Thursday, December 4, 2025

'सायरन' वाली गाड़ी

आज तड़के सुबह सक्सेना जी के पड़ोस में रहने वाले पैंसठ वर्षीय वर्मा जी स्वर्ग सिधार गए हैं। तभी से ही मुहल्ले भर में उनके घर से लगातार ज़ोर-ज़ोर से रोने-बिलखने की आवाज़ें आ रही हैं। 

हम इंसानों की ये एक अजीबोग़रीब विडंबना है कि .. हम विभिन्न धामों की तीर्थयात्राएँ कर-कर के अपने लिए मरणोपरांत तथाकथित स्वर्ग या जन्नत की कामना करते हुए मन्नतें माँगते तो ज़रूर हैं .. परन्तु हम मरना भी नहीं चाहते हैं। जबकि हमारे जन्म के साथ ही हमारे साथ मौत की भी एक चिट चिपकी हुई होती है .. जिसको हम सभी ताउम्र नज़रंदाज़ करते रहते हैं। पर वह चिट हमारी तमाम अवहेलनाओं के बावजूद हमें समय-समय पर ताकीद भी करती रहती है और एक दिन .. वही चिट चट से हमारी ज़िन्दगी चट कर जाती है .. शायद ...

फ़िलहाल मृतक वर्मा जी के घर जाने के बाद वहाँ के मातमी माहौल में काफ़ी देर तक बिना दाना-पानी के रहने का अंदेशा है सक्सेना जी और उनके परिवार को भी। 

दरअसल उनके परिवार में सक्सेना जी मधुमेह से पीड़ित हैं तो .. ज़्यादा देर तक वह खाली पेट नहीं रह सकते हैं। साथ ही श्रीमती सक्सेना आयुर्वेद के अनुसार वात, पित्त और कफ जैसे तीन जैविक दोषों में से वात दोष से कुछ ज़्यादा ही परेशान रहती हैं। गैस की दवाईयों के सेवन के बाद भी दिन-रात विभिन्न प्रकार की ज़ोरदार आवाज़ों वाली ध्वनि प्रदूषण करती रहती हैं। यानी .. अब .. सरल व आम बोलचाल की या ठेठ भाषा में कहें तो .. वह दिन-रात पादती रहती हैं या डकारती रहती हैं। ऐसे में .. वह भी अधिक देर तक भूखे पेट नहीं रह सकती हैं।

इसीलिए सक्सेना जी के परिवार के चारों सदस्यों ने .. वह, उनकी धर्मपत्नी, उनका बेटा और उसकी पत्नी यानी सक्सेना जी की बहू ने भी किसी तरह ज़ल्दी-ज़ल्दी में रात की बची हुई बासी रोटी पर 'जैम' और कल सुबह के बचे हुए 'ब्रेड' के कुछ 'स्लाइस' पर 'फ्रीज' में रखे हुए 'बटर' को लगा कर अपना-अपना मुँह जूठा लिया है। 

'इंडक्शन' पर ही आनन-फानन में चाय भी बना ली गयी है। क्योंकि लोकलाज और समाज के रीति-रिवाज़ों का भी .. औपचारिक ही सही .. पर निर्वाह तो करना ही पड़ता है। लोगबाग कहते हैं,  कि पड़ोस में किसी का मृत शरीर पड़ा हो, तो अपने घर में भी चूल्हा नहीं जलाया जाता है .. भले ही वह चूल्हा .. गैस वाला ही हो। 

वैसे भी .. अगर ताज़ा नाश्ता 'इंडक्शन' पर ही बनाया भी जाता तो .. कड़ाही-छोलनी की छनर-मनर की या 'प्रेशर कुकर' की सीटी की आवाज़ या फिर कुछ छौंके जाने पर तेल-मसाले के गंध के साथ-साथ छनन-छन्न की आवाज़ से अगल-बगल में पोल खुल जाने पर वर्षों तक जगहँसाई का भी डर बना रहता है।

खैर ! .. सक्सेना जी और उनके परिवार के सभी सदस्य अभी अपने घर पर ही जल्दी-जल्दी नाश्ता-पानी करने के बाद एक आम मध्यम वर्गीय परिवार की तरह ही नाश्ते के पश्चात चाय पीने की परम्परा को निभाते हुए .. अब मृत वर्मा जी के घर जा कर उनके शोक संतप्त परिजनों को सांत्वना देने वाली औपचारिकता निभाने की तैयारी कर रहे हैं।  

चाय की चुस्की लेते हुए अचानक सक्सेना जी भावुक होकर अपने इकलौते बेटे-बहू को सम्बोधित करके एक जागरूक नागरिक की तरह कहते हैं, कि - " देखो बेटा .. हम मरेंगे ना .. तो हमको विद्युत दाह गृह में ही जलाना .. नौ मन लकड़ी मत खरीदना .. क्योंकि उसके लिए पेड़ों को काटे जाते हैं और .. उन सब कटाव के परिणामस्वरूप हमारे पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। "

प्रतिक्रिया स्वरूप श्रीमती सक्सेना जी तमक और छोह के मिश्रित भाव के साथ अपने धर्मपति को सम्बोधित करके बोल पड़ती हैं, कि - " का (क्या) भोरे-भोरे (सुबह-सुबह) अपने मुँह से फ़ालतू बात बोल रहे हैं जी ! .. मरे आपका दुश्मन .. "

तभी यकायक मुहल्ले में प्रवेश करती हुई 'सायरन' वाली एक गाड़ी की आवाज़ से सक्सेना जी के घर के सभी लोग चौंक जाते हैं। वैसे भी अपने देश में आपातकालीन वाहनों की ख़ास 'सायरन' की आवाज़ हमेशा आम आदमी के दिल की धड़कन बढ़ा ही देती है .. चाहे वह ख़ाकी वर्दी वाले किसी आला अफ़सर या परिवहन विभाग के उच्च अधिकारी की गाड़ी के 'सायरन' की आवाज़ हो या अग्निशामक ('फायर ब्रिगेड' यानी दमकल) गाड़ियों की हो या फिर किसी 'एम्बुलेंस' की हो।

अभी उत्सुकतावश सक्सेना जी और उनके अन्य तीनों परिजन बाहर की ओर झाँके तो .. देखते हैं कि .. उस 'सायरन' बजाती हुई गाड़ी पर 'एम्बुलेंस' या कुछ और लिखे होने की जगह "दधीचि देहदान समिति, बिहार" लिखी हुई है।

पौराणिक कथाओं में दधीचि ऋषि और उनके अस्थि दान के बारे में पढ़ने-सुनने के कारण दधीचि शब्द से तो सक्सेना जी परिचित हैं। परन्तु यह देहदान शब्द पढ़ कर सक्सेना जी चौंकते हुए जिज्ञासावश पूछ बैठते हैं कि - " अरे ! .. ई (ये) का (क्या) है हो (जी) ? "

अब तक 'सायरन' वाली गाड़ी वर्मा जी के घर के सामने जाकर रुक गयी है। तभी सक्सेना जी की नई नवेली बहू सभी की चाय पी गई जूठी प्यालियों को उठाते हुए बतलाती है कि - " पापा जी .. ये देहदान वालों की गाड़ी है। लगता है कि .. वर्मा जी 'अँकल' अपने जीते-जी इस का 'फॉर्म' भर दिए होंगे। "

सक्सेना जी एकदम से अचम्भित होकर अपनी बहू से ही पुनः पूछते हैं कि - " देहदान ? .. 'फॉर्म' ? .. हम कुछ समझे नहीं बहुरानी .. "

चाय की जूठी प्यालियों को 'किचेन' के 'सिंक' में आहिस्ता से रखते हुए उनकी बहू - " पापा जी .. इसमें समझने जैसी कोई बात ही नहीं है। अपने देश में मृत देह को दान करने के लिए एक संस्थान है। ये उसी की गाड़ी आयी है। "

सक्सेना जी - " अच्छा ! "

बहू - " हाँ पापा जी .. देहदान के लिए इच्छुक व्यक्ति को अपने जीते-जी इस संस्थान के एक 'फॉर्म' भर को भर कर उस पर अपने परिवार के दो सदस्यों के हस्ताक्षर के साथ-साथ अपनी स्वीकृति के लिए अपना भी हस्ताक्षर करके वहाँ जमा करना होता है। "

सक्सेना जी - " उससे क्या होता है बहुरानी ? .."

बहू - " मृत व्यक्ति के परिवार द्वारा तयशुदा समय-सीमा में इन लोगों को सूचित करने पर ये लोग मृत व्यक्ति के दिए गए पते पर आकर बहुत ही आदरपूर्वक मृत देह ले जाते हैं। मृतक के उपयोगी अंगों को बाद में कई ज़रूरतमंद लोगों को शल्य चिकित्सा द्वारा लगा कर उन्हें नया जीवन प्रदान किए जाते हैं। जैसे .. आँखें, 'लिवर', 'किडनी'.. और भी बहुत कुछ और .. और तो और .. शेष बचा हुआ कंकाल 'मेडिकल स्टूडेंटस्' की पढ़ाई के काम में आ जाता है। "

सक्सेना जी अचरज के साथ - " अच्छा ! "

बहू - " और नहीं तो क्या ! .. जिन्हें अपने देश में परम्परा के नाम पर हम सभी मृत देह के साथ हर दिन हज़ारों की संख्या में .. बस यूँ ही .. जला या दफ़ना देते हैं पापा जी। "

सक्सेना जी -" हाँ बहू .. सही ही कह रही हो तुम तो .. "

बहू - " पापा जी .. देहदान ना भी किया जाए तो .. कम-से-कम नेत्रदान से तो पूरे विश्व भर के अंधापन को मिटाया जा सकता है। हालांकि.. ये सब कुछ .. सरल-सुलभ है। अगर हम लोग पूर्वजों की परम्पराओं के साथ-साथ वर्तमान पीढ़ी की सोचों की भी क़द्र करनी सीख जाएँ पापा जी। हो सकता है कि .. वो सारी परम्पराएँ तब के संदर्भ में उचित रही होंगी। वैसे भी .. नया ज्ञान साझा करने में क्या ही बुराई हो सकती है भला ! "

तभी उनका बेटा नाराजगी जताते हुए अपनी धर्मपत्नी को लगभग झिड़कते हुए कहता है, कि - " क्या बके जा रही हो जी तुम सुबह-सुबह .. पापा ने तो तुमसे भी ज़्यादा दुनिया देखी हुई है ना ? "

तत्क्षण श्रीमती सक्सेना भी अपने बेटा के हाँ में हाँ मिलाते हुए बोल पड़ती हैं कि - " आउर (और) नहीं तो का (क्या) जी ! "

तभी बहू अपने पति को सम्बोधित करते हुए नम्रता के साथ बोलती है कि -   " हम कब भला पापा जी के अनुभव और उनकी समझदारी से असहमत हैं जी। हम तो केवल ये बतलाना चाह रहे हैं कि .. समय के साथ हमारे पकवानों व परिधानों में होने वाले परिवर्तनों के साथ-साथ हमारी परम्पराओं में भी यथोचित परिवर्तन होनी ही चाहिए। "

सक्सेना जी - " बहू ठीक ही कह रही है बेटा .. चलो .. अभी जल्दी से वर्मा जी के घर चलो। नहीं तो उ (वो) गाड़ी उनको लेकर चली जायेगी .. और हाँ .. चलो .. ज़रा उनलोगों से देहदान के 'फारम' ('फॉर्म) भरने की प्रक्रिया के बारे में भी हमको अपने लिए भी समझना है। "

अब सक्सेना जी के परिवार के चारों सदस्य देहदान की एक नूतन व सकारात्मक विचारधारा लिए हुए अपने पड़ोसी वर्मा जी के शोकाकुल परिवार से मिलने उनके घर की ओर पैदल ही प्रस्थान कर रहे हैं।

3 comments:

  1. देहदान न सही नेत्रदान तो कर ही सकते हैं हम।
    संदेशात्मक कहानी।
    सादर।
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    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार ५ दिसंबर २०२५ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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    1. जी ! .. सुप्रभातम् सह मन से नमन संग आभार आपका ...

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  2. बेहतरीन संदेश देती कहानी

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