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Sunday, August 13, 2023

"पाश" की नहीं, "पाशा" की ...

वर्तमान में दिवसों के दौर के कारण मुझ मूढ़ को 'सोशल मीडिया' और 'गूगल' के सौजन्य से इसी (2023) 9 अगस्त को "विश्व आदिवासी दिवस" के रूप में मनाए जाने वाली बात की जानकारी हुई, जो कि कुछ दशकों पहले से ही मनाया जा रहा है। चूँकि इसकी विस्तृत जानकारी पहले से ही उपलब्ध और सर्वविदित है, तो इस विषय पर अभी कोई भी चर्चा बेमानी ही होगी। 

अनुमानतः इस वर्ष भी अन्य दिवसों की तरह इस "विश्व आदिवासी दिवस" की भी कई जगहों पर किसी वातानुकूलित कक्ष के अंदर चंद बुद्धिजीवियों की उपस्थिति में गर्मागर्म चाय-समोसे के साथ औपचारिकता पूरी कर ही ली गयी होगी .. शायद ...

बचपन में तत्कालीन बिहार (बिहार+झाड़खण्ड) की राजधानी पटना की सड़कों-बाज़ारों, गली-मुहल्लों में घुम-घुम कर सखुआ/साल के पेड़ों की पतली टहनियों की दातुनों के पुल्लों के गट्ठर अपने सिर पर उठाए हुए उसे बेचती काली-काली आदिवासी महिलाओं को देखकर या काले रंग के ही आदिवासी पुरुषों को अपने कंधे पर लादे बहँगी पर इन्हीं पेड़ों के पत्तों से बनी पत्तलों के पुलिंदों के थाक को लेकर घुम-घुम कर कौड़ी के मोल बेचते देख कर इनकी एक अलग ही छवि बनी थी मन में। वही छवि तब बदल गयी थी, जब घुमन्तु नौकरी के अंतर्गत राँची और  जमशेदपुर शहर और उसके आसपास के जिलों में भी यात्रा करने का अवसर प्राप्त हुआ था। तत्कालीन बिहार के राँची-जमशेदपुर के आसपास के वही सारे जिले मिलकर बाद में 15 नवम्बर, 2000 के दिन से झारखंड राज्य के अंतर्गत माने जाने लगे।

लगभग 30 साल पहले विशेषतौर पर तत्कालीन बिहार के राँची में अवस्थित 1988 में ही बने 'मार्केट कॉम्प्लेक्स कल्चर' वाले पहले तीन मंजिले "जीईएल चर्च कॉम्प्लेक्स" में या 'गोस्सनर कॉलेज" के प्राँगण या आसपास में या फिर लगभग डेढ़ सौ साल पुराने "फिरायालाल मार्केट काम्प्लेक्स" के नाम से प्रसिद्ध चौक- फिरायालाल चौक के आसपास में आदिवासी युवाओं को उनके आधुनिकतम परिधानों, केश-विन्यासों वाले आधुनिक रूपों में देख कर भौंचक्का रह जाना पड़ा था। यही फिरायालाल चौक बाद में 1971 वाले भारत-पाकिस्तान युद्ध के शहीद और मरणोपरान्त परमवीर चक्र से सम्मानित अल्बर्ट एक्का के सम्मान में "अल्बर्ट एक्का चौक" के नाम से जाना जाने लगा है। हालांकि उन 21-22 सालों के दौरान नौकरी के तहत समस्त झाड़खंड में भ्रमण करने पर यह अनुभव या जानकारी हुई कि इनकी इस आधुनिक तरक्की में ईसाई धर्म प्रचारकों का बहुत बड़ा हाथ है। अगर हम कहें कि सरकार या समाज से भी ज्यादा है, तो हमको कोई गुरेज़ नहीं होनी चाहिए .. शायद ...

प्रसंगवश अगर बोलें तो उन दिनों में जब हमारा समाज 'कैटरिंग' और 'बुफे सिस्टम' जैसे शब्दों से अनभिज्ञ था, तब उन प्राकृतिक पत्तलों का बहुत ही महत्व था। अवसर चाहे छट्ठी- मुंडन का हो, शादी-श्राद्ध का हो या किसी तीज-त्योहार के अवसर पर विशेष भोजन (भोज) का या फिर जनेऊ-ख़तना का हो; हर अवसर पर महत्वपूर्ण थे वो प्राकृतिक पत्तल। हम यूँ भी कह सकते हैं कि पत्तल तब के समय में हम बच्चों या बड़ों के मन में भी भोज का प्रयायवाची शब्द बने हुए थे। इसके अलावा पूजा-कथा के बाद प्रसाद वितरण भी इन्हीं पत्तलों की सींकों को निकाल-निकाल कर एक-एक पत्ते को अलग करके, उससे बनाए गये शंक्वाकार दोने में किया जाता था। विशेष कर पाँच अध्यायों वाली तथाकथित सत्यनारायण स्वामी की कथा के बाद आरती, हवन और मौली सूत बाँधने-बँधवाने की धार्मिक या औपचारिक प्रक्रिया के बाद बँटने वाले प्रसाद के लिए या फिर 'सरसत्ती' (सरस्वती) पूजा या दुर्गा पूजा जैसे मूर्ति पूजा वाले त्योहारों के प्रसाद के लिए भी। हाँ .. 'चरनायमरीत' (चरणामृत) के लिए अपने-अपने चुल्लू से काम चलाया जाता था या सम्भवतः आज भी चलाया जाता है  .. शायद ...

कई वर्गों में बँटे आदिवासी समुदाय अगर समस्त विश्व भर में ही विराजमान हैं, तो स्वाभाविक है कि हमारे स्वदेश भारत में भी लगभग सभी राज्यों में ही कमोबेश आदिवासी जनसंख्या हैं। हालांकि भारत में सबसे ज्यादा इनकी जनसंख्या मध्य प्रदेश राज्य में है। नौकरी के दौरान ही उत्तराखंड आने के बाद केवल काले रंग वाले आदिवासियों की छवि में भी एक बदलाव आया, कि आदिवासी अपने परिवेश की भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार गोरे भी होते हैं। कुछ मायनों में इस समुदाय का एक हिस्सा हमारे तथाकथित सभ्य-सुसंस्कृत बुद्धिजीवी समाज से भी तब बढ़ कर प्रतीत होता है ; जब ज्ञात होता है कि ये लोग सरना धर्म को मानते हैं, जिसके अंतर्गत मूर्ति पूजा नहीं करते हैं, बल्कि प्रकृति की पूजा करते हैं। इसके अलावा आज भी कई तथाकथित बुद्धिजीवी समाज में भी व्याप्त औरतों-मर्दों के बीच की झेंप, पर्दे या भेद जनित कुंठाएँ प्रायः इनके आपसी समाज में देखने के लिए नहीं ही मिलते हैं .. शायद ...

हमारी 21-22 साल घुमन्तु नौकरी के दौरान आदिवासी बहुल समस्त झाड़खंड (तात्कालिक बिहार के हिस्सों) में की गयी यात्रा के अनुभवों से मिली अनुभूतियाँ और जानकारियाँ हमारी इन निम्न दोनों बतकहियों की प्रेरणास्रोत हैं और इस बार "विश्व आदिवासी दिवस" की जानकारी एक उत्प्रेरक की तरह। अनुभूतियाँ और जानकारियाँ .. मसलन .. राँची से बस द्वारा जलेबिया घाटी होते हुए चाईबासा जाने के क्रम में बस की यात्रा के दौरान रास्ते में बस की क्षमता से अत्यधिक स्थानीय सवारियों को कोंचे जाने पर, बाद में चढ़े हुए खड़े (या खड़ी) यात्रियों के मेरे जैसे राँची से खुली बस में सीट पर बैठे यात्रियों के देह पर सवार होने जैसी परिस्थिति आम बात थी। ऐसे में इनकी लाख साफ़-सफ़ाई के बावजूद एक विशेष प्रकार की इनकी सल्फ़र-सी नस्लीय तीखी गंध साँसों में समाने पर लगभग असहज-सा कर जाया करती थी या फिर जमशेदपुर (टाटानगर) से चाईबासा तक बस में या रेल से जाने पर भी .. शायद ...

परन्तु आज ग्लानि होती है .. उनसे घृणाभाव रखने वाले अपने उन घृणास्पद कृत्यों पर .. क्योंकि समस्त प्राणी एक ही धरती, एक ही प्रकृति की उपज हैं। वही प्रकृति .. जिसे हम भगवान, अल्लाह या गॉड के नाम से जानते हैं। फिर भला विधाता की कृतियों से घृणा कैसी ? .. जबकि हमारी शारीरिक बनावटों, रंगों या गंधों में अंतर के लिए भौगोलिक परिस्थितियाँ ही उत्तरदायी हैं।

पर हम तो .. उस समाज की अपभ्रंश उपज हैं, जो हमारी त्वचा से 'मेलेनोसाइट्स' नामक कोशिकाओं की कमी से सफ़ेद दाग़ या फिर 'हार्मोन्स' के असंतुलन की वजह से माँ के गर्भ में दोषपूर्ण जननांग के निर्माण जैसी शारीरिक त्रुटियों को तथाकथित पूर्वजन्म के कर्मों का फल बतला कर उन्हें अपने तथाकथित सभ्य-सुसंस्कृत और बुद्धिजीवी समाज से नकारने में हम तनिक भी हिचकते नहीं हैं .. शायद ...

झारखंड के तमाम आदिवासी बहुल जिलों .. गुमला, खूँटी, चक्रधरपुर, गढ़वा, चतरा, लातेहार, लोहरदग्गा, सिमडेगा, सराइकेला-खरसावाँ की यात्रा के दौरान इनके रहन-सहन, पहनावा, वेष-भूषा, भाषा-बोली, खान-पान, पारंपरिक त्योहारों के उत्सव .. इन सभी के प्रत्यक्षदर्शी बनने के अवसर मिलते रहते थे। 

हमारी दोनों बतकहियाँ झारखंड के शहरों से सुदूर स्थानों के उसी आदिवासी समाज को परिलक्षित कर के बकी गयीं हैं .. बस यूँ ही ...

(१) "पाश" की नहीं, "पाशा" की ...

ऐ सिपाही जी ! .. ऐ नेता जी ! ..

उपकार है तुम्हारा, है हम पर कृपा बड़ी,

बिना 'फेयरनेस क्रीम' पोते ही

काली नस्ल पा गयी हमारी उजली चमड़ी .. बस यूँ ही ...से


हलाक कर पके मेरे देसी मुर्गे या बकरे पहले, 

किए हलक से नीचे महुआ* के सहारे, कभी हड़िया* के।

'सेफ्टीपिन' निकाली ढिठाई से मेरी कुरती की,

फिर निकालने वास्ते दाँतों में फँसे रेशे मुर्गे के ..बस यूँ ही ...


हर रात पलानी में पुआल की

बुलाते हो, ना छागल पहने आऊँ अपने पाँव,

ताकि पगडंडी पर चल आऊँ जब भी,

झँझोड़े-भँभोरे देह मेरा तू तो जाने ना गाँव .. बस यूँ ही ...


उतारे तहमत मेरे तुम जब कभी भी

तब-तब हुए तुम भी नंगे, है वर्दी तेरी उतरी,

छोड़ते बदले में हँसता एक खद्दड़धारी

देह के मेरे, हर रात उतरती है खद्दड़ तेरी भी .. बस यूँ ही ...


झटके से तेरे, टूटने पर टुटही खाट की रस्सी, 

गिरी थी धम्म से पीठ के बल एक दिन मैं ही तो नीचे

और ऊपर सवार रहे भँभोरते तुम तब भी,

फ़ारिग होने तक बहते लावे से,अपने अंदर के.. बस यूँ ही ...


बास मारती गंधी कीड़े-सी काँख हमारी,

कह कर कुछ फ़ुस्स-फुस्साते हो पहले हम पर हर बार,

पर डकार तेरी .. मुर्गे-दारू, खैनी और बीड़ी की,

झेलनी पड़ती मुठ्ठी भींचे, बिन किए प्रतिकार .. बस यूँ ही ...


ऐ सिपाही जी ! .. ऐ नेता जी ! ..

बस .. बसा रहे हैं हम तो, तू तो चाट रहे बारम्बार..

गंधी कीड़े-सी फ़सल समाज की।

"पाश" की नहीं, "पाशा" की है यहाँ दरकार .. बस यूँ ही...


(२) सदियों से ससुरा भगवान ...

गाँठें मन की हों,

ख़ास कर तब ..

जब हों अपनों के ही बीच,

या गाँठें हों बुढ़ापे में 

सिकुड़ती नसों की,

ख़ास कर तब ..

जब अपने ना हों नज़दीक,

या फिर हों गाँठें सलवार में,

चीथड़े हुए तहमत के कोर से 

बटे नाड़े की, ख़ास कर तब ..

जब ऊबाल खा रहें हों 

गर्म-गर्म लावे नसों में,

किसी खद्दड़धारी या

खाक़ीधारी के बदन के।


सिपाही हो या नेता उस दम

गुजरता है उनको नागवार।

चुभती तो हैं हमें भी तब

खाट की रस्सियों की गाँठें 

हमरी पीठ में बारम्बार।

ना जाने कैसे भला 

गठबंधन से बन जाती है

देश में एक मज़बूत सरकार ?

पलायन किया हुआ 

सदियों से ससुरा भगवान 

कभी भूले से जो लौटे धरा पर

और जो दिख जाए कहीं भी,

होगा उससे मेरा पहला सवाल .. 

नासपीटा कैसा है वो फनकार ?

【 • = महुआ और हड़िया .. दोनों ही देसी दारु के प्रकार हैं, जो क्रमशः महुआ और चावल से आदिवासियों द्वारा किण्वन करके लघुउद्योग की तरह घर-घर में तैयार किया जाता है। 】