Thursday, August 3, 2023

पुंश्चली .. (४) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)

पुंश्चली .. (१)पुंश्चली .. (२) और पुंश्चली .. (३) के बाद अपने कथनानुसार आज एक सप्ताह बाद पुनः वृहष्पतिवार को प्रस्तुत है आपके समक्ष  पुंश्चली .. (४) .. (साप्ताहिक धारावाहिक) .. बस यूँ ही ... :-


शशांक - " किसी छोटे-छोटे पर .. महत्वपूर्ण सकारात्मक बदलाव से तुम्हारा क्या मतलब है ? .. "

मयंक - " बतलाते हैं .. पर अभी वो पिछले विषय वाली बातें ख़त्म ही नहीं हुई है अपनी ...'

शशांक - " पर अपनी चाय खत्म हो चुकी है भाई ...

मयंक - " कोई बात नहीं .. रसिकवा है ना ! .. " - रसिकवा को आवाज़ देने के साथ-साथ अपने दाएँ हाथ की तर्जनी और मध्यमा उंगलियों को अंग्रेजी वर्णमाला के 'वी' के जैसे आकार में उसे दिखलाते हुए - " रसिक भाई ! .. दो और चाय देना .. पर हाँ .. इस बार दोनों 'कटिंग' ही देना .. और कड़क तो जरूर ही याद रखना .. "

दरअसल इनकी 'कटिंग' चाय भी वही चाय होगी, जैसी अभी-अभी दोनों ने उदरस्थ किया है, लेकिन यहाँ 'कटिंग' का विशेषार्थ होता है सामान्य मात्रा से आधा। यानि दो 'कटिंग' चाय का मतलब है आधा-आधा कप चाय दो लोगों के लिए। यानि गणित की भाषा में कहें तो "एक बटा दो" कह सकते हैं। मुख्य रूप से मुम्बई शहर में ये 'कटिंग' शब्द ज्यादातर चलन में है। जिन लोगों को भी आदतन या अपने पेशे के अनुरूप मेहमाननवाज़ी करते हुए मेहमानों या ग्राहकों के साथ दिन में पाँच से छः बार या उससे भी ज्यादा बार चाय पीनी पड़ती है, तो 'कटिंग' चाय पीने से दिन भर हर बार आगंतुकों के साथ औपचारिकता भी पूरी हो जाती है और स्वयं का 'मूड' 'फ्रेश' होने के साथ-साथ बार-बार चाय की आधी-आधी मात्रा को उदरस्थ करने के कारण शरीर को 'एसिडिटी' जैसी हानि भी कम होती है। आजकल तो केवल फुटपाथी चाय की दुकानों में ही नहीं, बल्कि बड़े-बड़े 'रेस्टॉरेंट' और "सुट्टा-चाय" या "चाय सुट्टा बार” की तथाकथित आधुनिक संस्कृति वाली चाय दुकानों के शब्दकोश में भी यह 'कटिंग' शब्द शुमार है। साथ में यह भी माना या कहा जा सकता है, कि आय पर आधारित वर्गीकरण के मुताबिक तथाकथित मध्यम वर्गीय और निम्न मध्यम वर्गीय लोग भी अपनी आर्थिक परिधि के दायरे में बंधे मजबूरीवश 'कटिंग' चाय से ही अपनी दिनभर की तलब पूरी कर लेने की कोशिश करते हैं। अब .. सुट्टा और 'बार' जैसे दोनों शब्दों के मतलब तो हमें आपको बतलाने की नौबत नहीं ही आनी चाहिए .. शायद ...

शशांक - " अभी तो किसी छोटे-छोटे पर .. महत्वपूर्ण सकारात्मक बदलाव की ही बात कर लें ? .. वर्ना 'कटिंग' चाय भी आकर खत्म हो जाएगी  .. और .. फिर मेरी तो उत्सुकता भी हो रही है उस सकारात्मक बदलाव के बारे में जानने की .. "

मयंक - " अब सकारात्मक बदलाव की बात कैसे छेड़ूँ भला .. समाज में लोगों ने कुछ विषय को इतना निषिद्ध बना दिया है कि वो विषय जीवन के लिए जरूरी होते हुए भी आज भी कुंठा का विषय बना हुआ है। ऐसे में इन जैसे विषयों पर तथाकथित सभ्य-सुसंस्कृत लोग सार्वजनिक तौर पर चर्चा करने पर भी सकपकाते या हिचकते हैं। जबकि हर परिवार की युवतियों-महिलाओं को इनसे हर माह गुजरना पड़ता है। मानव सृष्टि को गढ़ने की प्रक्रिया का ही हिस्सा है ये .. पर आज भी इस पर कुंठा और निषेध का 'टैग' चिपका हुआ है .. कुछेक नगण्य संख्या में उपलब्ध व्यापक सोच वाले समाज को छोड़ कर .. "

शशांक - " पहेली ही बुझाता रहेगा या कुछ खुल कर बतलाएगा भी .. "

मयंक - " अरे यार .. बता ही तो रहा हूँ ना .. भारत भर में ऐसे जाने कितने रूढ़ीवादी रीति-रिवाज मिल जाएंगे, जिनकी कल्पना मात्र भी महिला स्वास्थ्य और महिला के प्रति जागरूकता या फिर नारी उत्थान और नारी विमर्श जैसे विषयों के मुँह पर करारा तमाचा है। ऐसे रस्म व रीति-रिवाज जिनकी आड़ में इस सृष्टि के अभिन्न अंश भर ही नहीं बल्कि सृष्टि को गढ़ने वाली भी .. तमाम लड़कियाँ पीढ़ियों से कुंठाग्रस्त हो कर घुटती आ रही हैं। " - पास आयी हुई अपनी कड़क 'कटिंग' चाय के 'डिस्पोजेबल कप' को पकड़ कर अपने अधर पर जीभ फिराते हुए - " अब भारत के ही एक हिस्‍से उत्तराखंड के पहाड़ों की बात करें तो पहाड़ों की वादियाँ सैलानियों को जितना ज्यादा आकर्षित करती हैं, उससे भी कहीं कई गुणा ज्यादा भयावह हैं यहाँ की बेतुकी अंधपरम्पराएँ और रूढ़ीवादी रीति-रिवाज .. ख़ासकर महिलाओं को कुंठाग्रस्त करने वाले .. "

शशांक - " ओह ! .. ये तो किसी भी सभ्य-सुसंस्कृत समाज के लिए शर्मनाक बातें हैं यार .. "

मयंक - " है ही ना .. आज भी कोई सम्मानित व्यक्ति या महिला समाज में 'पीरियड्स' की बातें या उसकी पीड़ा खुल कर किसी से नहीं कह पाती हैं .. "

शशांक - " क्यों ? .. 'क्लास', 'पीरियड्स' की बातें तो हर 'स्कूल', 'कॉलेज' और 'कोचिंग सेंटर्स' में तो 'स्टूडेंट्स' करते ही है ना यार .. "

मयंक - " हम उस 'पीरियड्स' की बात नहीं कर रहे 'स्टुपिड' .. हम 'मेंसट्रुएशन' यानि माहवारी की बात कर रहे हैं। जिसे हिंदी में रजोधर्म, रजस्वला या महीना के नाम से भी जाना जाता है। अब ये होता क्या है .. ये तुमको समझाने की जरूरत तो नहीं है ना हमको ? "

शशांक - " अब सुबह-सुबह ये कौन सी बेसिर-पैर वाली 'टॉपिक .. "

शशांक और मयंक के यहाँ आ जाने के बाद से अपनी 'केचप फैक्ट्री' खुलने वाली बात को विराम देकर अब तक अपनी अन्य बातों में मशगूल भूरा, चाँद और मन्टू का ध्यान इन दोनों की बातों की तरफ अचानक रजोधर्म, रजस्वला, माहवारी या महीना जैसे शब्दों को सुनकर आकर्षित हो चला है। कौतूहल से तीनों कान लगा कर दोनों की बातें अब गौर से सुनने लगे हैं।

मयंक - " यही तो अपने तथाकथित बुद्धिजीवी समाज की खोटी सोच है, कि जो सिर-पैर वाले विषय हैं, जो मतलब की बातें हैं उसे बेसिर-पैर का मान कर निषिद्ध करार कर दिया जाता है। " - अपनी बातों की धारा-प्रवाह को चाय की एक लम्बी चुस्की का अर्द्धविराम लगाते हुए - " पर भारत के तमाम अन्य राज्यों की तरह ही उत्तराखंड जैसे भी  अंधपरम्पराओं और रूढ़ीवादी रीति-रिवाजों वाले राज्य में एक छोटा ही सही पर .. महत्वपूर्ण सकारात्मक बदलाव वाली सोच के लिए उस पिता की जितनी भी प्रशंसा की जाए कम होगी। "

शशांक - " कौन पिता ? किसका पिता ? .. ऐसा भी क्या कर दिया उसने भला ? .. "

मयंक - " जो ढपोरशंखी समाज असम की राजधानी गौहाटी में अवस्थित तथाकथित माँ कामाख्या देवी के मन्दिर में देवी की मासिक नहीं, बल्कि वार्षिक माहवारी के नाम पर हर साल जून महीने में अम्बुवाची नामक मेले का आयोजन तो कर सकता है, पर अपने ही घर की माँ, बहन, पत्नी, भाभी से उसकी माहवारी के दौरान होने वाली पीड़ा के बारे में बात भी नहीं कर सकता। "

शशांक - " सही बोल रहे हो, अक्षय कुमार के 'सेनिटरी नैपकिन' वाले सार्वजनिक विज्ञापन के बावजूद भी तो आज दवा या 'कॉस्मेटिक' दुकानदार पुराने अख़बार के पन्नों में लपेट कर ही या फिर काले रंग के 'पॉली बैग' में ठूँस कर ही 'सेनिटरी नैपकिन' देते हुए अक़्सर दिख जाते हैं। खरीदने वाली बाला या महिला भी दुकान की भीड़ कम होने की प्रतीक्षा करती रहती है। "


 ( अक्षय कुमार द्वारा 'सेनिटरी नैपकिन' की नसीहत )

मयंक - " मालूम है ? .. ऐसे माहौल में भी उत्तराखंड जैसे राज्य में कुमाऊँ मण्डल वाले "उधम सिंह नगर" जिला के काशीपुर शहर में रहने वाले एक संगीत शिक्षक ने एक अनूठी पहल की है। "

शशांक - " अच्छा !!! " - विस्मय के साथ - " क्या उन्होंने 'सेनिटरी नैपकिन' की कोई 'फैक्ट्री' लगायी है वहाँ काशीपुर में ? "

मयंक - " नहीं !! .. उस जितेन्द्र भट्ट नाम के एक संगीत शिक्षक ने अपनी बेटी रागिनी की पहली माहवारी शुरू होने पर अभी हाल ही में किसी जन्मदिन के समान ही उत्सव का आयोजन किया है। जैसे किसी भी उत्सव पर अपने नाते-रिश्तेदारों, मित्रों, पड़ोसियों को बुलाते हैं, उसी तरह उन्होंने भी सभी को बाज़ाब्ता आमंत्रित किया। किसी उम्दा बेकरी दुकान से रक्त के रंग से मिलते-जुलते रंग के केक पर अंग्रेजी में "हैप्पी पीरियड्स रागिनी" (Happy Periods Ragini) लिखवा कर तैयार करवाया। " - कड़क 'कटिंग' चाय की एक और सुसुम चुस्की का अपने मुँह के लार के साथ मिलन कराते हुए - " केक पर लिखे ये तीन शब्द आज के दकियानूसी समाज को ठेंगा दिखाने के लिए काफ़ी है। यह घटना केवल उत्तराखंड के पहाड़ों में रहने वाली बालाओं, महिलाओं के लिए ही नहीं, वरन् समस्त रूढ़िवादी समाज की सोच को नयी दिशा बतलाने की ख़ास प्रतीक भर है। पर ऐसी घटना को ना तो 'मीडिया' दिखलाना चाहती है और ना हम देखना चाहते हैं। हम तो मौसम की मार के कारण टमाटर के बढ़े 'रेट' की आड़ में सत्तारूढ़ 'पार्टी'की खिल्ली उड़ाने में मशगूल हैं। उधर मीडिया अँजू और सीमा में लगी है दिन रात। वो तो अगर जितेन्द्र भट्ट जी ने 'सोशल मीडिया' पर इसे स्वयं से नहीं साझा किया होता तो हम जैसे लोगों को इसकी जानकारी भी नहीं हो पाती। "

शशांक - " सच में .. "

मयंक - " पता है उन्होंने क्या लिखा है ? .. उन्होंने 'सोशल मीडिया' पर निम्नलिखित बातें हुबहू साझा किया है ... 

बेटी बड़ी हो गई 🥹♥️❤️😍 

बेटी रागिनी को periods (मासिक धर्म) शुरू होने की ख़ुशी को आज उत्सव की तरह मनाया …

HAPPY PERIODS RAGINI 💐 "

शशांक - " अरे वाह !!! .. समाज में 'पीरियड्स' से जुड़ी फैली भ्रांतियों को खत्म करने के लिए यह एक शानदार और अद्भुत पहल है .. इस नई सोच को केवल बातों से नहीं, बल्कि स्वयं प्रत्यक्ष प्रयोग करके नई सोच के पक्षधरों का उत्साहवर्धन किया है .. है ना !? "

मयंक - " नहीं .. ऐसा नहीं है। हमारे उत्तरी भारत में असम के एक कामख्या मन्दिर को छोड़ कर इसकी चर्चा भले ही निषिद्ध और कुंठा का विषय है, पर दक्षिणी भारत के कई राज्यों में पहली माहवारी होने पर परम्परागत ढंग से उत्सव मनाए जाते है। "

शशांक - " पर तुम तो किसी अवसर पर केक काटने को पश्चिमी सभ्यता का नाम देकर नकारते हो .. "

मयंक - " हाँ .. वो तो है .. केक ना काट कर भी तो उत्सव मनाया ही जा सकता है .. है या नहीं ? .. बोलो ..  पर .. ये शुरुआत तो अपने आप में  क़ाबिल-ए-तारीफ़ है। सोचो .. रागिनी की तरह ही अगर हर लड़की को उसका पिता ऐसा अवसर प्रदान करे तो वह हर पल .. पल-पल .. आजीवन सोचेगी या कहेगी भी कि रजस्वला कुंठा नहीं अभिमान है .. शायद ... "

【 शेष .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (५) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】






( जितेन्द्र भट्ट, रागिनी और उनकी पत्नी संग उत्सव के सभी उपरोक्त चित्र 'सोशल मीडिया' से साभार .)


8 comments:

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    1. जी ! .. सुप्रभातम् सह नमन संग आभार आपका ...

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  2. जी,असहज तो लगता है इस विषय पर बात करना आज भी... पर बेहद जरूरी है पीरियड्स के दौरान स्वच्छता के प्रति जागरूकता अभियानों की ,सही जानकारी देने की।
    आभारी हूँ बेहद संवेदनशील विषय को रखने के लिए।
    सादर।
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    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार ४ अगस्त २०२३ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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    1. जी ! .. सुप्रभातम् सह नमन संग आभार आपका .. मेरी बतकही को अपनी प्रस्तुति में स्थान देकर एक सकारात्मक सोच वाली घटना को आगे प्रेषित करने के लिए .. बस यूँ ही ...

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  3. बेहद संवेदनशील विषय पर आपका यह सृजन वास्तव में काबिले-तारीफ है।आज भी इस विषय पर खुलकर बात नहीं होती।
    वास्तव में इस विषय पर सही जानकारी होना आवश्यक है। सहृदय आभार आपका

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    1. जी ! .. नमन संग आभार आपका ...

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  4. इस सार्थक पहल की खबर को अपने धारावाहिक में बड़ी रोचकता से जोड़ अन्येतर प्रेषित कर जानकारी देने हेतु आभार आपका ।

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    1. जी ! .. नमन संग आभार आपका ...🙏

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