Sunday, August 3, 2025

कुछ बतकही बुग्यालों की दरी पर .. बस यूँ ही ...

सर्वविदित है कि परिवर्तन ही प्रकृति का नियम है और इसी नियम के तहत ब्रह्माण्ड के अन्य पहलूओं की तरह हमारी भाषा एवं लेखन प्रणालियाँ भी विभिन्न कालखंडों में परिवर्तित होती रहीं हैं एवं भविष्य में भी परिवर्तित होती रहेंगी .. शायद ...

यूँ तो आम लोगों को प्रायः अपनी-अपनी भाषा के लिए चिल्ल-पों करने की आदत-सी रही है , परन्तु इन दिनों अपनी-अपनी स्थानीय भाषाओं को लेकर हमारे देश के कई हिस्सों में कुछ ज़्यादा ही कुत्ते-बिल्ली की तरह होने वाली प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष लड़ाई का कोई औचित्य है भी कि नहीं .. मालूम नहीं। "मेरी भाषा, मेरी पहचान" जैसे नारा लगाने वाले कितना सही हैं .. कितना गलत .. ये भी मालूम नहीं। परन्तु भले ही पशुओं में तो कुत्ते को भौं-भौं छोड़ कर म्याऊँ-म्याऊँ बोलते नहीं सुना-देखा गया है। वरन् .. भौं-भौं और म्याऊँ-म्याऊँ के उलट-फेर से उनकी पहचान को तो मिटने की संभावना बन भी सकती है .. पर ये इंसान ..? अगर उपरोक्त बात - "परिवर्तन ही प्रकृति का नियम है" को आधार मान लें तो .. फिर इंसानों की अपनी-अपनी भाषा के लिए आपसी लड़ाई का क्या मतलब भला ?

ऐसी छोटी-छिछोरी मानसिकता वाले ऐसे छोटे इंसानों की या उनके समुदायों की पहचान तो भाषा विशेष के बिना भले ही मिटे या ना मिटे पर .. उनकी स्वार्थपरता की लौ में इंसानियत अवश्य मिट जाएगी। हम सभी को एकजुट करने वाली हमारी एक समान भाषा यानी .. प्रेम की भाषा की ही बात करनी मानव समाज ही नहीं .. बल्कि समस्त ब्रह्माण्ड के लिए भी बेहतर और लाभप्रद होगी .. शायद ...

जिन साढ़े पाँच सौ से भी अधिक रियासतों को सरदार वल्लभ भाई पटेल जी ने अपने कुशल प्रयास और अथक परिश्रम से जोड़ा था , उन्हें पुनः छह हज़ार में बाँटने का अधम प्रयास कर के ; उनके परिश्रम पर पानी फेरने की कवायत में क्यों जुटे हैं ये छोटी-छिछोरी मानसिकता वाले छोटे लोग ?


वैसे भी तमाम परिवर्तनशील विषयों के लिए रूढ़िवादी या कट्टरपंथी हो कर .. किसी पर धौंस जमाना, अपनी तथाकथित राजनैतिक शक्तियों का अनुचित दुरूपयोग करके सार्वजनिक स्थलों पर किसी को थप्पड़ मारना और साथ ही .. उसका वीडियो बनाकर सोशल मीडिया पर वायरल करने के लिए अपलोड करना और फिर .. पीछे से उनके आकाओं का भौंकना .. सॉरी ! ..  चिल्लाना .. उचित नहीं है .. शायद ...

जबकि उस राज्य विशेष को हिंदी भाषी सिनेमा से ही महत्वपूर्ण राजस्व की प्राप्ति होती है और हिंदी भाषी लोगों की श्रम शक्ति से ही उनका राज्य यथोचित ऊर्जावान बन पाता है। प्रसंगानुकूल एक और बात है कि .. बिहार-झारखंड राज्य में भी भोजपुरी भाषा के लिए कुछ लोगों में मिथ्याभिमान है और वही मिथ्याभिमान हमें अपने अस्थायी प्रव्रजन के दौरान उत्तराखंड राज्य में भी कई लोगों में गढ़वाली भाषा हेतु देखने के लिए मिलता है। जबकि आज प्रसून जोशी जैसे एक लोकप्रिय और प्रसिद्ध व्यक्ति .. जो गढ़वाली होने के बावजूद हिंदी में ही गीत लिखकर - "तुझे सब है पता .. हैं ना माँ ?" .. समस्त भारतवासियों के मन-मस्तिष्क में विस्तार पा सके हैं , जबकि गढ़वाली भाषा में लिख कर उनके लिए ये पाना असंभव ही था .. शायद ...

हमने ये भी देखा है कि देश और समाज की तरह परिवार में भी दो पीढ़ियों के मध्य भिन्न परिवर्तित परिस्थितियों से जनित मानसिकताओं में आपसी मध्यस्थता , सामंजस्य व समन्वय से भी अगर सन्तुलन नहीं बन पाता है , तो अंततोगत्वा समझौता करने से ही परिवार बिखरने से बच पाता है। दो कालखंडों में हुए बदलाव को अगर हम स्वयं भी समय के साथ ना अपनाएं , तब भी हम सभी समय-समाज से स्वयं को पिछड़ा हुआ मान कर मानसिक द्वंद से जूझ रहे होते हैं .. शायद ...

वस्तुतः जो लोग भी लकीर के फकीर हैं, वो सभी वास्तव में ही मानसिक रूप से फकीर प्रतीत होते हैं। उपलब्ध इतिहास को आधार मान कर सुदूर कालखंडों पर एकबारगी हम अपनी पैनी निगाहें दौड़ायें तो .. अपनी-अपनी भाषाओं और लेखन को परिवर्तित होते हुए कई-कई दौरों में हमारे पुरखों ने और हम सभी ने भी जिया और अंगीकार भी किया है। उपलब्ध इतिहास की ही मानें तो .. चित्रलिपि (Pictography & Hieroglyphs) और कीलाक्षर लिपि (Cuneiform) के वर्षों बाद क्रमवार वर्णमाला जैसी प्रणाली का पदार्पण हुआ था ..शायद ...

युगों पूर्व के वार्तालाप या साहित्य का मौखिक स्वरूप कालांतर में वर्णमाला लेखन के रूप में आया। लेखन के भिन्न-भिन्न माध्यम भी कई दौरों से होकर गुज़रे हैं .. लेखन के लिए ताड़ के पत्ते , भूर्ज के पेड़ों के छाल यानी भोजपत्र , पत्थर , मिट्टी (आग में पका कर), ताम्र पट्टी , कपड़े , कागज़ का प्रयोग किया गया है। यूँ तो प्रेमी-प्रेमिकाओं ने मौक़ा पाकर सागर किनारे रेत पर या पहाड़ों की शिलाओं पर भी या फिर अपने चाहने वाले या चाहने वाली की पीठ पर भी अपनी कोमल या खुरदुरी उंगलियों से लेखन किए हैं। और तो और .. समाज में नागरिक भावनाच्युत लोगों ने तो लेखन के लिए , विशेषकर अपना या अपने प्रियतम-प्रियतमा के नाम के लिए , ऐतिहासिक इमारतों या मन्दिरों की दीवारों व वृक्षों के तने तक को भी कुरेदना नहीं छोड़ा है .. शायद ...


इतिहास गवाह है , कि तत्पश्चात मुद्रण यंत्र के आविष्कार के बाद तो लेखन और ज्ञान-प्रसार में मानो एक क्रांति-सी आ गयी थी। मतलब .. लेखन , मुद्रण और फिर टंकण भी .. वक्त के साथ-साथ होते बदलाव में अतीत के कंडे , स्याही वाली कलम , 'लीड पेन' , Typewriter Machine जैसे लेखन यंत्रों से आगे आकर वैज्ञानिक आविष्कारों के फलस्वरूप वर्तमान में तो Computers , Laptops और Mobile Handsets जैसे यंत्र और उनमें उपलब्ध अनेकानेक विदेशी-देशी Apps भी लेखन के माध्यम स्वरूप आज हमारे Working Table पर या हाथों में हैं। काश ! .. हम सभी उपरोक्त Gadgets एवं Apps की तरह इतनी ही सुगमता के साथ विश्व की तमाम भाषाओं को सीख कर उन सभी का भी वैश्वीकरण कर पाते तो .. भाषा की लड़ाई ही खत्म हो जाती .. शायद ...

लब्बोलुआब ये है कि परिवर्तन हमारे जीवन का एक अहम हिस्सा है , जिसे सहज स्वीकार करना ही हमारे जीवन को सरल बनाता है। दूसरी ओर रूढ़िवादिता व कट्टरपंथी, चाहे किसी भी क्षेत्र में हो , इंसान को पंगु ही बनाती है और उससे भी बुरा होता है .. अपनी रूढ़िवादिता से भरी और कट्टरपंथी वाली सोच पर गर्व का अनुभव करना .. शायद ... 

बदलाव का एक और नमूना .. विश्व भर में इकलौता देश है स्पेन , जहाँ पहले केवल कपड़े पर अख़बार छपते थे। पर आजकल अन्य देशों की तरह ही काग़ज़ पर अख़बार छपते हैं। वहाँ पर अब केवल नाममात्र के लिए ही कपड़े वाले अख़बार छापे जाते हैं। वह भी केवल किसी अवसर विशेष के लिए .. शायद ...

बदलाव , परिवर्तन या क्रांतियों के अन्य कई उदाहरणों में से एक ये भी हमारी नज़रों से हो के गुज़रा है , कि हम रेडियो के ज़माने में केवल श्रवण-इंद्री को तृप्त करते हुए "विविध भारती" से प्रसारित होने वाले "गीतों भरी कहानी" नामक कार्यक्रम का लुत्फ़ लिया करते थे, जिसका आज भी प्रसारण होता तो है ; परन्तु "परिवर्तन ही प्रकृति का नियम है" के तहत हम में से ज़्यादातर लोग अब टेलीविजन के माध्यम से श्रवण और चक्षु जैसी दोनों इंद्रियों की तृप्ति मिलने के कारण रेडियो के बदले टेलीविजन देखना-सुनना अधिक पसन्द करते हैं। आज मनोरंजन के साधनों के रूप में टेलीविजन ही क्यों .. इसके अलावा हमारे Mobile Handsets में Internet के माध्यम से Youtubes , Video Games और Instagram जैसे Apps भी हैं , जिसे यूँ तो सभी आयु वर्ग के लोग अपनी-अपनी रुचि के अनुसार अलग-अलग विषयों के लिए देखते-सुनते हैं , परन्तु .. वर्तमान युवा वर्ग में ये सभी कुछ .. कुछ ज़्यादा ही प्रचलित हैं .. शायद ...

इन्हीं सब बातों-घटनाओं से प्रेरित होकर , हमने केवल शब्दों से परे .. शब्दों के संग-संग दृश्यों की तालमेल के साथ  "विविध भारती" की "गीतों भरी कहानी" के तर्ज़ पर "दृश्यों भरी कविता" की एक परिकल्पना एवं संकल्पना को साकार करने का प्रयास भर किया है। जिनमें अपनी निगाहों को भाने वाले उन तमाम लम्हों का प्रयोग किया है , जिसे हम प्रायः आदतन अपने मोबाइल के कैमरे से मोबाइल की गैलरी में और गैलरी भर जाने पर पेन ड्राइव में एकत्रित करते रहते हैं। अब आज की बतकही को अल्पविराम और आज की हमार दो "दृश्यों भरी कविताएं" .. यानी Visualizations with Visuals या Visuals with Visualizations - "बर्फ़ और बादलों में ..." व "टिकुली चुम्बन की .." बस्स ! .. आपके लिए .. बस यूँ ही ...


१) बर्फ़ और बादलों में ...




२) टिकुली चुम्बन की ...



चलते-चलते एक कड़वी गोली वाली बतकही भी ..
"हद हो गयी यार !" ...



No comments:

Post a Comment