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Thursday, April 4, 2024

पुंश्चली .. (३७) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)

प्रत्येक वृहष्पतिवार को यहाँ साझा होने वाली साप्ताहिक धारावाहिक बतकही- " पुंश्चली .. (१)" से "पुंश्चली .. (३६)" तक के बाद पुनः प्रस्तुत है, आपके समक्ष "पुंश्चली .. (३७) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" .. बस यूँ ही ...  :-

गतांक का आख़िरी अनुच्छेद :-

कोई भी इंसान जब कभी भी किसी अन्य दुःखी इंसान के लिए पनपी सहानुभूति के दायरे को फाँद कर समानुभूति के दामन में समाता है, तो .. उसकी भी मनोदशा .. कुछ-कुछ रेशमा जैसी ही हो जाती है। कहते हैं कि .. बहुत ही उत्तम प्रारब्ध होता है उनलोगों का .. जिनके लिए हर परिस्थिति में हर पल किसी अपने या पराए की समानुभूति की प्रतीति होती हैं .. शायद ...

गतांक के आगे :- 

गत सप्ताह भी नियत दिन (गत वृहष्पतिवार) को "पुंश्चली .. (३७)" परोसने के बजाय .. हम आज परोस रहे हैं और इस अपराध के लिए क्षमायाचना भी नहीं कर रहे हैं। कारण .. अगर नियत दिन को परोसता भी तो उसमें वही .. मंगड़ा पर चल रहे केस के आख़िरी दिन कचहरी में चलने वाली दलीलें .. वही ‘माई लॉर्ड’, 'मिलॉर्ड', ‘ऑनरेबल कोर्ट’ या 'ऑर्डर-ऑर्डर' जैसे कुछेक शब्दों वाले गुलेलों के चलने के साथ-साथ .. वादी-प्रतिवादी के वक़ीलों और जज साहब के जिरह चल रहे होते, कटघरे में खड़े गवाहों के कुछ सही या फिर कुछ फ़र्जी बयानात दर्ज़ हो रहे होते .. जो ना तो माखन पासवान या मंगड़ा जैसे लोगों के पल्ले पड़ने वाला था या है भी और .. ना ही .. रेशमा या मन्टू जैसे आम इंसानों को भी .. शायद ...

ये सब समझना तो बुद्धिजीवियों के बूते की ही बात है। अब ऐसे घटनाक्रम को लिखने के लिए .. उसकी समझ भी तो हम जैसे ओछी बतकही करने वाले लोगों को भी होनी चाहिए ना ? जोकि .. तनिक भी नहीं है। वैसे भी अगर जानकारी होती भी तो .. हम क्या उखाड़ लेते भला कचहरी में। वहाँ तो न्याय करने के लिए विशिष्ट लिबासों वाले पढ़े-लिखे लोगों की जमात भरी पड़ी ही है, जो हमारे देश के संविधान-कानून के दायरे वाले साँचे में गढ़ते हुए .. गवाहों के बयानात वाले कच्चे-पक्के रंग-रोगनों से सजा कर .. गांधारी की तरह आँखों पर पट्टी चढ़ी न्याय की देवी  को जन्म देते हैं .. शायद ...

इस घटनाक्रम से जुड़े .. मंगड़ा, माखन, मन्टू और रेशमा जैसे सारे लाचार-मज़बूर और ग़रीब पात्रों को हर बार अन्ततः कचहरी के आख़िरी फ़ैसले को ही मानना होता है .. वर्ना उसकी अवमानना हो जाएगी। पर अभी .. इस माहौल में ऊहापोह का झंझानिल अगर सबसे ज्यादा वेग के साथ किसी के मन में है, तो .. वह माखन पासवान ही है। बाकी लोग तो उस वेग से आंशिक रूप से ही प्रभावित हैं और अधिकांश लोग तो बस्स .. मूक दर्शक भर ही हैं .. जो या तो .. बलात्कार एवं हत्या के लिए उस बलात्कृत व मृत नाबालिग सुगिया में ही मीनमेख निकालने का प्रयास करने वाले लोग हैं या फिर कुछ तथाकथित दोषी गूँगा मंगड़ा को कोस रहे हैं। कुछ लोग तो .. राज्य और केन्द्र में सत्तारूढ़ सरकार को भी इस जघन्य अपराध के लिए बारी-बारी से दोषी ठहरा रहे हैं। लब्बोलुआब ये है कि .. जितने मुँह .. उतनी ही बातें .. शायद ...

ऐसे मौके पर माखन के मनोबल का संबल बनी रेशमा ही केवल उसकी मानसिक या आर्थिक पीड़ा को महसूस कर पा रही है, तो माखन कपस- कपस कर रोता हुआ उससे अपने मन की बात कह रहा है ...

माखन - " मंगड़ा भले ही गूँगा है .. पर अगर उससे इशारे में गीता की क़सम खिलायी जाए कि .. गीता की क़सम खा कर कहते हैं, कि हम जो भी कहेंगे सच कहेंगे, सच के सिवा कुछ भी नहीं कहेंगे .. या हम से भी क़सम खिलवा लिया जाए तो .. तब तो हम बाप-बेटा झूठ नहीं बोलेंगे ना बेटा ? ये लोग आज तक क़सम क्यों नहीं खिलवा रहे हैं ? " 

रेशमा - " चच्चा .. ये सब पुरानी बातें हैं .. अंग्रेज़ों के ज़माने की .. आज के दिनों में अपने देश के कानून में गीता, कुरान या किसी भी धार्मिक किताब का कोई भी चर्चा नहीं है। दरअसल अपने देश की फिल्मों में आज भी उस प्राचीन ज़माने की प्रथा को ही दिखालाया जाता है, जिनमें गवाह को उनके धर्म-सम्प्रदाय के अनुसार गीता या कुरान पर हाथ रखकर कसम खानी होती है और हमलोगों को लगता है कि अदालत में ऐसा ही होता है। "

माखन - " अच्छा ! .. हमलोग जैसा जाहिल लोग क्या जाने ये सब .. नया-नया चलन-परिवर्तन भला .."

रेशमा - " हाँ चच्चा ! .. आज अपने देश की अदालतों में यह प्रथा प्रचलन में नहीं है। "

माखन - " हाँ .. अब समझ गए .. "

रेशमा - " चच्चा ! .. सिनेमा और टी वी सीरियल सब में बहुत सारा चीज झूठ-मुठ के परोसा जाता है और हम सब अपनी गाढ़ी कमाई और क़ीमती समय ख़र्च करके उसे देखने जाते हैं। और तो और .. सिनेमा-सीरियल में बस्स .. केवल एक गुहार भरे गीत गाने के बाद किसी मरणासन्न के उठ बैठने पर हमलोग ताली भी बजाते हैं। "

मन्टू - " दोषी कौन है ? .. हम ही लोग ना .. "

रेशमा - " हाँ .. उधर चर्च का घंटा बजता है और इधर हीरो-हीरोइन के घर में कोई खुशखबरी आ जाती है। धातु के एक मामूली-से टुकड़े पर सात सौ छियासी उकेरा हुआ हो तो .. वह धातु का टुकड़ा हीरो विशेष को गोली लगने से बचा लेता है .. सारी की सारी .. निरी कोरी  बकवास .. "

पर इनकी बकवासों के बीच अभी समय तेजी से सरकता जा रहा है और अन्ततः अभी माखन पासवान के बाइस वर्षीय गूँगे बेटे- मंगड़ा पर लगे गाँव के ही धनेसर कुम्हार की सोलह साल की बेटी सुगिया के साथ बलात्कार करने और हत्या करने के आरोप में पिछले छः महीने से चल रहे 'केस' की सुनवाई के बाद फ़ैसला आने ही वाला है और लीजिए .. आ ही गया ...

वैसे तो मंगड़ा को 'आईपीसी' की धारा यानी भारतीय दंड संहिता की धारा 376 के तहत सुगिया के बलात्कार के लिए आजीवन कारावास की सजा हो सकती थी, परन्तु .. भारतीय दंड संहिता की धारा 302 के अनुसार उसी सुगिया की हत्या के अपराध के लिए उसे मृत्युदंड से दंडित किया गया है। अब ऐसे में माखन का अगला क़दम क्या होगा या हो सकता है .. उसे अगले भाग में देखते हैं .. बस यूँ ही ...

【आज बस .. इतना ही .. अब शेष बतकहियाँ .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (३८) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】


Thursday, July 20, 2023

पुंश्चली .. (२) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)

पुंश्चली .. (१) .. (साप्ताहिक धारावाहिक) के बाद अपने कथनानुसार एक सप्ताह बाद पुनः आज वृहष्पतिवार को प्रस्तुत है "पुंश्चली .. (२) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" .. बस यूँ ही ... :-

अभी इधर मन्टू उस बातूनी भूरा को उसकी बातों में बेतुकापन होने की आशंका के आधार पर उसे चुप कराने के मक़सद से जैसे ही घुड़कता है, तभी उधर चाय की दुकान के सामने ही तथाकथित बड़े-बड़े ग्राहकों के लिए रखी गयी लकड़ी की बेंच पर बैठे मुहल्ले के ही दो पड़ोसी सज्जन पुरुष- सक्सेना जी और मेहता जी एक दूसरे पर लगभग चिल्लाने लगे हैं। 

चाय की दुकान में ग्राहकों के लिए ही रोज की तरह आये आज के अख़बार के अलग-अलग पन्ने दोनों भद्र (?) पुरुष अपने-अपने दोनों हाथों में पकड़ कर पढ़ते हुए और बीच-बीच में आपसी बहस के दौरान अपने-अपने आवेश के आवेग में अपने-अपने अख़बार वाले पन्ने को झटकते और हवा में लगभग लहरा कर फड़फड़ाते हुए एक दूसरे पर बारी-बारी से तार सप्तक में प्रतिक्रिया दे रहे हैं। मानो राष्ट्रीय स्तर के किसी भी टी वी न्यूज़ चैनल पर एक समाचार उद्घोषक के द्वारा सार्वजनिक सर्वेक्षण ('पब्लिक पोल') के आधार पर तय किए गये किसी वर्तमान ज्वलंत समस्या जैसे विषय पर दो-चार प्रतिभागियों के बीच बहस छिड़ी हुई हो या फिर लोक सभा या विधान सभा में सत्र के दौरान यदाकदा होने वाले जूतम-पैजार हो रहे हों। 

मेहता जी - "आप चाहे लाख बोलिए .. हल्ला कीजिए .. चिल्लाइये .. पर आपकी सरकार जो है ना ! .. एकदम से निकम्मी है। अब बतलाइए ना जरा .. भला ये भी कोई बात हुई कि कल तक तीस-चालीस रुपए प्रति किलो बिकने वाला टमाटर इन दिनों अचानक से सौ को भी पार कर गया है। आम पब्लिक क्या करे बेचारी ? भूखों मर जाए ? आयँ ?" 

"रसिक चाय दुकान" की दोनों ओर सजी बेंच के लगभग पास ही में फ़ुटपाथ पर अपनी घिसी हुई हवाई चप्पल की  जोड़ी पर अपने चूतड़ों की जोड़ी टिकाये रामचरितर रिक्शा वाला लगभग चुक्कु-मुक्कु बैठा दोनों साहिब लोगों की नोकझोंक सुन रहा है। साथ ही आजकल आम प्रचलन में उपलब्ध प्लास्टिक के परत वाले कागजी कप, जिसे पढ़े-लिखे लोग 'डिस्पोजेबल कप' कहते हुए सुने जाते हैं, में चाय भी सुरकता जा रहा है। उसकी चप्पलों के फ़ीते के लगभग हर छोर पर पास में ही उसी फ़ुटपाथ के एक छोर पर बैठने वाले रामखेलावन मोची से समय-समय पर चिप्पी लगी सिलाई सिलवा-सिलवा कर काम चलाने के लायक बनवाया गया जान पड़ रहा है, ताकि रिक्शे का पैडल रामचरितर के तलवे में ना गड़े। उसके पास ही लगभग पीढ़ा पर बैठने वाले अंदाज़ में दिहाड़ी पर मजदूरी करने वाला रामभुलावन भी वहीं पड़ी एक पुरानी ईंट पर बैठा चाय सुड़कने में रामचरितर का साथ दे रहा है। 

ये दो-चार ईंटें, जिनमें से एक पर अभी रामभुलावन बैठा हुआ है, दरअसल आज वृहष्पतिवार होने कारण बुद्धनवा नाई की फुटपाथी दुकान बंद है .. क्योंकि वृहष्पतिवार, मंगलवार और शनिवार को मुहल्ले के सब लोग एक अंधपरम्परा के तहत बाल-दाढ़ी नहीं बनवाते हैं। एक-दो युवा ग्राहक जो अंधपरम्पराओं में विश्वास नहीं रखते हैं, वही लोग इन तीन दिनों में आते हैं, तो ग्राहक कम होने के बावज़ूद कम से कम उस दिन की बुद्धनवा की खैनी और बीड़ी की व्यवस्था हो जाती है। साथ ही कभी-कभी रात के लिए चखना में एक दोना चना की झालदार घुँघनी और एक देसी 'पउआ' की भी जुगाड़ कर लेता है। घर-परिवार में कोई जरुरी काम रहने पर वह इन्हीं तीन दिनों में से एक दिन आवश्यकता के मुताबिक अपनी दुकान बंद कर लेता है। आज भी या तो उसकी घरवाली- रमरतिया को बुखार लगा होगा या उसकी तीन बेटियों और उन के बाद बहुत ही तथाकथित झाड़-फूंक के बाद पैदा हुआ उसका एकलौता दुलरुआ बेटा में से कोई एक बीमार हुआ होगा, जिनको ले कर वह सरकारी अस्पताल में पुर्जा कटवा कर 'आउटडोर' के आगे कतार में खड़ा होने की तैयारी कर रहा होगा इस समय .. शायद ...

नतीजन अपनी बिना दीवार-छत वाली फुटपाथी दुकान (?) में जिन ईंटों पर अपने ग्राहक को बैठा कर बुद्धनवा रोज बाल-दाढ़ी बनाता है, वो सारी ईंटें पिलखन के इस वृद्ध वृक्ष के जड़ के पास आज लावारिस पड़ी हुईं हैं। इसी पिलखन की छाँव तले रसिकवा की यह "रसिक चाय दुकान" भी वर्षों से बदस्तूर चल रही है। 

रामचरितर - "एकदम सही कह रहे हैं मालिक .. हम गरीब-गुरबा के तो जीना मुहाल हो गया है। इतना महँगा टमाटर तो हम सब आज तक नहीं खरीदे हैं।"

रामभुलावन - "हाँ मालिक .. हम सब के तो चौका-चूल्हा में अब टमाटर के आना ही बन्द हो गया है। जरूरत पड़े पर जीतनराम पंसारी के यहाँ से 'सौस' की एक-डेढ़ रुपया वाली एक-दो पुड़िया ('पाउच') ले के काम चला रहे हैं। जैसे-तैसे दिन काट रहे हैं हम सब।"

तभी सक्सेना जी और मेहता जी की मिलीजुली हलचल में मेहता जी का चाय वाला कुल्हड़ अपना संतुलन खो कर बेंच से लुढ़कते हुए शेष बची चाय सहित अभी-अभी ज़मींदोज़ हो गया है। 

दरअसल सामाजिक वर्गीकरण के तर्ज़ पर ही चाय की दुकान पर चाय पीने के बर्त्तनों के भी इन दिनों वर्गीकरण दिख ही जाते हैं। वही चाय कागजी कप में प्रायः दस रुपए के एक कप की दर से मिलती है, जिसे सामान्य वर्ग के लोग सुड़कते हैं और वही मिट्टी के कुल्हड़ में अपने-अपने स्थानानुसार पन्द्रह या बीस रुपए में मिल पाती है, जिसे तथाकथित बड़े लोग पीते हैं। यूँ तो कहीं-कहीं अभी भी काँच के गिलास में ही चाय बिकती है। 

दोनों पड़ोसी के चाय वाले कुल्हड़ उनके अख़बार पढ़ते और उनकी आपसी बहस करते वक्त उसी बेंच पर आसपास ही रखे हुए थे। शायद मेहता जी वाले कुल्हड़ की पेंदी को समतल करने में कुम्हार ने कुछ कोताही कर दी होगी, तभी तो ... मेहता जी अभी-अभी अपनी शहीद हुई चाय से ऊपजी खीज को लगभग छुपाते हुए एकदम से बिदक पड़ते हैं।

मेहता जी - "भगवान करे आपकी सरकार भी मेरे चाय वाले कुल्हड़ की तरह ही गिर जाए।" अख़बार बेंच पर रख कर दोनों हाथ ऊपर आसमान की तरफ करके - "हे भोले नाथ, हे कालों के काल, महाकाल .. गिरा दिजिए इस सरकार को। टमाटर को इतना महँगा कर दी है ये सरकार कि .. क्या कहें आप से भगवान जी ! .. अब पाप का घड़ा भर के दिल्ली के बाढ़ जैसा लबालब हो गया है। अब इन सब का लबर-लबर बहुत हो गया। हमारे कुल्हड़ की तरह ही इन सब का भी घड़ा फोड़ दिजिए राम जी।"

सक्सेना जी - "आप पढ़े-लिखे मानते हैं ना अपने आप को ? हाई स्कूल में सरकारी टीचर हैं। भले ही आरक्षण कोटा में आपको नौकरी मिली है, पर कुछ तो पढ़े होंगे ? .. तभी ना बच्चों को पढ़ाते हैं। आपके दिमाग़ में भी इन सब (पास बैठे रिक्शावाला रामचरितर और ईंट-गिट्टी-बालू ढोने वाले मजदूर रामभुलावन की ओर निशाना साधते हुए) के जैसा भूसा भरा हुआ है क्या जी ?" - अपने कुल्हड़ में शेष बची चाय के आख़िरी घूँट को लगभग मेहता जी को चिढ़ाते हुए जोर से सुड़कने की आवाज़ निकाल कर - "अहा ! मन तृप्त हो गया रसिकवा की चाय पी के सुबह-सुबह .. अजी मेहता जी .. अब इस बरसात के मौसम में .. वो भी आपदा की हद तक वाली बरसात के कारण फ़सलों की जो बर्बादी हुई है, तो क़ीमत तो बढ़ेगी ही ना ? क्यों ? इकोनॉमिक्स में नहीं पढ़े थे क्या जी कि माँग की तुलना में आपूर्ति अचानक घट जाने पर क़ीमत बढ़ जाती है तथा किसी भी सामग्री की माँग से ज्यादा आपूर्ति होने पर बाज़ार में क़ीमत घट भी जाती है।"

मेहता जी - "ज्यादा समझाइए मत हमको। जब ना तब .. अपना कुतर्क लेके आ जाते हैं।"

सक्सेना जी - "हमको तो लगता है कि आप चोरी कर के पास किए हैं जी या .. मास्टर को घूस दे के।"

मेहता जी - "कुछ ज्यादा नहीं बक रहे हैं आप भोरे-भोरे ? .. आयँ !.. "

सक्सेना जी - "और नहीं तो क्या .. अब टमाटर को भी सरकार आलू की तरह 'कोल्डस्टोरेज' में जमा कर के रखवा दे क्या ? या उसकी कुछ फैक्टरियाँ लगवा दे या फिर टमाटर के लिए भी 'सब्सिडी' की घोषणा कर दे सरकार ? बतलाइए !?"

मेहता जी और सक्सेना जी की बहस का विषय टमाटर और महँगे हुए टमाटर के बदले रामभुलावन की 'सौस' की पुड़िया इस्तेमाल करने वाली 'आईडिया' जैसी बातें सुन-सुन कर भूरा और चाँद को भी अपनी 'केचप' की फ़ैक्ट्री वाली अधूरी बात छेड़ने की तलब लग गयी। मन्टू के घुड़कने के बावज़ूद चाँद अपनी बुद्धिमता का प्रदर्शन करने के लिए बात छेड़ते हुए टपक पड़ा।

चाँद - "ओ ~~~ बी ब्लॉक वाले 213 नम्बर में 'केचप' की फैक्ट्री चालू होने से तेरा मतलब है ... "

अभी चाँद अपना वाक्य पूरा कर पाता, उससे पहले ही मुहल्ले के इस चौक वाले क्षेत्र में नगर निगम की ओर से रोजाना सुबह-सुबह सफ़ाई करने वाली परबतिया बीच में टपक पड़ती है। जो थोड़ी दूरी पर ही किसी घर से मिली बासी रोटी को बाज़ारों में बिकने वाले विभिन्न प्रकार के 'रॉल' की तरह लपेटे हुए चाय में बोर-बोर कर खा रही है। इनको कहीं सफाईकर्मी तो कहीं पर्यावरण मित्र भी कहते हैं, परन्तु आम लोग झाड़ू देने वाली या कचरे वाली कहते हुए ही सुने जाते हैं। पर परबतिया के अच्छे व्यवहार और मधुर स्वभाव के कारण मुहल्ले भर में लोग उसे नाम से जानते और बुलाते हैं। कुछ लोग तो पबतिया दीदी, पबतिया बुआ या मौसी भी बुलाते हैं। बहरहाल वह चाँद के मुँह से निकले फ़ैक्ट्री चालू होने वाले वाक्य को सुनकर ही उनके बीच में कुछ बोलने और उनसे कुछ पूछने के लिए मज़बूर हो गयी है।

परबतिया - "भईया ! फ़ैक्ट्री में अभी भी भर्ती हो रही है क्या ?"

मन्टू - "क्यों ? आपकी तो नगर निगम की नौकरी है ही ना ?"

परबतिया - "सो तो है भईया .. पर अभी तक हमको 'गौमेन्ट' (सरकार-Government) की तरफ से 'पर्मामेंट' (स्थायी-Permanent) नहीं किया गया है ना .. तअ (तो) रोज पर हाज़िरी बनता है। कम पइसा (पैसा) में बड़ी मुश्किल से घर-परिवार ...  हम सोचे कि फैक्ट्री में नौकरी लग जाने से कुछ अलग से कमाई हो जाती तो ..."

बीच में ही मन्टू परबतिया की बात को काटते हुए उसे सच्चाई बतलाने के लिए समझाता है।

मन्टू - "परबतिया दीदी .. आप भी कहाँ इन दोनों बातूनियों की बात को पकड़े बैठीं हैं ? अरे ये भूरा और चाँद .. दोनों मिलकर ऐसे ही सुबह-सुबह मसखरी करते रहते हैं। यहाँ मुहल्ला में तो फ़ैक्ट्री खुल ही नहीं सकती ना ..."

परबतिया -"धत् तेरी की .. सुबह-सुबह हम बेवकूफ़ बन गये भईया ..."

【 शेष .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. () .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】




Thursday, July 13, 2023

पुंश्चली .. (१) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)

कई दिनों से आसपास के कुछ जाने, कुछ अंजाने से, कुछ वास्तविक, तो कुछ काल्पनिक .. कई पात्रों की एक टोली मिलजुल कर हमारे मन की देगची में खिचड़ी पकाने का प्रयत्न कर रही थी। अभी तक तो आज उस खिचड़ी की देगची से पहला निवाला ही परोसने का प्रयास भर है। प्रत्येक वृहष्पतिवार को अगला निवाला परोसने का भरसक प्रयास रहेगा हमारा .. शायद ...

अभी तय नहीं कर पाये हैं या कर पा रहें हैं कि यह साप्ताहिक धारावाहिक निकट भविष्य में कहानी की शक्ल में ढल पाएगा या उपन्यास के रूप में। ख़ैर ! .. जो भी हो .. आभासी मनोरंजन का दावा तो नहीं, पर तथ्यों का वादा है हमारा .. बस यूँ ही ...

"पुंश्चली (साप्ताहिक धारावाहिक)" के पहले निवाले परोसने के पूर्व साहित्य और संगीत के लिए अपनी विचारधारा वाली बतकही का एक पत्तल भर बिछा रहे हैं, जिसको भी कई दिनों से कहीं बुन कर रखा हुआ था। हो सकता है आज के लिए ही .. शायद ...


तो पहले विचारधारा वाली बतकही ..


यवनिका

हटे जब कभी भी 

रंगमंच की यवनिका,

मंच पर हों अवतरित 

कोई नायक या नायिका

या हों फिर तान-आलाप, 

मुर्कियाँ गाते गायक-गायिका,

या फिर उठाए हाथ कोई 

रंगों की थाली और एक तूलिका

और सामने बैठी हो चाहे 

मनोरंजन पिपासु भीड़, 

भरी हो वीथिका।

रंगमंच हों या सुरीले गीत कोई 

या फिर चित्र पटल कोई,

भले ही हों, ना हों इन सब में 

वर्णित कोई सारिका, अभिसारिका,

पर दिखनी चाहिए इनमें झलक

अपने इस समाज की विभीषिका .. बस यूँ ही ...


अब ... 

पुंश्चली .. (१) .. (साप्ताहिक धारावाहिक) ...

"अपने बी ब्लॉक वाले 213 नम्बर में कल से केचप फ़ैक्ट्री शुरू हो गयी है रे .. एकदम मस्त .." - भूरा अपनी मित्रमंडली में अपना ज्ञान बघार रहा है। भूरा .. जो अपनी ड्यूटी के वक्त घर-घर से कचरा उठाने वाली नगर निगम की बड़ी गाड़ी में तय किए हुए अनेक मुहल्लों भर से कचरे इकठ्ठे करने के क्रम में गाड़ी के पिछले हिस्से में खड़ा-खड़ा हर घर वालों से कचरे की थैली या डब्बा लेकर लगे हाथ गाड़ी में ही कचरे को फैला कर सरकार द्वारा तय मापदण्ड के आधार पर गीले और सूखे कूड़ों को तीव्र गति से अलग-अलग करता जाता है।

यूँ तो जाति-धर्म और आर्थिक परिस्थितियों के आधार पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से बँटे हुए अपने वर्गीकृत समाज की तरह ही सरकार ने कचरे के यथोचित निष्पादन के लिए कूड़ेदान को भी दो वर्गों में बाँट रखा है। परन्तु मानव समाज अपने शारीरिक ढाँचा में उपस्थित निष्क्रिय 'एपेण्डिक्स' की तरह ही हमारे समाज में बने अधिकांश क़ायदे-क़ानून को निष्क्रिय रखने में ही प्रायः दक्ष दिखता है, जिन वजहों से हम सभी की अंतरात्मा भी हमारे 'एपेण्डिक्स' की तरह ही निष्क्रिय बन चुकी है .. शायद ...

"तू पागल हो गया है क्या बे ? किसी रेजिडेंशियल एरिया में कोई फैक्ट्री भी लगा सकता है क्या ? तेरा दिमाग़ फिर गया है क्या ? या फिर जरूर तेरे बात का हर बार की तरह कोई ना कोई ऊटपटाँग मतलब होगा .." - मन्टू ने भूरा की बात पर आपत्ति जतायी। मन्टू .. जो रेलवे स्टेशन से सरकारी बस अड्डे वाली रुट में बिजली से चलने वाली ई रिक्शा यानि हवा हवाई या टोटो गाड़ी चला कर अपना जीवकोपार्जन करता है। कभी कभार लोकल में ही रिजर्व सवारी ले कर भी चला जाता है। मुहल्ले के कई सारे लोग और बाहर के भी कई लोगों ने उसके फ़ोन नम्बर सेव कर रखे हैं। जो लोग उसकी हवा हवाई में एक बार सवारी कर लेते हैं, वो लोग उसकी बातों, कई विषयों के लिए उसके सटीक तर्कों और उसके द्वारा वसूले गए उचित भाड़े के भी क़ायल हो जाते हैं। साथ ही यात्रा के दौरान उसकी हवा हवाई में मधुर आवाज़ों में बजने वाली एफ एम् या फिर रूमानी फ़िल्मी गानों के भी मुरीद हो जाते हैं। परिणामस्वरूप भविष्य की किसी भी तयशुदा या आकस्मिक लोकल यात्रा के लिए उस से मोबाइल नम्बर लेकर प्रायः अपने मोबाइल के कॉन्टेक्ट लिस्ट में सेव कर लेते हैं। और ऐसा हो भी क्यों नहीं, जब टैक्सी या टेम्पू की तुलना में कम दूरी तक जाने-आने के लिए इसका किराया किफ़ायती भी लगता हो, किसी भी मध्यम या निम्न-मध्यम वर्ग के लोगों को।

"बता बे तू क्या बक रहा है सुबह-सुबह ? तू बहुत कोड वर्ड में बात करता है। बिना वजह सब को परेशान करता रहता है .." - चाँद ने मन्टू की तरफ़दारी लेते हुए भूरा को मुस्कुराते हुए झिड़का। चाँद .. जो भाड़े पर टैक्सी चलाता है। उसकी कार में ज्यादातर "ओला" द्वारा बुकिंग के तहत तथाकथित बड़े-बड़े साहब और मैम साहब जैसे लोगों की सवारी चलती हैं।

शहर में किसी मिली जुली आबादी वाले एक मुहल्ले में चौक के एक तरफ फुटपाथ पर अवस्थित "रसिक चाय दुकान" के इर्द-गिर्द रोज की तरह हर उम्र और हर वर्ग के लोगों का जमावड़ा लगा हुआ है। इन्हीं जमावड़े में से तीन लोगों- भूरा, मन्टू और चाँद की भी रोज की तरह अपने-अपने काम पर जाने से पहले यहाँ की चाय और कभी-कभार एक-दो नमकीन बिस्कुट के साथ दिन की शुरुआत होती है। तीनों आपस में अपने-अपने धंधे-पेशे से मिलने वाले बीते दिन वाले दिन भर के अनुभवों को एक दूसरे से साझा करते हैं।

यूँ तो यह चाय की दुकान प्रतिदिन सुबह छः बजे से शाम सात बजे तक दिन भर ही खुली रहती है। पर यहाँ सुबह और शाम के वक्त दो-तीन घन्टे कुछ ज्यादा ही चिल्ल-पों मची रहती है। अभी भी सुबह के लगभग साढ़े छः बज रहे हैं। रोज की तरह सुबह-सुबह वाली चिल्ल-पों मची हुई है।

इस चाय की दुकान के लगभग पास में ही नगर निगम वालों का एक बड़ा-सा कूड़ेदान रखा हुआ है। या यूँ कहें कि इसी कूड़ेदान की ओट में ये चाय की दुकान टिकी हुई है। बस .. एवज़ में रसिक चाय वाले को हर सप्ताह किसी ख़ाकीधारी के जेब तक कुछ नीले-पीले रंगों में रंगे सदैव मुस्कुराते रहने वाले एक खादीधारी विशेष को सुलाना होता है। 

आसपास के मुहल्ले वाले जो नगर निगम की आने वाली गाड़ी के समय अपने-अपने घर पर उपलब्ध नहीं रहते हैं, बल्कि काम-धंधे की वजह से घर से सुबह ही निकल जाते हैं और अपने-अपने निजी कारणों से परिस्थितिवश घर में अकेले ही रहते हैं, तो वो लोग काम-धंधे पर जाते हुए इसी कूड़ेदान में अपने-अपने घर के कचरों को डाल जाते हैं और सुबह-दोपहर में नगर निगम वाली गाड़ी प्रसून जोशी द्वारा लिखी रचना, जिसे विशाल खुराना के संगीत निर्देशन में कैलाश खेर की पुरुषत्व भरी आवाज़ से गीत का शक़्ल दिया गया है, को बजाते हुए .. "स्वच्छ भारत का इरादा, इरादा कर लिया हमने, देश से अपने ये वादा, ये वादा कर लिया हमने" - आकर उन कचरों को समेट कर ले जाती है, ताकि अपना स्वदेशी "स्वच्छ भारत अभियान" सफल बना रहे .. बस यूँ ही ...

परन्तु कई लोग हड़बड़ी में या बस यूँ ही अपने घर के कचरे को कूड़ेदान के बजाय उसी के इर्दगिर्द ही, कूड़ेदान के बाहर भी फेंक कर "स्वच्छ भारत अभियान" को निष्क्रिय करने में तनिक भी नहीं हिचकते हैं।

भूरा अपने अंदाज़ में हर बार की तरह ठठाकर कर हँसता हुआ - "अबे 213 नम्बर वाली भाभी का ना ... "

"चुप हो जा स्साले .. सुबह-सुबह फिर तेरी कोई गन्दी बातें होंगी .. " - मन्टू जोर से भूरा को घुड़क रहा है .. बस यूँ ही ...


शेष .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (२) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ...