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Thursday, July 27, 2023

पुष्पा नहीं, सुसवा ...

आपको भी शायद याद होंगे ही तेलुगु भाषी भारतीय अभिनेता- अल्लू अर्जुन की फ़िल्म "पुष्पा: द राइज" के सबसे ज्यादा बहुचर्चित और लोकप्रिय दोनों संवाद जिसे 'बॉलीवुड' के श्रेयस तलपड़े ने हिंदी में 'डबिंग' किया है। पहला संवाद जिसमें वह कहते हैं- "मैं पुष्पा... पुष्पराज... मैं झुकेगा नहीं स्स्साला .." और दूसरे संवाद में बोलते हैं- “पुष्पा नाम सुन के फ्लावर समझे क्या... फ्लावर नहीं, फायर है। ” .. याद है ना .. ये दोनों संवाद ? ...


उसी फ़िल्मी संवाद के तर्ज़ पर अभी-अभी किसी की सोंधी-सी फ़ुसफ़ुसाहट ने हमारे कर्णपटल पर दस्तक दी है- "सुसवा नाम सुन के फूल समझे क्या ? फूल नहीं, साग है। " .. आप सब भी ऐसा सुन पा रहे हैं क्या ? .. नहीं ? ..  नहीं क्या ? ...


ख़ैर ! .. कोई बात नहीं .. हो सकता है आपके आसपास की ध्वनि के प्रदूषण में आपको नहीं सुनायी दे रही हो ये सोंधी-सी फुसफुसाहट .. कई दफ़ा तो एक ही छत के नीचे गहरी नीरवता में अपनों के क़रीब रह कर भी हम एक-दूसरे के मन की मीठी बातों को भी सुन-समझ नहीं ही पाते हैं .. है ना ? ... 


फ़िलहाल अभी हम चर्चा कर रहे हैं "सुसवा साग" का, जो उत्तराखंड की एक विशेष पहचान है। जैसे मैदानी क्षेत्रों में लोकप्रिय है "नोनी" या "नोनिया" का साग। सुसवा साग एक मौसमी उपज है, जो समस्त उत्तराखंड के विभिन्न स्थानों पर बहते पानी के प्राकृतिक स्रोतों में और उसके आसपास स्वतः उग आता है, ठीक "कर्मी साग" के पैदावार की तरह। प्रायः सुसवा का साग अक्टूबर के आसपास उपजता है और अमूमन मार्च-अप्रैल तक उपलब्ध रहता है।  


उत्तराखंड की राजधानी देहरादून के आसपास के इलाकों में भी अब से पहले यह प्राकृतिक रूप से एक नदी विशेष की उपज हुआ करता था। स्थानीय जानकार वृद्ध-वयस्क जन बतलाते हैं कि इस नदी में उपजने वाले सुसवा साग के कारण ही इस नदी विशेष को "सुसवा नदी" के नाम से बुलाया जाता था या है भी। तब कुछ गरीब तबक़े के लोग इस निःशुल्क प्रकृति-प्रदत्त साग को शहरी क्षेत्रों में बसे हुए हम जैसे साग प्रेमियों से बेच कर अपने परिवार का जीवनयापन करते थे। 


हालांकि उत्तर प्रदेश से विभाजित होकर बनने वाले नए राज्य- उत्तराखंड की राजधानी- देहरादून बनने के बाद, पहले से ही मनमोहक स्वच्छ आबोहवा और मनोरम प्राकृतिक सौन्दर्य के आकर्षण की वज़ह से अन्य राज्यों से यहाँ आकर स्थायी-अस्थायी बसने वालों की लगी हुई होड़ के कारण यहाँ की जनसंख्या ताबड़तोड़ बढ़ती गयी है। जिसके फलस्वरूप उसी अनुपात में प्रदूषण भी बढ़ता गया है। नतीजन अब प्रदूषित सुसवा नदी में सुसवा साग का नामोनिशान तक नहीं मिलता है। परन्तु .. चूँकि ये साग और नदी, दोनों ही हमनाम हैं और अतीत में ही सही, दोनों के गहरे सम्बन्ध रहे हैं तो साग के साथ-साथ प्रसंगवश नदी की भी कुछ तो चर्चा करनी जायज़ ठहरती है .. शायद ...


दरअसल सुसवा नदी गंगा की सहायक नदियों में से एक है, जो उत्तराखंड के दक्षिणी शिवालिक पर्वत श्रृंखला से निकलती है और देहरादून की घाटियों से गुजरती हुई सौंग नदी की सहायक नदी बन कर मैदानी क्षेत्र के रास्ते गंगा नदी में जा मिलती है। जैसे हमारे अभिभावक होते हैं और हमारे अभिभावक के भी अभिभावक होते हैं, उसी प्रकार गंगा की सहायक नदी सुसवा की भी सहायक नदियाँ हैं। वो सब भी अब निष्प्राण-सी ही दिखती हैं। उन सहायक नदियों के भी नामभर के लिए ही नाम शेष बचे हैं-  बिंदाल नदी और रिस्पना नदी। स्थानीय जानकार जन बतलाते हैं कि रिस्पना नाम दरअसल ऋषिपर्णा नाम का अपभ्रंश स्वरुप है और यही अपभ्रंश नाम ही वर्तमान में प्रचलित भी है।


कहते हैं कि सुसवा नदी कभी अपने पौष्टिक व स्वादिष्ट सुसवा साग और मछलियों के साथ-साथ देहरादून में उपजने वाले अपने विशेष सुगंध के कारण विश्व भर में लोकप्रिय बासमती चावल के खेतों में अपने पानी की सिंचाई से उस चावल विशेष में सुगंध भरने के लिए जानी जाती थी। वही सुसवा नदी की स्वच्छ धार आज हम बुद्धिजीवियों के तथाकथित विकास की बलिवेदी पर चढ़ कर, अल्पज्ञानियों की बढ़ती जनसंख्या की तीक्ष्ण धार वाली भुजाली से क्षत-विक्षत हो कर सिसकी लेने लायक भी शेष नहीं बची है .. शायद ...


फलतः बासमती चावल में सुगंध भरने वाली नदी आज स्वयं ही दुर्गन्धयुक्त हो गयी है। लगभग निष्प्राण हो चुकी इस नदी में बरसात की शुरुआत में पानी भरने के क्रम के साथ-साथ शहर भर की गंदगियों सहित मिलने वाले बड़े-बड़े नालों ('सीवर') के हानिकारक 'प्लास्टिक', 'थर्माकोल' समेत 'मैग्नीशियम', 'कैल्शियम' और अन्य कई विषैले रसायन .. मसलन- 'क्रोमियम', 'जिंक', 'आयरन', शीशा, 'मैंगनीज़', 'ग्रीस', तेल इत्यादि बहुतायत मात्रा में आकर मिलते हैं। नतीजन इसके पानी के उपयोग से या सम्पर्क में आने से भी कैंसर, विशेष कर बड़ी आँत का कैंसर, चर्म रोग, 'कोमा', 'गॉल ब्लैडर', गुर्दे की पथरी, 'हाइपर टेंशन', हृदयघात या मोटापा जैसी खतरनाक बीमारी होने की प्रबल सम्भावना रहती है। इसके साथ ही इसमें कचरे के रूप में मिले हानिकारक तत्व वाले पानी से सिंचाई करने पर अनाज की गुणवत्ता भी प्रभावित होती हैं, जो परोक्ष रूप से हमारे स्वास्थ्य के लिए खतरनाक साबित होते हैं .. शायद ... 


इसीलिए इन दिनों देहरादून के आसपास के इलाकों में सुसवा साग प्रेमी लोगों के लिए कहीं-कहीं अपने जीवकोपार्जन के लिए कुछ लोगों द्वारा सुनियोजित ढंग से इसकी खेती की जाती है। अक्तूबर के आसपास इसे रोपा जाता है, जो लगभग डेढ़ माह में काटने लायक हो जाता है। अक्तूबर से मार्च-अप्रैल तक इसे खेती करने वाले लोगों द्वारा छः-सात बार काटा जाता है। हर बार काटने के बाद यह बरसीम चारा की तरह तेजी से पनप भी जाता है। चूँकि इसकी पैदावार केवल पानी पर निर्भर करती है, वो भी बहते हुए पानी पर, तो खेतों में ठीक उसी तरह की बहते पानी जैसी व्यवस्था करनी होती है, जैसी नदियों में होती है। खेतों में पानी रुकने से सुसवा की उपज को खराब होने की आशंका रहती है। हालांकि उत्तराखंड के सुदूर पहाड़ी इलाकों में जहाँ अभी तक शहरी प्रदूषण की पैठ नहीं हुई है, वहाँ अभी भी प्राकृतिक रूप से बिना खेती किये हुए ही बहते पानी के स्रोतों में और उसके आसपास यह मौसमानुसार स्वतः उपजता है और स्थानीय सुसवा प्रेमियों को अपना सोंधापन निछावर करता रहता है।


उत्तराखंडी लोगों को मालूम है, कि सुसवा साग बहुत ही स्वादिष्ट एवं पौष्टिक होता है। इसमें 'विटामिन सी', 'प्रोटीन' और 'आयरन' जैसे महत्वपूर्ण पोषक तत्व प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। इसमें कैलोरी बहुत ही कम होती है, पर भरपूर मात्रा में 'एंटीऑक्सीडेंट' होते हैं, जो हृदय रोग और कई प्रकार के कैंसर से बचने में सहायता करते हैं। यह अन्य कई खनिजों का भी एक अच्छा स्रोत है, जो हमारी हड्डियों की रक्षा करता है। अन्य स्रोतों के साभार से यह पता चलता है कि विदेशों में भी कई जगहों पर इसको Water Cress (जलकुम्भी) के नाम से बुलाते हैं। वहाँ पर यह ज्यादातर सलाद की तरह उपभोग किया जाता है।


आइए ! .. मिलकर एक बार सुसवा वाले संवाद को अपनी ज़ुबान से बोल कर आज की बतकही की इतिश्री करते हैं .. बस यूँ ही ... - "सुसवा नाम सुन के फूल समझे क्या ? फूल नहीं, साग है। "

















सुसवा के लिए यथोचित मौसम में देहरादून की स्थानीय सब्जी मंडी-बाज़ारों में बेचने के लिए वर्तमान में भी प्रायः गरीब लोग ही टोकरी में लेकर बैठते या बैठती हैं या फिर कुछ पुरुष लोग अपनी साइकिल पर लादे कॉलोनीयों-मुहल्लों में घूम घूम कर फेरी लगाते नज़र आ जाते हैं। इस वर्ष पुनः प्रतीक्षारत हैं हम सुसवा के मौसम के आगमन के .. बस यूँ ही ...