Thursday, October 12, 2023

पुंश्चली .. (१४) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)

प्रत्येक वृहष्पतिवार को यहाँ साझा होने वाली साप्ताहिक धारावाहिक बतकही- पुंश्चली .. (१) से पुंश्चली .. (१३) तक के बाद पुनः प्रस्तुत है आपके समक्ष पुंश्चली .. (१४) .. (साप्ताहिक धारावाहिक) .. बस यूँ ही ...  :-

गतांक का आख़िरी अनुच्छेद :-

अभी बेसुध होकर पुष्पा की आँख लगी ही थी, कि पानी पूड़ी खाने के बाद अपनी सभी सहेलियों को अलविदा करके घर में पाँव रखते ही उसकी मामी चंडालिन का रूप ले लीं थीं और उसे झकझोर कर जगाने लगीं थीं - " अरे ! .. जरा-सा बाहर क्या गयी, तुम्हारी तो बहार ही आ गयी है जैसे। पेट भर खाना मिला, बस महारानी जी पसर गयीं। जूठे बर्त्तन सारे पड़े हैं .. कौन साफ़ करेगा ? तुम्हारा भूत ? बाहर कपड़े सूख रहे है, कौन उठा कर रखेगा ? आयँ ? .."

पुष्पा - " मामी जी तबियत ठीक नहीं है हमारी ..."

मामी जी - " ख़ूब अच्छे से समझती हूँ, तुम जैसी लोगों की बहानेबाज़ी .."

गतांक के आगे :-

यूँ तो इस ब्रह्मांड में सभी प्राणी अपनी-अपनी समझदारी के पैमाने के अनुसार अपनी-अपनी समझ रखते हैं। पर कोई उसे व्यक्त या साझा कर पाने की मादा रखता है और समय-समय पर कर भी पाता है और ... कोई अपने में ही दफ़न किए हुए एक दिन दुनिया में ही कफ़न ओढ़े दफ़न हो जाता है या फिर दाह संस्कार के हवाले हो कर विलुप्त हो जाता है। पुष्पा भी तो अपनी समझदार मामी जी की तरह ही अपनी समझ के अनुसार समझती है कि वह अपने पिता जी और माँ के ग़रीब होने की सजा भुगत रही है। पर उसके मुँह पर मज़बूरी के ताले जड़े पड़े हैं। 

कई दफ़ा तो कई लोगों के जीवन में पीड़ा की सबसे बड़ी वजह होती है कि उन्हें समझने वाला कोई नहीं होता .. ना घर-परिवार में और ना ही बाहर-समाज में .. या यूँ कह सकते हैं कि जिस मान-सम्मान, स्नेह-श्रद्धा के वो हक़दार होते हैं .. वह उन्हें जीते जी नहीं मिल पाता है। अगर मरने के बाद मिल भी जाए तो भला उनका क्या ?

वैसे तो पाँच साल की उम्र तक तो पुष्पा ने अपने घर की अमीरी नहीं भी तो .. कम से कम एक सामान्य खुशहाल दिनचर्या अवश्य देखी है। घर में ना तो खाने-पीने की कमी थी और ना ही पहनने-ओढ़ने की। भला और चाहिए ही क्या इंसान को ? भोजन, वस्त्र, पढ़ाई और दवाई ही तो ? .. इन सब की कोई कमी नहीं थी उसके घर में। उसका परिवार इन चारों ही उपलब्धियों की दृष्टिकोण से एक खुशहाल परिवार था।

परन्तु .. उसकी माँ अपनी रीढ़ की हड्डी में अक़्सर होने वाली पीड़ा में विज्ञापनों से महिमामंडित पीड़ाहारी 'बाम' लगाने के पश्चात भी आराम ना मिलने पर एक बार अपने शहर के सरकारी अस्पताल में चिकित्सा कराने क्या गयी, उस दिन से उस परिवार की आर्थिक स्थिति की रीढ़ की हड्डी ही टूट गयी। माँ की रीढ़ की हड्डी की पीड़ा से दिन-प्रतिदिन बढ़ती शारीरिक अशक्तता, अस्पताल के चक्कर, इलाज, दवाई, 'ऑपरेशन', शय्याग्रस्त दिनचर्या, बीमार की सेवा-शुश्रुषा .. इन सब ने बीमार माँ के साथ-साथ समस्त परिवार को मानसिक, शारीरिक और आर्थिक रूप से पूरी तरह असहाय बना दिया था। 

पिता जी की इकलौती कमायी इलाज के लिए लिए गए उधार को चुकाने में भी कम पड़ने लगी थी। शादी के समय मिले और घर में रखे सारे ज़ेवर तो पहले ही बंधक रखे जा चुके थे। जिनके छुट कर घर वापसी की उम्मीद तो ठीक वैसी ही थी, जैसी किसी बिसुक गयी गाय से दूध दुह लेने की दुरूह कोशिश। 

सारे नाते-रिश्तेदार आगे उधार माँगने पर मुँह पर ही ये बोल कर चुप करा कर लौटा देते कि - " अगर अभी कुछ उधार दे भी दें उद्धार करने की सोच के तो भविष्य में वह उधार अगले सात जन्मों तक लौटा पाना तुम लोगों के वश की बात नहीं लगती। आख़िर हमारे घर भी बाल-बच्चे हैं। उन्हें पढ़ाना-लिखाना है .. फिर बेटी की शादी भी करनी है। " - जितने मुँह, उतनी बातें .. कोई कहता - " ये सब जैसे चल रहा है, चलने दो। ये सब तुम लोगों के ही इस जन्म या उस जन्म के कर्मों के फल हैं। इसे भुगतना तो पड़ेगा ही। यहाँ भुगत लोगे तो "ऊपर" शायद स्वर्ग नसीब हो जाए। यही सब तो विधि का विधान है ना 'पुसपेन्दर' (पुष्पेन्द्र) ? इसमें हम लोग को क्यों घसीट रहे हो ? .. बोलो ? "

अंत में थक-हार कर पुष्पा के माता-पिता .. ख़ासकर पिता जी- पुष्पेन्द्र महतो अपने मन को कठोर कर के उसकी आगे की पढ़ाई .. उसके बेहतर भविष्य, उसकी भावी शादी इत्यादि सोच कर उसे अपने बड़े साले साहब के घर पहुँचा आए थे। माँ भी सोची थी कि बड़का भईया-भाभी के पास रहेगी तो खाने-पहनने की कमी नहीं रहेगी और उनके स्कूल में पढ़ेगी तो इसकी पढ़ाई-लिखाई भी जारी रहेगी। पर आज की वास्तविक वस्तुस्थिती तो पुष्पा ही अकेली जान रही है और झेल रही है। वह नहीं चाहती है अपनी माँ या पिता जी को ये सारी बातें .. अपनी मानसिक और शारीरिक पीड़ा बतला कर उन्हें मानसिक कष्ट देना। जीवन की कठोर परिस्थितियाँ कई दफ़ा कोमल बालमन को भी अपने जैसी ही कठोर बना देती हैं, जो जीवन-पथ की हर कठिनाइयों को आसानी से झेलने की मादा से सुशोभित हो जाता है .. शायद ...

रंजन के जाने के बाद अंजलि और पुष्पा की एक दूसरे के प्रति समानुभूति और नैतिक समर्थन का आलंबन ही उनके लिए प्राणवायु की तरह काम कर रहा है। अक़्सर कई पीड़ाएँ, ख़ासकर मानसिक, किसी व्यक्ति विशेष के मौखिक समर्थन से ही विलुप्त हो जाती हैं। कभी-कभी तो किसी का मूक समर्थन ही किसी के लिए एक सख़्त आलंबन सिद्ध हो जाता है।

कभी रंजन के ऐसे ही मूक समर्थन ने कभी अंजलि के दुःखी दिल में रंजन के प्रति कोमल भावनाओं ने अपना डेरा जमा लिया था। दरअसल पहले ही बतला चुके हैं कि रंजन के अपने गाँव से इस शहर में आने के बाद शुरुआती दौर में काम के लिए भटकने के दौरान मन्टू ने उसकी काफ़ी सहायता की थी। किसी सगे से भी बढ़ कर। उसी समय मन्टू ने उसे भाड़े पर चलाने के लिए चंदर कबाड़ी से किराए पर टोटो दिलवाया था .. वो भी एक अजनबी के लिए ज़मानती बन कर। तभी मन्टू ने अपने स्कूल, अपने स्कूल कहने का मतलब .. जिस स्कूल के बच्चों को उनके घर से स्कूल लाने और फिर छुट्टी होने पर उन्हें उनके घर तक ले जाने का काम अपने टोटो से करता था .. उसी स्कूल में और भी अन्य बच्चों के लिए उनके अभिभावकों से रंजन की बात करवा दी थी। दिन भर भाड़े की सवारी के अलावा स्कूल से भी एक निश्चित आय का स्रोत रंजन को मन्टू के मार्फ़त मिल गया था। प्रतिदिन स्कूल आते-जाते रंजन वहाँ के सभी तथाकथित चतुर्थवर्गीय कर्मचारियों से घुलमिल-सा गया था। उन्हीं में से एक अंजलि भी थी। 

बच्चे लोग भी रंजन को बहुत प्यार करते थे। वह सभी बच्चों का "ड्राईवर अंकल" बन गया था। उसकी भी वजह थी .. रंजन अपने विद्यार्थी जीवन में तो पढ़ाकू था ही, पाठ्यक्रम की पुस्तकों के अलावा कहानी-उपन्यास की किताबों को पढ़ने का शौक़ था उसे और वह आदत आज भी उस से नहीं छूटी थी। जब भी मौका मिलता उसे टोटो के अलावा पन्ना-दर-पन्ना कर के कई तरह की किताबें पढ़ लेता था। जब से बच्चों को लाने- ले जाने का काम पकड़ा था, तो जातक कथा के जैसी किताबें ज्यादा पढ़ने लगा था। साथ ही उसे अभिनय का भी शौक़ था, तो अपने गाँव में होने वाली रामलीला में या अन्य कार्यक्रमों के तहत होने वाले नाटकों में बढ़-चढ़ कर भाग लेने के कारण .. उन्हीं कहानियों को वह अपनी नाटकीय शैली में बच्चों को स्कूल आते-जाते रास्ते में और उस से भी ज्यादा 'टिफ़िन' के वक्त बच्चों के साथ-साथ उपस्थित कर्मचारियों को भी सुनाता था। 

धीरे-धीरे सभी की इनमें दिलचस्पी बढ़ती गयी थी। फिर तो रंजन की दिनचर्या में ये शामिल हो गया था। बाद में तो बच्चे लोग अपनी लायी हुई 'टिफ़िन' अपने "ड्राईवर अंकल" के साथ साझा करने लगे थे। बल्कि अपनी-अपनी 'मम्मी' या आया को बोल कर अपने-अपने घर से अपने "ड्राईवर अंकल" के लिए अतिरिक्त पराठा या 'सैंडविच' बनवा कर लाने लगे थे। गाहे-बगाहे रंजन भी उनलोगों के लिए बदले में प्यार से 'टॉफ़ी-चॉकलेट' ले जाता था और कभी कर्मचारियों के लिए कुछ मिठाइयाँ भी। साथ ही वह उन्हीं लोगों के साथ मिल बाँटकर खाता था। बच्चों की तो 'टिफ़िन' होती थी, पर रंजन के लिए दोपहर का भोजन हो जाता था। उसी क्रम में एक दिन वह मिठाई के तौर पर पन्तुआ खरीद कर ले गया था। 

पन्तुआ या पैंतुआ एक पारम्परिक बंगाली मिठाई है, जो गुलाब जामुन से भिन्न होती है। गुलाब जामुन की मूल सामग्री मैदा और खोवा होता है। जबकि इसके विपरीत पन्तुआ सूजी, छेना, दूध, घी के सम्मिश्रण से बने बेलनाकार या गोला की आकृति को घी या वनस्पति तेल में तल कर और उसे चीनी की चाशनी में डाल कर बनायी जाती है। 

उस दिन रंजन के द्वारा खरीद कर लायी गयी पन्तुआ को देखते ही अंजलि मानो रुआँसी हो गयी थी। सभी उपस्थित लोग ये देख कर हैरान हो गए थे, कि आख़िर अचानक क्या हो गया इसको .. जो इसकी आँखें भर गयी हैं। सबके सामने ही पुष्पा द्वारा बहुत बार जोर देकर रोने की वज़ह पूछे जाने पर बड़ी मुश्किल से वह बोल पायी थी, कि मीठा तो उसे पसन्द है ही और सभी मिठाईयों में पन्तुआ उसे बचपन से ही सबसे ज्यादा पसन्द है। जिस स्थान की वह रहने वाली थी, वहाँ सभी मिठाई दुकानों में पन्तुआ बिकती भी थी और बाबू जी भी उसकी पसंद जानकर लगभग हर शाम छः नग पन्तुआ लाने लगे थे। तीन सदस्यी परिवार में सभी के लिए दो-दो नग। पर होता ये था कि माँ तो अपने हिस्से का दोनों खा जाती थी, पर बाबू जी एक ही नग खाते थे और इस तरह अंजलि को तीन नग पन्तुआ मयस्सर हो जाता था। यही सब याद करके उसकी मासूम आँखें आँसुओं में तैरने लगी थीं। उस दिन अंजलि की पसन्द जान कर आगे से रंजन लगभग हर दूसरे दिन पन्तुआ ही लेकर आ जाता था और वह भी अंजलि के नाम पर एक 'पीस' अलग से सभी के हिस्से के अतिरिक्त लाने लगा था। 

धीरे-धीरे पन्तुआ की चाशनी की मिठास इनके यानी तेईस साल के रंजन और बीस वर्षीया तरुणी अंजलि के भावनात्मक सम्बन्धों पर तारी होती चली गयी थी और परिणामस्वरुप दोनों ने एक मंदिर में प्रेम विवाह कर लिया था। जिसका विवरण हमलोग पहले ही पढ़ चुके हैं। इस शादी से अंजलि के संरक्षक- मेहता जी नाख़ुश थे, इसी कारण से वे इन दोनों की शादी में शामिल नहीं हुए थे। 

【 आज बस .. इतना ही .. अब शेष बतकहियाँ .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (१५) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】

Thursday, October 5, 2023

पुंश्चली .. (१३) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)


प्रत्येक वृहष्पतिवार को यहाँ साझा होने वाली साप्ताहिक धारावाहिक बतकही- पुंश्चली .. (१) से पुंश्चली .. (१२) तक के बाद पुनः प्रस्तुत है आपके समक्ष पुंश्चली .. (१३) .. (साप्ताहिक धारावाहिक) .. बस यूँ ही ...  :-

गतांक का आख़िरी अनुच्छेद :-

यानि पत्थर ने पत्थर को बचाया .. मतलब यहाँ भी नस्लवाद .. हद हो गयी ! .. ये दैवीय चमत्कार हाड़-माँस के पुतले जैसे हम इंसानों के लिए भी उस रात क्यों नहीं हुआ था ? .. क्या उस रात आकस्मिक मौत मरने वाले सभी के सभी पापी थे ? .. और .. अपने किसी ना किसी कुकर्मों का फल भुगत रहे थे ?

गतांक के आगे :-

ख़ैर ! .. अंजलि के माँ-बाबू जी के लिए तो उस रात कोई दैवीय चमत्कार तो नहीं हो पाया था। परन्तु उसी रात विभत्स आपदा में भी अचानक से एक अंजान इंसान द्वारा अंजलि के फ्रॉक को खींच लेने से स्वयं का उस का जीवित बच जाना एक दैवीय चमत्कार से कम नहीं था। दरअसल उसकी माँ और बाबू जी को पलक झपकते काल के गाल में समाने वाली वह भयावह मनहूस रात को भी उसे पुनर्जन्म देने वाला वह जीवनदाता इंसान ही तो उसके लिए एक चमत्कार से कम नहीं था।

हालांकि उस रात के बाद आज भी जब-जब किसी की भी वजह से उसका मन दुःखी होता तो वह अपनी माँ और बाबू जी को याद कर-कर के मन ही मन .. मन भर रो लेती है। बार-बार एक ऊहापोह उसके कोमल और सम्वेदनशील मन को उद्वेलित कर जाता है कि आख़िर उसने, उसकी माँ, बाबू जी ने या उस रात की आपदा में सारे मरने वालों ने ऐसा कौन-सा पाप किया था, जो उन्हें ऐसी आकस्मिक मौत मिली और ना जाने उसके जैसे कितने लोगों को अनाथ कर गयी वह निर्मम रात .. मृत्यु की आग़ोश में सोए लोग तो अपनी चुप्पी तोड़ने से रहे, पर .. अपनों को या अपने अंगों को खोकर शेष बचे आहत और मर्माहत लोगों की आवाज़ किसे दोष दें भला ऐसे मौकों पर .. मन्दिर में आसीन भगवान को, अपनी आस्था को, अपने भाग्य को, अपने इस जन्म-उस जन्म के कर्मों को, प्रकृति की मार को या एक भौगोलिक-वैज्ञानिक संयोग को या सत्तारूढ़ सरकार को ? ऐसे ही कई सारे अनुत्तरित सवाल अंजलि के दिमाग़ में गाहे-बगाहे घुमड़ते रहते हैं अक़्सर .. जो कई दफ़ा उसकी आँखों से बरसात बन कर ढलक जाते हैं।

रंजन के असमय चले जाने के बाद जिस स्कूल में आज जीवनयापन के लिए अंजलि सहायिका के रूप में कार्यरत है, उसी 'प्राइवेट स्कूल' के संस्थापक सह 'प्रिंसिपल' साहब- प्रमोद मेहता ही थे उस रात, जिन्होनें उस जानलेवा काली डरावनी रात में उसके फ़्रॉक को अनायास खींच कर उसकी जान बचायी थी। दरअसल मेहता जी अपने कुछ श्रद्धालु और बुद्धिजीवी वर्ग के मित्रों के साथ चार धामों के तीर्थाटन पर निकले थे। उनको भी अपने तीनों मित्रों का कुछ भी पता नहीं चल पाया था। ना ज़िन्दा और ना मुर्दा। ना, ना .. गलत कह गये .. उनके तीनों मित्रों में से एक मित्र की पहचान उनके गले में पहने हुए चाँदी के हार में लटके "ॐ" वाले 'लॉकेट' और दाएँ हाथ की अनामिका उंगली में मूँगा जड़ित चाँदी की अँगूठी से की गयी थी। हर इंसान की पहचान .. उसका चेहरा .. और वही चेहरा तो सड़-गल कर कंकाल मात्र रह गया था।  

उस रोज सारी रात उसी पेड़ के तने से दोनों चिपके हुए अपनी साँसों को सम्भालने की कोशिश करते रहे थे। सुबह होने पर भारतीय सेना और वायुसेना के जवान लोग हेलिकॉप्टर से वहाँ आसपास फँसे जीवित यात्रियों को विमान उत्थापक कर के बचाने के क्रम में इन दोनों को भी वहाँ से निकाल कर सुरक्षित स्थान पर पहुँचा दिए थे।

तब की नन्हीं-सी जान .. अंजलि .. अपनी आँखों के सामने तेज धार में ज़िन्दा बहते हुए बाबू जी को देखकर और माँ के हश्र का अपने बालमन में अनुमान लगा कर उनके सदमा में लगभग विक्षिप्त-सी हो गयी थी। कुछ भी बीती बातें याद नहीं रही थी उसे, सिवाय माँ-बाबू जी के बिछोह के। 'प्रिंसिपल' साहब यानी प्रमोद मेहता जी ही तब उसके मौखिक संरक्षक बन बैठे थे।

किसी अनाथ या ग़रीबी से मजबूर अभिभावक के बच्चों को कोई सगा-सम्बन्धी या कोई पराया दयालु संरक्षक मिल भी जाए तो उसकी स्थिति कमोबेश देश में कुकुरमुत्ते की तरह फैले अधिकांश बाल सुधार गृह या बाल संरक्षण केन्द्र में रहने वाले बच्चों की तरह ही होती है। बदक़िस्मती से अगर वह अभागन लड़की हुई, तब तो उसपर होने वाले ज़ुल्मों की लम्बी फ़ेहरिस्त बन जाती है। अंजलि भी उन बच्चों से अलग नहीं थी। मेहता जी को तो उनके घर के साथ-साथ स्कूल के कामों के लिए भी, दो-तीन शाम के भोजन और उनकी पन्द्रह वर्षीया बेटी के उतारन के बदले एक मज़बूर मजदूरिन मिल गयी थी- अंजलि। 

दूसरी तरफ समाज में उनके संरक्षक बनने वाले परोपकार की वाहवाही की कमी भी नहीं थी। परोपकार .. वो भी दो-दो .. एक तो अनाथ अंजलि और दूसरी उनकी सगी पर ग़रीब बहन की बेटी- पुष्पा .. दोनों ही उनकी और उनके घर वालों की प्रताड़ना की शिकार थीं, परन्तु मेहता जी समाज भर में परोपकारी पुरुष की प्रतिमूर्ति बने हुए थे। अंजलि का तो फिर भी अपना सगा कोई भी शेष नहीं बचा था अब इस दुनिया में, पर पुष्पा तो अपने मामा-मामी के हाथों ही प्रताड़ित हो रही थी। ऐसा नारकीय जीवन जी रही एक अकेली केवल वही नहीं थी, बल्कि ना जाने कितनी पुष्पाएँ अपने अभिभावक की ग़रीबी के ग्रहण से लगे सूतक को मिटाने के लिए अक़्सर अपने अमीर रिश्तेदारों को दान में प्रदान कर दी जाती हैं। जहाँ उन लाचार बच्चियों या बच्चों से ज़बरन नाज़ायज श्रम करवाने में सगे कहे या माने जाने वाले लोगों की भी संवेदनशीलता की नमी का, सुखाड़ वाले अकालग्रस्त खेतों की तरह कहीं भी, नामोनिशान तक नहीं होता। शारीरिक श्रम करवाना तो आम बात है और अगर तथाकथित क़िस्मत कुछ और भी ज्यादा ख़राब रही तो ऐसी लड़कियों का यौन शोषण भी एक आम बात ही लगती है। 

एक दिन पुष्पा का सारा शरीर तेज बुखार से तप रहा था। शाम के वक्त गर्मी के मौसम में भी थरथर कपकपा रही थी। उस दिन अंजलि ही केवल स्कूल गयी थी मेहता जी के साथ। पुष्पा घर पर ही रह गयी थी। मामी जी यानी मिसेज मेहता की महिला मित्रमंडली के साथ उनके घर पर ही कोई विशेष पार्टी थी। पूरे दिन पुष्पा चकरघिन्नी बनी मामी जी के इशारों पर उनके और उनकी सहेलियों के इर्दगिर्द घूमती रही थी। सारा दिन उतना सारा ठूँसने के बाद भी मामी जी शाम में सभी सहेलियों के साथ पास के ही बाज़ार में प्रसिद्ध "गजोधर चाट-पानी पूड़ी" की दुकान तक पानी पूड़ी खाने चली गयीं थीं। सुबह से ही पुष्पा का मन अच्छा नहीं लग रहा था। पर लाचार, ग़रीब और कमजोर लोगों का मन जैसा तो जैसे कुछ होता ही नहीं है या अगर होता भी है तो मन को सुनने वाला कोई नहीं होता। ठीक वैसे ही, जैसे चार-पाँच निर्मम मुस्टंडों द्वारा बलात्कार करते समय बलात्कृत की आवाज़ कोई सुन नहीं पाता या फिर वो अपनी कातर आवाज किसी उचित संरक्षक तक पहुँचा नहीं पाती .. शायद ...

अभी बेसुध होकर पुष्पा की आँख लगी ही थी, कि पानी पूड़ी खाने के बाद अपनी सभी सहेलियों को अलविदा करके घर में पाँव रखते ही उसकी मामी चंडालिन का रूप ले लीं थीं और उसे झकझोर कर जगाने लगीं थीं - " अरे ! .. जरा-सा बाहर क्या गयी, तुम्हारी तो बहार ही आ गयी है जैसे। पेट भर खाना मिला, बस महारानी जी पसर गयीं। जूठे बर्त्तन सारे पड़े हैं .. कौन साफ़ करेगा ? तुम्हारा भूत ? बाहर कपड़े सूख रहे है, कौन उठा कर रखेगा ? आयँ ? .."

पुष्पा - " मामी जी .. तबियत ठीक नहीं है हमारी ..."

मामी जी - " ख़ूब अच्छे से समझती हूँ, तुम जैसी लोगों की बहानेबाज़ी .."

【 आज बस .. इतना ही .. अब शेष बतकहियाँ .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (१४) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】


एक धाँसू 'स्टार्टअप' अगर ...

छपा होता जो नाम शववस्त्र पर,

नाम मतलब ? .. पूरा नाम ..

यानी .. साथ नाम के होता छपा जो

जातिसूचक उपनाम भी 'प्रॉपर'।

पूरा नाम तो होता ही और साथ में 

छपता जो सेवानिवृत्त पद भी सरकारी अगर,

तो होता इसका भी व्यापक असर।

साथ छपते जो छोड़ी विरासत के आँकड़े 

तो हो जाता यूँ कुछ और भी बेहतर।

नहीं जो पूरा पता अपने भव्य भवन का,

तो कम-से-कम होता मकान का 'नम्बर'

और होता छपा खड़ी 'पोर्टिको' में 

महँगी गाड़ी का भी 'नम्बर' .. बस यूँ ही ...


रंगीनियों में जो बीती है 

जीवन-यात्रा समस्त जीवन भर,

भला फिर क्यों ओढ़ना मर कर

अपनी अंतिम यात्रा में भी

भगवा या केवल सफ़ेद वस्त्र ?

'ब्रांडेड' भी जो होते शववस्त्र सारे

जैसे .. 'रेमण्डस्' या फिर 'मान्यवर'।

विकल्प भी होते कपड़ों के ढेर सारे,

सूती, रेशमी, 'जॉर्जेट' या 'पॉलिस्टर'

और होता 'प्रिंटेड' भी तो ..

एकदम से झकास 'डिज़ाइनर',

'चेक्स' .. 'स्ट्राइप्स' या फिर होता

छींटदार या फूलदार .. चकरपकर .. बस यूँ ही ...


होते क्रय-विक्रय भी वातानुकूलित 'शोरूमों' में 

या फिर बहुमंजिली 'मॉल' के किसी तल्ले पर

और क्या कहने जो धीमी-धीमी बजती भी 

कोई शोकधुन, ग़ज़ल या "निर्गुण" वहाँ अगर।

साहिबान !!! ... सोचता हूँ मन में अक़्सर ..

कि कितना ही बढ़िया होता जो ..

शुरू कर ही देते हम मुहूर्त निकलवा कर

ऐसे मनभावन शववस्त्रों के

एक धाँसू 'स्टार्टअप' अगर ?

काश ! .. मिल जो जाते शुरूआती तौर पर .. 

आप सभी से 'एडवांस' में  

शुभ-शुभ बोहनी के नाम पर

कुछ भी .. दो-चार 'ऑर्डर' .. बस यूँ ही ...

[शववस्त्र - कफ़न (अरबी)]


Thursday, September 28, 2023

पुंश्चली .. (१२) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)

प्रत्येक वृहष्पतिवार को यहाँ साझा होने वाली साप्ताहिक धारावाहिक बतकही- पुंश्चली .. (१) से पुंश्चली .. (११) तक के बाद पुनः प्रस्तुत है आज आपके समक्ष पुंश्चली .. (१२) .. (साप्ताहिक धारावाहिक) .. बस यूँ ही ...  :-

गतांक का आख़िरी अनुच्छेद :-

चारों ओर पहाड़ों और उनकी चोटियों पर बर्फ़ की सफ़ेदी सभी को भा रही थी। वहाँ पर इलायची दाना के अलावा चौलाई की लाई भी प्रसाद के लिए उपलब्ध था। यथोचित पूजा-अर्चना के बाद एक-दो घन्टे वहाँ बिताने पर .. अब वापसी की बात होने लगी थी। किसी को भी वहाँ से लौटने का मन नहीं कर रहा था। सभी सोच रहे थे .. काश ! .. यहीं एक घर बसा लेते .. पर ठंड से सिहरन भी हो रही थी .. शायद ...

गतांक से आगे :-

पूजा-अर्चना .. भोजन-विश्राम के पश्चात अन्ततः अंजलि का त्रिसदस्यी परिवार केदारनाथ मन्दिर से वापसी के लिए अब तक प्रस्थान कर चुका था। वापसी में बेस कैम्प, रूद्रा पॉइंट, छानी कैम्प, लिनचोली और छोटा लिनचोली होते हुए रामबाड़ा में सभी लोगों के प्रवेश करते-करते काफ़ी रात हो गयी थी। केदारनाथ मन्दिर से ही साथ-साथ चल रहे अन्य परिवारों के जत्थे रास्ते में ही रामबाड़ा में रात्रि विश्राम का मन बना रहे थे, तो अंजलि और उसके माँ-बाबूजी भी रात भर वहीं रुकने के लिए राजी हो गये थे।

सभी लोग थक कर चूर हो चुके थे, फिर भी .. फ़िलहाल तो मान्यताओं के अनुसार हिंदुओं के पवित्र चार धामों में से एक माना जाने वाला धाम और हिंदू धार्मिक ग्रंथों में उल्लिखित बारह ज्योतिर्लिंगों में से सबसे ऊँचाई पर अवस्थित एक जाना जाने वाला ज्योतिर्लिंग- केदारनाथ की धार्मिक पावन यात्रा की अनुभूति से ऊपजी ख़ुशी-उमंग ने उनकी थकान को मानो छूमंतर करके रफ़ूचक्कर कर दिया था।

वहाँ की दुकानों में रात के भोजन के लिए उपलब्ध चंद विकल्पों में से अपनी इच्छानुसार सभी खा-खा कर, कुछ लोग लेट कर सोने की चेष्टा करने लगे थे, ताकि अगली सुबह तरोताज़ा होकर आगे का सफ़र तय किया जा सके और कुछ लोग मंदाकिनी नदी के किनारे प्राकृतिक सौन्दर्य का अवलोकन करने बैठ गए थे। ऐसे में अंजलि की माँ तो सोने चली गयीं थीं और वह अपने बाबूजी के साथ मंदाकिनी के पास बैठी नदी की धार को कभी गौर से निहार रही थी, तो कभी आकाश में चमकती बिजलियों की तेज रोशनी में घुमड़ते बादलों पर नज़र दौड़ा रही थी। हालांकि कुछ लोग मिलकर समवेत स्वर में वहीं पर भजन-जाप भी कर रहे थे।

तभी अचानक मूसलाधार बरसात शुरू हो गयी थी। सभी को जहाँ कहीं भी मौका मिला .. सिर छुपाने की ओट मिली .. आधे सूखे, आधे भींगे .. छुपते चले जा रहे थे। कुछ ही देर बाद अचानक किसी पटरी पर किसी दौड़ती खाली मालगाड़ी में लगायी गयी आपातकालीन विराम (इमरजेंसी ब्रेक/Emergency Break) के बाद मालगाड़ी के डिब्बों से होने वाली भयानक-सी आवाज़ और धड़धड़ाती-सी कम्पन की तरह अचानक पास बह रही नदी से और आसपास की चट्टानों से बहुत ही तीव्र आवाज़ सुनायी पड़ने लगी थी। नदी की तीव्र धार और .. धार के साथ-साथ ऊपर की ओर से बहती आ रही बड़ी-बड़ी चट्टान .. आसपास बैठे इंसानों को भागने का मौका दिए बिना ही अपनी विनाशलीला के रौद्र रूप का प्रदर्शन करते हुए .. ना जाने कितने इंसानों की इहलीला अपने में समेटे अनंत यात्रा की ओर बावली बनी बही जा रही थी।

अंजलि की आँखों के सामने से उसके बाबूजी पलक झपकते ही ओझल हो गए थे। वह थोड़ी ही दूरी पर एक चट्टान की ओट में खड़ी थी और अपने बहते बाबूजी की ओर उन्हें बचाने लपकी तो थी, पर एक अज़नबी, जो स्वयं को धार की बहाव से बचाने के लिए पास के एक विशाल पेड़ के तना से मजबूती के साथ बलपूर्वक चिपका हुआ था, जल्दबाज़ी में उसके फ्रॉक का एक छोर कस कर पकड़ लिया था। वह बिलख-बिलख कर रोती रही .. पर उस वीभत्स आवाज़ में उसकी चीख़-पुकार सुनने वाला, उसके फ्रॉक के छोर को थामने वाले उस अज़नबी इंसान के सिवाय, वहाँ कोई भी नहीं था। ना तो कोई दूसरा इंसान था .. और ना ही .. कोई भगवान .. माँ का तो उसे उस वक्त कुछ भी नहीं पता था, जो तेज बहाव में बिस्तर समेत कब की बह चुकीं थीं।

दरअसल प्रकृति के वीभत्स रूप के इस छोटे-से नज़ारे को दिखाने वाली उस रात की तारीख़ थी- सोलह जून .. वर्ष था- 2013 .. उस वक्त अंजलि तेरह वर्ष की किशोरी थी। उस वक्त तो उसे इस घटना की निर्ममता की .. ना तो वजह की जानकारी थी और ना ही उससे होने वाले भयावह परिणाम की। आज तो वह तेईस साल की हो चुकी है। एक तीन वर्षीय बेटे की माँ और विधवा भी। वर्ष 2019 में रंजन के साथ प्रेम विवाह करने के बाद जल्द ही गर्भवती हो गयी थी। वर्ष 2020 में कोरोना के शुरूआती दौर में ही, ठीक 'लॉकडाउन' लगने के कुछ ही दिन पहले उसके रंजन की अंतिम और अनमोल निशानी- अम्मू का जन्म हुआ था और वर्ष 2021 में .. तो .. कोरोना की दूसरी लहर में, वर्ष 2013 की बहाव में बह गये माँ-बाबूजी की तरह ही, रंजन भी अंजलि को दोबारा अनाथ कर उससे दूर चला गया था। इसे वह संयोग माने या समाज की तरह क़िस्मत मान कर अपने मन को बहला ले .. यह तय कर पाना आज भी मुश्किल है अंजलि के लिए ...

वर्ष 2013 से वर्ष 2023 के मध्य उस भयावह हादसे में संयोगवश शेष जीवित बचे लोगों के बयानों और अवशेष बचे उपलब्ध साक्ष्यों पर आधारित जानकारियों के आधार पर अंजलि को यही ज्ञात हो पाया है, कि उस रात औसत से ज्यादा बारिश होने के कारण मंदाकिनी और सरस्वती नदी का जलस्तर अत्यधिक बढ़ गया था और केदारनाथ धाम के पीछे मौजूद चोराबारी  (चौराबाड़ी/चोराबाड़ी) हिमनद (ग्लेशियर/Glacier) के ऊपर बादल फटने के फलस्वरूप उस हिमनद में बनी पुरानी चोराबारी झील में इतना पानी भर गया था, कि उसकी दीवारें टूटने से पूरी की पूरी झील का पानी चंद मिनटों में खाली हो गया था। परिणामस्वरूप प्रकृति ने झील से बहने वाले पानी के आकस्मिक बहाव में होने वाले तमाम निर्मम हिमस्खलन (एवलांच/Avalanche) और भूस्खलन (लैंडस्लाइड/Landslide) के हवनकुंड में अनगिनत निर्दोष प्राणों की आहुति डाल दी थी।

लोग बतलाते हैं, कि उस दुर्घटना के बाद भारतीय सेना के लगभग दस हजार जवान, नौसेना के पैंतालीस गोताखोर और वायुसेना के तैंतालीस विमान के अलावा ग्यारह हेलिकॉप्टर वहाँ फँसे जीवित यात्रियों को बचाने में जुट गए थे। तब लगभग बीस हजार लोगों को वायुसेना ने विमान उत्थापक (एयरलिफ़्ट/Airlift) किया था। परन्तु इन सब के बावजूद भी इस आकस्मिक आपदा में मरने वालों की गिनती पाँच अंकों में होने का अनुमान लगाया गया था और .. साथ ही .. कई सारे लापता लोगों की संख्या चार अंकों में आँकी गयी थी। अधमरे घायलों की कराह की ऊर्मियों से सारा वातावरण मरघट प्रतीत होने लगा था। बाद में वहाँ से पानी उतरने के बाद तो वहाँ के चट्टानों में फँसे नर-नारी (?) कंकाल किसी अस्थि बाज़ार में सजे प्रदर्शित बिकाऊ सामान जैसे दिख रहे थे। कई जगह तो दो कंकाल आपस में आलिंगनबद्ध एक-दूसरे से ऐसे गुँथे हुए थे .. मानो मरते वक्त भी एक-दूसरे का साथ नहीं छोड़ना चाह रहे थे। ना जाने किस रिश्ते का यह अटूट बंधन रहा होगा .. पति-पत्नी का .. भाई-बहन का .. माँ-बेटे का .. पिता-पुत्री का .. दादा-पोते का .. प्रेमी-प्रेमिका का .. गौर वर्ण वालों का या श्याम वर्ण वालों का .. किसी अमीर का या किसी ग़रीब का .. किसी प्रोफ़ेसर साहब का या चपरासी का .. किसी श्रीवास्तव जी का या किसी पासवान जी का ... कहना मुश्किल था शायद .. अब अस्थियों वाले कंकाल पर तो कोई 'नेमप्लेट' लगा नहीं होता ना .. जिन पर अपना पद और जातिसूचक उपनाम चमकाया जा सके .. इन सबके अलावा चारों तरफ वर्णनातीत मलबे, कीचड़, सड़े-गले माँसों की सड़ाँध .. किसी मरघट से भी बदतर दृश्य .. शायद ...

इन आपदा जनित विपदा में भी कई लोगों को एक दैवीय चमत्कार भी नज़र आया था। दरअसल उस भयावह रात को संयोगवश केदारनाथ मंदिर के ठीक पीछे ऊपर से तेज बहाव में  बहकर या लुढ़क कर आयी हुई काफ़ी बड़ी एक चट्टान किसी ढाल की तरह उस मंदिर के पास ठहर गया था। इस भौगोलिक और वैज्ञानिक संयोगों के सम्मिश्रण वाली घटना को दैवीय चमत्कार मानने वालों का वर्ग आज उस चट्टान को भीम शिला के नाम से बुलाते हैं और श्रद्धा से उसके समक्ष नतमस्तक भी होते हैं। परन्तु अंजलि आज भी उस दिन को याद कर इस तथाकथित दैवीय चमत्कार को कोसती हुई सोचती है, कि ये चट्टान वाला दैवीय चमत्कार केवल पत्थरों के बने मन्दिर और शिवलिंग के लिए ही उस रात क्यों हुआ था भला .. क्योंकि वह चट्टान भी एक पत्थर था या है .. यानि पत्थर ने पत्थर को बचाया .. मतलब यहाँ भी नस्लवाद .. हद हो गयी ! .. ये दैवीय चमत्कार हाड़-माँस के पुतले जैसे हम इंसानों के लिए भी उस रात क्यों नहीं हुई थी ? .. क्या उस रात आकस्मिक मौत मरने वाले सभी के सभी पापी थे ? .. और .. अपने किसी ना किसी कुकर्मों का फल भुगत रहे थे ? ...

【 आज बस .. इतना ही .. अब शेष बतकहियाँ .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (१३) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में .. बस यूँ ही ,... 】




Thursday, September 21, 2023

पुंश्चली .. (११) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)

पुंश्चली .. (१)पुंश्चली .. (२), पुंश्चली .. (३)पुंश्चली .. (४ ) , पुंश्चली .. (५ ), पुंश्चली .. (६), पुंश्चली .. (७), पुंश्चली .. (८)पुंश्चली .. (९) और पुंश्चली .. (१०) के बाद अपने कथनानुसार आज एक सप्ताह बाद पुनः वृहष्पतिवार को प्रस्तुत है आपके समक्ष पुंश्चली .. (११) .. (साप्ताहिक धारावाहिक) .. भले ही थोड़े ज्यादा ही विलम्ब के साथ .. बस यूँ ही ... :-

अंजलि और उसकी माँ व बाबूजी का त्रिसदस्यी परिवार हरिद्वार, यमुनोत्री और गंगोत्री की यात्रा के साथ-साथ हर जगह धार्मिक मान्यताओं की औपचारिकताएँ पूरी करते हुए और चारों धाम की यात्रा में धार्मिक दृष्टिकोण से तयशुदा क्रम का पालन करते हुए बस द्वारा गौरीकुंड तक सकुशल पहुँच गये थे। जहाँ से उन्हें केदारनाथ मन्दिर तक जाने के लिए पहाड़ों की चढ़ाई वाली पैदल यात्रा करनी थी। उससे पहले मंदाकिनी नदी के तट पर अवस्थित गौरीकुंड में पूरे परिवार को स्नान भी करना था। परन्तु जिस समय सभी बस से गौरीकुंड उतरे थे, शाम हो चुकी थी। अतः एक 'एजेंट' द्वारा पहले से बाबू जी के 'बुक' करवाए गये एक आश्रम में जाकर अपने यात्रा वाले सारे सामान रख कर और हल्का 'फ़्रेश' होकर सभी लोग उपलब्ध बिस्तर पर लेट गये थे। रास्ते भर भूख लगने पर बस में ही घर से लाए ठेकुआ और निमकी खाते हुए सभी लोग आये थे, इसीलिए अभी कुछ खाने की इच्छा नहीं हो रही थी। लेटे-लेटे आपस में गत दिनों की यात्रा वृत्तांत के रोमांच के साथ-साथ आगामी यात्रा की कल्पना की चर्चा करते-करते तीनों लोग नींद की आग़ोश में कब समा गए थे, किसी को पता ही नहीं चला था। 

आश्रम के एक कर्मचारी की तेज आवाज़ से सभी की नींद खुली तो रात का पौने दस बजने ही वाला था। आश्रम में रात का भोजन दस बजे तक ही उपलब्ध रहता था, इसीलिए उस समय से पहले एक बार एक कर्मचारी पूरे आश्रम में ठहरे हुए जागे-सोए लोगों को समय-समाप्ति के संदर्भ में आवाज़ लगा कर आगाह कर देता था, ताकि कोई भूखा ही ना सो जाए और आश्रम का भोजनालय बन्द भी हो जाए। सभी जल्दी-जल्दी भोजनालय की ओर भागे। बाबू जी क़ीमत भुगतान कर के तीन 'टोकन' ले आए थे और फिर तीनों लोग 'कैश-टोकन काउंटर' के बगल में ही एक बर्त्तन-स्टैंड में रखी साफ़-सफ़ाई से धुली थाली, कटोरी, गिलास और चम्मच लेकर भोजन-कक्ष की ओर लपके थे। इतनी रात को भी गर्मागर्म, वो भी शुद्ध, सात्विक और शाकाहारी भोजन, भले ही दाल और दो तरह की सब्जियाँ दुबारा गरमायी हुई ही थीं, पर रोटियाँ गर्म-गर्म थीं। भरपेट खाकर सभी अपने कमरे में रात भर के लिए सोने चले गये थे। 

अगले दिन तड़के ही जाग कर साफ़-सफ़ाई की दिनचर्या से निबट कर, गौरीकुंड में स्नान-ध्यान कर के पैदल ही चढ़ाई वाले पन्द्रह-सोलह किलोमीटर की यात्रा के लिए निकल पड़े थे सभी। हालांकि ऊपर तक जाने के लिए भाड़े पर डोली और टट्टू-खच्चर की भी सुविधा उपलब्ध थी। पर तीनों को अपने सामर्थ्य पर अटूट विश्वास था और उससे भी ज्यादा भोले नाथ की कृपा पर भरोसा था। हालांकि कड़ाके की ठंड पड़ रही थी। मैदानी क्षेत्रों में जहाँ जून के महीने में कहीं-कहीं लू तक बहने लगती है, वहाँ से आये इन लोगों को ठंड और भी ज्यादा महसूस हो रही थी। पर पहले से जानकारी होने के कारण सभी गर्म कपड़े की तैयारी कर के ही यहाँ आए थे। 

अंजलि के बाबू जी पहले से ही अपने मुहल्ले से दूर बाज़ार में एक 'साइबर कैफ़े' वाले द्वारा केदारनाथ तक जाने वाले मुफ़्त में होने वाले सरकारी नियमानुसार 'ऑनलाइन' पंजीकरण (रजिस्ट्रेशन) कुछ क़ीमत अदा कर के करवा आये थे। उसी से आश्रम की 'बुकिंग' भी करवायी थी और जाने-आने वाली रेलयात्रा के टिकट भी। उसी 'साइबर कैफ़े' वाले ने सब समझा दिया था, कि अपने साथ में पंजीकरण वाले कागज़ के साथ-साथ आधार कार्ड, फोटो और स्वास्थ्य प्रमाण पत्र ('हेल्थ सर्टिफिकेट') होना अतिआवश्यक है। इसके अलावा अगर 'ड्राइविंग लाइसेंस' और 'पैन कार्ड', जिनका बना हुआ हो, तो वो सब भी पास में होना चाहिए। उम्र की सीमा भी उसी ने समझायी थी, तभी तो बाबू जी अंजलि का पंजीकरण करवा पाए थे। इसी साल उसकी उम्र बारह से तेरह में प्रवेश की थी। उधर माँ और बाबू जी ऊपरी उम्र सीमा पैंसठ वर्ष से अभी कोसों दूर थे।

अभी पैदल यात्रा पर निकलने के पूर्व खाने के बाद माँ और अंजलि द्वारा घर से बना कर लाए गए सारे ठेकुआ-निमकी  ख़त्म हो चुके थे। पन्द्रह-सोलह किलोमीटर वाली सात-आठ घन्टे की यात्रा आरम्भ करने से पूर्व जब सभी के जरूरी कागज़ात जाँच किए जाने लगे तो अंजलि का आधार कार्ड का बैग में कहीं भी पता नहीं चल पा रहा था। नाके पर उसे सभी जाँचकर्ता कर्मचारी आगे जाने से मना करने लगे, जब तक कि आधार कार्ड पेश नहीं किया जाएगा। अंजलि रोने लग गयी थी। माँ-बाबू जी भी उदास हो गये थे। फिर सभी मिल कर बैग के सारे सामान एक ओर बिखेर कर हर कपड़े के तह खोल-खोल कर और झार-झार कर खोजने लगे। अचानक अंजलि के फ्रॉक से उसका आधार कार्ड टपक पड़ा। तीनों के चेहरे मुस्कान से नहा गये। 

अब इतनी मानसिक परेशानी झेलने के बाद आधार कार्ड मिल जाने के बाद आगे जाने की अनुमति मिलने पर अपनी आगे की यात्रा तय करने के लिए तीनों गौरीकुंड से जंगलचट्टी होते हुए भीमबली पहुँचे। वहाँ थोड़ी-सी सुस्ता के और राजमा की सब्जी व रोटी के साथ, झिंगोरे की खीर खा कर .. फिर गर्मागर्म चाय पी कर सभी रामबाड़ा की ओर बढ़ चले थे। 

पूरे परिवार ने पहली बार झिंगोरा की खीर चखी थी और राजमा की सब्जी भी। माँ अंजलि से फ़ुसफ़ुसा कर कह रही थी - " झिंगोरा की खीर खुद्दी (टूटे चावल) की खीर जैसी लग रही है .. है ना ? " तो अंजलि भी अपनी बालसुलभ समझ के अनुसार - " और ये राजमा .. लग रहा है कि बोरो (बरबट्टी) के बीज का दादा जी है .. है ना बाबू जी ? "

चढ़ाई के कारण अपनी फूलती साँसों के बावजूद सब हँस पड़े थे। बातें करते .. समूह में जयकारा लगाते .. ना जाने कब रामबाड़ा आ गया। फिर वहाँ भी सभी ने सुस्ता कर चाय-पानी पी।

फिर रामबाड़ा से छोटा लिनचोली से गुजरते हुए लिनचोली पहुँचते-पहुँचते अँधियारे तारी हो गये थे। वहीं पर रात का उपलब्ध भोजन करके रात भर विश्राम करने के बाद सभी पुनः साफ़-सफ़ाई के बाद अगले दिन सुबह-सुबह छानी कैम्प और रूद्रा पॉइंट होते हुए बेस कैम्प पहुँचने के बाद, वहाँ से कतारबद्ध केदारनाथ मन्दिर तक पहुँच कर अपनी यात्रा के दौरान हुई थकान पूरी तरह झटक चुके थे।

चारों ओर पहाड़ों और उनकी चोटियों पर बर्फ़ की सफ़ेदी सभी को भा रही थी। वहाँ पर इलायची दाना के अलावा चौलाई की लाई भी प्रसाद के लिए उपलब्ध था। यथोचित पूजा-अर्चना के बाद एक-दो घन्टे वहाँ बिताने पर .. अब वापसी की बात होने लगी थी। किसी को भी वहाँ से लौटने का मन नहीं कर रहा था। सभी सोच रहे थे .. काश ! .. यहीं एक घर बसा लेते .. पर ठंड से सिहरन भी हो रही थी .. शायद ...

【 कुछ कारणों से इन दिनों की अतिव्यस्तता के कारणवश .. आज बस .. इतना ही .. अब शेष बतकहियाँ .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (१२) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】



रात के 8 बज कर 15 मिनट ...

कल की बतकही- "वर्णमाला के रोमों में लिपटी ..." से जुड़ी हुई मेरी आज की बतकही- "रात के 8 बज कर 15 मिनट ..." को आपसे पढ़ने के साथ-साथ सुनने के लिए भी नहीं भूलने की बात की थी हमने, तो फिर .. देरी किस बात की भला ? .. शुरू कर देते हैं .. आज की बतकही .. बस यूँ ही ...

सर्वविदित है कि मुहल्ले, गाँव-शहर, जिला, राज्य, देश, सागर, महासागर इत्यादि की जिस तरह कई सीमाएँ होती हैं, ठीक वैसी ही पशु-पादप या इंसान या फिर संस्था-संस्थान की, चाहे सरकारी हों या निजी .. सभी की अपनी-अपनी सीमाएँ होती हैं .. शायद ...

ऐसे में स्वाभाविक है कि, "प्रसार भारती" की भी एक सार्वजनिक प्रसारण संस्था होने के नाते, जिनके अंतर्गत आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा प्रसारण की जिम्मेवारी होती है, कुछ ना कुछ सीमाएँ होती ही होंगी। यहाँ से प्रसारित होने वाले प्रत्येक कार्यक्रम की समय सीमा और समयावधि सीमा निर्धारित होने के साथ-साथ उनमें प्रयुक्त शब्दों व तथ्यों की भी अपनी सीमाएँ होती हैं।

इन्हीं सभी सीमाओं की परिधि में सिमटी, लिपटी .. हमारी बतकही- "वर्णमाला के रोमों में लिपटी ..." को हमने एक संक्षिप्त रूप देकर एक वार्ता- "अंतरराष्ट्रीय फ़लक में हिंदी" नामक कार्यक्रम के लिए सुधार किया था, जिसका प्रसारण प्रसार भारती (भारतीय लोक सेवा प्रसारक) के अंतर्गत आकाशवाणी, देहरादून द्वारा मनाए जा रहे हिंदी माह के तहत 18 सितम्बर 2023 को रात आठ बजे किया जाना था। 

यूँ तो सप्ताह भर पूर्व वहाँ से वार्ता का विषय मिला था- "वैश्विक परिदृश्य में हिंदी", जिसकी 'रिकॉर्डिंग' आकाशवाणी, देहरादून के 'स्टूडियो' में 15 सितम्बर 2023 को सुबह लगभग 11 बजे कुछ विभागीय औपचारिकताओं की पूर्ति के पश्चात "एक वार्ता- अंतरराष्ट्रीय फ़लक में हिंदी" के तहत की गयी थी। 

जिसे Play Store द्वारा "NewsOnAir" नामक App को अपने Mobile में Download करके, उसके Live Radio वाले Section में जाकर "Uttarakhand" के नीचे दिख रहे "आकाशवाणी, देहरादून Dehradun" वाले Icon पर Click कर के यूँ तो सुना जा सकता था .. शायद ...

परन्तु यह कार्यक्रम उनके द्वारा निर्धारित समय 18 सितम्बर 2023 को रात के 8 बजे की जगह रात के 8.15 बजे आरम्भ हुआ था। अवश्य ही उनकी कोई औचक सीमा रही होगी। हमारी वार्ता से सम्बन्धित प्रसारित होने वाले निर्धारित कार्यक्रम में हुई किसी संभावित औचक रद्दोबदल की आशंका के कारण पन्द्रह मिनटों तक अपनी बढ़ी हुई धुकधुकी को नियंत्रित करने का असफ़ल प्रयास करते हुए .. मन मार कर .. परिवर्तित कार्यक्रम सुनते रहे हम .. यूँ तो रात 7.56 बजे से ही अपने 'मोबाइल' में यथोचित App पर मनोयोग के साथ प्रसारित कार्यक्रम सुनना शुरू कर चुके थे .. बस यूँ ही ...

ख़ैर ! .. "रात के 8 बज कर 15 मिनट" की उद्घोषणा के बाद तत्कालीन महिला उद्घोषक की मधुर आवाज़ में पूर्व निर्धारित कार्यक्रम .. "एक वार्ता- अंतरराष्ट्रीय फ़लक में हिंदी" की उद्घोषणा के साथ ही वार्ताकार का नाम- श्री सुबोध सिन्हा सुनकर भी .. धुकधुकी कम होने के बजाय .. और भी बढ़ गयी .. पर इस बार आशंका की जगह ख़ुशी के कारण .. शायद ...

बतकही के बहाने बहुत हो गया आत्मश्लाघा अब तक तो .. अब इसे विराम देकर .. अब सुनते हैं उस प्रसारित कार्यक्रम की 'रिकॉर्डिंग' .. बस यूँ ही ...

【आज की बतकही का शीर्षक शायद "8 pm" (?) वाले वर्ग को निराश कर सकता है .. "8.15 pm" हो जाने की वजह से .. शायद ... 】 :) 

Wednesday, September 20, 2023

वर्णमाला के रोमों में लिपटी ...

हिंदी दिवस या हिंदी पखवारे या फिर हिंदी माह के तहत आज की बतकही - "वर्णमाला के रोमों में लिपटी" के अंतर्गत "वैश्विक परिदृश्य में हिंदी" या "अंतर्राष्ट्रीय फ़लक में हिंदी" की चर्चा करने के पहले सभी सुधीजन पाठकों को आपके अपने सुबोध के मन से नमन।

सर्वविदित है कि हमारी मातृ भाषा हिंदी, संस्कृत की गंगोत्री से निकल कर, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश के पावन घाटों से होती हुई, विश्व रूपी महासागर में सदैव विस्तार पाती रही है। 

देवनागरी लिपी के परिधान में लिपटी हमारी भाषा हिंदी हमारे स्वदेश भारत की आन, बान, शान और जान तो है ही, साथ ही विश्व पटल पर भी सदियों से अपना परचम फहरा रही है।

एक धार्मिक मान्यताओं के अनुसार हिन्दूओं के चारों धाम - बद्रीनाथ (उत्तराखण्ड), द्वारका (गुजरात), जगन्नाथपुरी (उड़ीसा) और रामेश्वरम (तमिलनाडू ) के अलावा केवल उत्तराखण्ड में ही हिन्दूओं के छोटे चारों धाम- बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री अवस्थित होने के कारण

हम सभी उत्तराखण्ड को देवभूमि भी कहते हैं, जहाँ अधिकांशतः लोगों के घर-दरवाजों पर आक यानि मंदार, अकवन या अकोवा कहे जाने वाले पौधे मुस्कुराते नज़र आते हैं। भले ही औषधीय गुणों से सम्पन्न होने के बावजूद बहुधा धार्मिक दृष्टिकोण से ही यह पौधे लगाए जाते हों .. शायद ...

दूसरी ओर .. सर्वविदित है कि पौधों की गतिशीलता सीमित होती है और वे अपने बीजों के परिवहन यानि फैलाव के लिए अपने बीजों के कम वजन, उसके रोएँदार या काँटेदार बनावट के साथ-साथ फैलाव में सहायता करने वाले विभिन्न प्रकार के कारकों पर निर्भर होते हैं। जिनमें हवा, पानी जैसे अजैविक कारक और पशु, पक्षी जैसे जीवंत कारक दोनों ही शामिल हैं। 

इसी प्रकार आक के बीज, जो अपने रोएँदार रेशों से भरे प्राकृतिक स्वरुप के कारण ही हवा जैसे कारक द्वारा गति पाकर आसानी से अपना प्रकीर्णन अथार्त् फैलाव कर लेते हैं। ठीक आक के बीज जैसे ही, हमारी हिंदी भाषा भी अपनी सरल वर्णमाला के रोमों में लिपटी, मानव विस्थापन जैसे कारक के अलावा साहित्य, संगीत, फ़िल्म जैसे सहायक कारकों के सहारे सदियों से वैश्विक विस्तार पाती रही है। 

इन्हें समझने के लिए हमें मिलकर इतिहास के गलियारों में थोड़ी-सी चहलक़दमी करनी होगी। अट्ठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक में कुछ पश्चिमी देशों में औद्योगिक क्रांति के विस्तार के साथ-साथ साम्राज्यवाद में वृद्धि और बड़े पैमाने पर होने वाले उत्पादन के तहत कच्चे मालों का स्थानांतरण, प्रसंस्करण और विपणन भी होने लगा था, जिनके लिए मज़दूरों के रूप में मानव बल की भी आवश्यकता पड़ने लगी थी। परिणामस्वरूप मानवों का पूरे विश्व भर में, विशेषकर दूर-दराज़ खाड़ी देशों के साथ-साथ अफ़्रीकी और अमेरिकी देशों में भारतीयों का विस्थापन होने लगा था। यह सिलसिला अंग्रेजों द्वारा वर्ष 1834 से आरम्भ हुई गिरमिटिया प्रथा के वर्ष 1917 तक निषिद्ध घोषित किए जाने तक मॉरीशस, फ़िजी, सूरीनाम, गुयाना, त्रिनिदाद एवं टोबैगो इत्यादि देशों में भारत से हर साल लगभग दस-पन्द्रह हज़ार गिरमिटिया मज़दूर ले जाये जाते थे। 

जबरन या स्वेच्छा से जीवकोपार्जन हेतु होने वाले इन विस्थापन के कारण भारतीय मूल के लोग उन्हीं देशों में बसने भी लगे .. अपनी सभ्यता-संस्कृति के साथ-साथ अपनी भाषा हिंदी के साथ भी। फलतः उन उपरोक्त देशों की अधिकतर जनसंख्या आज भी हिंदी भाषा का ही प्रयोग करती है। फ़िजी में कभी गिरमिटिया मज़दूर के रूप में ले जाए गए- "तोताराम सनाढ्य" जी जैसे लोगों द्वारा भी विश्व पटल पर हिंदी का मान बढ़ाया गया है। जिन्होंने अपने संस्मरण को "फिजीद्वीप में मेरे 21 वर्ष" नामक किताब का रूप देकर फ़िजी के अलावा अन्य देशों में हिंदी भाषा को साहित्य के रूप में पहुँचाने में अपना सहयोग दिया है। ऐसे अनगिनत नाम हैं .. शायद ...

यूँ तो आज भी विस्थापन की घटनाएँ कम नहीं होतीं .. कारण भले ही अलग हों। कहते हैं कि आज विस्थापन की मुख्य वजह है- प्रतिभा पलायन यानि 'ब्रेन ड्रेन'। इन वर्तमान विस्थापन से भी हमारी भाषा हिंदी उन विदेशों में विस्तार पाती है। प्रसंगवश बताता चलूँ कि जब किसी विकासशील देशों का प्रतिभाशाली एवं शिक्षित युवा या कोई वयस्क व्यक्ति बेहतर सुख-सुविधाओं को पाने के लिए अपना देश छोड़कर दूसरे देश में नौकरी या व्यापार करने जाता है, तो उसे 'ब्रेन ड्रेन' (Brain Drain) या प्रतिभा पलायन कहा जाता है। भारत जैसे देश में आरक्षण के आधार पर प्रतिभा के चयन या आकलन का होना भी एक अहम कारण है प्रतिभा पलायन का .. शायद ...

स्वामी विवेकानंद जी ने भी वर्ष 1893 में अमेरीका के शिकागो की धर्म संसद में जब अपने संभाषण की शुरुआत "American Brothers & Sisters !" के संबोधन से की होगी, तब भले ही प्रयुक्त भाषा अंग्रेजी रही होगी, परन्तु संबोधन की पाश्चात्य शैली- "Ladies & Gentlemen" ना होकर, अपनी हिंदी वाली शैली के ही समतुल्य थी। जिसका आशय था-  "अमेरीकी भाइयों और बहनों !" .. शायद ...

वर्ष 1977 में तत्कालीन विदेश मंत्री अटल बिहारी बाजपेयी जी देश के पहले ऐसे व्यक्ति थे, जिन्‍होंने न्यूयॉर्क के 'जनरल असेंबली हॉल' में हुए संयुक्त राष्ट्र महासभा में संयुक्त राष्ट्र की छः आधिकारिक भाषाएँ - अरबी, चीनी, फ्रेंच, अँग्रेजी, रूसी और स्पेनिश होने के बावजूद पहली बार हिंदी भाषा में भाषण दिया था। तब तक वैश्विक मंच पर अंग्रेजी के प्रमुख भाषा होने के कारण अन्य भारतीय नेता उसी का चयन करते आए थे। हालांकि बाजपेयी जी धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलते थे, लेकिन अपने भाषण के लिए उस वक्त हिंदी के चयन के पीछे उनका उद्देश्य अंतरराष्ट्रीय पटल पर हिंदी को उभारना था।

हिंदी के वैश्विक विस्तार में विस्थापन जैसे सहयोगी कारक के बाद अब साहित्य और फ़िल्म की भूमिका पर एक नज़र ...

पद्मभूषण व दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित राजकपूर जी की तत्कालीन श्वेत-श्याम फ़िल्में- "आवारा" और "श्री 420" जब रूस में धूम मचाती हैं, भले ही ध्वनि अंतरण यानि 'डबिंग' के बाद और जब पहली बार स्वतन्त्र भारत देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू जी वर्ष 1955 में अपनी लगभग तेरह हजार किलोमीटर की सोलह दिनों वाली सोवियत रूस की पहली यात्रा पर जाते हैं, तब राजकीय भोज के पश्चात बोलने का मौका मिलने पर साम्यवादी सोवियत संघ के छठे प्रधान मंत्री निकोलाई अलेक्जेंड्रोविच बुल्गानिन अपने अन्य मंत्रियों के साथ नेहरू जी के सम्मान में राजकपूर जी की उसी हिंदी फ़िल्म- "आवारा" का शीर्षक गीत यानि 'टाइटल सॉंग'- "आवारा हूँ" गाते हैं और वहाँ की जनता भी उस गीत को गुनगुनाती है, तब भी वैश्विक परिदृश्य में हिंदी भाषा की कद ऊँची हो जाती है। 

केवल साहित्य, संगीत, फ़िल्म ही नहीं, वरन् फिल्मों के गीतों का भी विस्तारण आज के "ग्लोबल यूट्यूब" के युग में और भी अधिक हो रहा है। जैसे पूर्वी अफ़्रीकी महाद्वीप में अवस्थित संयुक्त गणराज्य तंजानिया के युवा भाई-बहन किली पॉल और नीमा पॉल जब मिट्टी के बने अपने कच्चे घर की पृष्ठभूमि में खड़े, अपने पारम्परिक परिधानों में सजे-सँवरे होंठ तुल्यकालन यानि 'लीप सिंकिंग' या 'लिप्सिंग' करके "टिक-टॉक" और "इंस्टाग्राम" नामक 'एप्प' पर 'रील' डालने से विश्व भर में लगभग पैंतालीस से पचास लाख अपने 'फॉलोवर्स' के बीच लोकप्रिय होते हैं; वह भी शैलेन्द्र जी द्वारा रचित हिंदी फिल्मों के पुराने गीतों में से एक सम्वेदनशील गीत - 

"कि मर के भी किसी को याद आयेंगे

किसी के आँसुओं में मुस्कुरायेंगे

कहेगा फूल हर कली से बार बार

जीना इसी का नाम है"  ...

तब हमारी हिंदी भाषा के साथ वैश्विक परिदृश्य में एक और अंक जुड़-सा जाता है।

जिस दिन "लाठी चार्ज (Lathi Charge)" जैसा हिंदी और अंग्रेजी से लिए गए शब्दों के संगम से बना हुआ शब्द ऑक्सफ़ोर्ड शब्दकोश (Oxford Dictionary) के किसी पन्ने पर स्थान पा लेता है, तब भी अंतरराष्ट्रीय फ़लक पर हमारी हिंदी विस्तार पाती है .. शायद ...

हमारे स्वयं के "बंजारा बस्ती के वाशिंदे" नामक हिंदी भाषा के साहित्यिक 'ब्लॉग' के 'पोस्टों' में कविताओं, कहानियों, आलेखों, संस्मरणों इत्यादि के लिए, जिन्हें हम अपनी शैली में बतकही कहते हैं, संयुक्त राष्ट्र अमेरिका (United States), कनाडा, सिंगापुर, जर्मनी, लंदन (United Kingdom), आयरलैंड, स्वीट्जरलैंड, फ़्रांस, स्वीडन, रूस, बेल्जियम, नीदरलैंड, फिलीपींस, रोमानिया, इस्राएल, लिथुआनिया इत्यादि देशों से पाठकों की संख्या तो यदाकदा भारत से भी ज्यादा दिख जाती है, तो अचरज होता है। सर्वविदित है कि पाठकों के आँकड़ों वाली उपरोक्त जानकारी 'ब्लॉग' नामक 'एप्प' की तकनीकी सुविधाओं के कारण सम्भव हो पाती है।

इस भाषा की सरलता यही है, कि इस में हम जो लिखते हैं, वही पढ़ते भी हैं। किसी भी शब्द में कोई मूक वर्ण नहीं होता और ना ही एक ही वर्ण के विभिन्न उच्चारण होते हैं। वरन् हर उच्चारण के लिए अलग-अलग वर्ण होते हैं। हम संक्षेप में कह सकते हैं, कि हिंदी भाषा अपनी लिपि और उच्चारण के अनुसार विश्व भर में सबसे शुद्ध और वैज्ञानिक भाषा है।

हम सभी की मातृ भाषा- हिंदी .. राष्ट्र भाषा, राज भाषा, संपर्क भाषा, जन भाषा के विभिन्न सोपानों को पार कर "विश्व भाषा" बनने की ओर निरंतर अग्रसर है। आँकड़े बताते हैं, कि विश्व की सर्वाधिक जनसंख्या द्वारा बोली जाने वाली तीसरी पायदान की भाषा  हमारी हिंदी, आज दूसरी पायदान की भाषा बनने की ओर अग्रसर है। उपलब्ध आँकड़े बतलाते हैं, कि हिंदी की व्यापकता के असर से ही विश्व भर में लगभग एक सौ पचहत्तर देशों के दो सौ विश्वविद्यालयों और शैक्षणिक संस्थानों में हिंदी के शिक्षण एवं प्रशिक्षण चल रहे हैं।

और तो और .. हाल ही में जब जी-20 के मौके पर देश के वर्तमान प्रधानमंत्री जी सभी इक्कीस देशों के अतिथियों को हिंदी में सम्बोधित करते हैं, जैसा वह अक़्सर विदेशों में भी करते हैं, तो इस जी-20 के प्रसारण पर टिकी दुनिया भर की नज़रों के रास्ते हिंदी भाषा विश्व पटल पर विस्तार पाती है। अब जी-20 में बीस की जगह इक्कीस देशों के अतिथियों की बात करने का कारण आप सभी सुधीजनों को ज्ञात होगा ही, ऐसा मेरा मानना है। विश्व भर में जब-जब दर्शक दीर्घा से जनसमूह द्वारा प्रधानमंत्री जी को "मोदी-मोदी" का सम्बोधन मिलता है, तब-तब इस एक शब्द "मोदी" के रूप में भी हिंदी भाषा ही वहाँ के वातावरण में गूँजती है .. शायद ...

इस बतकही के अंत में आप सभी सुधीजन पाठकों के समक्ष हम ह्रदय से अग्रिम क्षमाप्रार्थी हैं, अपनी वार्ता के दौरान हिंदी में सहज-सुगम विकल्प उपलब्ध नहीं होने के कारण मजबूरीवश आज के दिन भी कुछ अंग्रेजी शब्दों को प्रयोग में लाने के लिए। मसलन- 'ब्लॉग', 'टिक-टॉक', 'इंस्टाग्राम', 'यूट्यूब', 'एप्प', 'लीप सिंकिंग', 'रील', 'फ़िल्म', 'डबिंग', 'टाइटल सॉंग','जी-20' इत्यादि।

अब अनुमति दिजिए .. अपने सुबोध को .. आज की बतकही को विराम देने की .. पुनः आप सभी सुधीजन पाठकों को आपके अपने सुबोध के .. मन से नमन ! .. पर हाँ ! .. कल .. इस बतकही से जुड़ी हुई हमारी कल की बतकही- "रात के 8 बज कर 15 मिनट ..." को पढ़ना और सुनना भी .. मत भूलियेगा .. बस यूँ ही ... :)