पुंश्चली .. (१), पुंश्चली .. (२), पुंश्चली .. (३), पुंश्चली .. (४ ) और पुंश्चली .. (५ ) के बाद अपने कथनानुसार आज एक सप्ताह बाद पुनः वृहष्पतिवार को प्रस्तुत है आपके समक्ष पुंश्चली .. (६) .. (साप्ताहिक धारावाहिक) .. भले ही थोड़े विलम्ब के साथ .. बस यूँ ही ... :-
अंजलि .. मुहल्ले भर के युवाओं और अर्द्धवयस्कों की भी भाभी या भौजी और वयोवृद्ध जनों के लिए "रजनवा बो" ( रंजन की बहू ) .. जो इसी मुहल्ले की शनिचरी चाची के घर में अपने गाँव से इस शहर में कुछ कमाने के उद्देश्य से आने के बाद से ही पिछले दस वर्षों से रह रहे रंजन के साथ सात साल पहले यहीं के एक विवाह पंजीकरण प्रमाण पत्र के लिए मान्यता प्राप्त आर्य समाज मन्दिर से ब्याह कर आयी थी।
उस दिन मुहल्ले भर के स्कूल-कॉलेज जाने वाले विद्यार्थियों और जरूरी काम-पेशा या धंधे वालों को छोड़ कर लगभग सभी लोग इस शादी में शरीक़ हुए थे। महँगे 'कैटरिंग' और 'बुफे सिस्टम' में मुहल्ले भर को खिलाने के लिए ख़र्च करने की आर्थिक क्षमता नहीं होने के कारण रंजन ने अपनी शादी की ख़ुशी में शादी के बाद वाले रविवार को दोपहर में ही सभी की सहमति से मुहल्ले के सार्वजनिक मैदान सह पार्क में पत्तल-चुक्कड़ (कुल्हड़) वाली पंगत में सब को मान-सम्मान के साथ बैठा कर पूरे मुहल्ले भर को "पक्का भोज" करवाया था।
प्रसंगवश बतलाता चलूँ कि "पक्का भोज" का मतलब ऐसे पके व्यंजनों वाले भोज के आयोजन से होता है, जिनको पकाने में घी-तेल या वनस्पति का इस्तेमाल किया जाता है। मसलन- पूड़ी, कचौड़ी, पराठे, बिरयानी इत्यादि और "कच्चा भोज" का तात्पर्य होता है .. बिना घी-तेल या वनस्पति के प्रयोग से बने व्यंजनों वाले भोज। मसलन- भात, दाल इत्यादि।
रंजन तो .. दरअसल .. बिना किसी दक्षिणा-दान के बदले किसी भी 'पंडी जी' (पंडित जी) वाले पतरे से निकाले गये शुभ मुहूर्त के दिन को मालूम किए बिना ही आर्य समाज मन्दिर में शादी भी किया था। उसका कहना या मानना है कि - " हम इंसानों के जन्म और मृत्यु के दिन-समय का तो हमें पता ही नहीं होता, जो कि दोनों ही सबसे अहम् मौके होते हैं हमारे जीवन के .. संसार में आने वाला भी और संसार से जाने वाला भी मौका। फिर भला समस्त जीवन भर के अन्य आयोजनों के मुहूर्त को क्या जानना-समझना भला ? " अपनी इसी मानसिकता के आधार पर वह रविवार के दिन भोज का आयोजन केवल इस कारण से तय किया, ताकि बिना किसी परेशानी के मुहल्ले के सारे लोग अपनी छुट्टी वाले दिन आराम से तनावमुक्त हो कर हँसी-ख़ुशी के साथ भोज में शरीक़ हो सकें।
एक दिन पहले ही वह मन्टू और शनिचरी चाची के साथ में मिल कर मुहल्ले भर से बुलाए जाने वाले मेहमानों की 'लिस्ट' बुद्धनवा नाई और उसकी घरवाली रमरतिया को थमाकर, उनसे "चुल्हिया बुतान" न्योता दिलवाते हुए सभी को सपरिवार बुलवाया था। मुहल्ले वालों की सिफ़ारिश पर पतंजलि के 'राइस ब्रान रिफाइंड' में ही तली हुई गर्मा-गर्म पूड़ियाँ, हलवाई के बड़े कड़ाहा में ऊपर-ऊपर छहलाता पतंजलि के ही कच्ची घानी सरसों तेल और 'कैच' कश्मीरी लाल मिर्च के टहपोर लाल-लाल सम्मिश्रण में डूबा हुआ आलू-परवल का दम, बैंगन-बड़ी की मसालेदार लथपथ सब्जी, 'वनीला फ्लेवर' से महमहाती हुई एक तार की चाशनी में तर चम्पई रंग की बुनिया, जिनमें ऊपर से मिलायी गयी कुछ चटकीली कुसुम रंग की बुनिया .. ऐसी प्रतीत हो रही थी .. मानो चम्पई दुपट्टे पर कुसुम रंग के सलमा-सितारे जड़े हुए हों, साथ में मुहल्ले के ही बमबम हलवाई की दुकान का ताजा-गाढ़ा छालीदार दही, नमक-हरी मिर्ची और चीनी भी अलग से जिनको भी ऊपर से दरकार थी। साथ में कुल्हड़ में बमबम हलवाई की दुकान से आए जग से भर-भर के पीने के लिए 'सप्लाई' का पानी तो था ही। बमबम हलवाई की दुकान से ही सारा खाना बनाने वाले सारे कारीगर और सारे के सारे बर्त्तन भी आए थे।
अब ... "चुल्हिया बुतान" जैसे शब्द से जो लोग परिचित हैं, उनके लिए तो नहीं पर .. जिन पीढ़ी या समाज के लिए यह अंजान शब्द है .. उनको प्रसंगवश बतलाना लाज़िमी है कि ... दरअसल यह गँवई लोगों द्वारा व्यवहार में लाया जानेवाला शब्द है, परन्तु इसे गँवार लोगों की भाषा मानने की भूल हमें कतई नहीं करनी चाहिए, जिसे बिहार की राजधानी पटना जैसे शहर में भी मुहल्ले वाली संस्कृति में बचपन से सुनता आया हूँ .. जो धीरे-धीरे 'कॉलोनीयों' और 'सोसायटियों' वाली संस्कृति में ना जाने कब और कहाँ विलुप्त हो गयी .. बल्कि इन्हें गँवारों की बोली-भाषा करार कर दिए गये। ख़ैर ! ... "चुल्हिया बुतान" का शाब्दिक अर्थ होता है- चूल्हे को बुझा कर यानि जिनके घर जिस शाम/पहर के भोज का न्योता गया है, उस शाम उनके घर का चूल्हा नहीं जलेगा, बुझा रहेगा .. मतलब- समस्त परिवार भोज में आकर जीमेगें .. इसे ही आज हम तथाकथित सभ्य-सुसंस्कृत समाज वाले लोग अपनी गर्दन में कलफ़ लगाकर कहते हैं - 'इनविटेशन विथ फैमिली' .. शायद ...
भूरा, चाँद जैसे मन्टू के अच्छे-बुरे दिनों के संगी और दोस्त भी .. रसिकवा, रामचरितर, रामभुलावन, बुद्धनवा, उसकी घरवाली रमरतिया और उसके चारों बच्चे, परबतिया जैसे समाज के सहयोगी अंग या अंश .. मेहता जी, सक्सेना जी, वक़ील साहब, सिपाही जी जैसे मुहल्ले के गणमान्य लोग .. 'पी जी' की मालकिन- मोनिका भाभी और उनके सारे किराएदार मयंक, शशांक, निशा जैसे लोग .. लगभग चार-सवा सवा सौ लोग अघा कर खाए थे। और तो और ... शशांक-मयंक से मिलने आये कॉलेज के कुछ मित्र भी, जो प्रायः रविवार को साथ-साथ मिलकर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के तहत आपस में 'ग्रुप डिस्कशन' करने आते हैं और मेहता जी के घर पर उनके गाँव से आये हुए कुछ रिश्तेदार लोग भी इस "पक्के भोज" में जीमने आये थे। दरअसल ये रंजन की शादी के उपलक्ष में उसकी ओर से मुहल्ले भर को "पक्के भोज" का "चुल्हिया बुतान" न्योता जो था। हाँ ... कुछ रुपया कम पड़ गया था, तो उसने रसिकवा से उधार लिया था, पर इकरार किये गए समय पर उसे चूकता भी कर दिया था।
रंजन .. दो भाईयों में बड़ा .. अपने गाँव के निकट वाले एकलौते कॉलेज से अर्थशास्त्र में स्नातक .. निचली कक्षा से स्नातक करने तक लगातार प्रथम श्रेणी में ही उत्तीर्ण होने वाला विद्यार्थी .. परन्तु सरकारी नौकरी के लिए होने वाली प्रतियोगी परीक्षा में फिसड्डी साबित हो गया था .. स्वाभाविक है जब किसी शैक्षणिक संस्थान में पढ़ने वाले विद्यार्थियों के बीच कड़ी प्रतिस्पर्धा ना हो तो सारे कमजोर विद्यार्थियों के बीच एक औसत विद्यार्थी भी अपने आप को अव्वल समझने की ख़ुशफ़हमी पाल लेता है, जैसा कि प्रायः सरकारी शैक्षणिक संस्थानों में देखा जा सकता है। ऐसी परिस्थिति में सरकारी नौकरी पाने या किसी उच्च प्रशिक्षण संस्थान में नामांकन पाने के लिए प्रतियोगी परीक्षाओं में असफल होने के बाद असफल विद्यार्थी कुंठाग्रस्त हो जाते हैं .. फिर .. ऐसे में पड़ोसी-रिश्तेदार सभी उसका उपहास उड़ाने में कोई कसर नहीं छोड़कर .. उसकी कुंठा बढ़ाने के लिए आग में घी का काम करते हैं .. इसी कुंठा के कारण कई बार उस असफल विद्यार्थी को आत्महत्या तक करने की नौबत आ जाती है।
रंजन भी अपनी शैक्षणिक शिक्षा के दौरान लगातार साठ प्रतिशत के आसपास अंक प्राप्त करके सभी वर्गों में प्रथम आने पर अपनी योग्यता को सर्वश्रेष्ठ समझने की भूल कर बैठा था।
हालांकि उसी के गाँव का सुधीर, साथ में पढ़ने वाला .. साथ में प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए जरूरी 'फॉर्म' भरने वाला .. साथ में प्रतियोगी परीक्षाओं में शामिल होने वाला .. प्रतियोगी परीक्षा में रंजन से कम 'नम्बर' लाकर भी अनुवांशिकता के आधार पर विरासत में मिले जातिगत आरक्षण के आधार पर एक प्रखंड में किरानी की सरकारी नौकरी पा गया था। गाँव-घर के लोग उस के बाद तो रंजन को बात-बात में और भी ताना देने लगे। ऐसे में अभिभावक भी तथ्य से अनभिज्ञ होते हुए भी कोसने से कभी भी बाज नहीं आते हैं।
अंत में आजिज़ हो कर वह अपने पिता जी, जो तब जीवित थे, से कुछ रुपया लेकर पास के इसी शहर में नौकरी की तलाश में आ गया था। गाँव पर छोटा भाई और पिता जी रह गए थे। माँ तो बचपन में ही गुजर गयीं थीं। पिता जी गाँव में ही शुरू से स्वर्ग सिधारने तक बटाईदारी का काम करते आए थे। छोटा भाई गाँव में ही अब अपने उसी झोपड़ीनुमा घर के एक कोने में परचूनी दुकान खोल कर अपना और अपने परिवार, पत्नी और एक बेटी, का गुजारा करता है। इधर शहर आकर इधर-उधर भटकने के बाद रंजन को मन्टू से ही पता चला था कि उसी शहर का एक अमीर कबाड़ी वाला दस-बारह हवा-हवाई यानि 'एलेक्ट्रिक ऑटो रिक्शा' जरूरतमंदों को जीवकोपार्जन के लिए भाड़े पर चलाने के लिए देता है।
दरअसल .. रंजन की मन्टू से एक शाम बाज़ार में एक चाय की दुकान पर मुलाक़ात हुई थी। उस शाम रंजन बैठा चाय के साथ-साथ आहिस्ता-आहिस्ता अपनी उदासी का घूँट भी निगल रहा था। मन्टू भी कभी इसी तरह अपनी गाँव से आया था इस शहर में और कई दिनों तक भटकने के बाद इसी कबाड़ी वाले की हवा-हवाई किराए पर लेकर चलाता था, फिर कई वर्षों बाद एक 'शोरूम' में किसी 'कम्पनी' द्वारा कुछ आवश्यक कागज़ात जमा कर क़िस्तों पर हवा-हवाई उपलब्ध कराए जाने पर अपनी गाड़ी ले लिया था। अपने संघर्षमयी दिनों के मुख्य क़िरदार रहे मन्टू की पारखी नज़र रंजन को अपने भरसक स्नेहिल शब्दों के साथ टोकने से नहीं रोक पायी थी। मन्टू के स्नेहिल हाथ अपने कंधे पर महसूस करते ही रंजन तो जैसे तंदूर से फ़ौरन निकली किसी गर्म रोटी पर रखी मक्खन की डली की तरह पिघलता ही चला गया और बचपन में होश सम्भालने से लेकर अब तक की अपने साथ घटी सारी अच्छी-बुरी घटनाओं को बकबका कर ही दम लिया। इस क्रम में दोनों दो-दो कप चाय पी चुके थे। रात के नौ बजने वाले थे .. कुछ पता नहीं चला दोनों को वक्त कैसे गुजर गया। तब उस शाम चारों चाय की क़ीमत सहानुभूतिवश मन्टू ही अदा किया था। समानुभूतिवश मन्टू उसी शाम रंजन को अपने डेरे पर ले आया था।
तीन वर्षों में हवा-हवाई की उधारी की सारी क़िस्तें चुकता हो जाने पर दिन भर की होने वाली सारी कमाई मन्टू के जेब में ही आने लगी थी। तब इसकी उसी मकानमालकिन- शनिचरी चाची के साथ-साथ पूरे मुहल्ले वालों ने मन्टू को शादी कर लेने पर काफ़ी ज़ोर दे डाला था। यहाँ तक कि शनिचरी चाची ने तब उसे डरा कर ब्याह के लिए राज़ी करने के उद्देश्य से किसी परिवार वाले को ही घर में रखने की बात कर के उसके कुँवारे होने के कारण घर खाली करने के लिए झूठी धमकी तक दे डाली थी। ऐसे में मन्टू घर छोड़ने तक के लिए हामी भर दिया था, पर अपनी शादी के लिए टस से मस नहीं हुआ था। अंत में मुहल्ले वालों के साथ-साथ हार कर शनिचरी चाची भी चुप्पी साध लीं थीं। घर से मन्टू को निकालना उनका मक़सद था भी तो नहीं, सो .. मन्टू अब तक उन्हीं के घर में रहता आ रहा है और उस शाम साथ में लाया गया रंजन भी रहता था।
हालांकि रंजन की शादी के बाद इनके घर के अलग हिस्से में किराए पर रंजन और अंजलि को मन्टू ही रखवाया था। पर एक ही घर में दोनों के बाहर आने-जाने का रास्ता और घर-आँगन अलग-अलग था। बीच वाले हिस्से में शनिचरी चाची ख़ुद रहती हैं।
शनिचरी चाची के पति की एक सड़क दुर्घटना में मौत हो जाने के बाद से अकेली प्राण .. इन्हीं लोगों के किराए के बल पर इनका पेट पलता है। पति शहर की एक 'ब्रांडेड' कपड़े की दुकान में काम करते थे .. एक दिन देर रात 'शोरूम' बंद होने के बाद साइकिल से घर लौट रहे थे .. रास्ते में एक तेज रफ़्तार ट्रक वाले ने कुचल दिया था। लाश केवल कपड़े से पहचानी जा सकी थी।
बाक़ी .. चाची की शादी के बीस-इक्कीस साल के बाद भी उनको कोई संतान नसीब नहीं हो पायी थी। बहुत जादू-टोना, झाड़-फूँक, गण्डा ताबीज़, पूजा-पाठ करवाया शनिचरी चाची ने, कुछ अपने पति की जानकारी में और कुछ उनसे छुपा कर भी, पर उनकी कोख़ में पति की सौग़ात को पनपने का अवसर नहीं ही मिल पाया। मुहल्ले की औरतों के लिए सुबह-सुबह इनका मुँह देख लेने से या किसी शुभ काम के लिए जाते हुए सामने से देख लेने भर से "जतरा" ख़राब हो जाता है .. किसी गर्भवती औरत पर इनकी नज़र पड़ जाने से गर्भपात होने की आशंका बनी रहती है। मतलब .. जितने मुँह, उतनी बातें। पीठ पीछे मुहल्ले की औरतें अपनी आपसी बातचीत में उन्हें बाँझिन चाची नाम से चर्चा करने में तनिक भी नहीं हिचकती थीं और अब तो राँड कहने में भी नहीं गुरेज़ करती हैं।
अब प्रसंगवश "जतरा" शब्द का मतलब भी बतलाना पड़ेगा .. ऐसा हमको नहीं लगता .. शायद ...
मन्टू की शादी ना करने की अटल ज़िद्द की वज़ह भी कुछ कम मनोरंजक या यूँ कहें कि कम दर्द भरी नहीं है और एक पन्तुआ से रंजन व अंजलि की हुई पहचान के बाद बढ़ी आपसी घनिष्टता से शादी तक की आयी नौबत की घटनाएँ भी कम दिलचस्प नहीं हैं .. पर आज तो बहुत सारी बतकहियाँ हो गयीं हैं .. अब शेष बतकहियाँ ...
【 शेष .. आगामी वृहष्पतिवार को .. "पुंश्चली .. (७) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】