाभाविक है, परन्तु मानव .. जिसके आहार के इतने सारे शाकाहारी विकल्प की उपलब्धता होने पर भी मांसाहार के प्रति अतिविशेष सम्मोहन कायम रहना .. उन्हें तरजीह देना .. एक अचरज का ही विषय है। तभी तो स्वजनों के मृत देह को दफ़नाने या जलाने वाले मांसाहारी स्वाद लोलुपों की .. मृत पशु-पक्षियों के तेल-मसालों में 'मैरीनेट' करके पकाए गए व्यंजनों से .. क्षुधा पूर्ति हो रही है .. शायद ...

फ़िलहाल तो .. इतनी ज्यादा बतकही बहुत है, मेरे द्वारा मांसाहार के रूप में आपका दिमाग़ खाने के लिए .. शायद ... 

अब आइये मूल बतकही के पात्र - समीर माथुर का हालचाल भी जान लेते हैं .. बस यूँ ही ...

अब जब मानव के खाने की मात्रा और गति .. दोनों ही मांसाहार परोसे जाने पर बढ़ जाते हैं, तो मांसाहारी पशु तो फिर भी पशु ही हैं। प्रतिदिन लावारिस कुत्ते-कुत्तियों को कटोरे में दूध-रोटी खिलाने के बाद समीर माथुर उनके सामने से कटोरों को समेट कर व धोकर .. नियमित रूप से सहेज कर यथोचित स्थान पर रख देते हैं। हाथ से ही एक-एक कर कौर के रूप में 'बिस्कुट' भी खिलाते हैं। उस रोज भी सुबह-सुबह वे उन सभी के लिए परोसी गयी .. गुज़रे हुए कल के दिन अपने घर आए हुए कुछ विशेष मेहमानों की खातिरदारी में परोसे गए .. मुर्ग़े व मछलियों के 'नॉन वेज' व्यंजनों की चूसी-चबाई, बची-खुची, जूठी .. कुछ हड्डियाँ उन सभी के खा लेने पर .. उनके सामने से बर्तनों को उठाने के क्रम में .. एक कुत्ते ने मांसाहार के सम्मोहन में बर्त्तन को चाटना नहीं छोड़ना चाहता था, तो प्रतिरोध में घुड़कने के क्रम में बर्त्तन को उठाने के लिए बढ़ी हथेली पर आशातीत हबक लिया था। 

उसके नुकीले दाँतों के चुभन-खरोंच से हथेली के ऊपर-नीचे पाँच-छः जगहों से तीव्र गति से रक्त प्रवाह बहने लगा था। हल्की-सी चीख़ भी निकल गयी थी। फ़ौरन घर में उपलब्ध "सुथॉल" लगा कर .. उनके व उनकी धर्मपत्नी श्रावणी सहाय द्वारा रक्त प्रवाह को रोकने का भरसक प्रयास किया गया था। तभी तो वह सुबह -सुबह आनन-फ़ानन में मुहल्ले के ही एक 'क्लीनिक' में जाकर 'एंटी रेबीज इंजेक्शन' लिए थे।

इंसान कई बार सामने वाले का मन रखने के लिए सामने वाले की रूचि में अपनी रूचि का दिखावा करता तो है, पर .. कभी-कभी अपने मन की बातों को सामने वाले के सामने रखने के लिए दूसरों के वक्तव्यों का या किसी अवसर विशेष का सहारा लेते हुए अपनी सहमति- असहमति प्रायः जतला ही देता है। 

अभी ऐसा ही अवसर श्रावणी सहाय को मिल गया है, समीर माथुर को सुबह एक कुत्ता के काट लेने भर से। यूँ तो रोज उन कुत्तों के लिए रोटियाँ बनाना .. दूध सुसुम-सुसुम गर्म करना .. वही करतीं हैं। पर .. समीर माथुर की रूचि व ख़ुशी भर के लिए .. अपने मन से नहीं, तो .. आज सुबह एक कुत्ते को खिलाते वक्त उसके काट लेने से श्रावणी सहाय को समीर माथुर से भविष्य में प्रतिदिन कुत्ते को ना खिलाने की बात कहने का मौका मिल गया है। जिन्हें पहले से ही मजबूरी में .. बिना अपने मन के भी .. उनका मन रखने के लिए मजबूरीवश उनको सहयोग करनी पड़ जाती थी।

श्रावणी सहाय - " अब कोई जरूरत नहीं है जी .. रोज-रोज कुत्ता-बिल्ली करने का .. बहुत हो गया .. कैसा भुगतना पड़ रहा है अभी .. आपको .. "

समीर माथुर - " तुमको तो बस्स ! .. अपने मन की बात कहने का मौक़ा भर मिलना चाहिए। फिर तो अपनी मर्ज़ी थोपने में तनिक भी देरी नहीं करती हो तुम .. अब तुम्हें हमारे सफ़ेद बाल भी अच्छे नहीं लगते हैं, तो .. तुम चाहती हो कि .. तुम्हारी तरह हम भी अपने बाल 'डाई' करें .. है ना ?" 

श्रावणी सहाय - " हाँ जी .. सही में .. जरा भी ठीक नहीं लगता है .. "

समीर माथुर - " हाँ .. वही तो ! .. वही तो कह रहे हैं कि .. जो अपने मन की बात तुम सीधे-सीधे नहीं बोल पाती हो तो .. किसी-किसी का हवाला दे कर अपने मन की बात मुझ पर थोपोगी तुम .. अब कहोगी, कि बगल वाली भाभी बोल रहीं थी, कि अच्छा नहीं लग रहा है .. भईया को बोलिए .. अपना बाल रंगेंगे .. "

श्रावणी सहाय- " हम झूठ थोड़े ही ना बोले हैं जी .. बोलिएगा तो उनसे पूछवा देंगे आपको .."

समीर माथुर - " छोडो भी .. मुझे नहीं चाहिए .. किसी का 'सर्टिफिकेट' .. हमारी जीवन शैली के लिए .. फिर कभी कहोगी, कि शाहरुख खान और सलमान खान भी तो अपना-अपना बाल रंगता ही है ना जी .. आयँ ! .. "

श्रावणी सहाय - " हाँ जी ! .. रंगता ही तो है .. तभी ना जवान लगता है जी .. "

समीर माथुर - " जवान लगना और जवान होना .. दो अलग.अलग बातें हैं जी .. बाल रंगने से कुछ नहीं होता जी .. बस .. मन जवान होना चाहिए .. "

श्रावणी सहाय- " आप तो हर बात में ही .. अपना कुतर्क करने लग जाते हैं .. जाइए .. जैसे रहना है, रहिए .. हम नहीं बोलेंगे आपको .. कुछ भी .. "

समीर माथुर - " ना-ना .. बोलो .. बोलते रहा करो .. हमारे ज्ञान की वृद्धि होती रहती है इससे .. और .. अभी जो तुम ज्ञान दे रही थी ना .. कुत्ता-बिल्ली नहीं करने का .. "

श्रावणी सहाय - " हाँ .. सही ही तो बोल रहे हैं आपको .."

समीर माथुर - " कुछ भी सही नहीं बोल रही हो तुम .. एक कुत्ता काटा .. वो भी अंजाने में .. उसको लगा था, कि हम उसके खाने का बर्त्तन हटा रहे हैं। वो भी .. वो काटा नहीं था, बस .. घुड़का था .. झटके से हम ही अपनी हथेली वहाँ से हटाए तो .. उसके दाँत की खरोंच लग गयी थी .. "

श्रवणी सहाय - " जैसे भी हो .. लग गयी ना ? .. लग गया ना ढाई-तीन हजार की चपत ? .. "

समीर माथुर - " तुमको तो मेरे घाव से ज्यादा .. पैसे की फ़िक्र है, पर .. पैसा तो .. कहते हैं ना कि .. हाथ का मैल भर है और वैसे भी .. मान लिया कि .. कुत्ते ने वैसे तो अंजाने में काटा है, पर .. मान लिया कि जानबूझ कर काटा है, पर .. उसका तो उपचार है .. इंजेक्शन' (सुई) भी है; पर .. तुम ये बतलाओ, कि .. स्वजन जो जानबूझ कर .. मतलब .. जानते-सुनते अपनी बोली के बाण से मानसिक रूप से हमें प्रताड़ित कर के पीड़ा प्रदान करते हैं .. उन असाध्य दंतहीन दंश का कोई उपचार है क्या ? फिर भी .. इनसे रिश्ते हम तोड़ पाते हैं क्या ? नहीं ना ? .. फिर कुत्ते को .. "

श्रावणी सहाय चुप्पी का लबादा ओढ़े रसोई मकी ओर चली गयी हैं, क्योंकि उनका 'प्रेशर कुकर' .. पक रहे चना दाल के लिए चार सीटी बजा चुका है और समीर माथुर 'बाथरूम' में चले गए हैं नहाने, क्योंकि उनके काम पर जाने का समय हो चला है .. शायद ...

अंत में .. हम पुनः दोहरा रहे हैं, कि उपरोक्त बतकही की दोनों घटनाओं को समीर माथुर के आत्म संस्मरण कहने की भूल ना तो .. हम करेंगे और ना ही आप समझने की भूल कीजियेगा .. बस यूँ ही ...


Friday, July 19, 2024

असाध्य दंतहीन दंश ... (१)

" लगवा लिए 'इंजेक्शन' ? .. और .. क्या बोले 'डॉक्टर' साहब ? "

समीर माथुर .. जिनकी दिनचर्या में यूँ तो .. सुबह-सुबह किसी भी तरह का 'बिस्कुट' खाना शामिल नहीं है ; क्योंकि उनका मानना है, कि सारे के सारे 'मल्टिग्रेन' वाले या 'रागी' तक से बने होने के दावे करने वाले 'बिस्कुटों' में भी प्रायः पचास प्रतिशत से भी ज्यादा तो मैदा ही होता है और .. आयुर्वेदिक परामर्शों के अनुसार मैदा, सफ़ेद नमक, चीनी इत्यादि जैसे निषिद्ध वस्तुओं का वह अपने आहारों में अमूमन इस्तेमाल नहीं होने देते हैं। 

पर .. चूँकि चिकित्सकीय दृष्टिकोण से .. सुबह-सुबह खाली पेट में या यूँ कहें, कि बासी मुँह रह कर 'इंजेक्शन' नहीं ली जानी चाहिए, तो ऐसे में .. मज़बूरीवश चार 'पीस' 'क्रीम क्रैकर' 'बिस्कुट' ही खा कर, अभी उनको तत्काल सुई लेने के लिए आनन-फ़ानन में मुहल्ले के ही एक दवा दुकान से उचित दवाएँ लेते हुए, मुहल्ले के ही एक 'क्लिनिक' में जाना पड़ा था। अभी-अभी वह वहीं से 'इंजेक्शन' लगवा कर वापस घर आए हैं और आते ही उनकी धर्मपत्नी- श्रावणी सहाय अपनी तरफ़ से भरसक सहानुभूति जतलाते हुए .. उनसे यही दो उपरोक्त प्रश्न उत्सुकतावश पूछ बैठी हैं, कि ..

" लगवा लिए 'इंजेक्शन' ? .. और .. क्या बोले 'डॉक्टर' साहब ? "

वैसे तो अभी सुबह के लगभग साढ़े आठ ही बजे हैं। पर बाहर चल रही धधकती गर्म हवा और तीखे धूप से उबल-भून कर घर आते ही 'फुल स्पीड' में 'सीलिंग फैन' को चालू कर के उसके नीचे उसकी तेज हवा में बैठते हुए समीर माथुर अपनी धर्मपत्नी को प्रत्युत्तरस्वरुप बोल रहे हैं -

" कुछ नहीं .. बोलेंगे क्या भला ! .. एक "टेट्वैक" का और एक "रैबीवैक्स एस" का 'इंजेक्शन' अभी दिए हैं .. बारी-बारी से दोनों बाजूओं में .. बाकी .. और भी पाँच 'एंटी रेबीज इंजेक्‍शन' लेनी है .. अलग-अलग दिनों के अंतराल पर .." 

श्रावणी - " मतलब ? "

समीर - " मतलब क्या ? .. मतलब दूसरी सुई आज से तीन दिनों बाद, फिर तीसरी सात दिनों बाद, फिर चौथी .. "

श्रावणी - " अच्छा .. अच्छा .. समझ गए .. समझ गए। और .. डॉक्टर साहब .. खाने-पीने में भी कोई परहेज़ बोले हैं क्या ? "

समीर - " हाँ .. खाने में तो नहीं, पर पीने में .. बोले हैं कि .. "ड्रिंक" नहीं करनी है। "

श्रावणी - " वो तो .. आप वैसे भी नहीं करते हैं जी। "

समीर - " हाँ तो .. बस्स .. मतलब कोई भी परहेज़ नहीं करनी है .. और हाँ .. लाल मिर्ची का 'पाउडर' है क्या घर में ? .. थोड़ा देना .. "

समीर माथुर के घर की रसोई में लाल मिर्च नाममात्र ही इस्तेमाल की जाती है। वो भी उनकी धर्मपत्नी- श्रावणी सहाय जी की बरज़ोरी से और वो भी .. कश्मीरी लाल मिर्च .. कभी-कभार, किसी-किसी आए-गए अतिथियों के स्वागत में बनायी गयी रसोई में रंग लाने के लिए। दो-तीन महीने में कभी एक बार सौ ग्राम कश्मीरी लाल मिर्च के 'पाउडर' का डिब्बा आ गया घर में, तो काम चल जाता है। बाकी तो .. पाचन तंत्र के स्वास्थ्य के मद्देनज़र हरी मिर्च ही उनकी रसोई में प्रयोग की जाती है। इसीलिए वह अपनी धर्मपत्नी से लाल मिर्च के 'पाउडर' की उपलब्धता के लिए ऐसी शंका से भरा सवाल कर रहे हैं।

श्रावणी - " हाँ .. है .. दे रहे हैं .. पर उसका क्या .. "

समीर - " उसका .. डॉक्टर साहब बोले हैं, कि जहाँ-जहाँ काटा है, वहाँ-वहाँ नल के पानी की तेज धार में रगड़-रगड़ कर साबुन से पाँच-दस मिनट तक धो लीजिएगा और उसी जगह पर मिर्ची भी रगड़ कर धो दीजिएगा .."

श्रावणी - " ओ ! .. अच्छा ! .. मतलब एक तो काटे का दर्द और .. ऊपर से साबुन-मिर्ची से भी आपको परपराएगा .. वो अलग .. "

समीर - " अरे .. ये जानकारी तो 'स्कूल' में 'कोर्स' की किताबों में भी पढ़ायी गई थी .. प्राथमिक उपचार के तहत; पर सुबह .. घबराहट के कारण दिमाग़ में ये बात एकदम से नहीं आ पायी थी।"

श्रावणी - " अच्छा ! "..

समीर - " वैसे भी हमलोग अपने 'स्कूल-कॉलेज' के दिनों में पढ़ी-पढ़ायी बातों को अपने जीवन में कितना ही व्यवहार में ला पाते हैं भला ? हम लोग अपनी पढ़ाई को केवल अच्छे अंकों से 'पास' करने का एक माध्यम भर मानते हैं, ताकी .. कोई भी एक प्रतियोगी परीक्षा 'पास' करके .. ऊपरी आमदनी वाली किसी भी एक सरकारी नौकरी को पा जाना ही मानो .. हमारे जीवन का एकमात्र लक्ष्य हो जैसे। फिर उसके बाद तो .. किताबी बातें आयीं-गयीं हो जातीं हैं। "

श्रावणी - " कितना लगा (रुपया) ? "  - किसी भी 'मिडिल क्लास फैमिली' की आर्थिक तंगी वाली चिंताओं से भरा एक आम-सा सवाल।

समीर - " दोनों 'इंजेक्‍शन' के लगभग चार सौ और पचास रुपए के हिसाब से दोनों (सुई) को लगाने के सौ रुपए .. आगे भी .. अगली पाँचों सुइयों के लिए हर बार लगभग चार-साढ़े चार सौ रुपए का ख़र्च .. "

श्रावणी - " एक बात बोलें जी ? .. अब से ना .. इन सब से दूर ही रहा कीजिए। क्या जरूरत है सुबह-शाम खाना खिलाने की इन लावारिस कुत्ते-कुत्तियों को। और भी तो बहुत सारे लोग हैं जी .. मुहल्ले भर में .. इन सब को खिलाने वाले। कैसा ! .. अभी एक शारीरिक कष्ट हो गया आपको .. बैठे- बिठाए .. वो भी सुबह-सुबह। ऊपर से .. सब मिलाकर ढाई-तीन हजार की चपत लगेगी .. सो अलग .. ना जाने किसका मुँह देख कर आज सुबह उठे थे आप .. "

समीर - " धत् ! .. मौका मिला नहीं, कि .. ऊटपटाँग बातें बकने लगती हो तुम .. कितनी बार कहते हैं, कि मेरे सामने इस तरह की ऊल-जलूल दकियानूसी बातें मत किया करो .. पर तुम .. " - फिर बोझिल माहौल को कुछ हल्का करने की सोच कर मुस्कुराते हुए - " तुम्हारा ही तो मुँह देखकर उठते हैं जी रोज और .. आज भी ... "

दरअसल .. कुछ 'स्ट्रीट डॉग', जिनके लावारिस होते हुए भी प्रायः हर मुहल्ले में समीर माथुर जैसे एक या अनेक पालनहार होते हैं, जो स्वतः उनका दायित्व निभाते हैं; जिनसे कुछ को मन की शांति मिलती है और कुछ के लिए पुण्य कमाने का एक माध्यम बनता है। वहीं दूसरी तरफ़ .. कुछ पड़ोसियों के पाले हुए पालतू, पर अपनी गर्दन में बिना 'चेन' वाले पट्टे लपेटे हुए खुले में विचरने वाले कुत्ते; जो अपने तथाकथित पालनहार मालिक के होने के बावज़ूद लावारिस बने मुहल्ले भर में इधर-उधर मुँह मारते फ़िरते हैं। जो गाहे-बगाहे किसी-किसी फेरी वाले या साइकिल-स्कूटी सवार या फिर विशेष लिबासों वाले भिखमंगों को देखकर बेतहाशा भौंकते रहते हैं। मुहल्ले से बाहर के कुत्ते-कुत्तियों को अपने इलाके से गुज़रने पर भौंक -भौंक कर उनको खदेड़ना तो इनका जन्मसिद्ध अधिकार होता ही है।

यूँ तो समीर माथुर की दिनचर्या में शामिल है .. मुहल्ले भर में ऐसे ही विचरते कुत्ते-कुत्तियों को सुबह-शाम दूध-रोटी या 'अरारोट बिस्कुट' खिलाना। परन्तु आज दूध-रोटी या 'अरारोट बिस्कुट' की जगह सुबह-सुबह उन सभी के लिए .. गुज़रे कल के दिन अपने घर आए हुए कुछ विशेष मेहमानों की खातिरदारी में परोसे गए मुर्ग़े व मछलियों के 'नॉन वेज' व्यंजनों की कुछ चूसी-चबाई, बची-खुची, जूठी हड्डियाँ ही उनके बर्तनों में परोस दिए थे। 

अब 'कैनाइन' दाँतों वाले मांसाहारी पशुओं को अगर मांस-हड्डियाँ परोस दी जाएँ, तो मांसाहारी भोजन के सम्मोहन में उनके खाने की गति व चाव दोनों ही तीव्र हो जाते हैं। वैसे तो ये सिद्धांत केवल कुत्तों पर ही नहीं, वरन् मांसाहारी इंसानों पर भी लागू होता है। 

किसी मांसाहारी परिवार में कोई मांसाहारी मेहमान आएँ और उनके स्वागत में 'नॉन वेज' ना बने, ऐसा हो ही नहीं सकता। बशर्ते .. मानने वालों के लिए उस दिन कोई विशेष हिंदू वार या कोई एकारसी (एकादशी) -पूर्णिमा या फिर नवरात्रि जैसा दिन ना हो। फिर तो .. मेज़बान प्रायः मेहमान पर अपना प्रभाव जमाने के लिए 'ग्रेवी' वाले या 'फ्राई' 'चिकेन' के 'लेग पीस' के साथ-साथ पेटी (मछली के पेट के कटे हुए टुकड़े) वाली 'फ्राई फ़िश' परोसने में कोई कोताही नहीं बरतते हैं। वर्ना मांसाहारी मेजबान भी केवल शाकाहारी व्यंजनों-भोजन को खिलाए जाने पर अपनी तौहीन समझते हैं। 

ऐसे में मेजबान-घर के सदस्यों को भी, जो प्रतिदिन शाकाहारी भोजन मन मार के उदरग्रस्त करते हैं, उन्हें मेहमान के बहाने 'नॉन वेज' खाने का सुअवसर मिल जाता है। ठीक वैसे ही, जैसे .. किसी बच्चे को सेहत का हवाला देकर समोसा खाने से मना करने वाले अभिभावकों की भी विवशता हो जाती है, जब मेहमानों के आने पर उनके लिए बाज़ार से मंगवाए गए गर्मागर्म समोसे में से बच्चों को खाने से नहीं रोक पाते हैं और बच्चे उन सुअवसरों का आराम से आनन्द लेते हैं। और तो और .. ऐसे अवसरों पर ही मुहल्ले भर के लावारिस कुत्ते-कुत्तियों और बिल्लियों को भी चूसी-चबाई, बची-खुची, जूठी हड्डियों से उनके मुँह के स्वाद को "सोंधाने" का सुनहरा अवसर मिल जाता है।

अभी सोच रहा हूँ, कि प्रसंगवश समीर माथुर के साथ जुड़ी अतीत की दो घटनाओं (कहानियाँ नहीं) को दोहराउँ ? .. क्योंकि उन्हें यहाँ दोहराना .. कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। तो आगे .. पहली घटना बकते हैं .. परन्तु आज नहीं .. बल्कि .. "असाध्य दंतहीन दंश ... (२)" (अंतिम) में पुनः मिलते हैं .. बस यूँ ही ...


Wednesday, July 17, 2024

मैली चादर ओढ़ के ...

जब 22 जनवरी 2024 को राम मन्दिर के उद्घाटन के दिन अपने देश के प्रधानमंत्री जी ने सोशल मीडिया पर प्रसिद्ध गायक हरिहरन जी द्वारा गाए गए एक राम भजन को साझा किया था, जिसके बोल थे - "सबने तुझे पुकारा श्री राम जी, देना हमें सहारा श्री राम जी", तब तमाम मीडिया वालों ने भी इस प्रकरण को कुछ ज्यादा ही महिमामंडित किया था .. जो ऐसे पावन मौके पर स्वाभाविक भी है। परन्तु ऐसे में तनिक विस्मित करने वाली बात थी .. कला के उसी क्षेत्र से जुड़े एक महान विभूति को हमारा विस्मृत कर देना .. उन प्रसिद्ध धरोहर की लोकप्रियता का आशातीत कम हो जाना .. शायद ...

विश्व भर के हिंदू बहुल देशों में दशकों अपनी प्रभावशाली व भावपूर्ण वाणी के कारण भजन, विशेष कर राम व राम-भक्त हनुमान भजन, के पर्याय बने रहने वाले तथा अपने देश में ही अन्य सम्प्रदाय के लोगों द्वारा भी सुने जाने वाले महान भजन गायक, जो ऑल इंडिया रेडियो (प्रसार भारती) के भजन सम्बन्धित कार्यक्रमों के आजीवन प्राण बने रहे .. जिनको आज की युवा पीढ़ी तो निःसन्देह ही जानती तक नहीं होगी; परन्तु उन स्वर्णिम दशकों के प्रत्यक्षदर्शी रहे हमारे जैसे लोग भी उनको विस्मृत कर चुके हैं। जबकि उन दशकों के अभिनेता-अभिनेत्रियों, राजनेताओं तक को हम बेशक़ आज भी नाम से जानते व पहचानते हैं .. शायद ...

कितनी दुःखद बात है, कि आज हम उन्हीं अद्वितीय महापुरुष - हरि ओम शरण जी को बिसरा चुके हैं। उससे भी दुःखद बात ये है, कि आज तथाकथित सोशल मीडिया के पन्नों पर लोकप्रिय .. किन्तु फूहड़ नृत्यांगना - सपना चौधरी के जितने यूट्यूबस् व व्यूअरस् उपलब्ध है, उतने हरि ओम शरण जी के नहीं .. शायद ...

दरअसल हम अक़्सर अनुभव करते हैं, कि हम अपने जीवन के जिस पहलू को बार-बार तथाकथित सोशल मीडिया पर देखते या 'सर्च' करते हैं; फिर उसी पहलू से जुड़े यूट्यूबस्, रील्स या गूगल न्यूज़ हमारे मोबाइल या डेस्कटॉप पर मंडराने लगते हैं। स्वाभाविक है, कि जब हमने लोकप्रियता की परिभाषा के अपभ्रंश स्वरूप को ही प्रमाणिक मान लिया है, तो ऐसे में सोशल मीडिया के पन्नों पर हरि ओम शरण जी की जगह सपना चौधरी का दिखना लाज़िमी है। वैसे भी वर्तमान में तथाकथित जागरण या माता की चौकी जैसे आयोजनों में प्रायः गाए-बजाए जाने वाले पैरोडीनुमा भजनों ने भक्तिभाव से परिपूर्ण भजनों की लोकप्रियता को कम कर दिया है .. शायद ...

विकिपीडिया पर भी बहुत ही कम जानकारी उपलब्ध है उनके बारे में। परन्तु जो भी जानकारी है, उसके अनुसार उनका जन्म जिस शहर में हुआ था, वह वर्तमान में पाकिस्तान में है। वैसे भी .. अगर हम स्वतंत्रता के समय के विभाजन से जुड़े अनगिनत मार-काट वाले नकारात्मक पक्ष को दरकिनार करके कुछ पल के लिए सकारात्मक पक्ष को निहारते हैं तो .. हम पाते हैं, कि भारतीय गीत-संगीत, साहित्य और सिनेमा को तत्कालीन विस्थापितों का अत्यधिक योगदान मिला है .. शायद ...

आइए .. मिलकर उन दशकों की गुनगुनी गूँज को पुनः अनुभव करके उनके लोकप्रिय राम भजनों की नैया पर अपने जीवन के भवसागर से क्षणिक ही सही, पर .. पार पाते हैं .. बस यूँ ही ...

वैसे उनके भजनों में मुझ जैसे तथाकथित नास्तिक को निजी तौर पर जो सर्वाधिक पसंद है .. वो है ...

और अंत में तथाकथित आस्तिकों के लिए चलते-चलते सुनते हैं .. बस यूँ ही ...

🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏


Tuesday, July 16, 2024

बना तो कीर्तिमान् ...


बढ़ी हो या नहीं 
तुम्हारी रौनक, 
पर बेटियों के हर
ग़रीब पिता की
बढ़ ही गयी होगी 
शायद कसक।
 
देख तुम्हारी 
अमीरी की
फिजूलखर्ची की 
हलचल,
वर्षों होते रहेंगे
कई सारे मन विह्वल।

ख़र्चा करोड़ों धन,
कई महीनों की रस्में,
प्रतिष्ठितों ..
नामवरों के जमघट,
बना तो कीर्तिमान्
बेशक अलबेला, अद्भुत।

पर इन सब से क्या ?
इतर ..
चौंसठ कलाओं से,
होंगे क्या कुछ
करतब विशेष भी
उनकी सुहाग-सेज पर ?

शायद .. नहीं।
फिर भला क्यों
व्यर्थ धन प्रदर्शन ?
करते क्यों नहीं
जनकल्याण में तुम भी
"टाटा" जैसा धन समर्पण ?


Sunday, July 14, 2024

नर्म बुग्याल अकूत ...


मूँदे
अपनी
आँखें,
मख़मली
ग़िलाफ़ में 
पलकों के,
मिलो ना 
कभी हमदोनों, 
रहो तुम भी मूक,
घंटों .. रहें हम भी मूक .. बस यूँ ही ...

तन तानती,
लेती अंगड़ाई,
थोड़ी अलसायी,
थोड़ी कुनमुनाती,
रहे पसरी
बाहों में मेरी
काया तुम्हारी,
मानो हों जैसे
हिमशिखरों की तलहटी में 
फैले नर्म बुग्याल अकूत .. बस यूँ ही ...

टटोलती उंगलियाँ
हमारी-तुम्हारी,
एक-दूसरे के 
देह को,
बिंदुओं के 
उभार से भरी 
ब्रेल लिपि के 
किसी पन्ने-सी,
होगी अनुभूति अद्भुत .. बस यूँ ही ...

करना 
टालमटोल कभी,
कभी-कभी 
टटोलना 
अंग-अंग
तन के,
एक-दूजे के,
कभी टोहना
एक-दूजे के मन-अमूर्त .. बस यूँ ही ...

Friday, July 12, 2024

हरकतों की हरारतों को ...


सिखला दो ना जरा 

'एडिट' करना भी कभी,

'फोटोशॉप एक्सप्रेस' से

मन की बातों को।


सिखला दो ना जरा 

'डिलीट' करना भी कभी,

मन की 'गैलरी' से

तुम्हारी यादों को।


सिखला दो ना जरा 

'रीसायकल बिन' भरना भी कभी,

ताकी कर सकूँ दफ़न

तुम्हारी बीती रूमानी बातों को।


सिखला दो ना जरा 

'एम्प्टी' करना भी कभी

'रीसायकल बिन', मिटा दे जो

तुम्हारे अर्थहीन वादों को।


सिखला दो ना जरा 

'अनडू' करना भी कभी,

संग बीते लम्हों की

शरारती हरकतों को।


सिखला दो ना जरा 

'सेव' करना भी कभी,

उन जवान पलों की

हरकतों की हरारतों को।


सिखला दो ना जरा 

'मैट्रिमोनियल साइट्स' देखना भी कभी,

भरे असंख्य बेहतर विकल्पों से,

तोड़ के संग किए प्रेम-संकल्पों को .. बस यूँ ही ...

Monday, July 8, 2024

खूँटे की रस्सी .. बड़ी हो या छोटी ... (२)


गतांक वाली बतकही यानी "खूँटे की रस्सी .. बड़ी हो या छोटी ... (१)" में हम अवगत हुए, कि जब नेत्रहीन पर .. दृष्टीहीन नहीं, बधिर पर .. समस्त मानव के हृदय-स्पंदन को सुनने वाली तथा आंशिक मूक पर .. समस्त विश्व में अपनी रचनाओं .. अपने आंदोलनों और समाज में किए गए सकारात्मक परिवर्तनों के माध्यम से बोलने वाली एक महिला - हेलेन एडम्स केलर .. अपने वृहत् दृष्टिकोण से कई सामाजिक समस्याओं के लिए जमीनी अभियान चला कर विश्वस्तरीय बदलाव ला सकती हैं, तो .. ऐसे में हमलोग जैसे मौखिक मुहीम चलाने वाले लोगों को .. यानी स्वयं को .. जिनके पास आँख, कान और बोलने वाला मुँह भी है  .. बौना महसूस करने में तनिक भी गुरेज़ नहीं करना चाहिए .. शायद ...

परन्तु .. हमें हमारी संतानों के रूप में अपनी भावी पीढ़ी को उनके पाठ्यक्रमों से इतर भी .. हेलेन एडम्स केलर और ऐनी सुलिवन मैसी जैसी विश्वस्तरीय महान विभूतियों के बारे में अवगत करानी चाहिए। बेशक़ .. विभिन्न शैक्षिक परीक्षाओं या प्रतियोगी परीक्षाओं को 'पास' करने हेतु विशिष्ट अंक प्राप्त करने भर के लिए नहीं, बल्कि उनमें एक वृहत् व विस्तृत दृष्टिकोण एवं उन्नत मानसिकता वाली सोचों की उत्पत्ति के लिए .. बस यूँ ही ...

अब आज के आख़िरी पृष्ठ में "खूँटे की रस्सी .. बड़ी हो या छोटी ... (२)" के शेष-विशेष अंश में कामवाली- पार्वती की मुसीबतों के बारे में उसी से जानते हैं और उनके समाधान अवश्यंभावी हो या ना हो, पर हमें उनकी तलाश के लिए अवश्य ही हर सम्भव कोशिश करनी चाहिए .. शायद ...

वैसे इस बतकही के प्रेरणास्रोत की बातें भी अभी बतकही के अन्त में हम अवश्य करेंगे, तो अब .. तब तक झेलते हैं इस बतकही को .. बस यूँ ही ...

खूँटे की रस्सी .. बड़ी हो या छोटी ... (२)

अभी दोपहर के लगभग दो-ढाई बजे काकोली घोष, सौम्या रावत, नैना सेमवाल और पार्वती .. सभी का जमावड़ा जम गया है नलिनी (अष्ठाना) आँटी के घर पर।

नलिनी - " क्या हुआ पार्वती ? आज तुम काम करने भी नहीं आयी। कैसी मुसीबत आ पड़ी है तुम पर ? "

पार्वती - " आपसे बतलाने में लाज आ रही है आँटी .. हिम्मत नहीं हो पा रही .. आपको बतलाने की .. "

नलिनी - " लज्जा करने से कैसे काम चलेगा पार्वती ? ऐसे में थोड़े ही ना मुसीबत टल जाएगी तुम्हारी .. आँ .. "

सौम्या - " ऐसे में हमलोगों के कामों का भी नुक़सान हो रहा है .. वो अलग है पार्वती .. "

पार्वती अपने झुके सिर को और भी दस-बीस डिग्री नीचे की ओर झुका कर .. कभी अपनी कर्ण कुण्डलिनी में अपनी तर्जनी को फिराती हुई, तो कभी कर्णफूल टँगी अपनी कर्ण पालि को तर्जनी व अँगूठे की मदद से नीचे की ओर तानती हुई .. अपनी आँखों में उमड़े आँसुओं के आवेग को रोकने का असफ़ल प्रयास कर रही है। फिर भी नलिनी आँटी के अतिथि कक्ष के 'मार्बल' वाले साफ़-सुथरे फ़र्श पर उसके आँसू की दो-चार टपकी बूँदों पर वहाँ उपस्थित, पार्वती के अलावा, सभी चारों लोगों की नज़र पड़ ही गयी है।

नलिनी - " पार्वती ! .. ऐसे सिर झुका कर रोने से कोई हल नहीं निकलने वाला। समझी ना ! .. मान लो .. अब अगर हमें 'पाइल्स' (बवासीर) या 'ल्यूकोरिआ' (श्वेत प्रदर) जैसी बीमारी हो जाएगी, तो .. उसकी चर्चा करनी .. हिचक या लज्जा करने जैसी कोई गलत या बुरी बात कैसे हो सकती है भला ! .. आयँ ! .. परिवार से, समाज से या डॉक्टर से साझा करने के बजाए उसको बुरी बातें कह के हिचक या शर्म से मौन रहने पर तो .. वो बीमारी या कोई भी मुसीबत .. और भी ज्यादा जानलेवा हो सकती है .. नहीं क्या ? .. बोलो ! .. "

पार्वती के प्रतिवचन सुनने के लिए कुछ पल के लिए कमरे में मानो एक चुप्पी व्याप्त हो गयी है। सब के सब निःशब्द .. पार्वती भी .. तभी ऐसे में ..,.

नलिनी - " अब बोलो भी पार्वती .. "

अब बमुश्किल पार्वती के होंठ हिले हैं .. लगभग रुआँसा होकर ..

पार्वती - " ऐसे तो आँटी .. वो (उसका धर्मपति) तो रोज रात में देशी दारू के नशे में धुत् हो कर घर आता है और .. कई रोज़ मेरी मर्ज़ी ना रहते हुए भी बिस्तर पर जैसे-जैसे उसका मन करता है, वैसे-वैसे जहाँ-तहाँ .. इधर-उधर .. जैसे-तैसे मेरे देह को नोचता-भंभोरता है आँटी .. उसके मुँह से आने वाले दारु के साथ-साथ खैनी और बीड़ी के बास को भी अपनी साँसें रोके-रोके .. पर जब अपना दम घुटने लगता है ना .. तब .. तब उस बास को बर्दाश्त करके .. उसी बास में गहरी साँस भी लेनी ही पड़ जाती है .. उसके फारिग होने तक .. पर ... "

काकोली - " तो ? .. इसमें ऐसी कौन सी नई बात हो गयी ? मर्द लोग तो ये सब खाते-पीते ही है ना ! .. अन्तर बस्स ! .. इतना ही है, कि तुम दारु, खैनी और बीड़ी के दुर्गन्धों को झेलती हो और हमारे जैसे लोग अंग्रेजी शराब, गुटखे और सिगरेट के .. "

पार्वती - " उतना तो हम भी समझते और .. बर्दाश्त भी करते हैं दीदी .. पर .. ख़ैर है, कि नशे में वो जल्दी ही फारिग हो जाता है। पर .. कल रात मुआ ना जाने कौन सा कैप्सूल निगल कर .. उसे का (क्या) कहते हैं .. बिगरा .. "

काकोली - " पगली ! .. बिगरा नहीं ..  वियाग्रा कहते हैं उसको .. "

पार्वती - " हाँ - हाँ .. वही .. खा कर कल रात .. देर तक अपनी आदतों और इच्छानुसार जहाँ-तहाँ भंभोरता रहा मेरे देह को और .. सुबह उठी तो .. सुबह .. 'पॉटी' करने में दर्द सहा नहीं जा रहा था .. बहुत चीख़ी, तड़पी .. पर मेरी वहाँ सुनता ही कौन भला ? .. "

काकोली - " ओह ! .. "

पार्वती - " मुँह में तो पहले से ही छाले हैं .. जब भी थोड़ा ठीक होता है, फिर से वही सब करता है मुँह में भी .. फिर से छाला बढ़ जाता है .. वो सब करने के समय मुँह और भी ज्यादा छन्छनाता है आँटी .. नहीं करो या करने दो तो .. जानवरों की तरह मारता-पीटता है .."

नलिनी - " ओह ! .. .. कोई बात नहीं .. मुँह के छाले के बारे में तो तुम पहले बतलायी ही थी। पर .. उसकी वजह नहीं। मैं समझ रही थी, कि पेट की गर्मी से .. ख़ैर ! उस की दवा तो तुम पहले से ही .. ले ही रही हो ना ? "

पार्वती - " हाँ .. आँटी खा रही है और .. लगा भी रही हूँ। नैना दीदी को तो .. सब कुछ पहले से पता है। उनसे हमेशा सब बतलाती है हम। उनसे कुछ भी नहीं छुपाती, पर .. आपसे बोलने में ... "

नलिनी - " ख़ैर ! .. कोई बात नहीं .. 'बाथरूम' के वक्त जो दर्द हो रहा है ना .. मेरे पास कुछ 'जेली' और 'क्रीम' हैं .. ले जाओ .. जहाँ दर्द हो रहा है, वहाँ लगाओ .. तुमको बहुत ही आराम मिलेगा .. "

पार्वती - " आपको भी इसकी जरूरत .. .. "

नलिनी - " अब ये मत पूछो .. बस दवाएँ ले जाओ। मैं नया खरीद लाऊँगी। "

सौम्या - " ये कौन सी दवा हैं ?"

नलिनी - " एक तो 'नार्मल' 'पेट्रोलियम जेली' है, जो 'मॉइस्‍चराइज' करता है और दूसरा 'जिंक ऑक्साइड' वाला "डेसिटिन" है, जो 'रैश' यानी खरोंच को भरता है। साथ में 'लिडोकेन' युक्त सुन्न करने वाली 'क्रीम'- "प्रिपरेशन एच" जो .. मल त्याग के दौरान घायल अंग को सुन्न करके उस के जलन और दर्द से अस्थायी तौर पर राहत दिलाता है .. " 

सौम्या - " ओ ! .. अच्छा ! .. "

नलिनी - " इसके लिए 'प्रिस्क्रिप्शन' की भी आवश्यकता नहीं पड़ती है। "डिटॉल", 'कंडोम' और 'सैनिटरी नैपकिन' की तरह ही .. ये सब एक 'ओ टी सी प्रोडक्ट्स' हैं। "

नैना - " ओ टी सी ... ? "

काकोली - "ओ टी सी यानी 'ओवर-द-काउंटर प्रोडक्ट्स' .. जिनके लिए 'डॉक्टर' के 'प्रिस्क्रिप्शन' की आवश्यकता या अनिवार्यता नहीं होती है। "

नलिनी - " जानती हो .. नारी देह के प्रकृत्ति प्रदत सारे विवर जब .. आवश्यकता की जगह विवशता का रूप ले लेते हैं, तो .. किसी भी जन्मदात्री की जन्नत-सी लगने वाली ज़िंदगी जहन्नुम में तब्दील हो जाती है। "

काकोली - " सात फेरे, सात जन्मों की हम लाख बातें कर लें, पर मर्ज़ी तो .... (?) .. ख़ैर ! .. ज्यादा क्या बोलना .. भारतीय वैवाहिक जीवन सैद्धांतिक या धार्मिक रूप से जैसा भी जान पड़ता हो, मगर वास्तव में है तो .. लगभग कई सारे समझौतों का संविधान भर ही .. "

नलिनी - " महिला-पुरुष की समानता अख़बारों और टी वी के न्यूज़ चैनलों के अलावा नारी विमर्श वाले मंचों पर तो बख़ूबी दिखता है, पर कितनी समानता है, ये तो .. वो औरत ही जानती व समझती है, जिसे अपने तथाकथित घर की चहारदीवारी के पीछे अपने ही 'बेडरूम' में वो सब झेल कर ही / भी रहना पड़ता है। "

पार्वती अपनी चारों मालकिनों की उसके पल्ले ना पड़ने वाली आपसी बातें बस चुपचाप टुकुर-टुकुर देखते (?) हुए .. वहाँ से बच निकलने की जुगत में नलिनी जी को सम्बोधित करते हुए ..

पार्वती - " आपलोगों के लिए चाय बना दें आँटी .. "

नैना - " अरे ! .. नेकी और पूछ-पूछ .. जल्दी ले आओ .. पर हाँ .. अदरख़ डालना मत भूलना .. "

पार्वती फ़ौरन नलिनी जी के रसोईघर की ओर लपक ली है। 

पार्वती के जाते ही .. लगभग फुसफुसाते हुए ...

सौम्या - " छोटे लोगों में तो .. ये सब चलता है आँटी .. "

काकोली - " नहीं .. ऐसा नहीं है .. छोटे लोग और बड़े लोगों की बात नहीं है। चलता तो सब में है .. बस .. उनके संज्ञा बदल जाते हैं .. उनकी व्याख्या और व्याख्यान बदल जाते हैं .. बस्स .. "

नलिनी - " रात के अँधियारे में या बियाबान जैसे एकान्त में .. बिस्तर पर नारी का सान्निध्य मिलते ही हर पुरुष .. केवल और केवल पुरुष रह जाता है .. तब वह कोई .. वक़ील-जज, टीचर-प्रोफेसर, चपरासी-अफ़सर, डॉक्टर-इंजीनियर, मंत्री-व्यापारी या मज़दूर-मिस्त्री नहीं रह जाता / पाता है .. केवल और केवल विशुद्ध पुरुष होता है .. अपनी-अपनी पौरुष क्षमता और काम-क्रीड़ा सम्बंधित अर्जित ज्ञान के अनुरूप .. मैं .. गलत तो .. नहीं बोल रही हूँ ना ? .. " 

काकोली - " ना .. ना-ना .. ये भी सही है आँटी .. "

नलिनी - " हमारी धरती पर .. सभी के अपने-अपने क्षेत्र या समाज के अनुसार .. नारीवाद की अपनी-अपनी अलग-अलग परिभाषा है और हम हैं, कि विश्व पटल पर एक ही ढर्रे पर नारी विमर्श की बातें कर-कर के समझ रहें हैं, कि हम समाधान तलाश रहे हैं जैसे ... " - आगे उपस्थित समस्त महिला मंडली की मूक मुख-प्रतिक्रिया को निहारते हुए - " अगर हम हिमालय के आसपास वाले क्षेत्रों से धरती का अवलोकन करें, तो हिमाच्छादित पर्वत की चोटियाँ ही नज़र आएगीं ना ? पर .. इसका मतलब ये तो नहीं, कि धरती पर कहीं भी ज्वालामुखी है ही नहीं .. हमारा समाज भी इसी धरती पर रचा-बसा तो है ही और .. है भी इसी धरती की तरह .. कहीं ज्वालामुखी तो .. कहीं बर्फ़ .. "

नैना - " वो तो है आँटी .. पर हम बचाव के लिए इसकी शिकायत पुलिस से तो कर ही सकते हैं ना ? .. "

नलिनी - " नहीं कर सकते नैना .. 'आईपीसी' की धारा 375 ए, बी, सी और डी के बाद नीचे अपवाद में लिखा हुआ है, कि किसी पुरुष द्वारा अपनी पत्नी, जिसकी उम्र पंद्रह वर्ष से कम न हो, के साथ किया गया कोई भी यौन संबंध या यौन क्रिया; जिनमें पत्नी के योनि, गुदा या मुँह में अपना उत्तेजित लिंग स्खलन तक डालना बलात्कार नहीं है। उसकी मर्ज़ी से या .. या बिना उसकी मर्ज़ी के ... "

नैना - " आईपीसी .. ? "

काकोली - " 'आईपीसी' मतलब .. 'इंडियन पेनल कोड' यानी भारतीय दंड संहिता .." 

नैना - " ओ ! .. "

नलिनी - " अब इसी साल (2024) एक जुलाई से इसे भारतीय न्याय संहिता यानी 'आई पी सी' की जगह 'बी एन एस' का नाम दिया गया है और धारा 375 अब .. धारा 63 हो गया है। "

सौम्या - " ओ ! .. अच्छा ! .. "

नलिनी - " अब चूँकि वैवाहिक बलात्कार को अभी तक कानून द्वारा मान्यता नहीं दी गई है, इसीलिए वो सारे अप्राकृतिक अपराध जो सामान्य रूप से आईपीसी की धारा 375 के दायरे में आते हैं, यदि यह पति और उसकी धर्मपत्नी के बीच हुआ है, तो उसे 'आईपीसी' की धारा 375 या 'बी एन एस' की धारा 63 के तहत बलात्कार के अपराध के बराबर नहीं माना जाता है। ऐसे में उपरोक्त घिनौने व अप्राकृतिक कृत्यों जैसे किसी भी यौन क्रिया के लिए पत्नी की सहमति या असहमति का भी .. कोई भी औचित्य नहीं रह पाता / जाता है। "

काकोली - " कम-से-कम "सहमति" वाली बात को तो .. इस धारा में संशोधन कर के निश्चित रूप से जोड़ी ही जानी चाहिए ना ? .. "

सौम्या - " हाँ .. सच में ऐसा ही होना चाहिए .. क्योंकि दोनों की समान रूचि के अनुसार सहमति से अगर जो कुछ भी होता है .. प्राकृतिक या अप्राकृतिक .. दोनों को ही अच्छा लगता है, तब तो ठीक है; पर .. वर्तमान में उपलब्ध धारा के अपवाद के अनुसार रूचि या सहमति ना रहने पर भी जबरन की गयी किसी भी उत्पीड़न के लिए .. किसी से भी शिकायत नहीं की जा सकती है .. है ना ? .. " - सौम्या अपनी लटों को झटकाते हुए आगे और भी आवेश के साथ बोल रही है - " और वो भी .. 'आई पी सी' की धारा 375 या आज की 'बी एन एस' की धारा 63 के अपवादों में बिना संशोधन के ? .. "

नलिनी - " दरअसल हम उसी समाज के अंग या अंश हैं, जिस समाज में गाय को माँ का दर्जा भी देते हैं और खूँटे से बाँध कर भी रखते हैं। उसके बछड़े के हिस्से के दूध को हड़प कर हम अपनी भावी पीढ़ी को पाठ भी पढ़ाते हैं, कि गाय दूध देती है। यही हम अपने पुरखों से भी सुनते-सीखते आये हैं। जबकि गाय बेचारी दूध देती तो है, पर अपने बछड़े के लिए .."

सौम्या - " हाँ .. सो तो है .. "

नलिनी - " अब गाय के खूँटे की रस्सी .. बड़ी हो या छोटी .. है तो बन्धन ही ना ? .. खूँटे से मुक्ति पाकर ही कोई / कोई-कोई अमृता प्रितम या महादेवी वर्मा बन पाती / जाती हैं। "

तभी पार्वती एक 'ट्रे' में चार 'कप' अदरख़ वाली चाय ले कर आ गयी है। उसके बाद सभी मिलकर अब आगे भी गपशप के साथ चाय पीने में व्यस्त हो गयीं हैं। पास ही बैठी पार्वती भी एक गिलास में अपनी चाय सुरक रही है।

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प्रेरणास्रोत की बातें :-

ये बतकही (कहानी) एक मनगढ़न्त कहानी भले ही हो या है भी, पर .. ये मुद्दा या विषय मनगढ़न्त नहीं है। दरअसल इसकी प्रेरणा 'आई पी सी' की धारा 375 या 01 जुलाई 2024 के दिन से आज की 'बी एन एस' की धारा 63 के दूसरे अपवाद को पढ़ कर मिली। वस्तुतः उन्हें पढ़ कर मन विचलित हो गया और तत्क्षण एक काल्पनिक .. पर इसे पूरी तरह काल्पनिक भी नहीं कह सकते .. कहानी/घटना दिमाग़ में कौंधी, कि .. अगर जिस किसी भी समाज या समुदाय में महिलाओं की इच्छा के विरुद्ध भी ऐसी घटनाएँ घटित होती होंगी .. जिनकी शब्दातीत पीड़ा उनके मन में ही घुट कर रह जाती होंगी और .. परन्तु हम औपचारिक खोखला नारी विमर्श कर-कर के महिलाओं की पीड़ा की इतिश्री समझ ले रहे हैं .. शायद ... 

हम आने वाले कल में .. चाँद और मंगल पर जो बस्तियाँ बसाने जा रहे हैं, क्या .. वहाँ भी एक पुरुष प्रधान समाज वाली ही बस्ती बसेगी, जहाँ महिलाओं की इच्छाओं का सम्मान, मूल्य या मूल्यांकन नहीं होगा ? 

आपकी सुविधा के लिए वर्त्तमान 'बी एन एस' की धारा 63 की अक्षरशः प्रतिलिपि उसके अपवाद सहित, जो 'आई पी सी' की धारा 375 के ही समकक्ष है, यहाँ चिपका रहा हूँ .. बस यूँ ही ... 

बलात्कार को परिभाषित करती 'आई पी सी' की धारा 375 यानी वर्त्तमान में 'बी एन एस' की धारा 63 और उसके दोनों अपवाद :-

【 " एक आदमी को "बलात्कार" करने वाला कहा जाता है यदि वह-

(क) किसी भी सीमा तक अपने लिंग को किसी महिला की योनि, मुँह, मूत्रमार्ग या गुदा में प्रवेश कराता है या उसे अपने साथ या किसी अन्य व्यक्ति के साथ ऐसा करने के लिए मजबूर करता है; या

(ख) किसी भी सीमा तक किसी वस्तु या शरीर के किसी भाग को, जो लिंग नहीं है, किसी स्त्री की योनि, मूत्रमार्ग या गुदा में प्रविष्ट कराता है या उससे या किसी अन्य व्यक्ति के साथ ऐसा करने को कहता है; या

(ग) किसी स्त्री के शरीर के किसी भाग को इस प्रकार प्रभावित करेगा कि उसकी योनि, मूत्रमार्ग, गुदा या शरीर के किसी भाग में प्रवेश हो जाए या उससे अपने साथ या किसी अन्य व्यक्ति के साथ ऐसा कराए; या

(घ) निम्नलिखित सात में से किसी भी प्रकार की परिस्थिति में किसी स्त्री की योनि, गुदा, मूत्रमार्ग पर अपना मुँह लगाता है या उसे अपने साथ या किसी अन्य व्यक्ति के साथ ऐसा करने के लिए कहता है :-

(i) उसकी इच्छा के विरुद्ध;

(ii) उसकी सहमति के बिना;

(iii) उसकी सहमति से, जब उसकी सहमति उसे या किसी ऐसे व्यक्ति को, जिससे वह हितबद्ध है, मृत्यु या क्षति का भय दिखाकर प्राप्त की गई हो;

(iv) उसकी सहमति से, जब पुरुष जानता है कि वह उसका पति नहीं है और उसकी सहमति इसलिए दी गई है क्योंकि वह मानती है कि वह कोई दूसरा पुरुष है जिसके साथ वह विधिपूर्वक विवाहित है या होने का विश्वास करती है;

(v) उसकी सहमति से, जब ऐसी सहमति देते समय, वह मानसिक विकृति या नशे के कारण या उसके द्वारा व्यक्तिगत रूप से या किसी अन्य के माध्यम से किसी नशीले या अस्वास्थ्यकर पदार्थ के सेवन के कारण, उस पदार्थ की प्रकृति और परिणामों को समझने में असमर्थ हो, जिसके लिए वह सहमति दे रही है;

(vi) उसकी सहमति से या उसके बिना, जब वह अठारह वर्ष से कम आयु की हो;

(vii) जब वह सहमति व्यक्त करने में असमर्थ हो।

स्पष्टीकरण 1.- इस धारा के प्रयोजनों के लिए, "योनि" में लघुभगोष्ठ भी सम्मिलित होंगे।

स्पष्टीकरण 2.-सहमति से स्पष्ट स्वैच्छिक समझौता अभिप्रेत है, जब महिला शब्दों, इशारों या किसी भी प्रकार के मौखिक या गैर-मौखिक संचार द्वारा, विशिष्ट यौन क्रिया में भाग लेने की इच्छा व्यक्त करती है:

परन्तु यह कि यदि कोई महिला प्रवेशन के कार्य का शारीरिक रूप से प्रतिरोध नहीं करती है तो केवल इस तथ्य के आधार पर उसे यौन क्रियाकलाप के लिए सहमति देने वाली नहीं माना जाएगा।

अपवाद 1.- कोई चिकित्सीय प्रक्रिया या हस्तक्षेप बलात्कार नहीं माना जाएगा।

अपवाद 2.- किसी पुरुष द्वारा अपनी पत्नी के साथ, जबकि पत्नी अठारह वर्ष से कम आयु की न हो, संभोग या अन्य अप्राकृतिक यौन कृत्य (अपने लिंग को पत्नी की योनि, मुँह, मूत्रमार्ग या गुदा में प्रवेश करना) बलात्कार नहीं है। " 】

अन्त में एक प्रश्न :-

लब्बोलुआब यही है, कि पति द्वारा कानूनी रूप से अपनी विवाहित धर्मपत्नी के साथ, उसकी इच्छा या सहमति के विरुद्ध भी, अप्राकृतिक यौन संबंध बनाना 'आईपीसी' की धारा 375 यानी 'बी एन एस' की धारा 63 के तहत अपराध नहीं है। 

मतलब .. हर भारतीय पुरुष को अपनी विवाहित धर्मपत्नी को उसकी इच्छाओं के विरुद्ध भी भरपूर रौंदने के लिए कानून का अनुचित संरक्षण प्राप्त है। 

पति रूपी पुरुष को मिला यह अनुचित अधिकार .. पत्नी रूपी महिला को एक बंधुआ मजदूरिन या .. ठेठ में कहें, तो .. एक यौन कर्मी की श्रेणी में लाकर खड़ा नहीं कर देता है क्या ???


Sunday, July 7, 2024

विधुर विलाप ...


रुदाली धर्म निभाते हुए,

विधवा विलाप करने वाले,

हत्या निर्दोषों की बताने वाले,

बतकही हमारे जैसे कहने वाले,

ढोंगी बाबाओं को दोषी ठहराने वाले ...


दोषी तो निर्दोष ही सारे,

बाबा ढोंगी को बनाने वाले,

महात्मा पतित को जताने वाले,

बिना कर्म चाह फल की रखने वाले ,

अंधविश्वास, अंधभक्ति अपनाने वाले ...


काका हाथरसी आज होते

जो हास्य कविता सुनाने वाले,

पढ़ कविता यमदूत* भगाने वाले,

बोर कर बाबा फक्कड़* को मारने वाले,

हाथरस में थे बाबा कब फिर बचने वाले ? ...


बाबाओं के हों जितने रेले

या विज्ञापनों के जितने भी मेले,

संग बाला-नारियों के ही होते खेलें,

मरती भी हैं वही, जब हो भगदड़ के झमेले,

आओ तब विधवा विलाप नहीं, विधुर विलाप रो लें ..

.. बस यूँ ही ...

* = उपरोक्त बतकही में काका हाथरसी जी (प्रभुलाल गर्ग) से सम्बन्धित दूत* और फक्कड़* वाली बात उनकी हास्य कविता "अद्भुत औषधि" से प्रेरित है। संदर्भवश उनकी कविता की अक्षरशः प्रतिलिपि निम्नलिखित है :- 

              अद्भुत औषधि

कवि लक्कड़ जी हो गए, अकस्मात बीमार ।

बिगड़ गई हालत मचा, घर में हाहाकार ।।

घर में हाहाकार , डॉक्टर ने बतलाया ।

दो घंटे में छूट जाएगी , इनकी काया ।।

पत्नी रोई – ऐसी कोई सुई लगा दो ।

मेरा बेटा आए तब तक इन्हे बचा दो ।।


मना कर गये  डॉक्टर , हालत हुई विचित्र ।

फक्कड़ बाबा आ गये , लक्कड़ जी के मित्र ।।

लक्कड़ जी के मित्र , करो मत कोई  चिंता ।

दो घंटे क्या , दस घंटे तक रख लें जिंदा ।।

सबको बाहर किया , हो गया कमरा खाली ।

बाबा जी ने अंदर से चटखनी लगा ली ।।


फक्कड़ जी कहने लगे – “अहो काव्य के ढेर ।

हमें छोड़ तुम जा रहे , यह कैसा अंधेर ?

यह कैसा अंधेर , तरस मित्रों पर खाओ ।

श्रीमुख से कविता दो चार सुनाते जाओ ।।”

यह सुनकर लक्कड़ जी पर छाई खुशहाली ।

तकिया के नीचे से काव्य किताब निकाली ।।


कविता पढ़ने लग गए , भाग गए यमदूत ।

सुबह पाँच की ट्रेन से , आये कवि के पूत ।।

आये कवि के पूत , न थी जीवन की आशा ।

पहुँचे कमरे में तो देखा अजब तमाशा ।।

कविता पाठ कर रहे थे , कविवर लक्कड़ जी ।

होकर बोर, मर गये थे बाबा फक्कड़ जी ।। 】


Thursday, July 4, 2024

शब्दातीत चीख पीड़ाओं की ...


दरवाज़े पर कहीं बाहर दरबान की तरह 

या भीतर कहीं सजावटी सामान की तरह, 

संभ्रांत अतिथि कक्षों, आलीशान मॉलों में,

हवाईअड्डे, बार-रेस्टोरेंटों या पाँच सितारा होटलों में

हैं मूर्तियाँ तुम्हारी खड़ी-बैठी ध्यानमुद्राओं में, जिन्हें

देख के सच्ची-मुच्ची .. बहुत ही कष्ट होता है .. बस यूँ ही ...


दुष्प्रभाव से मद्यपान के क्षरित हों या ना हों,

मानव वृक्क-हृदय .. सारे के सारे तन हमारे, 

मादकता में मदिरा की भले ही हो या ना हो,

बुद्धि शिथिल व्यसनी जन की, तो भी .. उससे

पहले .. सच्ची-मुच्ची विवेक तो भ्रष्ट होता है, जिन्हें

देख के सच्ची-मुच्ची .. बहुत ही कष्ट होता है .. बस यूँ ही ...


मदिरा है प्रतिष्ठा का प्रतीक इस सभ्य समाज में 

बुद्धिजीवियों के बीच, है अनोखी सीख इनकी,

कबाबों .. चिकेन जैसे चखनों में दिखती ही नहीं,

सनी सजीवों की शब्दातीत चीख पीड़ाओं की, पर ..

ऐसे में .. सच्ची-मुच्ची संस्कार तो नष्ट होता है। 

देख के सच्ची-मुच्ची .. बहुत ही कष्ट होता है .. बस यूँ ही ...


पीपल तले, शुद्ध प्राणवायु में तुम रमने वाले,

उनकी तो ना सही, पर धुएँ में धूम्रपान के उनके, 

घुटते ही होंगे दम तो अवश्य ही तुम्हारे ..

हुँकारों से धर्मों-सम्प्रदायों के, हर्षित हैं वो सारे, पर परे

इससे .. सच्ची-मुच्ची मानव मन त्रस्त होता है।

देख के सच्ची-मुच्ची .. बहुत ही कष्ट होता है .. बस यूँ ही ...


{ महान रचनाकार हरिवंश राय बच्चन जी की कालजयी रचनाओं में से एक - "बुद्ध और नाचघर" को पढ़ने का तो नहीं, परन्तु लगभग सत्तर-अस्सी के दशक वाले वर्षों में एक चमत्कार की तरह अवतरित व प्रचलित उपकरण - टेप रिकॉर्डर और कॉम्पैक्ट कैसेट यानी ऑडियो कैसेट या टेप के सौजन्य से उन्हीं के सुपुत्र अमिताभ बच्चन की आवाज़ में सुनने का मौका अवश्य मिल पाया था। उन्हीं दौर में उपरोक्त उपकरण से ही मन्ना डे जी की मधुर आवाज़ में हरिवंश राय बच्चन जी की ही एक और दर्शन से भरी कालजयी रचना "मधुशाला" को भी सुनने का सुअवसर प्राप्त हुआ था।

तब भी पहली बार एवं तत्पश्चात् बारम्बार सुनने पर उपरोक्त दोनों रचनाओं ने मन पर गहरी छाप छोड़ी थी और आज भी बुद्ध की प्रतिमाओं के अनुचित स्थानों पर अनुचित प्रयोग किए जाने वाले दृश्यों को देखते ही .. संवेदनशील मन व्यथित व विचलित हो जाता है और .. स्वतःस्फूर्त कुछ बतकही फूट ही पड़ती है। }




Thursday, June 27, 2024

खूँटे की रस्सी .. बड़ी हो या छोटी ... (१)

आज ही के दिन अर्थात् 27 जून को सन् 1880 ईस्वी में हेलेन एडम्स केलर नामक तत्कालीन भावी अमेरिकी अधिवक्ता, व्याख्याता, प्रभावशाली लेखिका, राजनीतिक कार्यकर्ता और वास्तविक विश्वस्तरीय जनकल्याण करने वाली समाजसेविका का जन्म हुआ था .. जो बचपन में ही एक अज्ञात असाध्य रोग से ग्रसित होने के कारण एक ही साथ अँधी, बहरी और आंशिक गूँगी हो गयीं थीं और वैसी ही जीवनपर्यंत बनी रहीं। 

परन्तु वह बोस्टन के पर्किन्स स्कूल फॉर द ब्लाइंड जैसी शिक्षण संस्थान और ऐनी मैन्सफील्ड सुलिवन मैसी जैसी आंशिक रूप से नेत्रहीन प्रशिक्षिका, जिन्हें उनका आजीवन सहयोगी भी बोला जाता है, के सहयोग से और उनके मार्गदर्शन में कला स्नातक की उपाधि पाने वाली विश्व की प्रथम मूक, बधिर और दृष्टिहीन महिला बनी थीं।

वह तत्कालीन अमेरिकन सिविल लिबर्टीज यूनियन 'पार्टी' की सदस्या के रूप में अमेरिका के साथ-साथ और भी अन्य देशों के श्रमिकों व महिलाओं के मताधिकार और श्रम अधिकारों के समर्थन में आंदोलन छेड़ने के अलावा तत्कालीन कई कट्टरपंथी शक्तियों के विरोध में भी सतत अभियान चलाती रहीं थीं। उस जमाने में भी वह जनसंख्या नियंत्रण जैसे विषय पर आवाज़ उठायीं थीं। वह विकलांगों के लिए यथोचित शिक्षा की व्यवस्था के साथ-साथ उनके अन्य मूलभूत अधिकारों के लिए भी ताउम्र आन्दोलन करती रहीं थीं। यूँ तो वह कई सकारात्मक पहलूओं की आन्दोलनकारी रहीं, पर संघर्षपूर्ण हिंसक क्रांति का समर्थन कभी भी नहीं करती थीं। एक संवेदनशील लेखिका होने के नाते उनकी अधिकांश रचनाएँ प्रायः युद्ध विरोधी ही हुआ करती थीं। 

हम अक़्सर पाते हैं, कि बड़ी सोचें हमेशा विस्तृत व विराट होती हैं, जो .. जाति-धर्म, दल-गुट, रंग-नस्ल, कद-काठी, नयन-नक़्श, भाषा-पहनावा, पुरुष-नारी, मुहल्ला-जिला, राज्य-देश जैसे विषयों की सीमा से परे .. बंधनमुक्त होकर विश्व के समस्त मानव जाति के लिए एक समान सोचतीं हैं।

ऐसी ही सोचों वाली हेलेन एडम्स केलर हमेशा इस बात को प्रमुखता देती रहीं, कि इस महान दुनिया में हर जगह घर जैसा महसूस करने का अधिकार सभी को मिलना चाहिए। उन्होंने महिलाओं और विकलांगों के यथोचित अधिकारों के लिए कई-कई बार विश्व भ्रमण किया था। विश्व भ्रमण के दौरान विकलांग व्यक्तियों के प्रति समाज के बीच एक सहानुभूतिपूर्ण या .. यूँ कहें कि .. समानुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण बनाने के प्रयास के साथ ही दानस्वरूप मिले एकत्रित करोड़ों रुपयों से विकलांगो के लिए, विशेष कर नेत्रहीनों के लिए अनेक संस्थानों का निर्माण भी करवाया था। 

वे ब्रेल लिपि में कई मौलिक ग्रंथ लिखी थीं और उन्होंने कई अन्य पुस्तकों का अनुवाद भी किया था। उनकी लिखी आत्मकथा "द स्टोरी ऑफ माई लाइफ" विश्व की लगभग पचास भाषाओं में प्रकाशित हो चुकी है।

लब्बोलुआब ये है, कि जिस तरह अपनी वाक्पटुता और अथक सक्रियता के समर्पण से अपने समस्त जीवन की ऊर्जा असंख्य मानवीय कार्यों के लिए वह न्योछावर करती रहीं, तो .. ये कहने में अतिशयोक्ति नहीं होगी, कि सुनने, देखने और बोलने की क्षमता से वंचित, परन्तु ..  सूँघने, चखने एवं स्पर्श की शक्ति से सिंचित .. नेत्रहीन होते हुए भी एक विलक्षण नज़रिया वाली वह विश्व का आठवाँ आश्चर्य ही थीं।

कहते हैं, कि इन्हीं केलर और ऐनी की ही जीवनी से प्रेरित होकर सन् 1962 ईस्वी में "द मिरेकल वर्कर" नामक अमेरिकी फ़िल्म बनी थी। वर्तमान 'सोशल मीडिया' में प्रचलित निर्लज्ज 'कॉपी & पेस्ट' वाली प्रवृति की तरह ही भारतीय सिनेमा जगत में भी धड़ल्ले से की जाने वाली 'कॉपी & पेस्ट' की चर्चा .. जैसाकि पहले भी हम कर चुके हैं, तो .. उस "द मिरेकल वर्कर" की कथानक में कुछ-कुछ फेर-बदल कर के अपने यहाँ "ब्लैक" नामक फ़िल्म सन् 2005 ईस्वी में संजय लीला भंसाली द्वारा बनायी गयी थी। सर्वविदित है कि उसमें अमिताभ बच्चन और रानी मुख़र्जी ने अभिनय किया था। 

उन्हीं हेलेन एडम्स केलर जैसी महान विभूति की सोचों के अवलोकन से प्रेरित होकर .. आज भी हमारे समाज के इर्द-गिर्द कई या कुछेक नारियों की एक अनछुई-सी .. अनबोली-सी .. अनसुनी-सी और .. अनदेखी की गयी पारिवारिक-सामाजिक समस्या को छूने का एक तुच्छ प्रयास भर है हमारा .. हमारी आज की निम्नलिखित बतकही (कहानी) में ...


खूँटे की रस्सी .. बड़ी हो या छोटी ... (१) :-

" हेलो ! .. काकोली .. अभी सुबह पार्वती तुम्हारे घर आयी थी क्या ? "

" नहीं तो 'आँटी' .. मेरे यहाँ भी तो .. आज नहीं आयी है। उसका मोबाइल भी 'स्विच ऑफ' आ रहा है। सौम्या भाभी से पता करना पड़ेगा .. "

" मेरे यहाँ भी नहीं आयी। इतना दिन निकल आया। अब तो साढ़े ग्यारह बजने वाला है। दरअसल सुबह-सुबह सबसे पहले तो तुम्हारे घर ही आती है ना .. फिर सौम्या के पास से नैना के घर का काम करते हुए ही हमारे पास आती है। इसीलिए सबसे पहले तुम्हीं को फोन लगायी .. अब सौम्या से पूछती हूँ और फिर नैना से भी .. "

" हाँ 'आँटी' .. पर .. अगर आप कहें, तो सौम्या भाभी और नैना दीदी को मैं 'लाइन' पर ही ले लेती हूँ। "

" हाँ.. यही ठीक रहेगा .. और .. तुम्हारे घोष बाबू चले गए 'ड्यूटी' पर ? "

" हाँ, हाँ .. वो तो .. कब का 'आँटी' .. हम औरतों के घरेलू कामों में परिस्थितिवश लाख कठिनाई आ जाए, पर इन मर्द लोगों को तो सब कुछ समय पर ही तैयार मिलनी चाहिए। वर्ना ..  ख़ैर ! .. अब मैं आपको 'होल्ड' पर रख कर, फ़ौरन दोनों कोई को 'लाइन' पर लेने के बाद .. आपको जोड़ती हूँ .. "

" हाँ .. "

" फोन काटीएगा नहीं .. "

" ना - ना .. "

कुछ ही पलों में काकोली घोष ने सौम्या भाभी और नैना दीदी को 'कॉल' पर जोड़ कर 'होल्ड' पर टिकी हुई अपनी नलिनी 'आँटी' को पुनः जोड़ती है।

दरअसल यहाँ देहरादून के ही एक मुहल्ले में पश्चिम बंगाल की काकोली घोष, उत्तराखंड की ही सौम्या रावत, नैना सेमवाल, पार्वती और उत्तरप्रदेश की नलिनी अष्ठाना का परिवार रहता है। इनमें नैना सेमवाल को छोड़ कर अन्य सभी लोग किराएदार हैं। सौम्या रावत का परिवार उत्तराखंड के ही कुमाऊँ क्षेत्र से और पार्वती का जौनसार क्षेत्र से है। 

यहाँ रेसकोर्स जैसे पॉश कॉलोनियों को छोड़ दें, तो अन्य हिस्से में किराए के मकान आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं, क्योंकि गढ़वाल के अधिकांश लोग या तो फ़ौज में हैं या फिर 'होटल-रेस्टोरेंट' व्यवसाय में अपने भारत देश से दूर स्वीडन, पुर्तगाल, न्यूजीलैंड, जापान, कोरिया जैसे विदेशों में जा कर बसे हुए हैं। कुछ लोग सपरिवार, तो कुछ परिवार के मर्द व बच्चे या फिर कुछ के केवल मर्द विदेशों में बसे हुए हैं। यूँ तो वहाँ विदेशों में कुछ लोगों ने खुद के 'रेस्टोरेंट' खोल रखे हैं, पर अधिकतर लोग भले ही वहाँ 'कुक' की नौकरी करते हों, पर यहाँ .. खुद को किसी विदेशी 'रेस्टोरेंट' का 'मैनेजर' या मालिक ही बतलाते हैं। ख़ैर ! .. जो भी हो .. यूँ तो हमारे आसपास वास्तविक अमीरों की संख्या से कई गुणा ज्यादा तो .. डींग हाँकने वाले यानी 'शो ऑफ' करने वाले अमीरों की ही संख्या है। 

जीवकोपार्जन हेतु विदेशों में या सेना में रहने के कारण उनके खाली घर .. यहाँ आए प्रवासियों को किराए पर सुगमता से उपलब्ध हो जाते हैं, लेकिन .. एक 'लीगल रेंट एग्रीमेंट' और 'पुलिस वेरिफिकेशन' की औपचारिकता पूरी करने के बाद। बाक़ी तो घर का मुखिया या उनका परिवार दूर विदेशों में रह कर भी यहाँ अपने घर में लगवाए गए 'सी सी टी वी कैमरों' से अपने घर और अपने किराएदारों की गतिविधियों पर नज़र टिकाए रहते हैं। कुछ भी उन्नीस-बीस होने पर फ़ौरन आदेश-निर्देश भरा उनका 'व्हाट्सएप्प कॉल' आ जाता है। रही बात किराए की तो, वो सही समय पर किराएदारों द्वारा उनको 'ऑनलाइन' भेज दिया जाता है।

हालांकि .. इन मकान मालिक और किराएदारों वाली उपरोक्त बातों का आज की इस बतकही से कोई लेना-देना नहीं है। पर बतकही के दौरान लगा, कि .. जो सब कुछ महसूस किया हूँ यहाँ पर .. वो सब यहाँ .. इस 'ब्लॉग' रूपी 'डायरी' में बकबका ही दूँ .. बस नलिनी अष्ठाना  यूँ ही ...

ख़ैर ! .. काकोली घोष द्वारा सौम्या रावत और नैना सेमवाल के बाद नलिनी अष्ठाना को भी फोन पर जोड़े जाने पर .. चारों लोगों का फ़ोन पर ही पार्वती (कामवाली)-पुराण आरम्भ हो गया है।

काकोली घोष - " आँटी ! .. " 

नलिनी अष्ठाना - " हाँ .. काकोली .. बात हुई सौम्या और नैना से .. "

काकोली - " हाँ आँटी .. वो लोग 'लाइन' पर ही हैं .. "

सौम्या - " प्रणाम .. "

नैना - " नमस्ते आँटी .. "

नलिनी - " सब लोग खुश रहो .. कुशलमंगल रहो .."

सौम्या -" पर ये पार्वती की बच्ची रहने देगी तब ना आँटी .."

सौम्या की इस बात पर चारों के ठहाके एक साथ लगने लगे हैं।

नैना - " पार्वती मुसीबत में है आँटी। आप लोगों से उतनी खुली हुई नहीं है ना, पर हम से अपना हर सुख-दुःख बतलाती रहती है। "

नलिनी - " क्या हो गया उसको ? "

नैना - " अब क्या बोलें आप लोगों से आँटी .. बोलते हुए भी हिचक से ज्यादा .. शर्म आ रही है .. ना-ना .. हम से ना बोला जाएगा .. ना ! .. "

नलिनी - " अब .. अगर हम सभी हिचक या शर्म से मौन रहने लगे, तो .. वो मुसीबत तो .. जानलेवा तक हो सकती है .. नहीं क्या ? .. "

काकोली - " आँटी ठीक ही तो बोल रहीं हैं नैना दीदी .. "

नलिनी - " अगर तुमको बतलाने में शर्म आ रही है, तो उसी को लेकर आ जाओ दोपहर में मेरे घर। हम लोग मिलकर उसकी मुसीबत उसी से सुनेंगे और उसे कम करने की भरसक कोशिश भी करेंगे .. ये ठीक है ना ? .. "

सौम्या -" हाँ .. ये ठीक रहेगा .. इसी बहाने आँटी के हाथों से बनी अदरख़ वाली चाय पीने के लिए मिलेगी .. है ना काकोली ? "

सभी की हामी के बाद फ़ोन कट गयी है। 

अब दोपहर लगभग दो-ढाई बजे सभी का जमावड़ा जम गया है नलिनी आँटी के घर पर।

नलिनी - " क्या हुआ पार्वती ? आज तुम काम करने भी नहीं आयी। कैसी मुसीबत आ पड़ी है तुम पर ? "

{ शेष-विशेष अगले और आख़िरी अंक - "खूँटे की रस्सी .. बड़ी हो या छोटी ..." (२) में .. बस यूँ ही ... }.  

Wednesday, June 5, 2024

प्रेस विज्ञप्ति ...


" माला दी' ! (दीदी) .. हमारी तरफ से तो आज हुए कार्यक्रम की प्रेस विज्ञप्ति तैयार है। अगर आप कहें तो .. अभी पढ़ कर आपको सुनाऊँ ? .. "

" ठीक है सुषमा .. सुना देना। पर .. इतनी भी हड़बड़ी क्या है .. पहले मुनिया को शरबत लाने तो दो। शरबत पी लो और ..  पी कर थोड़ा सुस्ता लो .. फिर सुना देना। "- कमरे में 'सेंटर टेबल' पर रखे पानी से भरे बोतल की ओर इशारा करते हुए - " तब तक ये 'फ्रिज' का ठंडा पानी पियो। आराम से बैठो .. पैर ऊपर करके .. कुछ देर 'बेड' पर लेटना चाहो, तो .. लेट लो। "

" बस .. ठंडा पानी पी लेती हूँ दी' पर .. लेटने का मन नहीं अभी। ऐसे ही ठीक है। "

" 'ए सी' को अठारह पर कर दूँ ? "

" नहीं , नहीं .. बीस पर ही ठीक है दी' । "

दरअसल माला नागर जी 'आर एन आई' यानी भारत के समाचार पत्रों के 'रजिस्ट्रार ' द्वारा पंजीकृत एक मासिक पत्रिका - "साहित्य उपवन" की संपादिका के साथ-साथ "साहित्य उपवन" संज्ञा वाली ही एक साहित्यिक संस्था की अध्यक्षा भी हैं। भले ही सरकारी विभाग में दिखाने के लिए इनके तरफ़ से मासिक पत्रिका की उपस्थिति दर्ज़ करायी जाती है ; पर वास्तविकता यही है, कि द्विमासिक पत्रिका ही मूल रूप से छपती है।  और .. सुषमा झा .. स्वाभाविक है, कि उसी संस्था की एक सक्रिय सदस्या हैं व एक कुशल गृहिणी भी , पर .. सक्रिय सदस्या पहले व कुशल गृहिणी बाद में। 

दरअसल आज भी तथाकथित सामाजिक सरोकार वाले कार्यक्रम के समापन के पश्चात लौटने के बाद अभी-अभी माला नागर जी के अतिथि कक्ष में ही उनके और सुषमा झा के बीच उपरोक्त वार्तालाप हो रहा है। 

तभी 'रूह अफ़ज़ा' द्वारा तैयार शरबत से भरे दो काँच वाले क़ीमती पारदर्शी गिलास, जिनमें 'फ्रिज' के 'डीप फ्रिजर' में जमाए हुए चंद तैरते 'आइस क्यूब्स' भी हैं और उसी शरबत व 'आइस क्यूब्स' से भरा एक काँच का ही पारदर्शी 'जग' भी, जिन्हें बाँस से बने एक कलात्मक और स्वाभाविक है कि .. क़ीमती भी .. 'ट्रे' में लेकर अतिथि कक्ष में मुनिया के प्रवेश होते ही ...

" लो सुषमा .. पहले इस ठंडे शरबत से अपना गला तर कर लो, ताकी बाहर की गर्मी का असर कम हो जाए। फिर प्यार से पीते-पीते सुनाओ .. वो प्रेस विज्ञप्ति। "

अभी माला नागर जी व सुषमा झा के बारे में जानने के पश्चात .. उचित है कि .. थोड़ा-बहुत .. मुनिया के बारे में भी हमलोग जान ही लें .. वह इन दिनों लगभग बारह-तेरह साल की एक लड़की है .. वैसे तो यह बकने में शायद अतिशयोक्ति नहीं होनी चाहिए, कि वह एक लड़की कम .. एक नौकरानी ज्यादा है। जिसे माला जी अपने श्वसुर जी के खेतों में काम करने वाले कई जन-मजदूर व मजदूरिनों में से किसी एक ग़रीब विधवा मजदूरिन माँ की चार संतानों, वो भी चारों की चारों बेटियाँ, में से एक सबसे बड़ी बेटी- मुनिया को अपने ससुराल के गाँव से क़रीब दो वर्ष पूर्व अपने साथ सौग़ात स्वरुप ले आयीं थीं और .. वो भी .. मुनिया को शहर में अपने पास रख कर उसे काम के बदले खाना-कपड़ा प्रदान करके .. उस को और उस की माँ को अनुगृहित करने के भाव से अपनी बूढ़ी गर्दन को अकड़ाते हुए।

दोनों ही लोगों द्वारा अपना-अपना पहला शरबत का गिलास गटागट तेजी से खाली करने के बाद .. पुनः काँच के क़ीमती 'जग' से उन्हीं दोनों गिलासों में मुनिया द्वारा शरबत उड़ेलने पर अब .. गर्मागर्म चाय पीने की तरह चुस्की लेते हुए ...

" हाँ .. अब बोलो सुषमा .. खाना खाओगी ? .. मुनिया को बोलूँ .. बनाने के लिए ? "

"नहीं दी' .. खाना रहने दीजिए .. और फिर .. समाचार पत्र के 'ऑफिस' भी तो जाना है मुझे .. घर जाते हुए रास्ते में .. ये प्रेस विज्ञप्ति देती हुई चली जाऊँगी .. है ना ? .."

" तुम कहो तो .. अभी 'ओवन' में पकवाएँ 'गार्लिक-लेमन चिकेन' और गर्मागर्म 'चिकेन'-रोटी खाते हैं .. "

" नहीं दी' .. रहने दीजिए .. "

" अरे .. आज तो बुधवार है .. आज तो कोई मंगल-शनि या वृहष्पतिवार वाली कोई बात भी नहीं है .. तुम्हारे बहाने हमारा भी मुँह थोड़ा "सोंधा" जाएगा .."

" ना - ना .. आप परेशान मत होइए दी' .."

" धत् ! .. इसमें परेशानी वाली क्या बात है भला .. मुनिया जा कर ले आएगी पास के बाज़ार से कटवा कर ताजा मुर्गा और कुछ ही देर में बना भी देगी .."

" नहीं दी' .. आज रहने दीजिए .. फिर कभी .. आपको तो पता ही है, कि कल ..  वट सावित्री व्रत है .."

" तो क्या हुआ ? .. कल सिर धो के नहा लेना .. सब शुद्ध हो जाएगा .. नहीं क्या ? .. "

" ना .. दी' .. आज छोड़ दीजिए .."

" ठीक है .. जैसा तुमको अच्छा लगे .. तो चलो .. अब प्रेस विज्ञप्ति ही सुना दो "

" जी ! .. दी' ! अब गौर से सुनिए .. कोई त्रुटि रह गयी हो, तो बोलिएगा .. हाँ ! .." - अपने 'हैंडबैग' से एक 'राइटिंग पैड' निकाल कर - 

" आज ५ जून को "विश्व पर्यावरण दिवस" के अवसर पर "साहित्य उपवन" की अध्यक्षा महोदया श्रीमती माला नारंग जी ने नगर सामुदायिक भवन के प्रांगण में अपने कर-कमलों द्वारा गुलमोहर और पिलखन के एक-एक पौधे का पौधारोपण किया। इस अवसर पर प्राँगण में उपस्थित "साहित्य उपवन" के सभी गणमान्य सदस्यों ने पर्यावरण से सम्बन्धित काव्य पाठन भी किया। काव्य गोष्ठी का संचालन स्वयं माला नारंग जी कर रहीं थीं। उनकी अध्यक्षता में यह कार्यक्रम बहुत ही सफ़लतापूर्वक सम्पन्न हुआ। पौधारोपण और काव्यपाठन करने वालों में कर्मठ समाजसेविका श्रीमती माला नारंग के साथ-साथ सुषमा झा, दीक्षा मेहता, मनोज भटनागर, समर सिंह, ज्योति अग्रवाल,  ... ... ... ... ... सरिता सहाय, इकराम क़ुरैशी इत्यादि उपस्थित थे। "

" वाह ! .. अति सुन्दर ! .. पर .. सबलोगों का नाम इसमें आ गया है ना ? एक बार ठीक से 'चेक' कर लेना .. किसी का नाम छूट ना जाए कहीं .. "

" हाँ दी' ! .. वैसे तो किसी का भी नाम नहीं छुटा है। सभी उपस्थित जनों का नाम हमने अपने इसी 'नोटबुक' में 'नोट' करके उसके सामने उन सभी उपस्थित लोगों से हस्ताक्षर करवा लिया था। उसी 'लिस्ट' से सारा का सारा नाम लिया है मैंने .. वैसे .. आप कह रहीं हैं, तो एक बार .. पुनः 'चेक' कर लेती हूँ। "

" और हाँ .. सरिता सहाय के नाम को अपने नाम के बाद वाले क्रम में ही डाल दो .. उतना नीचे रखोगी उनका नाम तो .. अगर प्रेस वालों की तरफ से इस विज्ञप्ति में कुछ प्रेस टिप्पणी जोड़ने पर उनके उपलब्ध 'कॉलम' में जगह कम पड़ गयी, तो नीचे वाले कुछ नामों के साथ-साथ इनका नाम भी कुछ यूँ ही छपने से चूक जाएगा। "

" जी दी' .. सही कह रहीं हैं आप .. "

" समझ रही हो ना .. हम क्या कहना चाह रहे हैं .. किसी का भी नाम छपे या कटे, कोई बात नही, पर .. मेरे साथ-साथ तुम्हारा और सरिता का नाम तो छपना ही चाहिए .. समझ गयी ना ? "

" हाँ दी' .. अभी सुधार कर देती हूँ .. पहले जरा 'वाशरूम' से हो आऊँ ? "

गर्मी के मौसम में हर क्षेत्र की उसकी भौगोलिक परिस्थिति के अनुसार अलग-अलग समस्याएँ होती हैं .. कहीं गर्म हवा वाली लू की झुलसन, तो कहीं पसीने वाली चिपचिपी गर्मी की समस्या। पर एक समस्या हर जगह आम है, कि .. ऐसे में जितनी ज्यादा प्यास लगती है, तो ज्यादा से ज्यादा पानी-शरबत पीनी पड़ती है और फिर .. उतनी ही ज्यादा मूत्र विसर्जन की तलब भी होती है। माला नागर जी के घर का एक 'जग' ठंडा पानी और दो-दो गिलास शरबत की ही देन है ये .. सुषमा झा की 'वाशरूम' जाने की तलब .. शायद ...

" अब लो .. ये भी कोई पूछने वाली बात है भला ! .. जाओ .. हो के आओ .. " - फिर सहयोग के लिए मुनिया को आवाज़ देते हुए -" मुनिया ! .. मुनिया !... "

" मैं खुद ही चली जाऊँगी दी' .. उसको रहने दीजिए .." - कहते हुए सुषमा झा अतिथि कक्ष के भीतरी तरफ वाले दरवाज़े की ओर बढ़ चली हैं।

चूँकि सुषमा झा का यदाकदा .. विशेष कर इस साहित्यिक संस्था के किसी भी तथाकथित सामाजिक या साहित्यिक कार्यक्रम के पश्चात माला भटनागर जी के घर उनकी कार में बैठ कर आना-जाना लगा रहता है .. कभी प्रेस विज्ञप्ति को तैयार करने के लिए, कभी कार्यक्रम के बाद बचे 'बैनर'-'पोस्टरों' या अन्य बहुउपयोगी सामानों को माला जी के घर तक सहेजने के लिए या फिर कभी-कभी उनके विशेष आग्रह पर संस्था के जमा-खर्च के हिसाब-किताब वाली 'रजिस्टर' को 'मेन्टेन' करने के लिए ; अतः उन्हें माला जी के घर वाले नक़्शे के चप्पे-चप्पे के बारे में अच्छी तरह से जानकारी हासिल है।

तो .. वह उनके अतिथि कक्ष के भीतरी दरवाज़े से निकल कर 'डाइनिंग हॉल' पार करते हुए, पाँच-छः कदमों वाले एक गलियारा को लाँघ कर .. घर की पिछली 'बालकनी' में दायीं ओर मुड़ गयीं हैं; जहाँ सामने ही 'वाशरूम' का दरवाज़ा दिखायी देता है। 

यह घर बनते वक्त घर के पिछले हिस्से की कुछ ज़मीन को भवन-निर्माण में प्रयोग नहीं किया गया था, ताकि भविष्य में ज़मीन की दिनोंदिन बढ़ती हुई कीमतों पर बेच कर मुनाफ़ा कमाया जा सके या फिर परिवार में आगे सदस्यों की संख्या बढ़ने पर इसका इस्तेमाल किया जा सके। 

उसी ज़मीन में एक सवैतनिक माली द्वारा 'किचेन गार्डन' के साथ-साथ सुबह-सुबह की पूजा-अर्चना भर के लिए फूलों को प्रदान करने वाली एक फुलवारी भी 'मेन्टेन' की गयी है। उसी में एक अमलतास और एक कटहल के पेड़ भी लगे हुए थे, जो ज़मीन खरीदने के वक्त पहले से ही उपस्थित थे। इन सब को पिछली 'बालकनी' से निहारा जा सकता है।

'वाशरूम' से फ़ारिग होकर निकलने के बाद अपने रुमाल से हाथों को पोंछते हुए सुषमा झा अब पिछली 'बालकनी' में कुछ पल आदतन ठहर कर माला नागर जी के बग़ीचे को निहार रही हैं। तभी वहीं पर पीछे से माला जी भी आ खड़ी हुई हैं।

" ये क्या दी' .. यहाँ तो अमलतास और एक कटहल का भी पेड़ था ना ? आप कटवा दीं क्या दी' ? "

" हाँ .. पिछले ही रविवार को .. "

" हाय राम ! .. आज भी मैं आते वक्त सोच रही थी दी', कि .. आपसे हर साल की तरह ही आज भी कटहल माँग कर ले जाऊँगी ... कुछ अमलतास के फूल भी ले जाने की सोची थी। .. अभी हाल ही में 'यूट्यूब' पर देखी थी, कि अमलतास के फूलों से बहुत ही स्वादिष्ट और स्वास्थ्यप्रद शरबत बनाया जाता है और फिर .. गुलमोहर के फूलों से भी। "

" गुलमोहर का पेड़ तो तुम्हारे मुहल्ले के मैदान में विराजमान है ही ना ? "

" हाँ .. पर .. अमलतास के शरबत के लिए खूब मन बना के आयी थी दी' .. और .. आपके यहाँ के पेड़ वाले कटहल की सब्जी भी बहुत ही मुलायम होती थी। पक जाने पर .. इसका कोआ कितना सोंधा-सोंधा गमकता था .. नहीं दी' ? .. "

" अब क्या करें .. साल भर में कुछ महीने के लिए फल और फूल मिलने के कारण उन्हें कब तक ढोया जा सकता था। "

" सो तो है, पर .. "

" घर में सभी की सहमति से तय होने के बाद ही इनको कटवाया गया है। अब इसमें किराए पर 'कार पार्किंग' के लिए लोगों को जगह उपलब्ध करवायी जाएगी, जिसका 'गेट' पीछे की तरफ से ही रहेगा। "

" ओ ! .. अच्छा ! .."

" हाँ .. दरअसल आजकल 'कॉलोनियों' में रहने के लिए फ्लैट-इमारतें तो हैं, पर सभी के पास सुरक्षित 'कार पार्किंग' की जगह नहीं हैं। .. अगली बार आओगी तो इसके ऊपर 'रेज़िन शेड' लगी हुई  यह 'कम्प्लीट' मिलेगी .. "

तभी चिलचिलाती धूप वाली गर्मी से निजात पाने के लिए एक 'स्ट्रीट डॉग' भटकता हुआ माला जी के घर के उसी पिछले हिस्से की चहारदीवारी फाँद कर अंदर घुस आया है। माला जी जोर से चिल्लाईं, मानो किसी पड़ोसी देश का घुसपैठिया घुस आया हो और उसे देश की सेना ने देख कर उन पर गोली बरसाने की सोच ली हो।

" मु-नि-या !!! .. भगाओ इसको मार के जल्दी से .. पानी फेंक दो इसके ऊपर .. ऊपर से ही .. भाग जाएगा ..."

'बालकनी' में सजे कुछ गमलों के पौधे भी गर्मी से झुलसे हुए दिख रहे हैं। सालों भर खिले रहने वाले सदाबहार के पौधे तक भी। सुषमा झा को ये सब गौर से निहारते हुए देख कर माला जी लगभग झेंपते हुए .. 

" दरअसल इन दिनों "विश्व पर्यावरण दिवस" वाले आज के कार्यक्रम की तैयारी में कई दिनों से व्यस्त रहने के कारण इन सब पर ध्यान देने का मौका ही नहीं मिल पाया सुषमा ..  " - कुत्ते पर ऊपर से ही पानी उड़ेलती मुनिया को आदेश देते हुए माला जी अचानक पुनः बोल पड़ीं हैं - " जरा बाल्टी में पानी लाकर इन गमलों में भी पानी दे दे मुनिया .. ये सब तुमको तो सुझता ही नहीं है .. जब तक टोको नहीं .. कोई काम नहीं करोगी ठीक से .. "

" हम आपकी डर से पानी नहीं डालते हैं इनमें .. आप गुस्साती हैं ना .. इसीलिए .. "

" अरे ! .. गुस्साए नहीं तो और क्या करें .. बोलो .. तुम्हारी वजह से पिछली बार सारे 'कैक्टस' और 'सक्यूलेंट्स प्लांटस्' बर्बाद हो गए थे। याद है ना ? .."

'कैक्टस' और 'सक्यूलेंट्स' जैसे शब्दों को मुनिया कितना ही समझ पायी होगी, पर सुषमा झा के समक्ष माला जी की पेड़-पौधों के बारे में विशिष्ट जानकारी की धाक जरूर जमती जान पड़ रही है। अब सुषमा झा को सम्बोधित करते हुए ...

" जानती हो ! .. पिछले माह "मज़दूर दिवस" के अवसर पर "भिलाई 'स्टील' 'प्लांट' " के "मज़दूर 'ट्रेड' 'यूनियन' " की ओर से आयोजित उस सांस्कृतिक कार्यक्रम में अपनी संस्था को कविता पाठ के अलावा अन्य साहित्यिक गतिविधियों के लिए जो बुलाया गया था, तो तीन दिनों तक घर से बाहर थी मैं और .. "

" और मैं भी तो थी सभी सदस्यों के साथ-साथ आपके साथ .. और हाँ .. भिलाई आना-जाना और कार्यक्रम .. सब मिलाकर तीन दिन तो लग ही गए थे, तो ... ? " 

" तो .. उसी दौरान ये महारानी (मुनिया) .. तीनों दिन सुबह-शाम सभी गमला में भर-भर के पानी डाल दीं .. बस्स ! .. जो भी  'कैक्टस' और 'सक्यूलेंट्स प्लांटस्' थे, सभी काले पड़ गए .. कुछ सड़-गल भी गए .. "

अचानक माला जी के घर के पिछले हिस्से की जमीन के पीछे वाले मकान की छत्त से "आ-आ .. आ-आ .. आ" की तेज पुरुष स्वर सुनायी पड़ी। अनायास आवाज़ की दिशा में सुषमा झा की नज़र चली गयी। सामने एक वृद्ध पुरुष अपनी छत से आकाश में उड़ते कबूतरों की झुण्ड को और कभी .. अभी-अभी भगाए गए कुत्ते के साथ-साथ एक भटकती कुत्तिया को भी अपने अंदाज में स्नेहपूर्वक बुला रहे हैं।

माला जी बिना वृद्ध की ओर देखे हुए ...

" सनकी है ये बूढ़ा .. 'रेलवे' से 'रिटायर' है .. अपने 'पेंशन' का आधा पैसा इन्हीं सब लावारिस कुत्ता-बिल्ली, कबूतर-गौरैया और चींटी-गिलहरी में लुटाता रहता है। नाम है सतीश सक्सेना .. है तो कायस्थ, पर एक भी कायस्थ वाला गुण नहीं है इस बुड्ढा में .. "

" अच्छा ! .."

" सुबह-सुबह 'कॉलोनी' के 'पार्क' में टहलने के साथ-साथ खुरपी-बाल्टी लेकर पेड़-पौधा में खाद-पानी करता रहता है। एक सवैतनिक माली भी आता है वहाँ देखरेख के लिए .. फिर भी ये आदमी लगा रहता है .. "

" फिर तो ये गज़ब आदमी हैं दी' .. "

" हाँ तो .. कई बार कोशिश की, कि अपनी संस्था से ये जुड़ जाएँ, पर .. हर बार कोई ना कोई बहाना कर के टाल गए श्रीमान। इनका कहना है, कि इनको कविता-कहानी लिखने नहीं आती है। "

" ओ .. अच्छा ! .. "

" अरे ! .. इसमें अच्छा वाली क्या बात है भला। अब तुम ही बतलाओ ना सुषमा .. अपनी ही संस्था में क्या सभी को कविता-कहानी लिखने आती ही है ? .. आधा से ज्यादा तो तुकबंदियों के सहारे ही निभ रहे हैं। "

" हाँ .. सो तो है दी' .. "

" अब अगर सभी को साहित्य ज्ञान के तराजू पर निपटा दें तो फिर .. संस्था को चलाने के लिए मिलने वाले सहयोग शुल्क कैसे एकत्रित कर पायेंगे .. बोलो ! .."

" हाँ .. आप सही कह रहीं हैं .. अपना घर-परिवार तो क्या .. अपना पेट पालने के लिए भी तो पैसे की ही जरूरत पड़ती है .. है कि नहीं ? "

" सब बात यहीं बतिया लोगी क्या ? यहाँ बहुत ज्यादा ही गर्मी है। चलो अंदर 'ए सी' में .. "

पीछे की 'बालकनी' से वापस अतिथि कक्ष की ओर बढ़ते हुए दोनों के वार्तालाप जारी हैं और विषय .. वही आज के "पर्यावरण दिवस" वाले पौधारोपण व उससे जुड़े अन्य कार्यक्रम से सम्बन्धित ...

" और हाँ .. रही बात अख़बार में फ़ोटो छपने की, तो .. वो तो .. वे लोग अपनी मर्ज़ी और अपने 'कैमरे' से ही छापेंगे, पर तुम्हारे 'कैमरे' में तो सब 'पिक्स' साफ़-साफ़ आयी है ना ? .. मुझे 'व्हाट्सएप्प' कर देना .. सभी अच्छी 'पिक्स' अपनी पत्रिका के अगले अंक में छपवानी है .."

" हाँ जरूर .. पर चलिए .. अब निकलती हूँ दी' .. बस .. आपके कथनानुसार सरिता सहाय जी का नाम क्रमवार ऊपर कर देती हूँ। "

" ठीक है .. जाओ .. काफ़ी समय निकल भी गया है .. "

सुषमा झा उनके 'मेन गेट' से निकल कर सामने सड़क पर अपने गंतव्य की ओर जाते हुए 'टेम्पो' का बाट जोहने लगी हैं। तभी माला नागर जी के पड़ोसी .. तथाकथित अज़ब आदमी - सतीश सक्सेना के घर से निकल कर एक पुराने 'स्कूटर' पर सवार हुए एक सज्जन को सुषमा झा अपने गंतव्य की ओर जाते हुए देख कर और .. पहचान कर भी .. लगभग चहकते हुए उन सज्जन पुरुष को सम्बोधित करके बोल पड़ीं हैं ..

" मुख़र्जी 'अंकल' ! .." 

बोलते ही 'स्कूटर' में 'ब्रेक' लग गया और सवार व्यक्ति अपना 'हेलमेट' उतारने के बाद इधर ही ताक कर मुस्कुराते हुए बोल रहे हैं .. 

" ओ .. शुशुमा (सुषमा) .. यहाँ पर क्या कर रहा (रही) है (हो) ? .. बाड़ी (घर) चलना है क्या ? "

" हाँ अँकल " .. - सुषमा झा जाते-जाते अपनी माला दी' को दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करते हुए - " दी' ! .. प्रणाम ! .. ये श्यामल मुख़र्जी 'अंकल' हैं .. मेरे पड़ोस में ही रहते हैं। ये भी 'रेलवे' से ही 'रिटायर' हैं। "

ये कहते हुए सुषमा झा .. अपना 'हैंड बैग' सम्भालते हुए .. अपने मुख़र्जी 'अंकल' के 'स्कूटर' की पिछली 'सीट' के दोनों तरफ़ अपने दोनों पैरों को रख के बैठ गयीं हैं और 'स्कूटर' काफ़ी पुराना होने के कारण कुछ-कुछ धुआँ की लकीर हवा के पन्ने पर उकेरता हुआ बढ़ चला है। कुछ दूर जाने के बाद रास्ते में चलते-चलते हुए ही उन्होंने अपने 'अंकल' को प्रेस जाने वाली बात से अवगत कराते हुए ...

" 'अंकल' ! .. रास्ते में जो अख़बार का 'ऑफिस' है ना ? .. वहाँ पाँच मिनट के लिए रुकिएगा जरा ? .. "

" क्यों ? .. वहाँ बनवारी के दुकान का (की) चाय खिलाएगा (पिलाएगी) क्या अपने मुख़र्जी 'अंकल' को ? .. "

" पिला दूँगी और .. आपके बहाने मैं भी पी लूँगी .. पर .. दरअसल .. वहाँ 'प्रेस' में आज के कार्यक्रम की प्रेस विज्ञप्ति सौंपनी है। "

" कौन सा कार्यक्रम ? "

" हे भगवान ! .. आज पूरा विश्व मिलकर "विश्व पर्यावरण दिवस" मना रहा है और आपको ये भी नहीं पता कि आज किस का कार्यक्रम है भला .. "

" ना रे बाबा .. हमको ये सब नहीं पता है। वैसे .. कोई बात नेही (नहीं) है। रुक जाएगा बाबा .. चाय का तो बस .. थोड़ा मज़ाक कर रहा था। तुमको तो पता ही है आमरा (हमारा) किसी के साथ भी मज़ाक करने का आदत .. "

" इस गर्मी में चाय क्यों .. चलिए आपको बजरंगी की लस्सी पिलाते हैं .. "

" ना बाबा .. तुमको तो पता है शुशुमा (सुषमा) कि चाय हमारा (हमारी) कमजोरी है। " - 'स्कूटर' की गति धीमी करते हुए 'प्रेस' के 'गेट' के पास 'पार्किंग' में ले जाने से पहले रोक कर सुषमा झा को उतरने के लिए कहते हुए ..

" लो .. आ गया तुमरा (तुम्हारा) 'प्रेस' .. जा के तारातारि (जल्दी से) काज (काम) कर के आओ।" - अपने 'स्कूटर' को 'पार्किंग' की ओर ले जाते-जाते- " फिर साथ में बनवारी का 'स्पेशल' चा' (चाय) मिल के खाएगा .. "

कुछ ही मिनटों के बाद अंदर से सुषमा झा मुस्कुराते हुए बाहर आकर, बाहर प्रतीक्षारत मुख़र्जी अंकल के साथ चाय की दुकान की ओर बढ़ चली हैं। चलते-चलते उनके वार्तालाप जारी हैं ...

" तुम उस वक्त मेरे बारे में उन भद्र महिला को बोल रहा था (थी), कि हम भी 'रेलवे' से ही 'रिटायर' है .. तो "भी" का क्या मतलब ? वो महिला भी 'रेलवे' से ही 'रिटायर' है क्या शुशुमा (सुषमा) ? "

" ना, ना .. वो जिनके घर से अभी आप निकले थे ना .. उनके बारे में वो माला दी' बतला रहीं थीं, कि उनका नाम सतीश सक्सेना है और वो 'रेलवे' से 'रिटायर' हैं। "

" हाँ .. सही तो बतलाया (बतलायीं) .. ये सतीश और मैं साथ में ही काम करता था। उसका तो इधर में पुश्तैनी बाड़ी (घर) है और हम .. दोसरा राज (दूसरे राज्य) से यहाँ पर नौकरी करने आया था, लेकिन सतीश जैसे लोगों का साथ क्या मिला .. 'रिटायर' होने बाद भी यहीं जगह-ज़मीन लेकर .. यहीं बस गया। " 

" ये दिनभर चिड़िया-जानवरों और पेड़-झाड़ों के पीछे लगे रहते है क्या ? सुना है कि अपना आधा 'पेंशन' उड़ा देते हैं इन सभी के पीछे  .. ऐसा ही है क्या ? "

" हाँ .. बिलकुल ऐसा ही है। " अब तक साथ-साथ पैदल ही चलते-चलते चाय की दुकान के समीप आने के कारण दुकानदार को सम्बोधित करते हुए श्यामल मुख़र्जी - " दो कुल्हड़ .. 'स्पेशल' वाला .. एक चीनी और एक सादा .."

चाय आने तक बातों को आगे जारी रखते हुए सुषमा झा " ऐसा क्यों करते हैं वो ? .. उनका घर-परिवार नहीं है क्या ? "

" सब है .. पर अभी केवल मियाँ-बीवी है बाड़ी (घर) में .. मेरी तरह। सतीश अपनी एक बड़ी बेटी को पहले ही .. नौकरी करते हुए में शादी दे दिया (ब्याह कर दिए) और एक बेटा-बहू है .. वो लोग मेरे बेटे-बहू की तरह ही बाहर 'जॉब' करता है। साल में एक-दो बार आता है मिलने-मिलाने के लिए। बाक़ी तो .. मोबाइल है ही ना आजकल .. सबको मिलने और मिलाने के लिए .. "

बिना चीनी वाली 'स्पेशल' चाय का एक कुल्हड़ आ चुका है। अब श्यामल मुख़र्जी जी चाय की चुस्की लेते हुए ..

" परन्तु .. ये तो शुरू से ही ऐसा है। सतीश अपने आसपास के सभी उपलब्ध पशु-पक्षियों को शुरू से ही अपना परिवार मानता है। हाँ .. ये अलग बात है कि नौकरी और अपनी शादीशुदा पारिवारिक जिम्मेवारियों के कारण इन सब बातों में उतना समय नहीं दे पाता था। पर ... "

चीनी वाली चाय का दूसरा कुल्हड़ भी आकर सुषमा झा के होठों से लग चुका है। चुस्की के साथ वार्तालाप चल ही रहा है ...

" पर अब .. 'रिटायर' होने के कारण इतना समय दे पाते हैं .. है ना ? "

" हाँ.. पर .. सवाल समय का नहीं है शुशुमा (सुषमा) .. बस रुचि होनी चाहिए। अगर रुचि हो तो .. समय अपने-आप निकल जाता है। "

" सो तो है अंकल .."

" वैसे .. तुमको मालूम .. सतीश कोई 'शो ऑफ' नहीं करता। आज के चलन के मुताबिक 'सो कॉल्ड' 'सोशल मीडिया' पर अपनी 'शो ऑफ' वाली 'सेल्फियाँ' नहीं चिपकाता .. "

" पर .. ज़माना तो 'शो ऑफ' का ही है ना अंकल ? "

" होगा .. होता रहे .. मुझे सब मालूम है, कि बिना  'शो ऑफ' के तो सरकारी अनुदान भी नहीं मिलते हैं। पर इस सतीश को थोड़े ही ना किसी संस्था या किसी 'एन जी ओ' के नाम पर किसी सरकारी या ग़ैर सरकारी अनुदान की अपेक्षा है .."

" हाँ .. तभी तो उनका लगभग आधा 'पेंशन' ..."

" उसका मानना है, कि आसपास के पेड़-पौधे, पशु-पक्षी .. ये सारे के सारे ही हमारे पर्यावरण के हिस्से हैं। इनके खुश रहने पर ही हमें 'रेगुलर' 'पॉजिटिव औरा' (सकारात्मक ऊर्जा) मिल पाएगी और इन सब को खुश रखने की जिम्मेवारी भी हमारी ही है। नहीं क्या ? .. हम केवल पेड़ लगाने की बातें कर-कर के पर्यावरण के बारे में नयी पीढ़ी को भी गुमराह कर रहे हैं .. "

" उनकी सोच और आपकी बातें तो पते की हैं अंकल .."

" हमारी नहीं .. ये सब उसी की बातें हैं। सुबह 'फ़्रेश' होने के बाद उसकी सुबह की शुरुआत होती है .. अपने बाड़ी (घर) की चहारदीवारी पर गिलहरियों के लिए एक मिट्टी के बर्त्तन में मूँगफली के दाने और दूसरे में पानी रखने से। "

" अच्छा ! " .."

" फिर मिट्टी के ही अलग-अलग बर्त्तनों में कबूतरों-पंडूकों के लिए बाज़रे, गौरैयों के लिए खुद्दी (टूटे चावल) या कँगनी, तोतों के लिए साबूत मौसमी फल या उस के टुकड़े , चींटियों के लिए गुड़ के टुकड़े और इन सब के पीने-नहाने के लिए पानी नियमित रूप से रखता है। "

" इतना सब कुछ ? .."

" उसके बाद मुहल्ले के लावारिस कुत्ते-कुत्तियों को सुबह-शाम कभी दूध-रोटी, कभी 'अरारोट बिस्कुट', तो कभी उबले अंडे खिलाता है। फिर घर और आसपास के भी पेड़-पौधों को एक-एक कर खाद-पानी देने के साथ-साथ विशेष ध्यान भी देता है। "

दोनों के होठों को चूमने वाले चाय के कुल्हड़ अब बारी-बारी से कूड़ेदान की आबादी बढ़ा रहे हैं।

" दिलचस्प क़िरदार हैं .. ये सतीश अंकल तो .. "

" तो .. तुमको क्या लगा था ? .."

" सनकी .. अरे धत् .. 'सॉरी' .. मैं भी क्या बोल गयी .. ऐसा मैं नहीं बोल रही .. वो तो .."

" ख़ैर ! .. ये कोई नई बात नहीं है। ज्यादातर लोग उसको ऐसा ही कहते हैं। पर उसको इन सब से कोई फ़र्क नहीं पड़ता है। उसको धर्म-पूजा, पाप-पुण्य में तनिक भी यक़ीन नहीं है। वह अपनी मन की शान्ति के लिए ये सब करता है। उसकी निगाह में यही पूजा है .. शायद ..."

" 'सॉरी' अंकल .."

" अरे बाबा .. 'सॉरी' वाली कोई बात ही नहीं है शुशुमा (सुषमा) .. जब वह अपनी 'वाइफ' का मन रखने के लिए किसी धार्मिक स्थल पर जाता है, तब भाभी जी पूजा-पाठ वाले कर्मकांडों में तल्लीन रहती हैं और ये अपने साथ ले गए बिस्कुट-केले आसपास के बन्दरों की टोली को खिलाने में मग्न रहता है। अगर मन्दिर परिसर के आसपास नदी या तालाब अवस्थित हुए, तो नदी या तालाबों में मछलियों के लिए चौलाई के लावे या आटे की गोलियॉं डाल के आता है ये सतीश ... "

अब तक बात करते-करते दोनों 'पार्किंग' तक पहुँच चुके हैं।

" अब तुम ही बतलाओ शुशुमा (सुषमा) कि .. ऐसे मानुष को पर्यावरण दिवस मनाने या पौधे को पकड़ कर 'फ़ोटो' खिंचवाने की जरूरत है क्या ? .. चलो .. अब बाड़ी (घर) चलें .. "

सुषमा झा निरूत्तर-सी पुनः अपने पड़ोसी मुख़र्जी अंकल के 'स्कूटर' की पिछली 'सीट' पर बैठ गयी है अपने घर जाने लिए और पुनः पुराने 'स्कूटर' के धुएँ की लकीर फिर से हवा के पन्ने को धूमिल करती हुई बढ़ चली है। पर .. सुषमा झा के मन के पन्ने पर आज के "विश्व पर्यावरण दिवस" वाले कार्यक्रम की प्रेस विज्ञप्ति को धूमिल करते हुए, सनकी .. 'सॉरी' .. सतीश सक्सेना अंकल की धवल छवि ने ले ली है .. बस यूँ ही ...


Thursday, May 16, 2024

"पीपली लाइव" सच्ची-मुच्ची 'लाइव' ...


हम सभी को तो आज भी याद होनी ही चाहिए 2010 में आयी 'फ़िल्म' "पीपली लाइव" .. जो काला हास्य (Black Comedy) की श्रेणी में रखी गयी थी या आज है भी। जिसमें किसानों की आत्महत्या जैसी त्रासदी को हास्य-व्यंग्य की चटपटी चाशनी में सराबोर करके हम दर्शकों के समक्ष पेश की गयी थी। यूँ तो यह छत्तीसगढ़ के पीपली गाँव की पृष्ठभूमि की कहानी होते हुए भी .. लगभग समस्त त्रस्त किसानों की दुखती रगों का परत-दर-परत बख़िया उधेड़ती प्रतीत होती है, जिन किसानों को देश-समाज के लिए उनके किए गए मूलभूत योगदान का यथोचित प्रतिफल नहीं मिल पाता है। ऐसे में इसे मनोरंजक 'फ़िल्म' कम, बल्कि किसी घटनाचक्र का तेज रफ़्तार से गुजरता हुआ एक मार्मिक वृत्तचित्र ही ज्यादा महसूस किया जा सकता है .. शायद ...

वैसे भी इतिहास की मानें तो नाटकों के मंचन एवं उससे उपजी 'फ़िल्मों' के अस्तित्व का औचित्य समाज को आइना दिखाना और किसी प्रकाशस्तंभ की तरह राह दिखाना भी/ही रहा है .. मनोरंजन तो उसका उप-उत्पाद भर ही था, ताकी इन दोनों के माध्यम से कही गयी संदेशपरक बातें जनसाधारण के दिमाग़ में आसानी से धँस सके। परन्तु कालान्तर में आज .. समाज का एक वृहद् अनपढ़ कामगार वर्ग और कमोबेश बुद्धिजीवी वर्ग भी उसको मनोरंजन का एक साधन मात्र मान बैठा है । 

आम लोग तब भी उनमें संलिप्त लोगों को, ख़ास कर महिलाओं को, हेय दृष्टि से देखते थे और आज भी कई तथाकथित बुद्धिजीवी समाज भी उनसे जुड़े लोगों को अक़्सर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से "नचनिया-बजनिया" कह कर उन्हें सिरे से नकार देते हैं .. शायद ...

ख़ैर ! ..  बात करते हैं, "पीपली लाइव" 'फ़िल्म' के उस लोकप्रिय गीत- "सखी, सैयाँ, तो खूबई कमात हैं, मँहगाई डायन खाए जात है"  "की, जो हम जनसाधारण के मानसपटल पर गाहे-बगाहे बजती ही रहती है। जिस तरह तथाकथित तौर पर टूटे दिल वाले इंसानों को कोई दर्द भरा फ़िल्मी गीत या ग़ज़ल उनके अपने मन में उभरते हुए दर्द की ही अभिव्यक्ति लगती है और अक़्सर .. हम में से कई ऐसे दिलजलों को रुमानी दर्द भरे नग़में गाकर, गुनगुनाकर या सुनकर भी कुछ देर के लिए ही सही पर दिल को राहत मिलती है। ठीक उसी तरह यह गीत भी देश भर के आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लोगों को अपने-अपने मन में उभरती-उमड़ती टीस की ही अभिव्यक्ति लगती है। जिसको गाने, गुनगुनाने, सुनने या फिर बतियाने भर से भी/ही हमारे समाज के आर्थिक रूप से निम्न या निम्न-मध्यम वर्ग के लोगों को कुछ पलों के लिए तो मानसिक राहत का छद्म फाहा ही सही, पर मिल तो जाता है .. शायद ...

दरअसल यह एक पुराना लोकगीत है, जिसका इस्तेमाल "पीपली लाइव" 'फ़िल्म' में किया गया था। यूँ तो समालोचक वाली पैनी नज़रों से हम सभी ग़ौर करेंगे तो .. ज्ञात होगा कि अनेक पुराने लोकगीतों, शास्त्रीय संगीतों और सूफ़ी शैली का प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सैकड़ों भारतीय सिनेमा में वर्षों से धड़ल्ले से प्रयुक्त किया जाता रहा है .. नहीं क्या ? ...

अब आज की मूल बतकही ... .. हमें तो ये भी याद होनी ही चाहिए कि .. इसी 'फ़िल्म' में एक अन्य "छत्तीसगढ़ी लोकगीत" का भी इस्तेमाल किया गया था - "चोला माटी के हे राम, एकर का भरोसा .." , जो जीवन-दर्शन से परिपूर्ण है। जिसके मुखड़ा एवं हरेक अंतराओं से हमारी अंतरात्मा को आध्यात्मिक स्पंदन व स्फुरण मिलता है। जितनी बार भी इसे सुना जाए, हर बार यह लोकगीत सूक्ष्म आध्यात्मिक आत्मा को स्थूल भौतिक देह-दुनिया से पृथक करता हुआ एक निस्पंदन जैसी प्रक्रिया की हमें अनुभूति करा जाता है .. शायद ...

दरअसल इस मूल छत्तीसगढ़ी लोकगीत में छत्तीसगढ़ी लेखक गंगाराम शिवारे जी से कुछेक बदलाव करवाने के बाद .. इस गीत को लोक वाद्ययंत्रों व लोक वादकों के सहयोग से अपने "नया थिएटर" नामक रंगशाला के नाटकों में प्रयोग कर-कर के इसे जनसुलभ करने का पुनीत प्रयोग किया था विश्व प्रसिद्ध नाट्यकर्मी हबीब तनवीर जी ने। इसीलिए आज भी इस गीत के रचनाकार के रूप में गंगाराम शिवारे जी को ही जाना जाता है। 

हबीब तनवीर जी केवल एक नाट्यकर्मी ही नहीं, बल्कि प्रसिद्ध पटकथा लेखक, नाट्य निर्देशक, संगीतकार, कवि और फ़िल्मी अभिनेता भी रहे हैं। उन सबसे भी बढ़ कर वे एक महान प्रयोगधर्मी थे। तभी तो अपने रंगशाला- "नया थिएटर" में छत्तीसगढ़ के आदिवासियों को गढ़-गढ़ के .. तराश-तराश के रंगमंच के कलाकार के रूप में विश्वस्तरीय मंचों का हक़दार बनाने का काम किए, जो उनकी अनुपम उपलब्धि रही। यूँ तो हबीब तनवीर जी और उनके "नया थिएटर" के लिए श्रंद्धाजलि स्वरूप अगर कभी कुछ बतकही की जाए तो, वो एक-दो भागों में नहीं समेटा या लपेटा जा सकता है .. क्योंकि वे नाटक का एक सिमटा हुआ अध्याय भर नहीं थे, वरन् स्वयं में सम्पूर्ण विश्वविद्यालय समेटे हुए थे .. शायद ...

संदर्भवश बकता चलूँ कि .. "पीपली लाइव" में रघुवीर यादव व नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी जैसे नामचीन कलाकारों के साथ-साथ मुख्य पात्र "नत्था" का क़िरदार निभाने वाले छत्तीसगढ़ के रंगमंच कलाकार- "ओंकार दास मानिकपुरी" की भले ही यह पहली 'फ़िल्म' थी। पर इन्हें पहले से ही हबीब तनवीर जी के "नया थिएटर" के स्थापित कलाकारों में से एक होने का गौरव मिला हुआ था।

अब बारी आती है .. इस विशेष "छत्तीसगढ़ी लोकगीत"- "चोला माटी के हे राम, एकर का भरोसा .." की आवाज़ की, तो .. इस गीत को तब भी आवाज़ मिली थी हबीब तनवीर जी और उनकी प्रेमिका-सह-पत्नी रहीं अभिनेत्री व महिला-निर्देशक मोनिका मिश्रा जी की बेटी - "नगीन तनवीर" जी की और अब भी .. "पिपली लाइव" 'फिल्म' के लिए भी उन्होंने ही गाया था, जो अपने दिवंगत माता-पिता की अनुपस्थिति में आज भी "नया थिएटर" का कार्यभार बखूबी संभाल रही हैं। यूँ तो वह रंगकर्मी भी हैं, परन्तु मूलरूप से स्वयं को लोकगीत गायिका मानती हैं, विशेष रूप से छत्तीसगढ़ी लोकगीत की। 

उन्हीं "नगीन तनवीर" जी को सामने से 'लाइव' सुनने का एक शाम मौक़ा मिलना मन चाही मुराद से बढ़कर था। दरअसल "दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र, देहरादून" के सौजन्य से "दून पुस्तकालय सभागार" में पाँच दिवसीय- 8 मई से 12 मई तक होने वाले "ग्रीष्म कला उत्सव" में गत रविवार 12 मई के दोनों सत्रों में जाने का सुअवसर मिला था। पहले सत्र में थोड़ा विलम्ब से जाने कारण केवल हबीब तनवीर जी और उनके लोकप्रिय व प्रसिद्ध नाटकों में से एक - "चरणदास चोर" पर आधारित एक दुर्लभ श्वेत-श्याम वृत्तचित्र देख पाया और दूसरे सत्र पर ही तो आज की ये बतकही आधारित है .. बस यूँ ही ...

जहाँ "नगीन तनवीर" जी को 'लाइव' सुनने के साथ-साथ लोकगीत, संगीत, ग़ज़ल या हबीब तनवीर जी व उनके नाटकों से जुड़े विषयों पर श्रोता श्रेणी में दो-चार गज की दूरी पर बैठकर गीतों के बीच-बीच में सार्वजनिक रूप से उनके साथ बतियाना .. एक अभूतपूर्व अनुभूतियों की त्रिवेणी बन गयी थी। तभी तो आज की बतकही को नाम दिया है- " "पीपली लाइव" सच्ची-मुच्ची 'लाइव' ..."। लगभग साठ वर्षीया नगीन तनवीर जी के आभामण्डल को लगभग डेढ़ घंटे तक पास से महसूस करना अपने-आप में एक रविवारीय उपलब्धि भर ही नहीं, बल्कि जीवन की एक अनुपम उपलब्धि रही .. बस यूँ ही ...

वैसे भी जो लोग मन से कलाकार होते हैं, उन विभूतियों के लिए जाति-धर्म या देश-परदेश की सीमाएँ बंधन नहीं बन पाते हैं। इनके कई सारे ज्वलंत उदाहरण मिलते भी हैं। उन्हीं में दिवंगत हबीब तनवीर जी के साथ-साथ उनकी जीवनसंगिनी दिवंगत मोनिका मिश्रा जी और उनकी सुपुत्री नगीन तनवीर जी का भी नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है। तभी तो वह छत्तीसगढ़ी लोकगीत के साथ-साथ उत्तर प्रदेश के लोकगीतों को भी उतनी ही अपनापन से अपना स्वर देती हैं और वह अन्य राज्यों के लोकगीतों को भी सीखने के लिए भी प्रयासरत हैं। 

जब वह छत्तीसगढ़ी के साथ-साथ उत्तरप्रदेश के लोकगीत और ग़ज़ल भी सुनायीं, तो उनसे कार्यक्रम के बीच-बीच में होने वाली बातचीत के दौरान हमने पूछा कि "आपकी आज की पोटली में "बिहार" (लोकगीत) भी है क्या ?" तो .. उनका मुस्कान भरा उत्तर था, कि "अभी सीखना है .. सीख रही हूँ।" फिर बीच में एक बार हमने "जरा हल्के गाड़ी हाँकों, राम गाड़ी वाले" गाने का अनुरोध किया, तो स्नेहिल भाव के साथ इस कबीर भजन को ना गा पाने की अपनी असमर्थता जताईं। पर यकीनन ये जीवन दर्शन भरा कबीर भजन भी उनके मन के काफ़ी क़रीब रहा होगा, तभी तो उस भजन के मुखड़े को सुनकर उनके मुखड़े पर एक आध्यात्मिक मुस्कान तैर गयी थी।

आइए सबसे पहले .. नगीन तनवीर जी की आवाज़ में हबीब तनवीर जी की लिखी एक रचना- "बताओ गुमनामी अच्छी है या अच्छी है नामवरी .." का एक अंश सुनते हैं, जिसे संगीतबद्ध भी उन्होंने ही किया था। जिसका अपने नाटक में अक़्सर प्रयोग भी करते थे। वह अपनी लिखी रचनाएँ स्वयं ही लोक वाद्य यंत्रों व लोक वादकों के सहयोग से संगीतबद्ध करके अपने नाटकों में प्रायः प्रयोग में लाया करते थे। 

अब जीवन-दर्शन से सराबोर एक अन्य छत्तीसगढ़ी लोकगीत - "पापी चोला रे, अभिमान भरे तोरे तन में ..." का एक अंश उनकी आवाज़ में ...

एक अन्य लोकगीत, वह भी छत्तीसगढ़ से ही है। जिसे प्रत्यक्ष तो नहीं पर परोक्ष रूप से भारतीय सिनेमा के नामचीन लोगों ने चुराया है, जिसके मूल बोल का एक अंश है -" सास गारी देवे, ननद मुँह लेवे, देवर बाबू मोर, सैंया गारी देवे, परोसी गम लेवे, करार गोंदा फूल। अरे... केरा बारी म डेरा देबो चले के बेरा हो ~~~ आये ब्यापारी गाड़ी में चढ़ीके, तोला आरती उतारंव थारी में धरी के, हो ~~~ करार गोंदा फूल, सास गारी देवे...."; परन्तु आपको ज्ञात होगा कि इसी के बोल में कुछ परिवर्त्तन करके 'फ़िल्म' - "दिल्ली 6" में "सैंया छेड़ देवें, ननद चुटकी लेवे ससुराल गेंदा फूल, सास गारी देवे, देवरजी समझा लेवे, ससुराल गेंदा फूल, छोड़ा बाबुल का अँगना, भावे डेरा पिया का, हो ~~ सास गारी देवे, देवरजी समझा लेवे ससुराल गेंदा फूल ~~~ सैंया है व्यापारी, चले है परदेश, सुरतिया निहारूं जियरा भारी होवे, ससुराल गेंदा फूल ~~~" के रूप में इस्तेमाल किया गया था। जिससे उन लोगों को तो परोक्ष नक़ल के कारण बैठे-बिठाए ख्याति मिल गयी और दूसरी तरफ वर्षों से एक कोने में सिमटे उस लोकगीत को देश के कोने-कोने में वृहद् विस्तार मिलने से वह जनसुलभ बन गया .. भले ही बदले हुए रूप में। 

मतलब .. किसी दूसरे की बहुरिया को अपनी तरफ से दूसरी अँगिया पहना के अपनी बहुरिया होने का दावा करने जैसा ही है ये सब .. शायद ... ख़ैर ! .. बड़े लोगों की बड़ी बातें, हम जनसाधारण को क्या करना भला। चलिए उस मूल लोकगीत का एक अंश 'लाइव' सुनते हैं नगीन तनवीर जी की खनक भरी आवाज़ में - "ससुराल गेंदा फूल ~~~"

आइए .. अब मिलकर "पीपली लाइव" को 'लाइव' सुनते हैं .. मने .. नगीन तनवीर जी की आवाज़ में - "चोला माटी के हे राम, एकर का भरोसा .." के एक अंश को सुनते हुए "पीपली लाइव" की याद ताजा करते हैं  .. बस यूँ ही ...

चलते-चलते स्मरण कराता चलूँ कि इसी छत्तीसगढ़ी लोकगीत- "चोला माटी के हे राम, एकर का भरोसा .." को "सेंट जेवियर्स कॉलेज ऑफ मैनेजमेंट एंड टेक्नोलॉजी", पटना (बिहार) से 'मास कम्युनिकेशन' में कला स्नातक करने वाले युवा छात्र-छात्राओं ने अपने 'प्रोजेक्ट वर्क' के तहत "मुंशी प्रेमचंद" जी की मशहूर कहानी- "कफ़न" पर आधारित एक लघु 'फ़िल्म' बनाने के दौरान उस 'फ़िल्म' के अंत में भी बहुत ही कलात्मक ढंग से जीवन-दर्शन की गूढ़ता को दर्शाते हुए प्रयोग किया था। । जिसकी चर्चा आदतन विस्तारपूर्वक "ना 'सिरचन' मरा, ना मरी है 'बुधिया' " नामक बतकही को चार भागों ( भाग-१, भाग-२, भाग-३ व भाग-४ ) में यहाँ साझा करते हुए " ना 'सिरचन' मरा, ना मरी है 'बुधिया' .. (अंतिम भाग-४)" में उस 'फ़िल्म' को भी चिपकाया था। 

आत्ममुग्धतावश या आत्म-प्रशंसावश तो नहीं, पर .. हम "घीसू" के पात्र को जीने के आत्म-गौरव की अनुभूति करते हुए पुनः एक बार "कफ़न" को यहाँ चिपकाने से स्वयं को संवरण नहीं कर पा रहे हैं .. .. बस यूँ ही ...

अगर हृदय स्पंदन आगे भी गतिमान रहा तो पुनः मिलते हैं .. बस यूँ ही ... 🙏🙏🙏