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Wednesday, September 20, 2023

वर्णमाला के रोमों में लिपटी ...

हिंदी दिवस या हिंदी पखवारे या फिर हिंदी माह के तहत आज की बतकही - "वर्णमाला के रोमों में लिपटी" के अंतर्गत "वैश्विक परिदृश्य में हिंदी" या "अंतर्राष्ट्रीय फ़लक में हिंदी" की चर्चा करने के पहले सभी सुधीजन पाठकों को आपके अपने सुबोध के मन से नमन।

सर्वविदित है कि हमारी मातृ भाषा हिंदी, संस्कृत की गंगोत्री से निकल कर, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश के पावन घाटों से होती हुई, विश्व रूपी महासागर में सदैव विस्तार पाती रही है। 

देवनागरी लिपी के परिधान में लिपटी हमारी भाषा हिंदी हमारे स्वदेश भारत की आन, बान, शान और जान तो है ही, साथ ही विश्व पटल पर भी सदियों से अपना परचम फहरा रही है।

एक धार्मिक मान्यताओं के अनुसार हिन्दूओं के चारों धाम - बद्रीनाथ (उत्तराखण्ड), द्वारका (गुजरात), जगन्नाथपुरी (उड़ीसा) और रामेश्वरम (तमिलनाडू ) के अलावा केवल उत्तराखण्ड में ही हिन्दूओं के छोटे चारों धाम- बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री अवस्थित होने के कारण

हम सभी उत्तराखण्ड को देवभूमि भी कहते हैं, जहाँ अधिकांशतः लोगों के घर-दरवाजों पर आक यानि मंदार, अकवन या अकोवा कहे जाने वाले पौधे मुस्कुराते नज़र आते हैं। भले ही औषधीय गुणों से सम्पन्न होने के बावजूद बहुधा धार्मिक दृष्टिकोण से ही यह पौधे लगाए जाते हों .. शायद ...

दूसरी ओर .. सर्वविदित है कि पौधों की गतिशीलता सीमित होती है और वे अपने बीजों के परिवहन यानि फैलाव के लिए अपने बीजों के कम वजन, उसके रोएँदार या काँटेदार बनावट के साथ-साथ फैलाव में सहायता करने वाले विभिन्न प्रकार के कारकों पर निर्भर होते हैं। जिनमें हवा, पानी जैसे अजैविक कारक और पशु, पक्षी जैसे जीवंत कारक दोनों ही शामिल हैं। 

इसी प्रकार आक के बीज, जो अपने रोएँदार रेशों से भरे प्राकृतिक स्वरुप के कारण ही हवा जैसे कारक द्वारा गति पाकर आसानी से अपना प्रकीर्णन अथार्त् फैलाव कर लेते हैं। ठीक आक के बीज जैसे ही, हमारी हिंदी भाषा भी अपनी सरल वर्णमाला के रोमों में लिपटी, मानव विस्थापन जैसे कारक के अलावा साहित्य, संगीत, फ़िल्म जैसे सहायक कारकों के सहारे सदियों से वैश्विक विस्तार पाती रही है। 

इन्हें समझने के लिए हमें मिलकर इतिहास के गलियारों में थोड़ी-सी चहलक़दमी करनी होगी। अट्ठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक में कुछ पश्चिमी देशों में औद्योगिक क्रांति के विस्तार के साथ-साथ साम्राज्यवाद में वृद्धि और बड़े पैमाने पर होने वाले उत्पादन के तहत कच्चे मालों का स्थानांतरण, प्रसंस्करण और विपणन भी होने लगा था, जिनके लिए मज़दूरों के रूप में मानव बल की भी आवश्यकता पड़ने लगी थी। परिणामस्वरूप मानवों का पूरे विश्व भर में, विशेषकर दूर-दराज़ खाड़ी देशों के साथ-साथ अफ़्रीकी और अमेरिकी देशों में भारतीयों का विस्थापन होने लगा था। यह सिलसिला अंग्रेजों द्वारा वर्ष 1834 से आरम्भ हुई गिरमिटिया प्रथा के वर्ष 1917 तक निषिद्ध घोषित किए जाने तक मॉरीशस, फ़िजी, सूरीनाम, गुयाना, त्रिनिदाद एवं टोबैगो इत्यादि देशों में भारत से हर साल लगभग दस-पन्द्रह हज़ार गिरमिटिया मज़दूर ले जाये जाते थे। 

जबरन या स्वेच्छा से जीवकोपार्जन हेतु होने वाले इन विस्थापन के कारण भारतीय मूल के लोग उन्हीं देशों में बसने भी लगे .. अपनी सभ्यता-संस्कृति के साथ-साथ अपनी भाषा हिंदी के साथ भी। फलतः उन उपरोक्त देशों की अधिकतर जनसंख्या आज भी हिंदी भाषा का ही प्रयोग करती है। फ़िजी में कभी गिरमिटिया मज़दूर के रूप में ले जाए गए- "तोताराम सनाढ्य" जी जैसे लोगों द्वारा भी विश्व पटल पर हिंदी का मान बढ़ाया गया है। जिन्होंने अपने संस्मरण को "फिजीद्वीप में मेरे 21 वर्ष" नामक किताब का रूप देकर फ़िजी के अलावा अन्य देशों में हिंदी भाषा को साहित्य के रूप में पहुँचाने में अपना सहयोग दिया है। ऐसे अनगिनत नाम हैं .. शायद ...

यूँ तो आज भी विस्थापन की घटनाएँ कम नहीं होतीं .. कारण भले ही अलग हों। कहते हैं कि आज विस्थापन की मुख्य वजह है- प्रतिभा पलायन यानि 'ब्रेन ड्रेन'। इन वर्तमान विस्थापन से भी हमारी भाषा हिंदी उन विदेशों में विस्तार पाती है। प्रसंगवश बताता चलूँ कि जब किसी विकासशील देशों का प्रतिभाशाली एवं शिक्षित युवा या कोई वयस्क व्यक्ति बेहतर सुख-सुविधाओं को पाने के लिए अपना देश छोड़कर दूसरे देश में नौकरी या व्यापार करने जाता है, तो उसे 'ब्रेन ड्रेन' (Brain Drain) या प्रतिभा पलायन कहा जाता है। भारत जैसे देश में आरक्षण के आधार पर प्रतिभा के चयन या आकलन का होना भी एक अहम कारण है प्रतिभा पलायन का .. शायद ...

स्वामी विवेकानंद जी ने भी वर्ष 1893 में अमेरीका के शिकागो की धर्म संसद में जब अपने संभाषण की शुरुआत "American Brothers & Sisters !" के संबोधन से की होगी, तब भले ही प्रयुक्त भाषा अंग्रेजी रही होगी, परन्तु संबोधन की पाश्चात्य शैली- "Ladies & Gentlemen" ना होकर, अपनी हिंदी वाली शैली के ही समतुल्य थी। जिसका आशय था-  "अमेरीकी भाइयों और बहनों !" .. शायद ...

वर्ष 1977 में तत्कालीन विदेश मंत्री अटल बिहारी बाजपेयी जी देश के पहले ऐसे व्यक्ति थे, जिन्‍होंने न्यूयॉर्क के 'जनरल असेंबली हॉल' में हुए संयुक्त राष्ट्र महासभा में संयुक्त राष्ट्र की छः आधिकारिक भाषाएँ - अरबी, चीनी, फ्रेंच, अँग्रेजी, रूसी और स्पेनिश होने के बावजूद पहली बार हिंदी भाषा में भाषण दिया था। तब तक वैश्विक मंच पर अंग्रेजी के प्रमुख भाषा होने के कारण अन्य भारतीय नेता उसी का चयन करते आए थे। हालांकि बाजपेयी जी धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलते थे, लेकिन अपने भाषण के लिए उस वक्त हिंदी के चयन के पीछे उनका उद्देश्य अंतरराष्ट्रीय पटल पर हिंदी को उभारना था।

हिंदी के वैश्विक विस्तार में विस्थापन जैसे सहयोगी कारक के बाद अब साहित्य और फ़िल्म की भूमिका पर एक नज़र ...

पद्मभूषण व दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित राजकपूर जी की तत्कालीन श्वेत-श्याम फ़िल्में- "आवारा" और "श्री 420" जब रूस में धूम मचाती हैं, भले ही ध्वनि अंतरण यानि 'डबिंग' के बाद और जब पहली बार स्वतन्त्र भारत देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू जी वर्ष 1955 में अपनी लगभग तेरह हजार किलोमीटर की सोलह दिनों वाली सोवियत रूस की पहली यात्रा पर जाते हैं, तब राजकीय भोज के पश्चात बोलने का मौका मिलने पर साम्यवादी सोवियत संघ के छठे प्रधान मंत्री निकोलाई अलेक्जेंड्रोविच बुल्गानिन अपने अन्य मंत्रियों के साथ नेहरू जी के सम्मान में राजकपूर जी की उसी हिंदी फ़िल्म- "आवारा" का शीर्षक गीत यानि 'टाइटल सॉंग'- "आवारा हूँ" गाते हैं और वहाँ की जनता भी उस गीत को गुनगुनाती है, तब भी वैश्विक परिदृश्य में हिंदी भाषा की कद ऊँची हो जाती है। 

केवल साहित्य, संगीत, फ़िल्म ही नहीं, वरन् फिल्मों के गीतों का भी विस्तारण आज के "ग्लोबल यूट्यूब" के युग में और भी अधिक हो रहा है। जैसे पूर्वी अफ़्रीकी महाद्वीप में अवस्थित संयुक्त गणराज्य तंजानिया के युवा भाई-बहन किली पॉल और नीमा पॉल जब मिट्टी के बने अपने कच्चे घर की पृष्ठभूमि में खड़े, अपने पारम्परिक परिधानों में सजे-सँवरे होंठ तुल्यकालन यानि 'लीप सिंकिंग' या 'लिप्सिंग' करके "टिक-टॉक" और "इंस्टाग्राम" नामक 'एप्प' पर 'रील' डालने से विश्व भर में लगभग पैंतालीस से पचास लाख अपने 'फॉलोवर्स' के बीच लोकप्रिय होते हैं; वह भी शैलेन्द्र जी द्वारा रचित हिंदी फिल्मों के पुराने गीतों में से एक सम्वेदनशील गीत - 

"कि मर के भी किसी को याद आयेंगे

किसी के आँसुओं में मुस्कुरायेंगे

कहेगा फूल हर कली से बार बार

जीना इसी का नाम है"  ...

तब हमारी हिंदी भाषा के साथ वैश्विक परिदृश्य में एक और अंक जुड़-सा जाता है।

जिस दिन "लाठी चार्ज (Lathi Charge)" जैसा हिंदी और अंग्रेजी से लिए गए शब्दों के संगम से बना हुआ शब्द ऑक्सफ़ोर्ड शब्दकोश (Oxford Dictionary) के किसी पन्ने पर स्थान पा लेता है, तब भी अंतरराष्ट्रीय फ़लक पर हमारी हिंदी विस्तार पाती है .. शायद ...

हमारे स्वयं के "बंजारा बस्ती के वाशिंदे" नामक हिंदी भाषा के साहित्यिक 'ब्लॉग' के 'पोस्टों' में कविताओं, कहानियों, आलेखों, संस्मरणों इत्यादि के लिए, जिन्हें हम अपनी शैली में बतकही कहते हैं, संयुक्त राष्ट्र अमेरिका (United States), कनाडा, सिंगापुर, जर्मनी, लंदन (United Kingdom), आयरलैंड, स्वीट्जरलैंड, फ़्रांस, स्वीडन, रूस, बेल्जियम, नीदरलैंड, फिलीपींस, रोमानिया, इस्राएल, लिथुआनिया इत्यादि देशों से पाठकों की संख्या तो यदाकदा भारत से भी ज्यादा दिख जाती है, तो अचरज होता है। सर्वविदित है कि पाठकों के आँकड़ों वाली उपरोक्त जानकारी 'ब्लॉग' नामक 'एप्प' की तकनीकी सुविधाओं के कारण सम्भव हो पाती है।

इस भाषा की सरलता यही है, कि इस में हम जो लिखते हैं, वही पढ़ते भी हैं। किसी भी शब्द में कोई मूक वर्ण नहीं होता और ना ही एक ही वर्ण के विभिन्न उच्चारण होते हैं। वरन् हर उच्चारण के लिए अलग-अलग वर्ण होते हैं। हम संक्षेप में कह सकते हैं, कि हिंदी भाषा अपनी लिपि और उच्चारण के अनुसार विश्व भर में सबसे शुद्ध और वैज्ञानिक भाषा है।

हम सभी की मातृ भाषा- हिंदी .. राष्ट्र भाषा, राज भाषा, संपर्क भाषा, जन भाषा के विभिन्न सोपानों को पार कर "विश्व भाषा" बनने की ओर निरंतर अग्रसर है। आँकड़े बताते हैं, कि विश्व की सर्वाधिक जनसंख्या द्वारा बोली जाने वाली तीसरी पायदान की भाषा  हमारी हिंदी, आज दूसरी पायदान की भाषा बनने की ओर अग्रसर है। उपलब्ध आँकड़े बतलाते हैं, कि हिंदी की व्यापकता के असर से ही विश्व भर में लगभग एक सौ पचहत्तर देशों के दो सौ विश्वविद्यालयों और शैक्षणिक संस्थानों में हिंदी के शिक्षण एवं प्रशिक्षण चल रहे हैं।

और तो और .. हाल ही में जब जी-20 के मौके पर देश के वर्तमान प्रधानमंत्री जी सभी इक्कीस देशों के अतिथियों को हिंदी में सम्बोधित करते हैं, जैसा वह अक़्सर विदेशों में भी करते हैं, तो इस जी-20 के प्रसारण पर टिकी दुनिया भर की नज़रों के रास्ते हिंदी भाषा विश्व पटल पर विस्तार पाती है। अब जी-20 में बीस की जगह इक्कीस देशों के अतिथियों की बात करने का कारण आप सभी सुधीजनों को ज्ञात होगा ही, ऐसा मेरा मानना है। विश्व भर में जब-जब दर्शक दीर्घा से जनसमूह द्वारा प्रधानमंत्री जी को "मोदी-मोदी" का सम्बोधन मिलता है, तब-तब इस एक शब्द "मोदी" के रूप में भी हिंदी भाषा ही वहाँ के वातावरण में गूँजती है .. शायद ...

इस बतकही के अंत में आप सभी सुधीजन पाठकों के समक्ष हम ह्रदय से अग्रिम क्षमाप्रार्थी हैं, अपनी वार्ता के दौरान हिंदी में सहज-सुगम विकल्प उपलब्ध नहीं होने के कारण मजबूरीवश आज के दिन भी कुछ अंग्रेजी शब्दों को प्रयोग में लाने के लिए। मसलन- 'ब्लॉग', 'टिक-टॉक', 'इंस्टाग्राम', 'यूट्यूब', 'एप्प', 'लीप सिंकिंग', 'रील', 'फ़िल्म', 'डबिंग', 'टाइटल सॉंग','जी-20' इत्यादि।

अब अनुमति दिजिए .. अपने सुबोध को .. आज की बतकही को विराम देने की .. पुनः आप सभी सुधीजन पाठकों को आपके अपने सुबोध के .. मन से नमन ! .. पर हाँ ! .. कल .. इस बतकही से जुड़ी हुई हमारी कल की बतकही- "रात के 8 बज कर 15 मिनट ..." को पढ़ना और सुनना भी .. मत भूलियेगा .. बस यूँ ही ... :)