Sunday, August 13, 2023

"पाश" की नहीं, "पाशा" की ...

वर्तमान में दिवसों के दौर के कारण मुझ मूढ़ को 'सोशल मीडिया' और 'गूगल' के सौजन्य से इसी (2023) 9 अगस्त को "विश्व आदिवासी दिवस" के रूप में मनाए जाने वाली बात की जानकारी हुई, जो कि कुछ दशकों पहले से ही मनाया जा रहा है। चूँकि इसकी विस्तृत जानकारी पहले से ही उपलब्ध और सर्वविदित है, तो इस विषय पर अभी कोई भी चर्चा बेमानी ही होगी। 

अनुमानतः इस वर्ष भी अन्य दिवसों की तरह इस "विश्व आदिवासी दिवस" की भी कई जगहों पर किसी वातानुकूलित कक्ष के अंदर चंद बुद्धिजीवियों की उपस्थिति में गर्मागर्म चाय-समोसे के साथ औपचारिकता पूरी कर ही ली गयी होगी .. शायद ...

बचपन में तत्कालीन बिहार (बिहार+झाड़खण्ड) की राजधानी पटना की सड़कों-बाज़ारों, गली-मुहल्लों में घुम-घुम कर सखुआ/साल के पेड़ों की पतली टहनियों की दातुनों के पुल्लों के गट्ठर अपने सिर पर उठाए हुए उसे बेचती काली-काली आदिवासी महिलाओं को देखकर या काले रंग के ही आदिवासी पुरुषों को अपने कंधे पर लादे बहँगी पर इन्हीं पेड़ों के पत्तों से बनी पत्तलों के पुलिंदों के थाक को लेकर घुम-घुम कर कौड़ी के मोल बेचते देख कर इनकी एक अलग ही छवि बनी थी मन में। वही छवि तब बदल गयी थी, जब घुमन्तु नौकरी के अंतर्गत राँची और  जमशेदपुर शहर और उसके आसपास के जिलों में भी यात्रा करने का अवसर प्राप्त हुआ था। तत्कालीन बिहार के राँची-जमशेदपुर के आसपास के वही सारे जिले मिलकर बाद में 15 नवम्बर, 2000 के दिन से झारखंड राज्य के अंतर्गत माने जाने लगे।

लगभग 30 साल पहले विशेषतौर पर तत्कालीन बिहार के राँची में अवस्थित 1988 में ही बने 'मार्केट कॉम्प्लेक्स कल्चर' वाले पहले तीन मंजिले "जीईएल चर्च कॉम्प्लेक्स" में या 'गोस्सनर कॉलेज" के प्राँगण या आसपास में या फिर लगभग डेढ़ सौ साल पुराने "फिरायालाल मार्केट काम्प्लेक्स" के नाम से प्रसिद्ध चौक- फिरायालाल चौक के आसपास में आदिवासी युवाओं को उनके आधुनिकतम परिधानों, केश-विन्यासों वाले आधुनिक रूपों में देख कर भौंचक्का रह जाना पड़ा था। यही फिरायालाल चौक बाद में 1971 वाले भारत-पाकिस्तान युद्ध के शहीद और मरणोपरान्त परमवीर चक्र से सम्मानित अल्बर्ट एक्का के सम्मान में "अल्बर्ट एक्का चौक" के नाम से जाना जाने लगा है। हालांकि उन 21-22 सालों के दौरान नौकरी के तहत समस्त झाड़खंड में भ्रमण करने पर यह अनुभव या जानकारी हुई कि इनकी इस आधुनिक तरक्की में ईसाई धर्म प्रचारकों का बहुत बड़ा हाथ है। अगर हम कहें कि सरकार या समाज से भी ज्यादा है, तो हमको कोई गुरेज़ नहीं होनी चाहिए .. शायद ...

प्रसंगवश अगर बोलें तो उन दिनों में जब हमारा समाज 'कैटरिंग' और 'बुफे सिस्टम' जैसे शब्दों से अनभिज्ञ था, तब उन प्राकृतिक पत्तलों का बहुत ही महत्व था। अवसर चाहे छट्ठी- मुंडन का हो, शादी-श्राद्ध का हो या किसी तीज-त्योहार के अवसर पर विशेष भोजन (भोज) का या फिर जनेऊ-ख़तना का हो; हर अवसर पर महत्वपूर्ण थे वो प्राकृतिक पत्तल। हम यूँ भी कह सकते हैं कि पत्तल तब के समय में हम बच्चों या बड़ों के मन में भी भोज का प्रयायवाची शब्द बने हुए थे। इसके अलावा पूजा-कथा के बाद प्रसाद वितरण भी इन्हीं पत्तलों की सींकों को निकाल-निकाल कर एक-एक पत्ते को अलग करके, उससे बनाए गये शंक्वाकार दोने में किया जाता था। विशेष कर पाँच अध्यायों वाली तथाकथित सत्यनारायण स्वामी की कथा के बाद आरती, हवन और मौली सूत बाँधने-बँधवाने की धार्मिक या औपचारिक प्रक्रिया के बाद बँटने वाले प्रसाद के लिए या फिर 'सरसत्ती' (सरस्वती) पूजा या दुर्गा पूजा जैसे मूर्ति पूजा वाले त्योहारों के प्रसाद के लिए भी। हाँ .. 'चरनायमरीत' (चरणामृत) के लिए अपने-अपने चुल्लू से काम चलाया जाता था या सम्भवतः आज भी चलाया जाता है  .. शायद ...

कई वर्गों में बँटे आदिवासी समुदाय अगर समस्त विश्व भर में ही विराजमान हैं, तो स्वाभाविक है कि हमारे स्वदेश भारत में भी लगभग सभी राज्यों में ही कमोबेश आदिवासी जनसंख्या हैं। हालांकि भारत में सबसे ज्यादा इनकी जनसंख्या मध्य प्रदेश राज्य में है। नौकरी के दौरान ही उत्तराखंड आने के बाद केवल काले रंग वाले आदिवासियों की छवि में भी एक बदलाव आया, कि आदिवासी अपने परिवेश की भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार गोरे भी होते हैं। कुछ मायनों में इस समुदाय का एक हिस्सा हमारे तथाकथित सभ्य-सुसंस्कृत बुद्धिजीवी समाज से भी तब बढ़ कर प्रतीत होता है ; जब ज्ञात होता है कि ये लोग सरना धर्म को मानते हैं, जिसके अंतर्गत मूर्ति पूजा नहीं करते हैं, बल्कि प्रकृति की पूजा करते हैं। इसके अलावा आज भी कई तथाकथित बुद्धिजीवी समाज में भी व्याप्त औरतों-मर्दों के बीच की झेंप, पर्दे या भेद जनित कुंठाएँ प्रायः इनके आपसी समाज में देखने के लिए नहीं ही मिलते हैं .. शायद ...

हमारी 21-22 साल घुमन्तु नौकरी के दौरान आदिवासी बहुल समस्त झाड़खंड (तात्कालिक बिहार के हिस्सों) में की गयी यात्रा के अनुभवों से मिली अनुभूतियाँ और जानकारियाँ हमारी इन निम्न दोनों बतकहियों की प्रेरणास्रोत हैं और इस बार "विश्व आदिवासी दिवस" की जानकारी एक उत्प्रेरक की तरह। अनुभूतियाँ और जानकारियाँ .. मसलन .. राँची से बस द्वारा जलेबिया घाटी होते हुए चाईबासा जाने के क्रम में बस की यात्रा के दौरान रास्ते में बस की क्षमता से अत्यधिक स्थानीय सवारियों को कोंचे जाने पर, बाद में चढ़े हुए खड़े (या खड़ी) यात्रियों के मेरे जैसे राँची से खुली बस में सीट पर बैठे यात्रियों के देह पर सवार होने जैसी परिस्थिति आम बात थी। ऐसे में इनकी लाख साफ़-सफ़ाई के बावजूद एक विशेष प्रकार की इनकी सल्फ़र-सी नस्लीय तीखी गंध साँसों में समाने पर लगभग असहज-सा कर जाया करती थी या फिर जमशेदपुर (टाटानगर) से चाईबासा तक बस में या रेल से जाने पर भी .. शायद ...

परन्तु आज ग्लानि होती है .. उनसे घृणाभाव रखने वाले अपने उन घृणास्पद कृत्यों पर .. क्योंकि समस्त प्राणी एक ही धरती, एक ही प्रकृति की उपज हैं। वही प्रकृति .. जिसे हम भगवान, अल्लाह या गॉड के नाम से जानते हैं। फिर भला विधाता की कृतियों से घृणा कैसी ? .. जबकि हमारी शारीरिक बनावटों, रंगों या गंधों में अंतर के लिए भौगोलिक परिस्थितियाँ ही उत्तरदायी हैं।

पर हम तो .. उस समाज की अपभ्रंश उपज हैं, जो हमारी त्वचा से 'मेलेनोसाइट्स' नामक कोशिकाओं की कमी से सफ़ेद दाग़ या फिर 'हार्मोन्स' के असंतुलन की वजह से माँ के गर्भ में दोषपूर्ण जननांग के निर्माण जैसी शारीरिक त्रुटियों को तथाकथित पूर्वजन्म के कर्मों का फल बतला कर उन्हें अपने तथाकथित सभ्य-सुसंस्कृत और बुद्धिजीवी समाज से नकारने में हम तनिक भी हिचकते नहीं हैं .. शायद ...

झारखंड के तमाम आदिवासी बहुल जिलों .. गुमला, खूँटी, चक्रधरपुर, गढ़वा, चतरा, लातेहार, लोहरदग्गा, सिमडेगा, सराइकेला-खरसावाँ की यात्रा के दौरान इनके रहन-सहन, पहनावा, वेष-भूषा, भाषा-बोली, खान-पान, पारंपरिक त्योहारों के उत्सव .. इन सभी के प्रत्यक्षदर्शी बनने के अवसर मिलते रहते थे। 

हमारी दोनों बतकहियाँ झारखंड के शहरों से सुदूर स्थानों के उसी आदिवासी समाज को परिलक्षित कर के बकी गयीं हैं .. बस यूँ ही ...

(१) "पाश" की नहीं, "पाशा" की ...

ऐ सिपाही जी ! .. ऐ नेता जी ! ..

उपकार है तुम्हारा, है हम पर कृपा बड़ी,

बिना 'फेयरनेस क्रीम' पोते ही

काली नस्ल पा गयी हमारी उजली चमड़ी .. बस यूँ ही ...से


हलाक कर पके मेरे देसी मुर्गे या बकरे पहले, 

किए हलक से नीचे महुआ* के सहारे, कभी हड़िया* के।

'सेफ्टीपिन' निकाली ढिठाई से मेरी कुरती की,

फिर निकालने वास्ते दाँतों में फँसे रेशे मुर्गे के ..बस यूँ ही ...


हर रात पलानी में पुआल की

बुलाते हो, ना छागल पहने आऊँ अपने पाँव,

ताकि पगडंडी पर चल आऊँ जब भी,

झँझोड़े-भँभोरे देह मेरा तू तो जाने ना गाँव .. बस यूँ ही ...


उतारे तहमत मेरे तुम जब कभी भी

तब-तब हुए तुम भी नंगे, है वर्दी तेरी उतरी,

छोड़ते बदले में हँसता एक खद्दड़धारी

देह के मेरे, हर रात उतरती है खद्दड़ तेरी भी .. बस यूँ ही ...


झटके से तेरे, टूटने पर टुटही खाट की रस्सी, 

गिरी थी धम्म से पीठ के बल एक दिन मैं ही तो नीचे

और ऊपर सवार रहे भँभोरते तुम तब भी,

फ़ारिग होने तक बहते लावे से,अपने अंदर के.. बस यूँ ही ...


बास मारती गंधी कीड़े-सी काँख हमारी,

कह कर कुछ फ़ुस्स-फुस्साते हो पहले हम पर हर बार,

पर डकार तेरी .. मुर्गे-दारू, खैनी और बीड़ी की,

झेलनी पड़ती मुठ्ठी भींचे, बिन किए प्रतिकार .. बस यूँ ही ...


ऐ सिपाही जी ! .. ऐ नेता जी ! ..

बस .. बसा रहे हैं हम तो, तू तो चाट रहे बारम्बार..

गंधी कीड़े-सी फ़सल समाज की।

"पाश" की नहीं, "पाशा" की है यहाँ दरकार .. बस यूँ ही...


(२) सदियों से ससुरा भगवान ...

गाँठें मन की हों,

ख़ास कर तब ..

जब हों अपनों के ही बीच,

या गाँठें हों बुढ़ापे में 

सिकुड़ती नसों की,

ख़ास कर तब ..

जब अपने ना हों नज़दीक,

या फिर हों गाँठें सलवार में,

चीथड़े हुए तहमत के कोर से 

बटे नाड़े की, ख़ास कर तब ..

जब ऊबाल खा रहें हों 

गर्म-गर्म लावे नसों में,

किसी खद्दड़धारी या

खाक़ीधारी के बदन के।


सिपाही हो या नेता उस दम

गुजरता है उनको नागवार।

चुभती तो हैं हमें भी तब

खाट की रस्सियों की गाँठें 

हमरी पीठ में बारम्बार।

ना जाने कैसे भला 

गठबंधन से बन जाती है

देश में एक मज़बूत सरकार ?

पलायन किया हुआ 

सदियों से ससुरा भगवान 

कभी भूले से जो लौटे धरा पर

और जो दिख जाए कहीं भी,

होगा उससे मेरा पहला सवाल .. 

नासपीटा कैसा है वो फनकार ?

【 • = महुआ और हड़िया .. दोनों ही देसी दारु के प्रकार हैं, जो क्रमशः महुआ और चावल से आदिवासियों द्वारा किण्वन करके लघुउद्योग की तरह घर-घर में तैयार किया जाता है। 】




Thursday, August 10, 2023

पुंश्चली .. (५) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)

पुंश्चली .. (१)पुंश्चली .. (२)पुंश्चली .. (३) और पुंश्चली .. (४ ) के बाद अपने कथनानुसार आज एक सप्ताह बाद पुनः वृहष्पतिवार को प्रस्तुत है आपके समक्ष  पुंश्चली .. (५) .. (साप्ताहिक धारावाहिक) .. भले ही थोड़े विलम्ब के साथ .. बस यूँ ही ... :-

अब तक मयंक और शशांक की कड़क 'कटिंग' चाय भी 'डिस्पोजेबल कप' से अपना तबादला करा के दोनों के अधरों के सहारे उनकी जिह्वा और ग्रीवा के रास्ते होते हुए उनके उदर में पूरी तरह अपना डेरा जमा चुकी है। अब इन्हें

अपनी पढ़ाई और 'पी जी' में मिलने वाले सुबह-सुबह के नाश्ते के लिए भी हो रहे समय का ख़्याल आने लगा है। यहाँ से जाने के पहले मयंक हमेशा ही "रसिक चाय दुकान" के मालिक (?) रसिकवा को बोल कर तत्काल पी गयी चाय की क़ीमत महीने भर उसके बहीखाते में उसी से लिखवा कर अभी तक के कुल बकाया राशी की मौखिक जाँच अपनी तरफ़ से कर लेता है। 

हर महीने के पहले सप्ताह में जब कभी भी मयंक या शशांक के घर से इनके अभिभावक द्वारा 'गूगल पे एप्प' से इन दोनों के महीने भर के लिए यहाँ घर-परिवार से दूर 'पी जी' में रहने-खाने और पढ़ाई-दवाई के लिए रुपए भेजे जाने पर या फिर 'इंग्लिश मीडियम' वाले अमीर घरों के 'स्टूडेंट्स' को 'ट्यूशन' पढ़ाने के एवज़ में इन दोनों को मिलने वाले 'फीस' मिल जाने पर .. दोनों में जो भी जिस दिन पहले मिल जाए .. उसी दिन पूछे जाने पर रसिकवा जो भी महीने भर की इनकी चाय और कभी-कभार कुछ नमकीन 'स्नैक्स' के कुल बकाए राशी को बतला देता है, जिसे तभी इन दोनों में से कोई भी लगे हाथ भुगतान भी कर देता है। पर दोनों ही रसिकवा के महीने भर में लिखे-जोड़े गए बहीखाता को 'क्रॉस चेक' नहीं करते हैं। 

इतना विश्वास तो करना ही पड़ता है। विश्वास पर ही तो घर-परिवार ही क्या .. समस्त संसार चलायमान होते हुए भी टिका हुआ है .. है ना ? और फिर .. रसिकवा का बहीखाता थोड़े ही ना किसी .. सेठ-साहुकार का या किसी घूसख़ोर सरकारी कर्मचारी-अधिकारी का या फिर किसी भ्रष्ट नेता-मंत्री के किसी ख़ास 'पी ए' का बहीखाता है .. जिनमें गड़बड़ी होने की सम्भावना होती ही होती है।

रसिकवा द्वारा अपने अभी तक के बकाए की जानकारी होने के बाद मयंक अपने 'पी जी' जाने के लिए जैसे ही चाय दुकान की बेंच से उठने का प्रयास करता है, शशांक उसे पाँच मिनट और बैठने के लिए इशारा कर दिया है।

शशांक - " मालूम है .. कल रात को तुमको एक रहस्यमयी बात बतलाना भूल ही गया था। "

मयंक - " ऐसी भी कौन सी रहस्यमयी बात है यार ? "

शशांक - " कल शाम 'पी जी' लगभग खाली था। तू भी 'ट्यूशन' पढ़ाने गया हुआ था। सारे 'स्टूडेंट्स' और 'वर्किंग' लोग भी अपने-अपने कामों से कहीं ना कहीं निकले हुए थे। सारे 'स्टाफ्स्' भी या तो अपने कमरे में आराम फ़रमा रहे थे या फिर सभी रोज की तरह 'पी जी' वालों के शाम के भोजन के लिए सब्जी-अनाज की खरीदारी करने बाज़ार गये हुए थे। "

मयंक - " तो ? .. कोई भूत-चुड़ैल से सामना हो गया था क्या तुम्हारा अकेले में ? "

शशांक - " अरे .. नहीं .. पर हाँ .. 'नर्सिंग कोर्स' वाली निशा थी 'पी जी' में ..  अपने 'बेड' पर लेटी हुई .. अपने आदतानुसार कान में 'हैडफ़ोन' लगाए अपने 'मोबाइल' में घुसी पड़ी थी। यहाँ आने के बाद छः महीने में ही इसी उम्र में उसकी इसी गंदी आदत के कारण उसकी आँखों पर 'पॉवर' वाला चश्मा चढ़ गया है। पर अपने मोबाइल में घुसे रहने वाली आदत से बाज नहीं आती है। पता चला था कि कल उसकी तबियत कुछ सुस्त थी, इसीलिए अपने 'हॉस्पिटल' से छुट्टी ली हुई थी। "

मयंक - " तो ? .. उसने अकेले माहौल में तुम्हें 'आई लव यू' बोल दिया क्या ? .. " - मयंक बगल में ही बैठे शशांक के कान के क़रीब मुँह लाकर उसे छेड़ने के अंदाज़ में मुस्कुराते हुए फुसफुसाता है, ताकि आसपास उपस्थित मुहल्ले का कोई भी चुहलबाजी में बोली हुई इस बात का बाद में बतंगड़ ना बनाने लग जाए।

शशांक - " अब इतने भी आकर्षक नहीं हैं हम दोस्त .. जो कोई मोहित होकर मुझे सामने से 'आई लव यू' कह के 'प्रपोज़' कर दे। "- इस बार मुस्कुराने की बारी शशांक की है। वह मुस्कुराता हुआ अपनी रहस्यमयी बात आगे बढ़ाता है - " दरअसल कल मोनिका भाभी मुझ से माँग कर मेरा 'मोबाइल' ले गयीं थीं । "

मोनिका भाभी यानि मुहल्ले में अवस्थित एकलौते 'पी जी' की मालकिन। जिनके धर्मपति दुबई में किसी विदेशी 'कम्पनी' में शायद 'मैनेजर' हैं, जो मोनिका भाभी के साथ  शादी होने के एक माह बाद ही अपने काम पर दुबई वापस लौट गए थे। तीन साल पूरे हो गए हैं .. उनको दुबई गये हुए। इस साल शायद महीने भर की छुट्टी में अपने देश- भारत अपने घर आने वाले हैं। ये 'पी जी' वाला मकान उनके पति को पुश्तैनी विरासत में नहीं मिला हुआ है, बल्कि दुबई की अपनी कमाई से शादी से पहले ही बीच-बीच में 'इंडिया' आ-आकर ठीकेदार द्वारा बनवायी गयी अचल सम्पत्ति है।  

मोनिका भाभी की सास अपने छोटे बेटे यानि मोनिका भाभी के देवर के साथ ही गाँव में रहती हैं। इनका देवर भी शादीशुदा है। उसकी एक बेटी भी है लगभग पौने तीन साल की। दरअसल इनके देवर की अपने बड़े भाई से पहले ही शादी हो गयी थी। उनका 'लव मैरिज' हुआ था। इनके देवर और देवरानी .. दोनों ही अपने-अपने घर से तथाकथित "भाग कर" 'कोर्ट मैरिज' कर लिए थे। उन दिनों उधर देवरानी के घरवाले उसकी पारम्परिक शादी की तैयारी में जुटे हुए थे, तो इधर मोनिका भाभी के देवर से किए गये प्यार के वादे पूरे करने के लिए उनकी देवरानी को देवर के साथ भाग कर शादी करनी पड़ी थी। लाख कोशिश करने के बावजूद दोनों तरफ के घर वाले इस प्रेम विवाह हेतु मानने के लिए तैयार ही नहीं थे। ऐसे में इनके पास "भागने" के सिवाय कोई चारा नहीं था। जब मोनिका भाभी की शादी हो रही थी, उस समय इनकी देवरानी छः महीने की गर्भवती थी। सुनते हैं कि बहू के गर्भवती होने के बाद से ही इनकी सास की बेटे-बहू और उससे भी ज्यादा अगली पीढ़ी वाली बहू के गर्भ में पल रही भावी संतान के प्रति मोह-ममता उमड़ पड़ी थी। कुछ उनकी अपनी मजबूरी भी थी सासु माँ की। सासु माँ के छोटे बेटे की भाग कर शादी करने के बाद और बहू के गर्भवती होने के कुछ माह पहले ही उनके पति यानि मोनिका भाभी के ससुर जी स्वर्ग सिधार गए थे। बड़ा बेटा तो पहले से दुबई में था ही। ऐसे में उनके पास छोटे बेटे और बहू को अपनाने के सिवाय कोई रास्ता भी तो नहीं बचा था।

मयंक - " किसलिए माँग कर ले ... ? "

शशांक - " बोल रहीं थी कि उनके फ़ोन में अभी-अभी 'बैलेंस' ख़त्म हो गया है। अपने बाज़ार गए 'स्टाफ़' को 'रिचार्ज' कराने के लिए बोल कर भेजीं हैं। पर अभी तक लौटा नहीं है वह। फिर बोलीं थीं कि गाँव में उनकी मम्मी की तबियत ख़राब है। मायके में अकेली रहती हैं, इसलिए उनकी चिन्ता हो रही है। उनका हालचाल पूछना है। पाँच मिनट में लौटाने की बात कह के मेरा 'मोबाइल' ले गयीं थीं अपने कमरे में। "

मयंक - " अपनी माँ का कुशलक्षेम जानने के लिए लीं होंगी। इसमें रहस्यमयी क्या है ? पर .. वैसे तुम्हें अपने सामने ही अपना 'मोबाइल इस्तेमाल करने के लिए बोलना चाहिए था। .. आजकल दिन पर दिन 'ऑनलाइन' का कितना ज़्यादा 'फ्रॉड' बढ़ता जा रहा है। "

शशांक - " बोला था पर मानी नहीं। हमने जैसे ही 'स्क्रीन लॉक' को 'थंब इंप्रेशन' से खोल कर दिया, वह अपने 'मोबाइल' के 'कॉन्टेक्ट लिस्ट' से एक 'नम्बर' देखकर मिलाते हुए अपने कमरे में पाँच मिनट में लौटाने की बात कह कर चली गयीं थीं, पर .. पाँच मिनट के पहले ही लौटा भी गयीं थीं। उनके जाते ही अपने 'मोबाइल' को 'चेक' किया तो देखा कि उन्होंने मेरे 'कॉल डिटेल्स लिस्ट' से अपने वाले 'डायल' किए हुए 'नम्बर' को 'डिलीट' कर चुकीं थीं। "

मयंक - " अपनी माँ से बात करने के बाद उनका 'नम्बर' भला कोई क्यों 'डिलीट' करेगा यार .. "

शशांक - " यही तो रहस्यमयी है। उनको इसका एहसास या इसकी जानकारी नहीं थी कि उनके 'कॉल' वाला 'नम्बर'  मेरे 'मोबाइल' के 'ट्रू कॉलर' में और उनकी बातचीत की 'रिकॉर्डिंग' मेरे 'मोबाइल' के 'कॉल रिकॉर्डर' में 'सेव' हो गया था। " अपनी आवाज़ और भी धीमी करते हुए लगभग फुसफुसाते हुए आगे बतलाया - " उत्सुकतावश खंगाला तो 'ट्रू कॉलर' से पता चला कि वह 'नम्बर' किसी राजन नाम के आदमी का है। और .. 'कॉल रिकॉर्डर' के अनुसार मोनिका भाभी उसको प्यार से झिड़कते हुए कह रहीं थीं कि मेरा फ़ोन उठा क्यों नहीं रहे हो, जबकि हम बार-बार 'कॉल' कर रहे हैं फिर भी .. ये नया 'नम्बर' देख कर उठा लिए .. वर्ना .. ख़ैर ! .. इस समय कहाँ हो ? .. 'आई मिस यू' .. मोनिका भाभी की आवाज़ रूमानी अंदाज़ में लाड़ के साथ बोल रहीं थीं .. उधर से राजन बहुत ही धीमी आवाज़ में बोल रहा था कि अभी घर पर हूँ .. बहन को "देखने" कुछ लोग घर पर आए हुए हैं .. बाहर निकल के तुम्हारे 'नम्बर' पर 'कॉल' करता हूँ .. आवाज़ से तो कोई युवा ही लग रहा था। "

मयंक - " मतलब झूठ पर झूठ .. 'बैलेंस' ख़त्म होने वाली बात भी और मम्मी से बात करने वाली बात भी। अगर इनका 'बैलेंस' ख़त्म था, तो ये बार-बार उस राजन को 'कॉल' कैसे कर रहीं थीं ? .. ख़ैर ! .. छोड़ो इन सब बातों को .. चलो अब .. देर हो रही है .. मोनिका भाभी और राजन .. दोनों को ही उनके हाल पर छोड़ दो .."

अब दोनों उठ कर अपने 'पी जी' की ओर चले जा रहे हैं।

उन दोनों के जाते ही चाँद और भूरा अभी राहत की साँसें लेकर फिर से चालू हो गए अपनी बातों को लेकर ...

चाँद - "ओ ~~~ बी ब्लॉक वाले 213 नम्बर में 'केचप' की फैक्ट्री चालू होने से तेरा मतलब है .. कि .. 213 नम्बर वाली भाभी को ..." 

भूरा - " हाँ .. महीना चालू हुआ है। "

चाँद - " अबे ! उसे पढ़े लिखे लोग 'मेन्स' कहते हैं और कुछ लोग 'पीरियड' भी। "

मन्टू - " कई लोगों को माहवारी भी कहते सुना है बे .. अबे चाँद की औलाद .. पढ़े-लिखे लोगों की बात का तुझे कैसे पता ? आँ ? "

चाँद - "अमा यार ! सुना नहीं अभी मयंक और शशांक भईया यही सब तो बात कर रहे थे दोनों और .. फिर दिन भर टैक्सी ही तो चलाता हूँ ना।"

मन्टू - "हाँ तो ?"

चाँद - "उसमें एक से एक बड़े-बड़े लोग सफ़र करते हैं और कई दफ़ा वो अपनी बातों की रौ में भूल जाते हैं कि आगे की ड्राइविंग सीट पर एक चाँद नाम का ड्राइवर भी बैठा उनकी रूबरू हो रही या फिर फोन पर होने वाली आपसी बातें लगातार सुन रहा है। और तो और 'रियर-व्‍यू मिरर' में उनकी हरक़तों को भी चोरी-छिपे देख भी रहा है।"

भूरा - "अच्छा !?"

चाँद - "हाँ .. और नहीं तो क्या ! ... एक शाम एक साहब आई टी पार्क से बैठे और रास्ते में एक कूरियर वाली ऑफिस से एक मैम को साथ लेकर शहर के एक बड़े होटल चलने की बात कर रहे थे। आपस में बातें कर रहे थे, कि आज रात के लिए उस होटल में उन दोनों के लिए 'रूम' की बुकिंग है। पर मैम ने ये कहते हुए होटल जाने से मना कर दिया कि माना कि वह इस शहर में अकेली अपने घर परिवार से दूर 'वर्किंग वीमेन हॉस्टल' में रहती हैं, उनको रात में साहब के साथ रात बिताने में भी कोई ऐतराज भी नहीं है और ना कभी रहा है, पर .. आज .. उनको कल से ही 'मेन्स' हो रहा है। काफ़ी 'ब्लीडिंग' भी हो रही है। पता था कि वह साहब एक महीने बाद दो दिनों के 'टूर' पर आने वाले हैं। दो दिन से ज्यादा रुक भी नहीं सकते। कम्पनी की 'अर्जेंट टूर' पर हैं। हालांकि मैम ने उसे रोकने के लिए गोली भी खायी थी। पर साली रुकी ही नहीं। बाद में झक मार के साहब बोले "बार्बीक्यू" ले चलो।"

मन्टू - "अब ये "बार्बीक्यू" क्या होता है बे ?"

चाँद - "अरे बाबा .. सुना है कि ये बड़े-बड़े लोगों के खाने का 'ब्रांडेड' होटल होता है। जहाँ शादी-विवाह की तरह 'बुफे स‍िस्‍टम' में 'वेज-नॉन वेज' खाना सजा रहता है। एक 'फिक्स' पैसा जमा करके जितना मन उतना खाओ। कोई रोक-टोक नहीं। मुझे रुकने के लिए बोल कर वे दोनों अंदर चले गये। फिर उसके बाद शायद 'नाइट शो' फ़िल्म देखने के लिए एक 'मल्टीप्लेक्स' तक जाकर मुझे छोड़ दिए। आगे का मालूम नहीं। "

भूरा - "चाँद भईया ही तो हमको एक दिन बतलाए थे कि इनकी टैक्सी में सफ़र करने वाले कई साहब और मैम साहब लोग आपस में कोड वर्ड में बातें करते हैं। अगर घर से फ़ोन आ गया तो सवारी मैम अपनी मम्मी को बोलेंगी कि महीना चल रहा और तुरन्त 'बॉय फ्रेंड' का फ़ोन आएगा मिलने के लिए तो कोई बोलेंगी कि अभी तो 'मेन्स' चल रहा है, तो कोई बोलेंगी कि 'टोमैटो सॅस प्रोडक्शन' चालू है, तो कोई अभी 'केचप' की 'फैक्ट्री' लगने की बात करती हैं या कोई-कोई लाल झंडा फ़हराया हुआ है बोल के अपना हाल बतलाती हैं। तभी तो अभी हम भी बी ब्लॉक वाले 213 नम्बर में 'केचप फैक्ट्री' के चालू होने वाली बात बोल रहे थे बाबा .."

मन्टू - " चुप हो जा नासपीटे ! .. भाभी माँ समान होती हैं। उनके बारे में ऐसा बोलना या सोचना गलत होता है। बुरी बात है ये सब सोचना या बोलना। "

चाँद - " सुन बे मन्टू .. तू जो ये ज्ञान दे रहा है ना .. ये बुरी बात .. ये गलत बात .. ये सब बस हमारे मिडिल क्लास में ही चलता है भाई .. नहीं तो .. "

तभी रोज की तरह सुबह-सुबह अपनी 'ड्यूटी' पर जा रही इसी मुहल्ले में किराए पर रहने वाली अंजलि पर मन्टू की नज़र जाती है और वह सब को चुप हो जाने के लिए झिड़कता है।

मन्टू - " चुप हो जाओ बांगड़ों .. "


【 शेष .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (६) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】



Thursday, August 3, 2023

पुंश्चली .. (४) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)

पुंश्चली .. (१)पुंश्चली .. (२) और पुंश्चली .. (३) के बाद अपने कथनानुसार आज एक सप्ताह बाद पुनः वृहष्पतिवार को प्रस्तुत है आपके समक्ष  पुंश्चली .. (४) .. (साप्ताहिक धारावाहिक) .. बस यूँ ही ... :-


शशांक - " किसी छोटे-छोटे पर .. महत्वपूर्ण सकारात्मक बदलाव से तुम्हारा क्या मतलब है ? .. "

मयंक - " बतलाते हैं .. पर अभी वो पिछले विषय वाली बातें ख़त्म ही नहीं हुई है अपनी ...'

शशांक - " पर अपनी चाय खत्म हो चुकी है भाई ...

मयंक - " कोई बात नहीं .. रसिकवा है ना ! .. " - रसिकवा को आवाज़ देने के साथ-साथ अपने दाएँ हाथ की तर्जनी और मध्यमा उंगलियों को अंग्रेजी वर्णमाला के 'वी' के जैसे आकार में उसे दिखलाते हुए - " रसिक भाई ! .. दो और चाय देना .. पर हाँ .. इस बार दोनों 'कटिंग' ही देना .. और कड़क तो जरूर ही याद रखना .. "

दरअसल इनकी 'कटिंग' चाय भी वही चाय होगी, जैसी अभी-अभी दोनों ने उदरस्थ किया है, लेकिन यहाँ 'कटिंग' का विशेषार्थ होता है सामान्य मात्रा से आधा। यानि दो 'कटिंग' चाय का मतलब है आधा-आधा कप चाय दो लोगों के लिए। यानि गणित की भाषा में कहें तो "एक बटा दो" कह सकते हैं। मुख्य रूप से मुम्बई शहर में ये 'कटिंग' शब्द ज्यादातर चलन में है। जिन लोगों को भी आदतन या अपने पेशे के अनुरूप मेहमाननवाज़ी करते हुए मेहमानों या ग्राहकों के साथ दिन में पाँच से छः बार या उससे भी ज्यादा बार चाय पीनी पड़ती है, तो 'कटिंग' चाय पीने से दिन भर हर बार आगंतुकों के साथ औपचारिकता भी पूरी हो जाती है और स्वयं का 'मूड' 'फ्रेश' होने के साथ-साथ बार-बार चाय की आधी-आधी मात्रा को उदरस्थ करने के कारण शरीर को 'एसिडिटी' जैसी हानि भी कम होती है। आजकल तो केवल फुटपाथी चाय की दुकानों में ही नहीं, बल्कि बड़े-बड़े 'रेस्टॉरेंट' और "सुट्टा-चाय" या "चाय सुट्टा बार” की तथाकथित आधुनिक संस्कृति वाली चाय दुकानों के शब्दकोश में भी यह 'कटिंग' शब्द शुमार है। साथ में यह भी माना या कहा जा सकता है, कि आय पर आधारित वर्गीकरण के मुताबिक तथाकथित मध्यम वर्गीय और निम्न मध्यम वर्गीय लोग भी अपनी आर्थिक परिधि के दायरे में बंधे मजबूरीवश 'कटिंग' चाय से ही अपनी दिनभर की तलब पूरी कर लेने की कोशिश करते हैं। अब .. सुट्टा और 'बार' जैसे दोनों शब्दों के मतलब तो हमें आपको बतलाने की नौबत नहीं ही आनी चाहिए .. शायद ...

शशांक - " अभी तो किसी छोटे-छोटे पर .. महत्वपूर्ण सकारात्मक बदलाव की ही बात कर लें ? .. वर्ना 'कटिंग' चाय भी आकर खत्म हो जाएगी  .. और .. फिर मेरी तो उत्सुकता भी हो रही है उस सकारात्मक बदलाव के बारे में जानने की .. "

मयंक - " अब सकारात्मक बदलाव की बात कैसे छेड़ूँ भला .. समाज में लोगों ने कुछ विषय को इतना निषिद्ध बना दिया है कि वो विषय जीवन के लिए जरूरी होते हुए भी आज भी कुंठा का विषय बना हुआ है। ऐसे में इन जैसे विषयों पर तथाकथित सभ्य-सुसंस्कृत लोग सार्वजनिक तौर पर चर्चा करने पर भी सकपकाते या हिचकते हैं। जबकि हर परिवार की युवतियों-महिलाओं को इनसे हर माह गुजरना पड़ता है। मानव सृष्टि को गढ़ने की प्रक्रिया का ही हिस्सा है ये .. पर आज भी इस पर कुंठा और निषेध का 'टैग' चिपका हुआ है .. कुछेक नगण्य संख्या में उपलब्ध व्यापक सोच वाले समाज को छोड़ कर .. "

शशांक - " पहेली ही बुझाता रहेगा या कुछ खुल कर बतलाएगा भी .. "

मयंक - " अरे यार .. बता ही तो रहा हूँ ना .. भारत भर में ऐसे जाने कितने रूढ़ीवादी रीति-रिवाज मिल जाएंगे, जिनकी कल्पना मात्र भी महिला स्वास्थ्य और महिला के प्रति जागरूकता या फिर नारी उत्थान और नारी विमर्श जैसे विषयों के मुँह पर करारा तमाचा है। ऐसे रस्म व रीति-रिवाज जिनकी आड़ में इस सृष्टि के अभिन्न अंश भर ही नहीं बल्कि सृष्टि को गढ़ने वाली भी .. तमाम लड़कियाँ पीढ़ियों से कुंठाग्रस्त हो कर घुटती आ रही हैं। " - पास आयी हुई अपनी कड़क 'कटिंग' चाय के 'डिस्पोजेबल कप' को पकड़ कर अपने अधर पर जीभ फिराते हुए - " अब भारत के ही एक हिस्‍से उत्तराखंड के पहाड़ों की बात करें तो पहाड़ों की वादियाँ सैलानियों को जितना ज्यादा आकर्षित करती हैं, उससे भी कहीं कई गुणा ज्यादा भयावह हैं यहाँ की बेतुकी अंधपरम्पराएँ और रूढ़ीवादी रीति-रिवाज .. ख़ासकर महिलाओं को कुंठाग्रस्त करने वाले .. "

शशांक - " ओह ! .. ये तो किसी भी सभ्य-सुसंस्कृत समाज के लिए शर्मनाक बातें हैं यार .. "

मयंक - " है ही ना .. आज भी कोई सम्मानित व्यक्ति या महिला समाज में 'पीरियड्स' की बातें या उसकी पीड़ा खुल कर किसी से नहीं कह पाती हैं .. "

शशांक - " क्यों ? .. 'क्लास', 'पीरियड्स' की बातें तो हर 'स्कूल', 'कॉलेज' और 'कोचिंग सेंटर्स' में तो 'स्टूडेंट्स' करते ही है ना यार .. "

मयंक - " हम उस 'पीरियड्स' की बात नहीं कर रहे 'स्टुपिड' .. हम 'मेंसट्रुएशन' यानि माहवारी की बात कर रहे हैं। जिसे हिंदी में रजोधर्म, रजस्वला या महीना के नाम से भी जाना जाता है। अब ये होता क्या है .. ये तुमको समझाने की जरूरत तो नहीं है ना हमको ? "

शशांक - " अब सुबह-सुबह ये कौन सी बेसिर-पैर वाली 'टॉपिक .. "

शशांक और मयंक के यहाँ आ जाने के बाद से अपनी 'केचप फैक्ट्री' खुलने वाली बात को विराम देकर अब तक अपनी अन्य बातों में मशगूल भूरा, चाँद और मन्टू का ध्यान इन दोनों की बातों की तरफ अचानक रजोधर्म, रजस्वला, माहवारी या महीना जैसे शब्दों को सुनकर आकर्षित हो चला है। कौतूहल से तीनों कान लगा कर दोनों की बातें अब गौर से सुनने लगे हैं।

मयंक - " यही तो अपने तथाकथित बुद्धिजीवी समाज की खोटी सोच है, कि जो सिर-पैर वाले विषय हैं, जो मतलब की बातें हैं उसे बेसिर-पैर का मान कर निषिद्ध करार कर दिया जाता है। " - अपनी बातों की धारा-प्रवाह को चाय की एक लम्बी चुस्की का अर्द्धविराम लगाते हुए - " पर भारत के तमाम अन्य राज्यों की तरह ही उत्तराखंड जैसे भी  अंधपरम्पराओं और रूढ़ीवादी रीति-रिवाजों वाले राज्य में एक छोटा ही सही पर .. महत्वपूर्ण सकारात्मक बदलाव वाली सोच के लिए उस पिता की जितनी भी प्रशंसा की जाए कम होगी। "

शशांक - " कौन पिता ? किसका पिता ? .. ऐसा भी क्या कर दिया उसने भला ? .. "

मयंक - " जो ढपोरशंखी समाज असम की राजधानी गौहाटी में अवस्थित तथाकथित माँ कामाख्या देवी के मन्दिर में देवी की मासिक नहीं, बल्कि वार्षिक माहवारी के नाम पर हर साल जून महीने में अम्बुवाची नामक मेले का आयोजन तो कर सकता है, पर अपने ही घर की माँ, बहन, पत्नी, भाभी से उसकी माहवारी के दौरान होने वाली पीड़ा के बारे में बात भी नहीं कर सकता। "

शशांक - " सही बोल रहे हो, अक्षय कुमार के 'सेनिटरी नैपकिन' वाले सार्वजनिक विज्ञापन के बावजूद भी तो आज दवा या 'कॉस्मेटिक' दुकानदार पुराने अख़बार के पन्नों में लपेट कर ही या फिर काले रंग के 'पॉली बैग' में ठूँस कर ही 'सेनिटरी नैपकिन' देते हुए अक़्सर दिख जाते हैं। खरीदने वाली बाला या महिला भी दुकान की भीड़ कम होने की प्रतीक्षा करती रहती है। "


 ( अक्षय कुमार द्वारा 'सेनिटरी नैपकिन' की नसीहत )

मयंक - " मालूम है ? .. ऐसे माहौल में भी उत्तराखंड जैसे राज्य में कुमाऊँ मण्डल वाले "उधम सिंह नगर" जिला के काशीपुर शहर में रहने वाले एक संगीत शिक्षक ने एक अनूठी पहल की है। "

शशांक - " अच्छा !!! " - विस्मय के साथ - " क्या उन्होंने 'सेनिटरी नैपकिन' की कोई 'फैक्ट्री' लगायी है वहाँ काशीपुर में ? "

मयंक - " नहीं !! .. उस जितेन्द्र भट्ट नाम के एक संगीत शिक्षक ने अपनी बेटी रागिनी की पहली माहवारी शुरू होने पर अभी हाल ही में किसी जन्मदिन के समान ही उत्सव का आयोजन किया है। जैसे किसी भी उत्सव पर अपने नाते-रिश्तेदारों, मित्रों, पड़ोसियों को बुलाते हैं, उसी तरह उन्होंने भी सभी को बाज़ाब्ता आमंत्रित किया। किसी उम्दा बेकरी दुकान से रक्त के रंग से मिलते-जुलते रंग के केक पर अंग्रेजी में "हैप्पी पीरियड्स रागिनी" (Happy Periods Ragini) लिखवा कर तैयार करवाया। " - कड़क 'कटिंग' चाय की एक और सुसुम चुस्की का अपने मुँह के लार के साथ मिलन कराते हुए - " केक पर लिखे ये तीन शब्द आज के दकियानूसी समाज को ठेंगा दिखाने के लिए काफ़ी है। यह घटना केवल उत्तराखंड के पहाड़ों में रहने वाली बालाओं, महिलाओं के लिए ही नहीं, वरन् समस्त रूढ़िवादी समाज की सोच को नयी दिशा बतलाने की ख़ास प्रतीक भर है। पर ऐसी घटना को ना तो 'मीडिया' दिखलाना चाहती है और ना हम देखना चाहते हैं। हम तो मौसम की मार के कारण टमाटर के बढ़े 'रेट' की आड़ में सत्तारूढ़ 'पार्टी'की खिल्ली उड़ाने में मशगूल हैं। उधर मीडिया अँजू और सीमा में लगी है दिन रात। वो तो अगर जितेन्द्र भट्ट जी ने 'सोशल मीडिया' पर इसे स्वयं से नहीं साझा किया होता तो हम जैसे लोगों को इसकी जानकारी भी नहीं हो पाती। "

शशांक - " सच में .. "

मयंक - " पता है उन्होंने क्या लिखा है ? .. उन्होंने 'सोशल मीडिया' पर निम्नलिखित बातें हुबहू साझा किया है ... 

बेटी बड़ी हो गई 🥹♥️❤️😍 

बेटी रागिनी को periods (मासिक धर्म) शुरू होने की ख़ुशी को आज उत्सव की तरह मनाया …

HAPPY PERIODS RAGINI 💐 "

शशांक - " अरे वाह !!! .. समाज में 'पीरियड्स' से जुड़ी फैली भ्रांतियों को खत्म करने के लिए यह एक शानदार और अद्भुत पहल है .. इस नई सोच को केवल बातों से नहीं, बल्कि स्वयं प्रत्यक्ष प्रयोग करके नई सोच के पक्षधरों का उत्साहवर्धन किया है .. है ना !? "

मयंक - " नहीं .. ऐसा नहीं है। हमारे उत्तरी भारत में असम के एक कामख्या मन्दिर को छोड़ कर इसकी चर्चा भले ही निषिद्ध और कुंठा का विषय है, पर दक्षिणी भारत के कई राज्यों में पहली माहवारी होने पर परम्परागत ढंग से उत्सव मनाए जाते है। "

शशांक - " पर तुम तो किसी अवसर पर केक काटने को पश्चिमी सभ्यता का नाम देकर नकारते हो .. "

मयंक - " हाँ .. वो तो है .. केक ना काट कर भी तो उत्सव मनाया ही जा सकता है .. है या नहीं ? .. बोलो ..  पर .. ये शुरुआत तो अपने आप में  क़ाबिल-ए-तारीफ़ है। सोचो .. रागिनी की तरह ही अगर हर लड़की को उसका पिता ऐसा अवसर प्रदान करे तो वह हर पल .. पल-पल .. आजीवन सोचेगी या कहेगी भी कि रजस्वला कुंठा नहीं अभिमान है .. शायद ... "

【 शेष .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (५) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】






( जितेन्द्र भट्ट, रागिनी और उनकी पत्नी संग उत्सव के सभी उपरोक्त चित्र 'सोशल मीडिया' से साभार .)


Thursday, July 27, 2023

पुष्पा नहीं, सुसवा ...

आपको भी शायद याद होंगे ही तेलुगु भाषी भारतीय अभिनेता- अल्लू अर्जुन की फ़िल्म "पुष्पा: द राइज" के सबसे ज्यादा बहुचर्चित और लोकप्रिय दोनों संवाद जिसे 'बॉलीवुड' के श्रेयस तलपड़े ने हिंदी में 'डबिंग' किया है। पहला संवाद जिसमें वह कहते हैं- "मैं पुष्पा... पुष्पराज... मैं झुकेगा नहीं स्स्साला .." और दूसरे संवाद में बोलते हैं- “पुष्पा नाम सुन के फ्लावर समझे क्या... फ्लावर नहीं, फायर है। ” .. याद है ना .. ये दोनों संवाद ? ...


उसी फ़िल्मी संवाद के तर्ज़ पर अभी-अभी किसी की सोंधी-सी फ़ुसफ़ुसाहट ने हमारे कर्णपटल पर दस्तक दी है- "सुसवा नाम सुन के फूल समझे क्या ? फूल नहीं, साग है। " .. आप सब भी ऐसा सुन पा रहे हैं क्या ? .. नहीं ? ..  नहीं क्या ? ...


ख़ैर ! .. कोई बात नहीं .. हो सकता है आपके आसपास की ध्वनि के प्रदूषण में आपको नहीं सुनायी दे रही हो ये सोंधी-सी फुसफुसाहट .. कई दफ़ा तो एक ही छत के नीचे गहरी नीरवता में अपनों के क़रीब रह कर भी हम एक-दूसरे के मन की मीठी बातों को भी सुन-समझ नहीं ही पाते हैं .. है ना ? ... 


फ़िलहाल अभी हम चर्चा कर रहे हैं "सुसवा साग" का, जो उत्तराखंड की एक विशेष पहचान है। जैसे मैदानी क्षेत्रों में लोकप्रिय है "नोनी" या "नोनिया" का साग। सुसवा साग एक मौसमी उपज है, जो समस्त उत्तराखंड के विभिन्न स्थानों पर बहते पानी के प्राकृतिक स्रोतों में और उसके आसपास स्वतः उग आता है, ठीक "कर्मी साग" के पैदावार की तरह। प्रायः सुसवा का साग अक्टूबर के आसपास उपजता है और अमूमन मार्च-अप्रैल तक उपलब्ध रहता है।  


उत्तराखंड की राजधानी देहरादून के आसपास के इलाकों में भी अब से पहले यह प्राकृतिक रूप से एक नदी विशेष की उपज हुआ करता था। स्थानीय जानकार वृद्ध-वयस्क जन बतलाते हैं कि इस नदी में उपजने वाले सुसवा साग के कारण ही इस नदी विशेष को "सुसवा नदी" के नाम से बुलाया जाता था या है भी। तब कुछ गरीब तबक़े के लोग इस निःशुल्क प्रकृति-प्रदत्त साग को शहरी क्षेत्रों में बसे हुए हम जैसे साग प्रेमियों से बेच कर अपने परिवार का जीवनयापन करते थे। 


हालांकि उत्तर प्रदेश से विभाजित होकर बनने वाले नए राज्य- उत्तराखंड की राजधानी- देहरादून बनने के बाद, पहले से ही मनमोहक स्वच्छ आबोहवा और मनोरम प्राकृतिक सौन्दर्य के आकर्षण की वज़ह से अन्य राज्यों से यहाँ आकर स्थायी-अस्थायी बसने वालों की लगी हुई होड़ के कारण यहाँ की जनसंख्या ताबड़तोड़ बढ़ती गयी है। जिसके फलस्वरूप उसी अनुपात में प्रदूषण भी बढ़ता गया है। नतीजन अब प्रदूषित सुसवा नदी में सुसवा साग का नामोनिशान तक नहीं मिलता है। परन्तु .. चूँकि ये साग और नदी, दोनों ही हमनाम हैं और अतीत में ही सही, दोनों के गहरे सम्बन्ध रहे हैं तो साग के साथ-साथ प्रसंगवश नदी की भी कुछ तो चर्चा करनी जायज़ ठहरती है .. शायद ...


दरअसल सुसवा नदी गंगा की सहायक नदियों में से एक है, जो उत्तराखंड के दक्षिणी शिवालिक पर्वत श्रृंखला से निकलती है और देहरादून की घाटियों से गुजरती हुई सौंग नदी की सहायक नदी बन कर मैदानी क्षेत्र के रास्ते गंगा नदी में जा मिलती है। जैसे हमारे अभिभावक होते हैं और हमारे अभिभावक के भी अभिभावक होते हैं, उसी प्रकार गंगा की सहायक नदी सुसवा की भी सहायक नदियाँ हैं। वो सब भी अब निष्प्राण-सी ही दिखती हैं। उन सहायक नदियों के भी नामभर के लिए ही नाम शेष बचे हैं-  बिंदाल नदी और रिस्पना नदी। स्थानीय जानकार जन बतलाते हैं कि रिस्पना नाम दरअसल ऋषिपर्णा नाम का अपभ्रंश स्वरुप है और यही अपभ्रंश नाम ही वर्तमान में प्रचलित भी है।


कहते हैं कि सुसवा नदी कभी अपने पौष्टिक व स्वादिष्ट सुसवा साग और मछलियों के साथ-साथ देहरादून में उपजने वाले अपने विशेष सुगंध के कारण विश्व भर में लोकप्रिय बासमती चावल के खेतों में अपने पानी की सिंचाई से उस चावल विशेष में सुगंध भरने के लिए जानी जाती थी। वही सुसवा नदी की स्वच्छ धार आज हम बुद्धिजीवियों के तथाकथित विकास की बलिवेदी पर चढ़ कर, अल्पज्ञानियों की बढ़ती जनसंख्या की तीक्ष्ण धार वाली भुजाली से क्षत-विक्षत हो कर सिसकी लेने लायक भी शेष नहीं बची है .. शायद ...


फलतः बासमती चावल में सुगंध भरने वाली नदी आज स्वयं ही दुर्गन्धयुक्त हो गयी है। लगभग निष्प्राण हो चुकी इस नदी में बरसात की शुरुआत में पानी भरने के क्रम के साथ-साथ शहर भर की गंदगियों सहित मिलने वाले बड़े-बड़े नालों ('सीवर') के हानिकारक 'प्लास्टिक', 'थर्माकोल' समेत 'मैग्नीशियम', 'कैल्शियम' और अन्य कई विषैले रसायन .. मसलन- 'क्रोमियम', 'जिंक', 'आयरन', शीशा, 'मैंगनीज़', 'ग्रीस', तेल इत्यादि बहुतायत मात्रा में आकर मिलते हैं। नतीजन इसके पानी के उपयोग से या सम्पर्क में आने से भी कैंसर, विशेष कर बड़ी आँत का कैंसर, चर्म रोग, 'कोमा', 'गॉल ब्लैडर', गुर्दे की पथरी, 'हाइपर टेंशन', हृदयघात या मोटापा जैसी खतरनाक बीमारी होने की प्रबल सम्भावना रहती है। इसके साथ ही इसमें कचरे के रूप में मिले हानिकारक तत्व वाले पानी से सिंचाई करने पर अनाज की गुणवत्ता भी प्रभावित होती हैं, जो परोक्ष रूप से हमारे स्वास्थ्य के लिए खतरनाक साबित होते हैं .. शायद ... 


इसीलिए इन दिनों देहरादून के आसपास के इलाकों में सुसवा साग प्रेमी लोगों के लिए कहीं-कहीं अपने जीवकोपार्जन के लिए कुछ लोगों द्वारा सुनियोजित ढंग से इसकी खेती की जाती है। अक्तूबर के आसपास इसे रोपा जाता है, जो लगभग डेढ़ माह में काटने लायक हो जाता है। अक्तूबर से मार्च-अप्रैल तक इसे खेती करने वाले लोगों द्वारा छः-सात बार काटा जाता है। हर बार काटने के बाद यह बरसीम चारा की तरह तेजी से पनप भी जाता है। चूँकि इसकी पैदावार केवल पानी पर निर्भर करती है, वो भी बहते हुए पानी पर, तो खेतों में ठीक उसी तरह की बहते पानी जैसी व्यवस्था करनी होती है, जैसी नदियों में होती है। खेतों में पानी रुकने से सुसवा की उपज को खराब होने की आशंका रहती है। हालांकि उत्तराखंड के सुदूर पहाड़ी इलाकों में जहाँ अभी तक शहरी प्रदूषण की पैठ नहीं हुई है, वहाँ अभी भी प्राकृतिक रूप से बिना खेती किये हुए ही बहते पानी के स्रोतों में और उसके आसपास यह मौसमानुसार स्वतः उपजता है और स्थानीय सुसवा प्रेमियों को अपना सोंधापन निछावर करता रहता है।


उत्तराखंडी लोगों को मालूम है, कि सुसवा साग बहुत ही स्वादिष्ट एवं पौष्टिक होता है। इसमें 'विटामिन सी', 'प्रोटीन' और 'आयरन' जैसे महत्वपूर्ण पोषक तत्व प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। इसमें कैलोरी बहुत ही कम होती है, पर भरपूर मात्रा में 'एंटीऑक्सीडेंट' होते हैं, जो हृदय रोग और कई प्रकार के कैंसर से बचने में सहायता करते हैं। यह अन्य कई खनिजों का भी एक अच्छा स्रोत है, जो हमारी हड्डियों की रक्षा करता है। अन्य स्रोतों के साभार से यह पता चलता है कि विदेशों में भी कई जगहों पर इसको Water Cress (जलकुम्भी) के नाम से बुलाते हैं। वहाँ पर यह ज्यादातर सलाद की तरह उपभोग किया जाता है।


आइए ! .. मिलकर एक बार सुसवा वाले संवाद को अपनी ज़ुबान से बोल कर आज की बतकही की इतिश्री करते हैं .. बस यूँ ही ... - "सुसवा नाम सुन के फूल समझे क्या ? फूल नहीं, साग है। "

















सुसवा के लिए यथोचित मौसम में देहरादून की स्थानीय सब्जी मंडी-बाज़ारों में बेचने के लिए वर्तमान में भी प्रायः गरीब लोग ही टोकरी में लेकर बैठते या बैठती हैं या फिर कुछ पुरुष लोग अपनी साइकिल पर लादे कॉलोनीयों-मुहल्लों में घूम घूम कर फेरी लगाते नज़र आ जाते हैं। इस वर्ष पुनः प्रतीक्षारत हैं हम सुसवा के मौसम के आगमन के .. बस यूँ ही ...

पुंश्चली .. (३) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)

पुंश्चली .. (१) .. (साप्ताहिक धारावाहिक) और पुंश्चली .. (२) .. (साप्ताहिक धारावाहिक) के बाद अपने कथनानुसार आज एक सप्ताह बाद पुनः वृहष्पतिवार को प्रस्तुत है पुंश्चली .. (३) .. (साप्ताहिक धारावाहिक) .. बस यूँ ही ... :-

परबतिया लगभग झेंपती हुई अपने स्थान से उठकर गली-चौक की सफ़ाई के लिए नगर-निगम द्वारा दिए गये लम्बे डंडे लगे नारियल के झाड़ू को लेकर गली-मुहल्ले की शेष बची सफ़ाई करने चल पड़ी है। 

उधर मेहता जी और सक्सेना जी भी आपसी तर्क-वितर्क को बेतुकी बहस और बेतुकी बहस को वाक्-युद्ध तक का रूप देकर, यहाँ से अपने-अपने घर की ओर रुख़ कर चुके हैं। सभी को अपने-अपने काम-धंधे पर घर से निकलने के पहले घर की कुछ दैनिक नितान्त आवश्यक आवश्यकताओं को पूरी करनी होती है और अपना नहाना-धोना और साफ़-सफ़ाई भी। 

परबतिया के जाते ही भूरा और चाँद 'केचप' की फैक्ट्री वाली अपनी बातों को फिर से छेड़ना चाह रहे हैं, जिसे मन्टू बेतुकी बातें कह के उन्हें चुप करा देने की कोशिश भर कर रहा है।

अभी चाँद कुछ कहता, उससे पहले ही मेहता जी और सक्सेना जी की जगह पर मुहल्ले के ही एक 'पी जी' में रहने वाले दो विद्यार्थी युवा मित्र- मयंक और शशांक आ कर बैठ गये हैं। वे दोनों ही सुबह-सवेरे रोज की तरह रसिक चाय दुकान पर आकर रसिकवा को अलग से थोड़ी ज्यादा कड़क चाय बनाने की ताकीद करते हुए मेहता जी और सक्सेना जी की थोड़ी देर पहले हो रही तथाकथित राजनीति वाली  बेतुकी बहस को पास ही खड़े सुन रहे थे और मुस्कुरा भी रहे थे।

हालांकि उनके 'पी जी' में भी सुबह के नाश्ते के साथ चाय मिलती है, पर रसिक चाय दुकान के जैसी नहीं मिलती है। पाउडर वाले दूध में बनी, कम चाय पत्ती डाली हुई खौले पानी-सी पतली चाय मिलती है। हाँ .. चीनी की कमी नहीं रहती है। पर रसिकवा की चाय पीकर प्रायः उन दोनों की रात भर जाग कर प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करने से उपजी थकान छूमंतर हो जाती है। दोनों ही अलग-अलग राज्यों से हैं और अलग-अलग भाषाभाषी भी हैं, पर दोनों में गहरी मित्रता है।

इन दोनों को वहाँ उस बेंच पर बैठते देखकर चाँद 'केचप' की फैक्ट्री वाली बात छेड़ते-छेड़ते रुक जाता है। वह और भूरा दोनों एक-दूसरे की ओर ताकने लगते हैं। ऐसे में मन्टू इन दोनों को मयंक और शशांक के कारण सकपकाता हुआ देख कर मुस्कुराने लगा है। 

मुहल्ले में सभी लोग 'पी जी' के सभी किराएदारों को सम्मान की दृष्टि से देखते हैं। उनमें भी इन दोनों मित्रों को कुछ ज्यादा ही इज़्ज़त करते हैं। भला करें भी क्यों ना ! .. स्कूल में पढ़ने वाले मुहल्ले भर के बच्चों के लिए दोनों ही किसी के लिए भईया, किसी के लिए अंकल तो किसी के लिए 'सर' हैं। विशेषकर गरीब परिवार के बच्चों और उनके अभिभावकों की नज़र में तो दोनों ही किसी मसीहा से कम नहीं हैं। 

उसकी भी वजह है .. हर रविवार को सारे जरूरतमंद बच्चों को कभी पास के ही पार्क में या कभी अपने 'पी जी' के छत पर ही बैठा कर उन सभी के द्वारा पूछे गए पाठ्यक्रम के कठिन प्रश्नों को उन सभी की सरल बाल मानसिकता के अनुरूप समझा कर उनके चेहरों पर मुस्कान तैराने का काम करते हैं दोनों, वो भी निःशुल्क। पर हाँ .. बच्चों की परीक्षा के दिनों में साप्ताहिक रविवार को होने वाली 'क्लास' की पाबन्दी नहीं रह पाती, जिसको जिस समय, जो भी विषय समझ में ना आए, आ सकता है।  सभी बच्चों को इनके द्वारा मनोरंजक ढंग से पढ़ाने पर उन बच्चों के लिए नीरस विषय भी दिलचस्प बन जाता है। 

इसके अलावा ये दोनों एक-दो घन्टे किसी अमीर घर के 'इंग्लिश मीडियम' से किसी तथाकथित 'प्राइवेट स्कूल' में पढ़ने वाले बच्चों को 'ट्यूशन' पढ़ा कर अपने अतिरिक्त जेबख़र्च के लिए अर्जित पैसों से जरूरत पड़ने पर कभी-कभी किसी तंगहाल अभिभावक के बच्चों के लिए कॉपी, तो कभी पेंसिल, तो कभी-कभी किताबें, 'स्कूल बैग' या 'स्कूल ड्रेस' तक भी खरीद देते हैं। पाठ्यक्रम की पढ़ाई के साथ-साथ जिस बच्चे में जो भी छिपी हुई कलात्मक या खेल-कूद सम्बन्धित पाठ्येतर गतिविधियों वाली प्रतिभा होती है, उसे बाहर लाने के लिए भी उन्हें ये दोनों प्रेरित करते रहते हैं। 

बदले में इन्हें मुहल्ले भर का प्यार और सम्मान मुफ़्त में मिलता रहता है। जिस किसी भी धर्म-सम्प्रदाय वाले बच्चे के घर में त्योहारों के नाम पर विशेष सीझने वाले व्यंजनों में इन दोनों मित्रों का भी हिस्सा पकता है। कभी कोई बच्चा एक कटोरी में अपनी पुरानी 'रफ' कॉपी के पन्ने से ढक कर 'रूम' में ही पहुँचा जाता है या फिर कभी कोई अपने घर ही बुला कर ले जाता है - " मंक छल (मयंक सर)  .. छछांक छल (शशांक सर)  .. आपको मम्मी बुला लही (रही) है। मम्मी बोलीं है कि तुलत (तुरंत) वापच् (वापस) आ जाइएगा .. आपकी पलाई (पढ़ाई) दिसतलब ('डिस्टर्ब') नहीं होगी .. " 

अगर अवकाश रहा तो दोनों सहर्ष उस बच्चे के साथ ही उसके घर चले जाते हैं या व्यस्त रहने पर कुछ देर में आने की बात कह कर उस बच्चे को उसके घर भेज देते हैं। जिस शाम भी किसी बच्चे के घर से बुलाहट आने पर, वहाँ से लौटने के बाद दोनों को ही उस शाम 'पी जी' के औपचारिक भोजन से छुटकारा मिल जाती है।

ख़ैर ! .. अभी फ़िलहाल दोनों के लिए रसिकवा के हाथों से बनी कड़क चाय अब तक दोनों के हाथों में 'डिस्पोजेबल कप' पर सवार हो कर आ चुकी है। चाय की चुस्की के साथ ही रोज की तरह पढ़ाई से इतर किसी भी ज्वलंत मुद्दा पर दोनों की परिचर्चा शुरू हो गयी है। इसी बहाने आसपास और देश-विदेश की जानकारी भी हो जाती है, जो अध्ययन के अतिरिक्त आवश्यक भी है और साथ ही 'कॉम्पेटेटिव् एग्जाम' के लिए 'करेन्ट अफेयर्स' की भी जानकारी बढ़ जाती है। मतलब .. "आम के आम और गुठलियों के दाम" वाली कहावत चरितार्थ हो जाती है .. शायद ...

दोनों की आज की बातचीत की शुरूआत होती है कुछ ही देर पहले मेहता जी और सक्सेना की हो रही बेतुकी बकझक से ...

मयंक - " विपक्ष के सांसद और विधायक भी किसी सत्तापक्ष के सांसद और विधायक के तरह ही वेतन और मोटी रक़म वाले भत्ते पाते हैं। यहाँ तक कि किसी अनुचित हरक़तों के लिए कुछ दिनों के लिए राज्य सभा या लोक सभा से इन्हें निलम्बित भी कर दिया जाए तो इनके वेतन से कोई कटौती नहीं होती है। जैसे हमारे देश की किसी हारी हुई क्रिकेट टीम की भी कमाई होती ही है। " - कड़क चाय की एक घूँट से अपनी ग्रीवा को तर करते हुए पुनः मयंक - " और हम हैं कि पक्ष और विपक्ष के नाम पर आपस में ख़ामख़ाह लड़ते रहते हैं। "

शशांक - " हमारा काम केवल पक्ष-विपक्ष के नाम पर 'सोशल मीडिया' को रंगना भर है। हम अपने घर-परिवार से किसी को विधायक-सांसद बनाने की बात नहीं करेंगे .. हमें तो बस .. सरकारी नौकर चाहिए या फिर डॉक्टर, इंजीनियर, वक़ील, प्रोफेसर, टीचर चाहिए .. हमने कभी अपने देश में विधायक-सांसद बनने के लिए किसी 'सिलेबस' की या 'कोचिंग सेंटर' खोलने की तो बातें नहीं सोची कभी .. पर दो गुटों में बँट कर आपस में तू तू मैं मैं कर के अपनी-अपनी गर्दन अकड़ाने से बाज नहीं आते हैं। हद है इनकी सोच की ..."

मयंक - " कभी टमाटर, कभी मणिपुर .. बिना विषय को गम्भीरता से जानेसमझे बस किसी फिसड्डी नेता की तरह लोगों में छाए रहने के लिए कुछ भी बकते रहना इनका काम है। शर्मनाक और मार्मिक घटनाओं पर भी कविताओं, दोहों, लेखों और स्लोगनों की स्रोत फूट पड़ती हैं इनकी तरफ से, किसी 'न्यूज़ चैनल' वाले की 'टी आर पी' की तरह अपनी 'कमेंट्स' और 'लाइक' की चाह में। .. नहीं क्या ?इनकी माँ-बहनों के साथ ये सब घटित हो तो भी ये लोग ऐसे-ऐसे क़सीदे पढ़ेंगे क्या ? "

शशांक - " किसी बलात्कृत बाला या महिला से रिश्ते जोड़ने की बात उठेगी तो इनकी नानी-दादी सब बेहोश हो जाएंगी। किसी ऐसी घटना की अगर गवाही देने की नौबत आ पड़ी तो अपने माँद में दुबक कर अपने डाइनिंग टेबल पर मुर्गे के शोरबे में पराठे बोर-बोर कर मुर्गे और टी वी पर आ रहे समाचार, दोनों के चटखारे लेंगे, फिर अगले दिन या उसी रात एक शगूफ़ा 'सोशल मीडिया' पर चिपका भर देंगे और तो और पीछे से 'लाइक' और 'कमेंट्स' की गिनती में मशग़ूल हो जायेंगे सारे .. बात करते हैं सा..."

मयंक - " कूल डाउन यार .." 

शशांक - " इनकी बेतुकी बातों से रक्त वाहिनियों में क़माल पाशा दौड़ने लगते हैं यार .. "

मयंक - " तुम सही कह रहे हो .. अभी देखो ना .. लोग सीमा और अँजू की बातें करते अघा नहीं रहे हैं। कोई सीमा की तो कोई अँजू की, तो कोई दोनों की तारीफ़ करते थक नहीं रहे हैं। पर हम उनसे एक ही बात पूछते हैं दोस्त कि .. अगर यही क़दम उन क़सीदे पढ़ने वाले लोगों की धर्मपत्नी या बेटी, बहन उठाये तो भी क्या वो लोग ऐसी ही प्रतिक्रिया देंगे, जैसी अभी दे रहे हैं दोनों की तारीफ़ में ? .. बोलो तो भला !!! ..."

शशांक - " मीडिया भी .. जिधर देखो उधर .. इन दोनों को 'सेलिब्रिटी' बनाने का कोई मौका नहीं छोड़ रही, लोग भी दिन रात चटखारे ले-ले कर देख-सुन और पढ़ रहे हैं .. सोते-जागते हर वक्त .. हम लोग युवा पीढ़ी के लिए कैसी प्रेरणास्रोत वाली प्रतिमान स्थापित करना चाह रहे हैं .. हम स्वयं ही तय नहीं कर पाते .. दूसरे की पत्नी, कोई अपने बच्चों के साथ, तो कोई अपने बच्चों को छोड़ कर अपने-अपने तथाकथित प्रेमी के पास भाग आयी या गयी तो सब उसे नायिका बनाने पर तुले हुए हैं .. कोई तो इसे इतिहास रचना बता रहे हैं .. हद हो गयी यार ... "

मयंक - " हमलोग बेकार की बातों में ही ज्यादा उलझे रहते हैं .. जिनसे समाज में होने वाले छोटे-छोटे, पर महत्वपूर्ण सकारात्मक बदलाव हम दरकिनार करते जाते हैं । जिसे 'मीडिया' भी 'कवर' नहीं करती। वो तो बस वही सब परोसने में दिलचस्पी रखती है, जिनसे उनकी 'टी आर पी' बढ़ती रहे। उन्हें समाज कल्याण या उत्थान से क्या लेना-देना भला ... !? " - जैसे-जैसे चाय की चुस्कियों की क्रमवार गिनती बढ़ती जा रही है , वैसे-वैसे 'डिस्पोजेबल कप' में चाय की मात्रा घटती जा रही है। - " हमारे समाज के चंद सकारात्मक बदलाव भले ही किसी हिन्दू पूजनोपरांत बँटने वाले प्रसाद में तुलसी दल की तरह मात्रा में नगण्य हों, पर होते महत्वपूर्ण हैं। उन्हें नयी पीढ़ी के समक्ष एक यथोचित प्रतिमान बनाने के लिए हम सभी को आगे आना होगा। केवल 'मीडिया' के भरोसे हम नहीं बैठ सकते। हम अक़्सर भूल जाते हैं कि 'मीडिया' जिन विज्ञापनों के सहारे चलती है, वे सारे विज्ञापन हमारी बदौलत चल पाते हैं। "

शशांक - " किसी छोटे-छोटे पर .. महत्वपूर्ण सकारात्मक बदलाव से तुम्हारा क्या मतलब है ? .. "

【 शेष .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (४) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】



Thursday, July 20, 2023

पुंश्चली .. (२) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)

पुंश्चली .. (१) .. (साप्ताहिक धारावाहिक) के बाद अपने कथनानुसार एक सप्ताह बाद पुनः आज वृहष्पतिवार को प्रस्तुत है "पुंश्चली .. (२) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" .. बस यूँ ही ... :-

अभी इधर मन्टू उस बातूनी भूरा को उसकी बातों में बेतुकापन होने की आशंका के आधार पर उसे चुप कराने के मक़सद से जैसे ही घुड़कता है, तभी उधर चाय की दुकान के सामने ही तथाकथित बड़े-बड़े ग्राहकों के लिए रखी गयी लकड़ी की बेंच पर बैठे मुहल्ले के ही दो पड़ोसी सज्जन पुरुष- सक्सेना जी और मेहता जी एक दूसरे पर लगभग चिल्लाने लगे हैं। 

चाय की दुकान में ग्राहकों के लिए ही रोज की तरह आये आज के अख़बार के अलग-अलग पन्ने दोनों भद्र (?) पुरुष अपने-अपने दोनों हाथों में पकड़ कर पढ़ते हुए और बीच-बीच में आपसी बहस के दौरान अपने-अपने आवेश के आवेग में अपने-अपने अख़बार वाले पन्ने को झटकते और हवा में लगभग लहरा कर फड़फड़ाते हुए एक दूसरे पर बारी-बारी से तार सप्तक में प्रतिक्रिया दे रहे हैं। मानो राष्ट्रीय स्तर के किसी भी टी वी न्यूज़ चैनल पर एक समाचार उद्घोषक के द्वारा सार्वजनिक सर्वेक्षण ('पब्लिक पोल') के आधार पर तय किए गये किसी वर्तमान ज्वलंत समस्या जैसे विषय पर दो-चार प्रतिभागियों के बीच बहस छिड़ी हुई हो या फिर लोक सभा या विधान सभा में सत्र के दौरान यदाकदा होने वाले जूतम-पैजार हो रहे हों। 

मेहता जी - "आप चाहे लाख बोलिए .. हल्ला कीजिए .. चिल्लाइये .. पर आपकी सरकार जो है ना ! .. एकदम से निकम्मी है। अब बतलाइए ना जरा .. भला ये भी कोई बात हुई कि कल तक तीस-चालीस रुपए प्रति किलो बिकने वाला टमाटर इन दिनों अचानक से सौ को भी पार कर गया है। आम पब्लिक क्या करे बेचारी ? भूखों मर जाए ? आयँ ?" 

"रसिक चाय दुकान" की दोनों ओर सजी बेंच के लगभग पास ही में फ़ुटपाथ पर अपनी घिसी हुई हवाई चप्पल की  जोड़ी पर अपने चूतड़ों की जोड़ी टिकाये रामचरितर रिक्शा वाला लगभग चुक्कु-मुक्कु बैठा दोनों साहिब लोगों की नोकझोंक सुन रहा है। साथ ही आजकल आम प्रचलन में उपलब्ध प्लास्टिक के परत वाले कागजी कप, जिसे पढ़े-लिखे लोग 'डिस्पोजेबल कप' कहते हुए सुने जाते हैं, में चाय भी सुरकता जा रहा है। उसकी चप्पलों के फ़ीते के लगभग हर छोर पर पास में ही उसी फ़ुटपाथ के एक छोर पर बैठने वाले रामखेलावन मोची से समय-समय पर चिप्पी लगी सिलाई सिलवा-सिलवा कर काम चलाने के लायक बनवाया गया जान पड़ रहा है, ताकि रिक्शे का पैडल रामचरितर के तलवे में ना गड़े। उसके पास ही लगभग पीढ़ा पर बैठने वाले अंदाज़ में दिहाड़ी पर मजदूरी करने वाला रामभुलावन भी वहीं पड़ी एक पुरानी ईंट पर बैठा चाय सुड़कने में रामचरितर का साथ दे रहा है। 

ये दो-चार ईंटें, जिनमें से एक पर अभी रामभुलावन बैठा हुआ है, दरअसल आज वृहष्पतिवार होने कारण बुद्धनवा नाई की फुटपाथी दुकान बंद है .. क्योंकि वृहष्पतिवार, मंगलवार और शनिवार को मुहल्ले के सब लोग एक अंधपरम्परा के तहत बाल-दाढ़ी नहीं बनवाते हैं। एक-दो युवा ग्राहक जो अंधपरम्पराओं में विश्वास नहीं रखते हैं, वही लोग इन तीन दिनों में आते हैं, तो ग्राहक कम होने के बावज़ूद कम से कम उस दिन की बुद्धनवा की खैनी और बीड़ी की व्यवस्था हो जाती है। साथ ही कभी-कभी रात के लिए चखना में एक दोना चना की झालदार घुँघनी और एक देसी 'पउआ' की भी जुगाड़ कर लेता है। घर-परिवार में कोई जरुरी काम रहने पर वह इन्हीं तीन दिनों में से एक दिन आवश्यकता के मुताबिक अपनी दुकान बंद कर लेता है। आज भी या तो उसकी घरवाली- रमरतिया को बुखार लगा होगा या उसकी तीन बेटियों और उन के बाद बहुत ही तथाकथित झाड़-फूंक के बाद पैदा हुआ उसका एकलौता दुलरुआ बेटा में से कोई एक बीमार हुआ होगा, जिनको ले कर वह सरकारी अस्पताल में पुर्जा कटवा कर 'आउटडोर' के आगे कतार में खड़ा होने की तैयारी कर रहा होगा इस समय .. शायद ...

नतीजन अपनी बिना दीवार-छत वाली फुटपाथी दुकान (?) में जिन ईंटों पर अपने ग्राहक को बैठा कर बुद्धनवा रोज बाल-दाढ़ी बनाता है, वो सारी ईंटें पिलखन के इस वृद्ध वृक्ष के जड़ के पास आज लावारिस पड़ी हुईं हैं। इसी पिलखन की छाँव तले रसिकवा की यह "रसिक चाय दुकान" भी वर्षों से बदस्तूर चल रही है। 

रामचरितर - "एकदम सही कह रहे हैं मालिक .. हम गरीब-गुरबा के तो जीना मुहाल हो गया है। इतना महँगा टमाटर तो हम सब आज तक नहीं खरीदे हैं।"

रामभुलावन - "हाँ मालिक .. हम सब के तो चौका-चूल्हा में अब टमाटर के आना ही बन्द हो गया है। जरूरत पड़े पर जीतनराम पंसारी के यहाँ से 'सौस' की एक-डेढ़ रुपया वाली एक-दो पुड़िया ('पाउच') ले के काम चला रहे हैं। जैसे-तैसे दिन काट रहे हैं हम सब।"

तभी सक्सेना जी और मेहता जी की मिलीजुली हलचल में मेहता जी का चाय वाला कुल्हड़ अपना संतुलन खो कर बेंच से लुढ़कते हुए शेष बची चाय सहित अभी-अभी ज़मींदोज़ हो गया है। 

दरअसल सामाजिक वर्गीकरण के तर्ज़ पर ही चाय की दुकान पर चाय पीने के बर्त्तनों के भी इन दिनों वर्गीकरण दिख ही जाते हैं। वही चाय कागजी कप में प्रायः दस रुपए के एक कप की दर से मिलती है, जिसे सामान्य वर्ग के लोग सुड़कते हैं और वही मिट्टी के कुल्हड़ में अपने-अपने स्थानानुसार पन्द्रह या बीस रुपए में मिल पाती है, जिसे तथाकथित बड़े लोग पीते हैं। यूँ तो कहीं-कहीं अभी भी काँच के गिलास में ही चाय बिकती है। 

दोनों पड़ोसी के चाय वाले कुल्हड़ उनके अख़बार पढ़ते और उनकी आपसी बहस करते वक्त उसी बेंच पर आसपास ही रखे हुए थे। शायद मेहता जी वाले कुल्हड़ की पेंदी को समतल करने में कुम्हार ने कुछ कोताही कर दी होगी, तभी तो ... मेहता जी अभी-अभी अपनी शहीद हुई चाय से ऊपजी खीज को लगभग छुपाते हुए एकदम से बिदक पड़ते हैं।

मेहता जी - "भगवान करे आपकी सरकार भी मेरे चाय वाले कुल्हड़ की तरह ही गिर जाए।" अख़बार बेंच पर रख कर दोनों हाथ ऊपर आसमान की तरफ करके - "हे भोले नाथ, हे कालों के काल, महाकाल .. गिरा दिजिए इस सरकार को। टमाटर को इतना महँगा कर दी है ये सरकार कि .. क्या कहें आप से भगवान जी ! .. अब पाप का घड़ा भर के दिल्ली के बाढ़ जैसा लबालब हो गया है। अब इन सब का लबर-लबर बहुत हो गया। हमारे कुल्हड़ की तरह ही इन सब का भी घड़ा फोड़ दिजिए राम जी।"

सक्सेना जी - "आप पढ़े-लिखे मानते हैं ना अपने आप को ? हाई स्कूल में सरकारी टीचर हैं। भले ही आरक्षण कोटा में आपको नौकरी मिली है, पर कुछ तो पढ़े होंगे ? .. तभी ना बच्चों को पढ़ाते हैं। आपके दिमाग़ में भी इन सब (पास बैठे रिक्शावाला रामचरितर और ईंट-गिट्टी-बालू ढोने वाले मजदूर रामभुलावन की ओर निशाना साधते हुए) के जैसा भूसा भरा हुआ है क्या जी ?" - अपने कुल्हड़ में शेष बची चाय के आख़िरी घूँट को लगभग मेहता जी को चिढ़ाते हुए जोर से सुड़कने की आवाज़ निकाल कर - "अहा ! मन तृप्त हो गया रसिकवा की चाय पी के सुबह-सुबह .. अजी मेहता जी .. अब इस बरसात के मौसम में .. वो भी आपदा की हद तक वाली बरसात के कारण फ़सलों की जो बर्बादी हुई है, तो क़ीमत तो बढ़ेगी ही ना ? क्यों ? इकोनॉमिक्स में नहीं पढ़े थे क्या जी कि माँग की तुलना में आपूर्ति अचानक घट जाने पर क़ीमत बढ़ जाती है तथा किसी भी सामग्री की माँग से ज्यादा आपूर्ति होने पर बाज़ार में क़ीमत घट भी जाती है।"

मेहता जी - "ज्यादा समझाइए मत हमको। जब ना तब .. अपना कुतर्क लेके आ जाते हैं।"

सक्सेना जी - "हमको तो लगता है कि आप चोरी कर के पास किए हैं जी या .. मास्टर को घूस दे के।"

मेहता जी - "कुछ ज्यादा नहीं बक रहे हैं आप भोरे-भोरे ? .. आयँ !.. "

सक्सेना जी - "और नहीं तो क्या .. अब टमाटर को भी सरकार आलू की तरह 'कोल्डस्टोरेज' में जमा कर के रखवा दे क्या ? या उसकी कुछ फैक्टरियाँ लगवा दे या फिर टमाटर के लिए भी 'सब्सिडी' की घोषणा कर दे सरकार ? बतलाइए !?"

मेहता जी और सक्सेना जी की बहस का विषय टमाटर और महँगे हुए टमाटर के बदले रामभुलावन की 'सौस' की पुड़िया इस्तेमाल करने वाली 'आईडिया' जैसी बातें सुन-सुन कर भूरा और चाँद को भी अपनी 'केचप' की फ़ैक्ट्री वाली अधूरी बात छेड़ने की तलब लग गयी। मन्टू के घुड़कने के बावज़ूद चाँद अपनी बुद्धिमता का प्रदर्शन करने के लिए बात छेड़ते हुए टपक पड़ा।

चाँद - "ओ ~~~ बी ब्लॉक वाले 213 नम्बर में 'केचप' की फैक्ट्री चालू होने से तेरा मतलब है ... "

अभी चाँद अपना वाक्य पूरा कर पाता, उससे पहले ही मुहल्ले के इस चौक वाले क्षेत्र में नगर निगम की ओर से रोजाना सुबह-सुबह सफ़ाई करने वाली परबतिया बीच में टपक पड़ती है। जो थोड़ी दूरी पर ही किसी घर से मिली बासी रोटी को बाज़ारों में बिकने वाले विभिन्न प्रकार के 'रॉल' की तरह लपेटे हुए चाय में बोर-बोर कर खा रही है। इनको कहीं सफाईकर्मी तो कहीं पर्यावरण मित्र भी कहते हैं, परन्तु आम लोग झाड़ू देने वाली या कचरे वाली कहते हुए ही सुने जाते हैं। पर परबतिया के अच्छे व्यवहार और मधुर स्वभाव के कारण मुहल्ले भर में लोग उसे नाम से जानते और बुलाते हैं। कुछ लोग तो पबतिया दीदी, पबतिया बुआ या मौसी भी बुलाते हैं। बहरहाल वह चाँद के मुँह से निकले फ़ैक्ट्री चालू होने वाले वाक्य को सुनकर ही उनके बीच में कुछ बोलने और उनसे कुछ पूछने के लिए मज़बूर हो गयी है।

परबतिया - "भईया ! फ़ैक्ट्री में अभी भी भर्ती हो रही है क्या ?"

मन्टू - "क्यों ? आपकी तो नगर निगम की नौकरी है ही ना ?"

परबतिया - "सो तो है भईया .. पर अभी तक हमको 'गौमेन्ट' (सरकार-Government) की तरफ से 'पर्मामेंट' (स्थायी-Permanent) नहीं किया गया है ना .. तअ (तो) रोज पर हाज़िरी बनता है। कम पइसा (पैसा) में बड़ी मुश्किल से घर-परिवार ...  हम सोचे कि फैक्ट्री में नौकरी लग जाने से कुछ अलग से कमाई हो जाती तो ..."

बीच में ही मन्टू परबतिया की बात को काटते हुए उसे सच्चाई बतलाने के लिए समझाता है।

मन्टू - "परबतिया दीदी .. आप भी कहाँ इन दोनों बातूनियों की बात को पकड़े बैठीं हैं ? अरे ये भूरा और चाँद .. दोनों मिलकर ऐसे ही सुबह-सुबह मसखरी करते रहते हैं। यहाँ मुहल्ला में तो फ़ैक्ट्री खुल ही नहीं सकती ना ..."

परबतिया -"धत् तेरी की .. सुबह-सुबह हम बेवकूफ़ बन गये भईया ..."

【 शेष .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. () .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】




Monday, July 17, 2023

हरेला ...

सावन माह वाले अमावस्या के दिन "हरेला" नामक सांस्कृतिक विरासत वाला एक पारम्परिक लोकपर्व उत्तराखंड में मनाया जाता है। यही पर्व हिमाचल प्रदेश में भी "हरियाली" के नाम से और छत्तीसगढ़ में "हरेली" के नाम से मनाया जाता है। इस वर्ष 2023 में यह पर्व आज यानि 17 जुलाई को है। उत्तराखंड में इस लोकपर्व के अवसर पर राज्य सरकार द्वारा 2021 से राजकीय अवकाश घोषित किया जा चुका है।

दरअसल पारम्परिक मान्यता के अनुसार इस पर्व को मनाने के लिए लोगों द्वारा किसी थालीनुमा पात्र या टोकरी में मिट्टी डालकर गेहूँ, जौ, धान, गहत, भट्ट, उड़द, सरसों आदि पाँच-सात प्रकार के बीजों को बो दिया जाता है। फिर लोग नौ दिनों तक इस पात्र में रोज सुबह पानी का छिड़काव करते रहते हैं। दसवें दिन इन बीजों से निकले पौधों को काटा जाता है। चार-छः इंच लम्बे इन पौधों को ही "हरेला" कहा जाता है, जिन्हें आस्थाजनित बहुत आदर के साथ घर-परिवार के सभी सदस्य अपने सिर पर रखते हैं। "हरेला" घर में सुख-समृद्धि के प्रतीक के रूप में बोया व काटा जाता है। एक लोक मान्यता है कि हरेला जितना बड़ा होगा, उतनी ही बढ़िया भावी फसल होगी। साथ ही लोग तथाकथित भगवान से अच्छी फसल होने की कामना भी करते हैं।

यूँ तो साल में तीन बार "हरेला" मनाने की परम्परा है। एक तो चैत माह में, जिसमें माह के प्रथम दिन बीज बोया जाता है और नवमी के दिन काटा जाता है। दूसरा सावन यानि श्रावण माह में, जिसके तहत सावन माह शुरू होने से नौ दिन पहले आषाढ़ में बोया जाता है और दस दिन बाद सावन के प्रथम दिन काटा जाता है। तीसरा आश्विन माह में, जिनमें नवरात्र के पहले दिन बीज बोया जाता है और दशहरा यानि दशमी के दिन काट लिया जाता है। 

आस्तिक कर्मकांडी घटनाओं से जुड़ी बचपन की कुछ यादों के अनुसार बिहार-झाड़खण्ड में भी आश्विन माह वाले नवरात्र के पहले दिन तथाकथित कलश स्थापना के तहत उस कलश यानि मिट्टी के घड़े के चारों ओर कच्ची मिट्टी में जौ बोया जाता था और दशहरा के दिन उन दस दिनों में पनपे कोमल पौधों को  काटा जाता था, जिसको पूजा कराने वाले 'पंडी जी' यानि ब्राह्मण द्वारा घर के सभी सदस्यों को कान पर रखने के लिए दिया जाता था और आज भी पारंपरिक तरीके से ऐसा किया जाता है। 

पर उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश में सावन माह वाला "हरेला" विशेष रूप से मनाया जाता है। यह लोकपर्व भी संक्रान्ति के तरह ही कृषि से सम्बन्धित पर्व है, जो साल भर में कई बार और कई राज्यों में अलग-अलग नाम से और अपनी-अपनी लोक आस्था के अनुसार पारम्परिक ढंग से मनाया जाता है।

परन्तु आधुनिक दौर में इसका स्वरुप परिवर्तित होकर इस दिन सांस्कृतिक आयोजन के साथ-साथ लोगबाग अपने परिवेश में किसी भी फल देने वाले या छाया प्रदान करने वाले या फिर औषधीय गुणों वाले बहुउपयोगी भावी वृक्षों के छोटे स्वरूप में पौधों का रोपण करते हैं। इनमें से कई लोग तो केवल 'सोशल मीडिया' या 'मीडिया' में स्वयं की औचित्यहीन क्षणिक लोकप्रियता हेतु 'सेल्फ़ी' लेने के लिए ऐसा करते हैं और बाद में उन पौधों की सुध लेने वाला कोई भी नहीं होता है। पर सभी ऐसे नहीं होते हैं .. शायद ... 

इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात है उन पौधों का संरक्षण। हर वर्ष मनाए जाने वाले "हरेला" जैसे लोकपर्व के अवसर और विश्वस्तरीय "विश्व पर्यावरण दिवस" पर लगाए जाने वाले पौधों को अगर सही-सही संरक्षण मिलता रहता तो अब तक सही मायने में हमारी धरा लगभग हरी-भरी हो जाती .. शायद ...

संयोगवश नौकरी के सिलसिले में गत वर्ष से उत्तराखंड की अस्थायी राजधानी देहरादून में रहने के फलस्वरूप यहाँ के "धाद" नामक एक सामाजिक संस्थान द्वारा "हरेला" की पूर्व संध्या पर शहर के गाँधी पार्क के मुख्य द्वार के पास आयोजित सांस्कृतिक कार्यक्रम और यहाँ से घन्टाघर होते हुए कनॉट प्लेस तक की जनयात्रा में शामिल होने का मौका कल रविवार को शाम में मिला। उस सांस्कृतिक कार्यक्रम और जनयात्रा के बारे में विस्तार से कुछ ना कह कर, हम उस दौरान आदतन ली गयी कुछ तस्वीरों और वीडियो को यहाँ जस का तस साझा कर रहे हैं .. बस यूँ ही ...

जाते-जाते "हरेला" की औपचारिक शुभकामनाओं के साथ-साथ पुनः हम अपनी बात दोहराना चाहते हैं कि हम "दिवस" के हदों में "दिनचर्या" को क़ैद करने की भूल करते ही जा रहे हैं। नयी युवा पीढ़ी के समक्ष हम बारम्बार "दिनचर्या" की जगह "दिवस" को ही महत्वपूर्ण साबित करने की भूल करते जा रहे हैं। साथ ही हम सभी मिलकर पर्यावरण का मतलब पेड़-पौधों तक ही सीमित कर के पर्यावरण के विस्तृत अर्थ को कुंद करते जा रहे हैं। जबकि पर्यावरण के तहत हमारे आसपास मौजूद समस्त प्राणियों और समस्त प्राकृतिक सम्पदाओं का संरक्षण और संवर्धन ही सही मायने में "हरेला" है .. शायद ...

आइये .. हम सब मिलकर पेड़-पौधों की गुहार को  एक नारा के रूप में दुहराते हैं .. बस यूँ ही ...

हम पेड़-पौधों को सदा संरक्षित और संवर्धित कीजिए।

पर्यावरण के लिए अपनी जनसंख्या नियंत्रित कीजिए।