Thursday, May 16, 2024

"पीपली लाइव" सच्ची-मुच्ची 'लाइव' ...


हम सभी को तो आज भी याद होनी ही चाहिए 2010 में आयी 'फ़िल्म' "पीपली लाइव" .. जो काला हास्य (Black Comedy) की श्रेणी में रखी गयी थी या आज है भी। जिसमें किसानों की आत्महत्या जैसी त्रासदी को हास्य-व्यंग्य की चटपटी चाशनी में सराबोर करके हम दर्शकों के समक्ष पेश की गयी थी। यूँ तो यह छत्तीसगढ़ के पीपली गाँव की पृष्ठभूमि की कहानी होते हुए भी .. लगभग समस्त त्रस्त किसानों की दुखती रगों का परत-दर-परत बख़िया उधेड़ती प्रतीत होती है, जिन किसानों को देश-समाज के लिए उनके किए गए मूलभूत योगदान का यथोचित प्रतिफल नहीं मिल पाता है। ऐसे में इसे मनोरंजक 'फ़िल्म' कम, बल्कि किसी घटनाचक्र का तेज रफ़्तार से गुजरता हुआ एक मार्मिक वृत्तचित्र ही ज्यादा महसूस किया जा सकता है .. शायद ...

वैसे भी इतिहास की मानें तो नाटकों के मंचन एवं उससे उपजी 'फ़िल्मों' के अस्तित्व का औचित्य समाज को आइना दिखाना और किसी प्रकाशस्तंभ की तरह राह दिखाना भी/ही रहा है .. मनोरंजन तो उसका उप-उत्पाद भर ही था, ताकी इन दोनों के माध्यम से कही गयी संदेशपरक बातें जनसाधारण के दिमाग़ में आसानी से धँस सके। परन्तु कालान्तर में आज .. समाज का एक वृहद् अनपढ़ कामगार वर्ग और कमोबेश बुद्धिजीवी वर्ग भी उसको मनोरंजन का एक साधन मात्र मान बैठा है । 

आम लोग तब भी उनमें संलिप्त लोगों को, ख़ास कर महिलाओं को, हेय दृष्टि से देखते थे और आज भी कई तथाकथित बुद्धिजीवी समाज भी उनसे जुड़े लोगों को अक़्सर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से "नचनिया-बजनिया" कह कर उन्हें सिरे से नकार देते हैं .. शायद ...

ख़ैर ! ..  बात करते हैं, "पीपली लाइव" 'फ़िल्म' के उस लोकप्रिय गीत- "सखी, सैयाँ, तो खूबई कमात हैं, मँहगाई डायन खाए जात है"  "की, जो हम जनसाधारण के मानसपटल पर गाहे-बगाहे बजती ही रहती है। जिस तरह तथाकथित तौर पर टूटे दिल वाले इंसानों को कोई दर्द भरा फ़िल्मी गीत या ग़ज़ल उनके अपने मन में उभरते हुए दर्द की ही अभिव्यक्ति लगती है और अक़्सर .. हम में से कई ऐसे दिलजलों को रुमानी दर्द भरे नग़में गाकर, गुनगुनाकर या सुनकर भी कुछ देर के लिए ही सही पर दिल को राहत मिलती है। ठीक उसी तरह यह गीत भी देश भर के आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लोगों को अपने-अपने मन में उभरती-उमड़ती टीस की ही अभिव्यक्ति लगती है। जिसको गाने, गुनगुनाने, सुनने या फिर बतियाने भर से भी/ही हमारे समाज के आर्थिक रूप से निम्न या निम्न-मध्यम वर्ग के लोगों को कुछ पलों के लिए तो मानसिक राहत का छद्म फाहा ही सही, पर मिल तो जाता है .. शायद ...

दरअसल यह एक पुराना लोकगीत है, जिसका इस्तेमाल "पीपली लाइव" 'फ़िल्म' में किया गया था। यूँ तो समालोचक वाली पैनी नज़रों से हम सभी ग़ौर करेंगे तो .. ज्ञात होगा कि अनेक पुराने लोकगीतों, शास्त्रीय संगीतों और सूफ़ी शैली का प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सैकड़ों भारतीय सिनेमा में वर्षों से धड़ल्ले से प्रयुक्त किया जाता रहा है .. नहीं क्या ? ...

अब आज की मूल बतकही ... .. हमें तो ये भी याद होनी ही चाहिए कि .. इसी 'फ़िल्म' में एक अन्य "छत्तीसगढ़ी लोकगीत" का भी इस्तेमाल किया गया था - "चोला माटी के हे राम, एकर का भरोसा .." , जो जीवन-दर्शन से परिपूर्ण है। जिसके मुखड़ा एवं हरेक अंतराओं से हमारी अंतरात्मा को आध्यात्मिक स्पंदन व स्फुरण मिलता है। जितनी बार भी इसे सुना जाए, हर बार यह लोकगीत सूक्ष्म आध्यात्मिक आत्मा को स्थूल भौतिक देह-दुनिया से पृथक करता हुआ एक निस्पंदन जैसी प्रक्रिया की हमें अनुभूति करा जाता है .. शायद ...

दरअसल इस मूल छत्तीसगढ़ी लोकगीत में छत्तीसगढ़ी लेखक गंगाराम शिवारे जी से कुछेक बदलाव करवाने के बाद .. इस गीत को लोक वाद्ययंत्रों व लोक वादकों के सहयोग से अपने "नया थिएटर" नामक रंगशाला के नाटकों में प्रयोग कर-कर के इसे जनसुलभ करने का पुनीत प्रयोग किया था विश्व प्रसिद्ध नाट्यकर्मी हबीब तनवीर जी ने। इसीलिए आज भी इस गीत के रचनाकार के रूप में गंगाराम शिवारे जी को ही जाना जाता है। 

हबीब तनवीर जी केवल एक नाट्यकर्मी ही नहीं, बल्कि प्रसिद्ध पटकथा लेखक, नाट्य निर्देशक, संगीतकार, कवि और फ़िल्मी अभिनेता भी रहे हैं। उन सबसे भी बढ़ कर वे एक महान प्रयोगधर्मी थे। तभी तो अपने रंगशाला- "नया थिएटर" में छत्तीसगढ़ के आदिवासियों को गढ़-गढ़ के .. तराश-तराश के रंगमंच के कलाकार के रूप में विश्वस्तरीय मंचों का हक़दार बनाने का काम किए, जो उनकी अनुपम उपलब्धि रही। यूँ तो हबीब तनवीर जी और उनके "नया थिएटर" के लिए श्रंद्धाजलि स्वरूप अगर कभी कुछ बतकही की जाए तो, वो एक-दो भागों में नहीं समेटा या लपेटा जा सकता है .. क्योंकि वे नाटक का एक सिमटा हुआ अध्याय भर नहीं थे, वरन् स्वयं में सम्पूर्ण विश्वविद्यालय समेटे हुए थे .. शायद ...

संदर्भवश बकता चलूँ कि .. "पीपली लाइव" में रघुवीर यादव व नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी जैसे नामचीन कलाकारों के साथ-साथ मुख्य पात्र "नत्था" का क़िरदार निभाने वाले छत्तीसगढ़ के रंगमंच कलाकार- "ओंकार दास मानिकपुरी" की भले ही यह पहली 'फ़िल्म' थी। पर इन्हें पहले से ही हबीब तनवीर जी के "नया थिएटर" के स्थापित कलाकारों में से एक होने का गौरव मिला हुआ था।

अब बारी आती है .. इस विशेष "छत्तीसगढ़ी लोकगीत"- "चोला माटी के हे राम, एकर का भरोसा .." की आवाज़ की, तो .. इस गीत को तब भी आवाज़ मिली थी हबीब तनवीर जी और उनकी प्रेमिका-सह-पत्नी रहीं अभिनेत्री व महिला-निर्देशक मोनिका मिश्रा जी की बेटी - "नगीन तनवीर" जी की और अब भी .. "पिपली लाइव" 'फिल्म' के लिए भी उन्होंने ही गाया था, जो अपने दिवंगत माता-पिता की अनुपस्थिति में आज भी "नया थिएटर" का कार्यभार बखूबी संभाल रही हैं। यूँ तो वह रंगकर्मी भी हैं, परन्तु मूलरूप से स्वयं को लोकगीत गायिका मानती हैं, विशेष रूप से छत्तीसगढ़ी लोकगीत की। 

उन्हीं "नगीन तनवीर" जी को सामने से 'लाइव' सुनने का एक शाम मौक़ा मिलना मन चाही मुराद से बढ़कर था। दरअसल "दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र, देहरादून" के सौजन्य से "दून पुस्तकालय सभागार" में पाँच दिवसीय- 8 मई से 12 मई तक होने वाले "ग्रीष्म कला उत्सव" में गत रविवार 12 मई के दोनों सत्रों में जाने का सुअवसर मिला था। पहले सत्र में थोड़ा विलम्ब से जाने कारण केवल हबीब तनवीर जी और उनके लोकप्रिय व प्रसिद्ध नाटकों में से एक - "चरणदास चोर" पर आधारित एक दुर्लभ श्वेत-श्याम वृत्तचित्र देख पाया और दूसरे सत्र पर ही तो आज की ये बतकही आधारित है .. बस यूँ ही ...

जहाँ "नगीन तनवीर" जी को 'लाइव' सुनने के साथ-साथ लोकगीत, संगीत, ग़ज़ल या हबीब तनवीर जी व उनके नाटकों से जुड़े विषयों पर श्रोता श्रेणी में दो-चार गज की दूरी पर बैठकर गीतों के बीच-बीच में सार्वजनिक रूप से उनके साथ बतियाना .. एक अभूतपूर्व अनुभूतियों की त्रिवेणी बन गयी थी। तभी तो आज की बतकही को नाम दिया है- " "पीपली लाइव" सच्ची-मुच्ची 'लाइव' ..."। लगभग साठ वर्षीया नगीन तनवीर जी के आभामण्डल को लगभग डेढ़ घंटे तक पास से महसूस करना अपने-आप में एक रविवारीय उपलब्धि भर ही नहीं, बल्कि जीवन की एक अनुपम उपलब्धि रही .. बस यूँ ही ...

वैसे भी जो लोग मन से कलाकार होते हैं, उन विभूतियों के लिए जाति-धर्म या देश-परदेश की सीमाएँ बंधन नहीं बन पाते हैं। इनके कई सारे ज्वलंत उदाहरण मिलते भी हैं। उन्हीं में दिवंगत हबीब तनवीर जी के साथ-साथ उनकी जीवनसंगिनी दिवंगत मोनिका मिश्रा जी और उनकी सुपुत्री नगीन तनवीर जी का भी नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है। तभी तो वह छत्तीसगढ़ी लोकगीत के साथ-साथ उत्तर प्रदेश के लोकगीतों को भी उतनी ही अपनापन से अपना स्वर देती हैं और वह अन्य राज्यों के लोकगीतों को भी सीखने के लिए भी प्रयासरत हैं। 

जब वह छत्तीसगढ़ी के साथ-साथ उत्तरप्रदेश के लोकगीत और ग़ज़ल भी सुनायीं, तो उनसे कार्यक्रम के बीच-बीच में होने वाली बातचीत के दौरान हमने पूछा कि "आपकी आज की पोटली में "बिहार" (लोकगीत) भी है क्या ?" तो .. उनका मुस्कान भरा उत्तर था, कि "अभी सीखना है .. सीख रही हूँ।" फिर बीच में एक बार हमने "जरा हल्के गाड़ी हाँकों, राम गाड़ी वाले" गाने का अनुरोध किया, तो स्नेहिल भाव के साथ इस कबीर भजन को ना गा पाने की अपनी असमर्थता जताईं। पर यकीनन ये जीवन दर्शन भरा कबीर भजन भी उनके मन के काफ़ी क़रीब रहा होगा, तभी तो उस भजन के मुखड़े को सुनकर उनके मुखड़े पर एक आध्यात्मिक मुस्कान तैर गयी थी।

आइए सबसे पहले .. नगीन तनवीर जी की आवाज़ में हबीब तनवीर जी की लिखी एक रचना- "बताओ गुमनामी अच्छी है या अच्छी है नामवरी .." का एक अंश सुनते हैं, जिसे संगीतबद्ध भी उन्होंने ही किया था। जिसका अपने नाटक में अक़्सर प्रयोग भी करते थे। वह अपनी लिखी रचनाएँ स्वयं ही लोक वाद्य यंत्रों व लोक वादकों के सहयोग से संगीतबद्ध करके अपने नाटकों में प्रायः प्रयोग में लाया करते थे। 

अब जीवन-दर्शन से सराबोर एक अन्य छत्तीसगढ़ी लोकगीत - "पापी चोला रे, अभिमान भरे तोरे तन में ..." का एक अंश उनकी आवाज़ में ...

एक अन्य लोकगीत, वह भी छत्तीसगढ़ से ही है। जिसे प्रत्यक्ष तो नहीं पर परोक्ष रूप से भारतीय सिनेमा के नामचीन लोगों ने चुराया है, जिसके मूल बोल का एक अंश है -" सास गारी देवे, ननद मुँह लेवे, देवर बाबू मोर, सैंया गारी देवे, परोसी गम लेवे, करार गोंदा फूल। अरे... केरा बारी म डेरा देबो चले के बेरा हो ~~~ आये ब्यापारी गाड़ी में चढ़ीके, तोला आरती उतारंव थारी में धरी के, हो ~~~ करार गोंदा फूल, सास गारी देवे...."; परन्तु आपको ज्ञात होगा कि इसी के बोल में कुछ परिवर्त्तन करके 'फ़िल्म' - "दिल्ली 6" में "सैंया छेड़ देवें, ननद चुटकी लेवे ससुराल गेंदा फूल, सास गारी देवे, देवरजी समझा लेवे, ससुराल गेंदा फूल, छोड़ा बाबुल का अँगना, भावे डेरा पिया का, हो ~~ सास गारी देवे, देवरजी समझा लेवे ससुराल गेंदा फूल ~~~ सैंया है व्यापारी, चले है परदेश, सुरतिया निहारूं जियरा भारी होवे, ससुराल गेंदा फूल ~~~" के रूप में इस्तेमाल किया गया था। जिससे उन लोगों को तो परोक्ष नक़ल के कारण बैठे-बिठाए ख्याति मिल गयी और दूसरी तरफ वर्षों से एक कोने में सिमटे उस लोकगीत को देश के कोने-कोने में वृहद् विस्तार मिलने से वह जनसुलभ बन गया .. भले ही बदले हुए रूप में। 

मतलब .. किसी दूसरे की बहुरिया को अपनी तरफ से दूसरी अँगिया पहना के अपनी बहुरिया होने का दावा करने जैसा ही है ये सब .. शायद ... ख़ैर ! .. बड़े लोगों की बड़ी बातें, हम जनसाधारण को क्या करना भला। चलिए उस मूल लोकगीत का एक अंश 'लाइव' सुनते हैं नगीन तनवीर जी की खनक भरी आवाज़ में - "ससुराल गेंदा फूल ~~~"

आइए .. अब मिलकर "पीपली लाइव" को 'लाइव' सुनते हैं .. मने .. नगीन तनवीर जी की आवाज़ में - "चोला माटी के हे राम, एकर का भरोसा .." के एक अंश को सुनते हुए "पीपली लाइव" की याद ताजा करते हैं  .. बस यूँ ही ...

चलते-चलते स्मरण कराता चलूँ कि इसी छत्तीसगढ़ी लोकगीत- "चोला माटी के हे राम, एकर का भरोसा .." को "सेंट जेवियर्स कॉलेज ऑफ मैनेजमेंट एंड टेक्नोलॉजी", पटना (बिहार) से 'मास कम्युनिकेशन' में कला स्नातक करने वाले युवा छात्र-छात्राओं ने अपने 'प्रोजेक्ट वर्क' के तहत "मुंशी प्रेमचंद" जी की मशहूर कहानी- "कफ़न" पर आधारित एक लघु 'फ़िल्म' बनाने के दौरान उस 'फ़िल्म' के अंत में भी बहुत ही कलात्मक ढंग से जीवन-दर्शन की गूढ़ता को दर्शाते हुए प्रयोग किया था। । जिसकी चर्चा आदतन विस्तारपूर्वक "ना 'सिरचन' मरा, ना मरी है 'बुधिया' " नामक बतकही को चार भागों ( भाग-१, भाग-२, भाग-३ व भाग-४ ) में यहाँ साझा करते हुए " ना 'सिरचन' मरा, ना मरी है 'बुधिया' .. (अंतिम भाग-४)" में उस 'फ़िल्म' को भी चिपकाया था। 

आत्ममुग्धतावश या आत्म-प्रशंसावश तो नहीं, पर .. हम "घीसू" के पात्र को जीने के आत्म-गौरव की अनुभूति करते हुए पुनः एक बार "कफ़न" को यहाँ चिपकाने से स्वयं को संवरण नहीं कर पा रहे हैं .. .. बस यूँ ही ...

अगर हृदय स्पंदन आगे भी गतिमान रहा तो पुनः मिलते हैं .. बस यूँ ही ... 🙏🙏🙏


Saturday, May 4, 2024

उतनी भी .. भ्रामक नहीं हो तुम ...


जीवन के बचपन की सुबह हो, जवानी की भरी दुपहरी हो या फिर वयस्कता की ढलती हुई शाम .. जीवन के हर मोड़ पर पनपने वाले सपने .. अलग-अलग मोड़ पर पनपे अलग-अलग रंग-प्रकार के सपने और कुछेक ख़ास तरह के .. ताउम्र एक जैसे ही रहने वाले, परन्तु .. परिस्थितिवश सुषुप्त ज्वालामुखी की तरह सुषुप्तावस्था में कुछ-कुछ सोए, कुछ-कुछ जागे, कुछ उनिंदे-से सपने .. जब कभी भी जीवन के जिस किसी भी मोड़ पर कुलाँचें भरने लगें और यदि वो सपने बड़े हों, तो ऐसे में छोटी-छोटी उपलब्धियाँ मन को गुदगुदा नहीं पाती हैं .. मन में रोमांच पैदा नहीं कर पाती हैं .. शायद ...

ऐसी ही कुछ छोटी-छोटी उपलब्धियाँ देहरादून प्रवास के दौरान जब कभी भी मिली हैं, हम इस 'ब्लॉग' के पन्नों को अपनी आधुनिक 'डायरी' मानते हुए अपनी चंद छोटी-छोटी उपलब्धियाँ इस पर उकेरने के बहाने ही आप सभी से भी साझा कर लेते हैं। मसलन -

 प्रसार भारती के अन्तर्गत आकाशवाणी, देहरादून द्वारा प्रसारित 02.01.2023 की "कवि गोष्ठी" में उत्तराखंड के अन्य कवि-कवयित्रियों के साथ हमें हमारी बतकही के रूप में अपनी तीन कविताओं को पढ़ने का मौक़ा मिल पाया था, जिसके लिए हम कार्यक्रम अधिशासी दीपेन्द्र सिंह सिवाच जी का आभारी हैं। उस "कवि गोष्ठी" के अपने हिस्से की आवाज़ की 'रिकॉर्डिंग' हमने बाद में यहाँ आप सभी से साझा भी किया था।

उसके बाद पुनः 21.04.2023 को आकाशवाणी, देहरादून द्वारा ही प्रसारित "कथा सागर" कार्यक्रम के तहत बतकही के रूप में हमें हमारी कहानी - "बस यूँ ही ..." सुनाने का मौका मिला था, जिसकी ध्वनि की भी 'रिकॉर्डिंग' हमने आगे साझा की थी। यह भी कार्यक्रम अधिशासी दीपेन्द्र सिंह सिवाच जी के ही सौजन्य से मिला था।

फिर हमारी मुलाक़ात हुई थी, 27.05.2023 को प्रसार भारती के तहत दूरदर्शन, उत्तराखण्ड से प्रसारित "हिन्दी कवि गोष्ठी" के तहत; जब हमें उत्तराखंड के अन्य कवि-कवयित्रियों के लिए मंच-संचालन के साथ-साथ स्वाभाविक है, कि हमारी बतकही के रूप में अपनी कविताओं को सुनाने का भी सुअवसर मिल पाया था। जिसकी 'यूट्यूब' अभी तक यहाँ साझा नहीं कर पाया, जो अभी आपके समक्ष है .. बस यूँ ही ...


पुनः विगत बार हमलोग मिले थे, देश भर में मनाए जा रहे "हिंदी माह" के तहत 18.09.2023 को आकाशवाणी, देहरादून द्वारा ही प्रसारित एक कार्यक्रम "एक वार्ता" के तहत "अंतरराष्ट्रीय फ़लक में हिंदी" नामक वार्ता के संग। उसकी भी अभिलेखबद्ध ध्वनि हमने यहाँ पर साझा किया था .. बस यूँ ही ...

अब पुनः ध्वनि के माध्यम से हमारी भेंट हो रही है .. 05.05.2024 को रात्रि के 8 बजे प्रसार भारती के ही आकाशवाणी, देहरादून से कार्यक्रम अधिशासी राकेश ढौंडियाल जी के सौजन्य से प्रसारण होने वाले "काव्यांजलि" कार्यक्रम के तहत, जिसमें हमारी एकल बतकही सुन सकेंगे आप .. अगर आपकी इच्छा हुई तो .. बस यूँ ही ...

आप अपने मोबाइल पर Play Store से News On Air नामक App को download कर लीजिए, जिससे आप समस्त भारत के प्रसार भारती से प्रसारित होने वाले कार्यक्रम को सुन सकते हैं।

अब एक नज़र आज की बतकही पर .. जिसे हमने नाम दिया है - "उतनी भी .. भ्रामक नहीं हो तुम ..."

किसी भ्रामक विज्ञापन-सी,

मनलुभावन, मनभावन-सी,

रासायनिक सौन्दर्य प्रसाधन

पुतवायी किसी श्रृंगार केन्द्र से,

लिपटी स्व संज्ञान में 

कुछ विशिष्ट लिबासों से,

विशिष्ट आभूषणों से लदी लकदक

कृत्रिम सुगंधों के कारावास में,

आवास में, प्रवास में,

तीज-त्योहारों में, शादी-विवाहों में,

बन के मिसाल, एक प्रज्वलित मशाल-सी

सजधज कर, बनठन कर, 

मचलती हुई, मटकती हुई,

कभी अलकों को झटकाती,

कभी लटों को सँवारती,

बनी-ठनी, सजी-सँवरी,

प्रयास करती हो प्रायः ..

ठगे गए उपभोक्ताओं जैसी

अनगिनत अपलक निग़ाहों के 

केंद्र बिंदु बनने की, बनती भी हो, बनी रहो .. बस यूँ ही ...


वैसे भी तो .. 

उतनी भी .. भ्रामक नहीं हो तुम,

जितने हैं भ्रामक वो विज्ञापन सारे,

ना जाने भला कैसे-कैसे ? ..

लेके आड़ काल्पनिक व रचनात्मक चित्रण के

और अक्षर भी वो आड़ वाले सारे छोटे-छोटे, 

लेकिन केसर उस अक्षर से भी बड़े-बड़े,

हैं दिख जाते प्रतिष्ठित लोग छींटते हुए ढेर सारे।

"बोलो जुबां केसरी" के बहाने 

केसर व केसरिया रंग भी

हैं पैरों तले मिलकर रौंदते।

एक मोहतरमा देकर हवाला 

एक पुराने फ़िल्मी गीत के,  

दिखती हैं अक़्सर .. पुरुष जांघिए में ढूँढ़ती 

अपना दीवानापन या सुरूर मोहब्बत के।

हद हो जाती है तब, जब "ठंडा" जैसा ..

एक शब्द हिंदी शब्दकोश का जैसे,

मतलब ही अपना है खो देता एक शीतल पेय (?) से।

दिमाग़ी और शारीरिक ताक़तें व ऊर्जा हैं इनमें,

ऐसा दिखलाते-बतलाते हैं मिल कर सारे वो .. शायद ...


किन्तु हमें तो बस्स ! ...

पढ़ना है तुम्हारे अंतस मन को,

जिसमें मैं शायद शेष बचा होऊँ

आज भी या नहीं भी, 

पूजन की थाली में

रंचमात्र बचे अवशेष की तरह

जले भीमसेनी कपूर के।

तुम आओ, ना आओ कभी समक्ष मेरे, 

परन्तु .. पढ़ना है मुझे एक बार ..

बारम्बार .. केवल और केवल 

तुम्हारे चेतन-अवचेतन मन को,

पल-पल, हर पल .. मन में आते-जाते

तमाम तेज विचारों से इतर,

कुछ सुस्त, सुषुप्त पड़ी तुम्हारी भावनाएँ।

ठीक है ? .. ठीक .. ठीक-ठीक .. 

किसी भ्रामक विज्ञापन की

लघु मुद्रलिपि वाले अस्वीकरण की तरह

या किसी चलचित्र के किसी कोने की

संवैधानिक चेतावनी की तरह 

मन के कोने में तुम्हारे जो कुछ भी दबी हो .. बस यूँ ही ...


Tuesday, April 30, 2024

मुताह के बहाने गुनाह ...

मुताह के बहाने गुनाह ... भाग-(१) :-

आज की बतकही की शुरुआत करने में ऊहापोह वाली स्थिति हो रही है .. ऐसे में इसका मूल सिरा किसे मानें .. ये तय कर पाना .. कुछ-कुछ ऊहापोह-सा हो रहा है, पर कहीं ना कहीं से तो शुरू करनी ही होगी .. तो फ़िलहाल अपनी बतकही शुरू करते हैं .. किसी भी एक सिरे से .. बस यूँ ही ...

प्रायः किसी के साथ बचपन में घटी घटनाओं या यूँ कहें कि दुर्घटनाओं से जुड़ी आपबीती उसे पूरी तरह से या तो तोड़ देती है या फिर फ़ौलादी इरादों वाला एक सफल इंसान बना देती है। तो फ़िलहाल हम .. कुछेक लोगों के बचपन की घटित दुर्घटनाओं से उनके सफल इंसान बनने की सकारात्मक बातें करने का प्रयास करते हैं, तो .. एक तरफ "तस्लीमा नसरीन" जैसी को उनकी कमसिन उम्र में दी गयी अपनों (?) की यौन शोषण वाली प्रताड़नाएँ "लज्जा" और "बेशरम" जैसी अनगिनत किताबें लिखवा देती हैं; तो दूसरी तरफ अफ़्रीकी मूल की अमरीकी महिला नागरिक "ओपरा विनफ़्रे" जैसी को पारिवारिक परिमिति में ही मिली जन्मजात पीड़ा की तपन विश्व की सबसे प्रभावकारी और बहुमुखी प्रतिभाशाली महिलाओं में से एक बना देती है तथा साथ ही उपलब्ध आँकड़ों के अनुसार विश्व की पहली अश्वेत महिला अरबपति भी। तो कभी "सुज़ेना अरुंधति राय" जैसी से "द गॉड ऑफ़ स्मॉल थिंग्स" लिखवा डालती है और उस उपन्यास को बुकर पुरस्कार मिल जाता है।

यूँ तो प्रसिद्ध मनोविश्लेषक सिगमंड फ्रायड के अनुसार मनोलैंगिक विकास के सिद्धांत के अनुसार किसी भी इंसान के मनोलैंगिक विकास को पाँच अवस्थाओं में बाँटा गया है, जिसके तहत जन्म से पाँच वर्ष तक की उम्र को मानसिक या शारीरिक विकास के लिए सबसे महत्वपूर्ण चरण माना गया है। राष्ट्रीय सेवा योजना (एन एच ) के अनुसार भी बच्चों के मस्तिष्क का नब्बे प्रतिशत विकास उनके पाँचवें वर्ष से पहले तक होता है। यानी .. पाँच वर्षों तक किसी के बचपन के चित्रफलक पर जो भी घटित घटनाओं या दुर्घटनाओं के रेखाचित्र उकेरे जाते हैं, इंसान ताउम्र उन्हीं में अपने मनपसंद जीवन-रंगों को भर कर अपने भविष्य की रंगोली सजा पाता है .. शायद ...

मुताह के बहाने गुनाह ... भाग-(२) :-

आज जब बचपन से सम्बन्धित बातें चली ही है, तो इस बतकही के प्रसंगवश पचास और उसके बाद के दशकों के दौर में सामुदायिक स्तर पर बीते बचपन की बातें हमलोग आपस में बतिया ही लेते हैं। 

यूँ तो सर्वविदित है, कि बीसवीं सदी वाले पचास के दशक के उत्तरार्द्ध यानी सन् 1957 ईस्वी में .. जब शुरूआती दौर का "ऑल इंडिया रेडियो" बदल कर "आकाशवाणी" हो गया था; तब उससे प्रसारित होने वाले अधिकांशतः सामाजिक सरोकार वाले ज्ञानवर्द्धक कार्यक्रमों के साथ-साथ उसकी "विविध भारती" सेवा के माध्यम से अनेकों मनोरंजक कार्यक्रमों की भी शुरुआत हो गयी थी। मसलन - "इनसे मिलिए, संगीत सरिता, भूले बिसरे गीत, चित्रलोक, जयमाला, हवामहल, छायागीत" इत्यादि। लगभग पचास से सत्तर तक के दशक वाले प्रायः सभी बचपन व किशोरवय को लगभग इन सभी लोकप्रिय कार्यक्रमों के श्रोता बनने का अवसर प्राप्त हुआ था और आप भी शायद उनमें से एक हों .. है ना ? ..

अस्सी के दशक के पूर्वार्द्ध यानी सन् 1982 ईस्वी में दिल्ली में आयोजित अप्पू हाथी शुभंकर वाले "एशियाई खेल" के आरम्भ होने के पूर्व ही लगभग देश भर में श्वेत-श्याम दूरदर्शन की पैठ जमने के पहले तक .. देश के लगभग कोने-कोने के सभी वर्गों में रेडियो का या .. यूँ कहें कि आकाशवाणी का बोलबाला रहा है। आज की पीढ़ी के लिए प्रसून जोशी वाले "ठंडा मतलब कोका-कोला" की तर्ज़ पर हम कह सकते हैं, कि वो दौर था .. "रेडियो मतलब मर्फी" का .. शायद ...

आकाशवाणी की "विविध भारती" सेवा के उपरोक्त लोकप्रिय कार्यक्रमों में से एक- "भूले-बिसरे गीत" कार्यक्रम का आनन्द उस दौर के लोगों ने अवश्य ही लिया होगा। इस कार्यक्रम के समापन की सबसे ख़ास बात ये थी, कि प्रत्येक दिन सुबह के लगभग आठ बजे या यूँ कहें कि लगभग सात बज कर सत्तावन मिनट पर इसके समापन के समय "के. एल. सहगल" जी का गाया हुआ कोई भी एक गीत बजाया जाता था। इनके गीत बजने की घोषणा होते ही लोगबाग़ बिना घड़ी देखे सुबह के आठ बजने का अनुमान ही नहीं, वरन् पुष्टि कर लेते थे। रसोईघर में काम कर रहीं महिलाएँ काम में तेजी ले आती थीं। बच्चे अपना खेल या 'होमवर्क' छोड़ कर 'स्कूल' जाने की और वयस्क जन 'न्यूज़ पेपर' का चस्का एवं चाय की चुस्की त्याग कर तत्क्षण 'ऑफिस' जाने की तैयारी में स्फूर्ति के साथ लग जाया करते थे।लब्बोलुआब ये है, कि तत्कालीन "आकाशवाणी" के तहत "विविध भारती" से प्रसारित होने वाले कार्यक्रम "भूले-बिसरे गीत" के समापन में सहगल जी का बजने वाला गीत सुबह आठ बजने का द्योतक बना हुआ था .. शायद ...

अब ये अलग बात है, कि आज "बाबा सहगल" यानी भारतीय 'रैपर' "हरजीत सिंह सहगल" को जानने वाली वर्तमान नयी व युवा पीढ़ी "के. एल. सहगल" यानी "कुन्दन लाल सहगल" जी के नाम और काम से शायद ही अवगत होगी। परन्तु सन् 1938 ईस्वी में आए एक श्वेत-श्याम चलचित्र- "स्ट्रीट सिंगर" में भैरवी राग पर आधारित उन्हीं का गाया हुआ और उन्हीं पर फ़िल्माया हुआ एक गीत .. उस दौर के लोगों द्वारा काफ़ी बार सुना और गाया या गुनगुनाया गया है या यूँ कहें कि लगभग तीस से नब्बे तक के दशक में यह गीत काफ़ी लोकप्रिय रहा है। 

जिसका मुखड़ा है .. "बाबुल मोरा, नैहर छूटो ही जाए" .. जो दरअसल एक पूर्वी ठुमरी है। जिसमें तबला, तानपुरा के अलावा सारंगी और हारमोनियम जैसे वाद्य यंत्रों की कर्णप्रिय ध्वनि सन्निहित हैं। इस गीत के संगीतकार थे .. उस समय के जाने माने संगीतकार - आर. सी. बोराल (रायचन्द बोराल) .. इस दार्शनिक भावपूर्ण गीत को कलमबद्ध करने वाले रचनाकार ही आज की बतकही के मुख्य केंद्र बिंदु हैं।

तो आइए ! .. बतकही के इस पड़ाव पर अल्पविराम लेते हुए तनिक विश्राम करते हैं और "बाबुल मोरा, नैहर छूटो ही जाए" को  "कुन्दन लाल सहगल" जी की गुनगुनी आवाज़ में सुनते हैं .. बस यूँ ही ...


मुताह के बहाने गुनाह ... भाग-(३) :-

कहते हैं, कि हरेक इंसान के गुण व अवगुण दोनों ही होते हैं। हर इंसान में अच्छे पक्ष और बुरे पक्ष .. दोनों ही समाहित होते हैं। पर सारे गुण-अवगुण की बुनियादें इंसान के बचपन की परवरिश से बहुत हद तक प्रभावित होती हैं .. शायद ... 

एक परवरिश विशेष ही महज़ छ्ब्बीस साल की उम्र में ही किसी इंसान से एक तरफ तो "परीखाना" नामक आत्मकथा लिखवा डालती है और "परीख़ाना" नामक नृत्य और संगीत की मुफ़्त में शिक्षा दिए जाने वाले रंग महल भी बनवा देती है। जिसकी वजह से वह शहर तत्कालीन उत्तर भारत का सांस्कृतिक केन्द्र बन जाता है और दूसरी तरफ .. उसी इंसान से .. अगर उपलब्ध इतिहास को साक्ष्य मानें तो .. एक दिन में तीन-तीन और स्वयं के सम्पूर्ण जीवनकाल में तीन सौ से भी ज्यादा .. उपलब्ध आँकड़ों के मुताबिक लगभग पौने चार सौ निकाह करवा देती है। इस तरह उन इतिहास-पुरुष की एक तरफ तो सृजनशीलता की पराकाष्ठा थी, तो दूसरी तरफ अय्याशों वाली प्रवृत्ति भी थी .. शायद ...

उपलब्ध जानकारियों से पता चलता है, कि यूँ तो इस्लामी शरीया कानून एक व्यक्ति को अधिकतम चार निकाह करने की ही सशर्त अनुमति देता है; लेकिन इस्लाम के चार प्रमुख समुदायों- सुन्नी, शिया, सूफ़ी व अहमदिया में से एक- शिया समुदाय में एक अन्य प्रकार का निकाह- "मुताह निकाह" उन्हें अनगिनत निकाह की इजाज़त देता है और उसे जायज़ ठहराता है। सामान्य निकाह जिसे ताउम्र चलना चाहिए या यूँ कहें कि चलता है, इस के विपरीत "मुताह निकाह" एक तयशुदा समय पर आधारित करार भर होता है। जो करार एक दिन से साल भर तक या उससे भी ज्यादा दिनों तक का हो सकता है। लोग कहते हैं कि दरअसल ये धर्म-सम्प्रदाय की आड़ में अय्याशी करने का ही एक ज़रिया था या है। जैसे माँसाहारियों के लिए निरीह पशुओं-पक्षियों की निर्मम बलि को उचित ठहराया जाना और गँजेड़ियों-भँगेड़ियों के लिए गाँजा-भाँग तथाकथित शिव जी का प्रसाद माना जाना .. वो भी अपनी गर्दन को अकड़ाते हुए .. शायद ... .. नहीं क्या ? ...

इतिहास बतलाता है, कि वो इंसान एक भावपूर्ण ठुमरी "बाबुल मोरा, नैहर छूटो ही जाए" .. को रचने वाले सृजनशील रचनाकार होने के साथ-साथ एक अय्याश इंसान भी थे; जो कुछ मान्यताओं के मुताबिक़ अवध के आख़िरी नवाब थे और .. कुछ इतिहासकारों की मानें तो .. दरअसल अवध के आख़िरी से ठीक पहले के नवाब- "अबुल मंसूर मिर्ज़ा मुहम्मद वाजिद अली शाह" थे, जिन्हें "वाजिद अली शाह" नाम से हम सभी जानते हैं। आख़िरी नवाब उन्हीं के बेटे बिरजिस क़द्र थे। 

एक तरफ तो संगीत की दुनिया में नवाब वाजिद अली शाह का नाम अविस्मरणीय है और इन्हें संगीत विधा- "ठुमरी" का जन्मदाता भी माना जाता है। कहते हैं, कि वह एक संवेदनशील, सृजनशील एवं रहमदिल इंसान थे। फ़ारसी व उर्दू भाषा की अच्छी जानकारी होने के नाते उनके द्वारा कई किताबें लिखी गयीं, जिनमें कई कविताओं और नाटकों को भी स्थान मिला था। दूसरी तरफ उन्होंने कपड़े बदलने की रफ़्तार से भी तीव्र गति के साथ कई-कई निकाहें भी रचाई।

उनकी इन दोहरे चरित्र की पृष्टभूमि में भी उनके बचपन की परवरिश का ही असर झलकता है .. शायद ... 

अपनी आत्मकथा “परीखाना” में उन्होंने लिखा है, कि - "जब मेरी उम्र आठ वर्ष की थी, रहीमन नाम की एक औरत मेरी ख़िदमत में लगाई गई थी। उसकी उम्र तकरीबन पैंतालिस साल थी। एक दिन जब मैं सो रहा था, तो उसने मुझ पर काबू पा लिया, दबोच लिया और मुझे छेड़ने लगी। मैं डरकर भागने लगा, लेकिन उसने मुझे रोक लिया और मुझे मेरे उस्ताद मौलवी साहब से शिकायत करने का डर भी दिखलाया।" .. आगे लिखते हैं, कि - "मैं परेशान था, कि किस मुसीबत में फंस गया। फिर भी अगले दो साल तक जब तक रहीमन रही, यह रोज का सिलसिला हो गया। आगे भी .. अम्मी की लगभग पैंतीस-चालीस वर्षीया मुलाज़िम अमीरन ने भी मेरे साथ यही सब दोहराया।"

उनके अनुसार उनके ग्यारह वर्ष की उम्र तक में ही उनको औरतों के साथ हमबिस्तरी भाने लगी और रहीमनअमीरन के अलावा उन उत्कंठा भरे क्रिया-कलापों में और भी कई उम्रदराज़ मोहतरमाओं के नाम जुड़ते चले गए थे .. शायद ...

आज भी .. वो सब .. सोच कर भी .. कोई भी संवेदनशील और समानुभूति वाला मन सिहर जाता है, कि पहली बार जब एक तरफ आठ साल का अबोध बालक और दूसरी ओर पैंतालिस साल की वे कामुक महिलाएँ रहीं होंगी; तब .. उस बाल नवाब वाजिद अली शाह की क्या मनःस्थिति रही होगी भला ...

आगे "परीखाना" के अनुसार- "हर इंसान को ऊपर वाले ने मोहब्बत करने का मिज़ाज दिया है। इसे बसंत का बग़ीचा होना चाहिए, लेकिन मेरे लिए यह एक खर्चीला जंगल बन चुका है।"

इसके लिए वे उन रहीमन-अमीरन जैसी अधेड़ मोहतरमाओं को दोषी मानते हैं, जिनके जिम्मे आठ साल के शहजादे की देखरेख थी, पर वो कई सालों तक उनका यौन शोषण करती रहीं थीं। बचपन की इन्हीं सोहबतों और लतों ने उन्हें ताउम्र शाही ख़ानदान, चकलेदार, जमींदारों, ताल्लुक़ेदारों के घरानों की बेटियों के साथ-साथ कई ब्याहताओं, कोई सब्जी बेचने वाली, कई कोठे वालियों और अफ्रीकन मूल की घुंघराले बालों वाली काली लड़कियों तक से मुताह निकाह के बहाने निकाह करवाया। उस पर तुर्रा ये था, कि उनके तत्कालीन समर्थकों के मुताबिक़ नवाब वाजिद अली शाह एक ऐसे पवित्र इंसान थे, जो किसी परायी स्त्री से निकाह किए बिना उसके साथ हमबिस्तर नहीं होते थे।

ख़ैर ! ... हम सभी को इन सब में क्या करना भला ? .. ये सब तो बड़े लोगों की बड़ी-बड़ी बातें हैं। ऐसे परिदृश्य हर कालखंड में अपने स्वरूप को परिवर्तित करके स्वयं को दोहराते हैं तथा हम आमजन केवल इनकी चर्चा भर करते आए हैं और शायद .. आगे भी करते भर रह जाएंगे; क्योंकि तथाकथित समाज में किसी भी तरह के सकारात्मक बदलाव लाने की मादा है ही नहीं हमारे भीतर .. शायद ... 

आइए ! .. बतकही के अंत से पहले वाजिद अली शाह द्वारा अवधी भाषा में रचित  "बाबुल मोरा, नैहर छूटो ही जाए" को  "कुन्दन लाल सहगल" जी की जगह ताल दीपचंदी में "किशोरी अमोनकर" जी की मधुर आवाज़ में सुनते हैं .. बस यूँ ही ...

यूँ तो अवध की राजधानी पहले फ़ैज़ाबाद में थी, जो वर्तमान अयोध्या है, पर बाद में राजधानी लखनऊ बनायी गयी थी। इतिहासकारों की मानें, तो जब अंग्रेजों ने अवध पर कब्जा कर लिया और अवध के नवाब वाजिद अली शाह को अवध की तत्कालीन राजधानी लखनऊ से निर्वासित करते हुए कलकत्ता भेज दिया था, तभी उनके द्वारा एक शोक गीत के रूप में लिखा गया था ये- "बाबुल मोरा नैहर छूटो जाय" यानी अनुमानतः उन्होंने बाबुल और नैहर को अपने प्रिय शहर लखनऊ से स्वयं को ज़बरन निर्वासन के लिए बिम्ब की तरह प्रयुक्त किया होगा .. शायद ...

महज़ कुछ पँक्तियों की ये दार्शनिक कालजयी रचना अनगिनत सिद्धहस्त लोगों द्वारा समय-समय पर अपने-अपने अलग-अलग अंदाज़ में गाया गया है।

बाबुल मोरा, नैहर छूटो ही जाय

बाबुल मोरा, नैहर छूटो ही जाय

चार कहार मिल, मोरी डोलिया सजावें  

मोरा अपना बेगाना छुटो जाय

बाबुल मोरा ...

आँगना तो पर्बत भयो और देहरी भयी बिदेश

ले बाबुल घर आपनो मैं चली पीया के देश

बाबुल मोरा ...

बाबुल मोरा, नैहर छूटो ही जाय

बाबुल मोरा, नैहर छूटो ही जाय

यदि शास्त्रीय संगीत सुनते-सुनते मन अब ऊब या उचट गया हो, तो इसी गीत को फ़िल्म- "आविष्कार" के लिए फिल्माए गए जगजीत-चित्रा सिंह जी की आवाज़ में सुन लीजिए एक रूमानी अंदाज़ में .. बस्स ! .. मन बहल जाएगा .. शायद ...

https://youtu.be/FImnFvwuPfg?si=5yrS8bBwSOARuDlW

और हाँ .. चलते-चलते एक विषयान्तर बात .. कि जब कभी भी आपके पास फ़ुर्सत और मौका दोनों हो, तो .. दिवंगत किशोरी अमोनकर जी के इस लगभग पौन घंटे लम्बे साक्षात्कार का अवश्य अवलोकन कीजिएगा और .. साहित्य व संगीत के संगम में गोते लगाइएगा .. उम्मीद है आनन्द और ज्ञानवर्द्धन .. दोनों ही होगा .. बस यूँ ही ...

इस बतकही के बहाने .. बतकही के अंत में .. उपरोक्त सभी विभूतियों को हम सभी के मन से शत्-शत् बार नमन 🙏 .. बस यूँ ही ... 

Thursday, April 18, 2024

पुंश्चली .. (३९) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)


प्रत्येक वृहष्पतिवार को यहाँ साझा होने वाली साप्ताहिक धारावाहिक बतकही- "पुंश्चली .. (१)" से "पुंश्चली .. (३८)" तक के बाद पुनः प्रस्तुत है, आपके समक्ष "पुंश्चली .. (३९) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" .. बस यूँ ही ...  :-

गतांक का आख़िरी अनुच्छेद :-

जज साहब - " नहीं माखन .. तुम्हारा मंगड़ा तो शारीरिक रूप से भले ही हिजड़ा हो सकता है, पर .. इस 'केस' में तो .. मानसिक रूप से सबसे बड़ा हिजड़ा तो .. सुगिया की लाश का 'पोस्टमार्टम रिपोर्ट' तैयार करने वाली 'डॉक्टरों' की 'टीम', इस 'केस' की तहकीकात करने वाली ख़ाकी वर्दीधारियों की 'टीम', मंगड़ा के विरुद्ध झूठी  गवाही देने वाले सारे गवाह, उसके विरुद्ध झूठे सबूत इकट्ठा करने वाले लोग, 'केस' लड़ने वाले दोनों पक्षों के वक़ील और वास्तव में उस नाबालिग सुगिया के साथ बलात्कार करने वाला बलात्कारी व उसका हत्यारा भी है .. इन सारे हिजड़ों से अपने समाज-देश को हम सभी को मिलकर मुक्त कराने की आवश्यकता है .. शायद ..."

 गतांक के आगे :-

जज साहब ने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए ...

 जज साहब - " जिस प्रकार अप्रत्याशित रूप से मंगड़ा के नंगेपन ने समाज को नंगा करते हुए आज के इस 'केस' को एक नयी मोड़ की ओर क़दमताल करने के लिए मज़बूर कर दिया है .. जिस प्रकार नंगेपन की रोशनी में वर्षों से माखन द्वारा अपने बेटे मंगड़ा के जन्मजात हिजड़ा होने वाली बात या यूँ कहें कि उस भेद को दफ़नाने के प्रयास के बाद भी आज .. अभी .. मजबूरीवश ही सही पर .. उसी के द्वारा उजागर होना पड़ा है, तो .. अब न्यायपालिका को भी इस 'केस' को पुनः सत्यता के आलोक में सही से टटोलते हुए अवलोकन करने के लिए मजबूर होना होगा और .. इसके लिए कुछ और अतिरिक्त समय की भी आवश्यकता होगी .. "

जज साहब की इन बातों के मध्य यहाँ उपस्थित सभी आम और ख़ास लोगों के बीच उत्सुकतावश एक खुसुर-फुसुर व्याप्त हो गयी है। तभी जज साहब की रौबदार आवाज़ सभी के कानों के पर्दे से टकरा रही है। 

जज साहब - " इस 'केस' की और भी गहन जाँच की आवश्यकता है। इस की आज की सुनवाई को अगली सुनवाई तक के लिए मुल्तवी की जाती है। "

इसके बाद सभी की भीड़ छंटनी शुरू हो गयी है। पर मंगड़ा जड़वत खड़ा है। माखन को भी जज साहब की बातें .. कुछ-कुछ पल्ले पड़ी है और बहुत कुछ नहीं भी। अब हाथों में हथकड़ी लगाकर मंगड़ा को सिपाहियों की एक टोली पुनः कारागार के लिए ले जा रही है। मन्टू और रेशमा व उस की टोली भी माखन पासवान के साथ समानुभूति महसूस करते हुए मंगड़ा के निर्दोष होते हुए भी इतने दिनों तक 'जेल' में बन्द रह कर मानसिक और शारीरिक कष्ट झेलने और साथ में माखन की आर्थिक चोट से कुछ दुःखी हैं और .. उसके मृत्युदंड के मुँह से निकल कर कुशलता से वापस लौट आने की एक आशा से कुछ ख़ुशी भी महसूस कर पा रही है।

किसी भी हृदय विदारक घटना वाले दृश्य समाचारों के प्रकाशन-प्रसारण को देखने-सुनने का या फिर किसी के 'रील' बनाने का साधन मात्र हो सकता है, परन्तु जिस मजबूर और लाचार के साथ वह घटना विशेष घटित होती है, उसके लिए तो दुर्घटना ही है। अपने देश के कई राज्यों में किसी सरकार विशेष के संरक्षण में माफ़ियाओं की तूती बोलती नहीं, बल्कि हुँकारती रही थी या कहीं-कहीं आज भी हुँकार रही हैं .. शायद ...

रेशमा - " चच्चा ! .. कबीर ने कितना ही सच कहा है ना ! कि .. जाको राखे साइयाँ, मार सके न कोय ... "

मन्टू - " ऐसा भी नहीं है रेशमा .. अगर ऐसी ही बात है तो .. सुगिया के बलात्कार और उसकी हत्या के वक्त ये तथाकथित साइयाँ कौन से तहखाने में अँधे-गूँगे और बहरे भी बने हुए पड़े थे, जो उन्हें नाबालिग सुगिया की चीखें नहीं सुनाई दी .. उसके अंग-प्रत्यंग के बहते लहू नहीं दिखायी दिए .. उन्हें क्या केवल बलि और क़ुर्बानी के ही ख़ून नज़र आते हैं ? "

रेशमा - " ख़ैर ! .. ये मंगड़ा का बच कर कारागार से बाहर आना भी तो तभी सम्भव है, जब जल्द से जल्द यथासमय सुनवाई हो जाए .. "

मन्टू - " अगर एक-सवा महीने के भीतर फ़ैसला हो पाया तो ठीक, वर्ना .. मई माह के अंत से लेकर जुलाई महीने के आरम्भ तक में सात सप्ताहों की इनकी गर्मी की छुट्टियाँ हर वर्ष होती हैं और इस वर्ष भी हो जायेगी .. "

रेशमा - " ये भी तो एक तरह की मुफ्तख़ोरी ही हुई ना ! .."

मन्टू - " बेशक़ .. आज अंग्रेजों के भारत से चले जाने के पश्चात भी अंग्रेजों द्वारा उस समय उनकी अपनी सुविधा और सहजता के लिए जो लम्बे ग्रीष्मावकाश के क़ायदे बनाए गए थे, वो आज कई दशकों के बाद भी अनुचित होते हुए भी उचित ठहरा कर लागू किया हुआ है .."

रेशमा - " वो भी तब, जबकि .. कई मामले आज भी वर्षों से लम्बित पड़े हैं अपने देश में .. "

सुषमा - " तभी तो सन्नी पा जी फ़िल्म में 'डॉयलॉग' बोलते हैं .. तारीख़ पर तारीख़ .. तारीख़ पर तारीख़ .. है कि नहीं ? ..."

रेशमा - " फिर ठिठोली सूझी तुमको ? .. आयँ ! .. "

सुषमा - " नहीं .. वो तो ऐसे ही .. मुँह से निकल गया .. 'सॉरी' दी' (दीदी) .. "

मन्टू - " और पता है .. संविधान के अनुसार सरकार को मिलने वाले सभी शुल्कों और करों जैसे राजस्वों या फिर ..  ऋणों की वापस से वसूली के द्वारा प्राप्त सारे के सारे धन संचित निधि में जमा किये जाते हैं .."

रेशमा - " हाँ .. ये सब .. थोड़ा-थोड़ा तो मालूम है .. मयंक और शशांक भईया बतलाए थे एक बार .."

मन्टू - " हम तुमको ये सब बतलाने के लिए नहीं बोल रहे .. बल्कि .. ये बतला रहे कि .. पूरे वर्ष भर में इनकी इतनी लम्बी-लम्बी छुट्टियों के बाद भी इन्हीं संचित निधि से इनके वेतनों का भुगतान किया जाता है .. "

रेशमा - " अच्छा ! .. मतलब सुबह से शाम तक हम जैसे आम लोग अपने इस्तेमाल किए गए साबुन-तेल की क़ीमत के साथ-साथ जो भी 'टैक्स' की भुगतान करते हैं .. वो भी दिन-रात ख़ून-पसीना एक कर के कमाए गए पैसों से .. उन्हीं से इनको वेतन मिलते हैं ? .. "

मन्टू - " हाँ .. ऐसा ही है .. और उस पर तुर्रा ये है कि .. पूरे साल ये लोग लम्बी-लम्बी छुट्टियों में ऐश करते हैं .. सात सप्ताह मतलब पौने दो माह की ग्रीष्मकालीन छुट्टी के अलावा ये लोग दो सप्ताह के शीतकालीन अवकाश को भी भोगते हैं .. जिन पर तीन सौ सत्तर और तीन तलाक़ की तरह ही पाबंदी लगनी ही चाहिए .. नहीं क्या ? .."

【आज बस .. इतना ही .. अब शेष बतकहियाँ .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (४०) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】


Thursday, April 11, 2024

पुंश्चली .. (३८) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)


प्रत्येक वृहष्पतिवार को यहाँ साझा होने वाली साप्ताहिक धारावाहिक बतकही- "पुंश्चली .. (१)" से "पुंश्चली .. (३७)" तक के बाद पुनः प्रस्तुत है, आपके समक्ष "पुंश्चली .. (३८) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" .. बस यूँ ही ...  :-

गतांक का आख़िरी अनुच्छेद :-  

वैसे तो मंगड़ा को 'आईपीसी' की धारा यानी भारतीय दंड संहिता की धारा 376 के तहत सुगिया के बलात्कार के लिए आजीवन कारावास की सजा हो सकती थी, परन्तु .. भारतीय दंड संहिता की धारा 302 के अनुसार उसी सुगिया की हत्या के अपराध के लिए उसे मृत्युदंड से दंडित किया गया है। अब ऐसे में माखन का अगला क़दम क्या होगा या हो सकता है .. उसे अगले भाग में देखते हैं .. बस यूँ ही ...

गतांक के आगे :-

एक नाबालिग बाला के बलात्कार और हत्या के एक अपराधी के लिए संविधान सम्मत और विधिवत् मृत्युदंड की घोषणा हो चुकी है। 

जिससे आए हुए समाचार पत्रों के सभी पत्रकारों को अपने-अपने समाचार पत्रों के भावी कल वाले मुखपृष्ठ की  'हेड लाइन' के साथ-साथ .. उनके 'कैमरा मैनों' के 'कैमरों' को भी मन भर ख़ुराक मिल गयी है; वह भी इसलिए कि अभी चुनाव का मौसम नहीं है, वर्ना .. उस मौसम में तो मुखपृष्ठ की 'हेड लाइनों' पर तो सभी विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं-मंत्रियों के मौखिक जूतमपैजार का ही एकाधिकार रहता है। 

साथ ही दूरदर्शन के विभिन्न ख़बरी 'चैनलों' से आये हुए 'प्रेस रिपोर्टरों' को भी आज तो जैसे दिन-रात अपने-अपने 'चैनलों' पर चलाते रहने के लिए 'ग्राउंड ज़ीरो' से एक 'रेडीमेड बाइट' मिल गयी है। अगर आज भी 'मोबाइल' के विभिन्न 'ऐप्पों' व 'टी वी' के कई 'चैनलों' के प्रकोपों से साप्ताहिक, पाक्षिक या फिर मासिक पत्रिकाओं की दुर्गति नहीं हुई होती तो .. कई सारी पत्रिकाओं के 'कवर पेज' पर भी आज की ये घटना अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराने की मादा रखती है।

इन सभी 'रिपोर्टरों' के अलावा अधिकतर लोगबाग को तो केवल इस घटना से दो-चार दिनों तक या फिर ज्यादा से ज्यादा सप्ताह या पन्द्रह दिनों तक के लिए चर्चा का एक विषय भर मिल गया है। अगर टपोरी भाषा में कहें तो .. एक मसाला मिल गया है, जिसकी चटखारे के साथ चर्चा कर-कर के ये सभी बस अपने आप को एक पाक-साफ़ और चरित्रवान इंसान होने की स्वघोषणा करते नज़र आयेंगे। 

पर वास्तव में .. ऐसा ही कुछ .. मंगड़ा या माखन या फिर रेशमा व मन्टू के लिए भी है क्या ? या .. हो सकता है क्या ? ना .. ना-ना .. कदापि नहीं .. मंगड़ा तो वैसे भी गूँगा है .. कुछ बोल ही नहीं सकता .. केवल "उं .. आँ .." करने के ; पर माखन तो जैसे .. आख़िरी फ़ैसला आते ही .. नाउम्मीद होकर एक विद्युत बाधित शिथिल यंत्र की तरह बेजान-से हो गए हैं। अभी भी कचहरी की प्रक्रिया का आख़िरी दौर चल रहा है .. तभी रेशमा की नज़रों के सामने से अचानक-से अपनी शिथिलता त्यागते हुए .. माखन विद्युत गति से .. यूँ गए और यूँ आ गए हैं वापस .. उनके पीछे-पीछे मन्टू भी भागा और वापस भी आया है। 

अब वापस आए हुए माखन के हाथ में, भरसक छुपाने का असफल प्रयास करते हुए, एक बड़ा-सा चाकू है .. जिसे देख कर रेशमा किसी भावी अनहोनी के भय से मन्टू की ओर सवालिया निगाह से देख रही है। मन्टू के अनुसार माखन चच्चा पास वाले होटल में सलाद काट रहे कारीगर के हाथ से चाकू झपट कर ले आये हैं। 

अभी मन्टू ये सब रेशमा को बतला ही रहा है, तब तक माखन चच्चा अपने पास ही खड़े दो-चार सिपाहियों के क़ब्ज़े में हथकड़ी लगे मंगड़ा की ओर मानो अपनी समस्त संचित ऊर्जा से सिंचित होकर लपके हैं और ... कचहरी में या आसपास उपस्थित सभी गणमान्य बुद्धिजीवी लोग या फिर जनसाधारण को कुछ भी समझने से पहले और सिपाहियों के रोकते-रोकते .. उन्होंने उसी सलाद काटने वाले चाकू से ज़बरन मंगड़ा के पायजामे का नाड़ा काट दिया है .. शायद ...

ले लोट्टा !!! .. सभी सभ्य जनों के समक्ष मंगड़ा के पायजामे का नाड़ा कटते ही उसका पायजामा सर्र-से नीचे सरक गया है और वह कमर के नीचे से पूरी तरह नंगा हो गया है .. फलस्वरूप अचानक एक हड़कंप-सा मच गया है .. सभी के सभी .. जो कोई भी सामने से मंगड़ा को नंगा देख पा रहे हैं .. सभी की आँखें अचरज से फ़ैली हुई हैं .. साथ में सभी 'कैमरा मैनों' के 'कैमरे' की आँखें भी फिर से खुल गयीं हैं। कुछेक की भृकुटियाँ भी तन गयीं हैं .. अचरज व क्रोध के मिश्रित भाव लगभग सभी के चेहरे से झलक रहे हैं .. सभी की आपसी कानाफूसी वाली बुदबुदाहट से कमरे में एक अजीबोग़रीब माहौल बन गया है।

रेशमा - " अरे ! .. मन्टू भईया ! .. ये मंगड़ा तो हमारी तरह ही हिजड़ा है ! .. हाय राम ! .. "

मन्टू - " हाँ ! .. वो तो अब दिख रहा है .. फिर भला मंगड़ा कैसे बलात्कार ... "

रेशमा - " चच्चा ने तो ऐसा कभी बतलाया भी नहीं था .."

जैसे .. एक कमजोर कुतिया के भी पिल्ले को अगर कोई बड़ी चार पहिया वाली गाड़ी चोटिल कर देती है, तो वह उस गाड़ी या गाड़ी के मालिक की तुलना में कमजोर होते हुए भी प्रतिक्रियास्वरुप अपनी ताक़त भर भौंकने से नहीं चूकती है .. वैसे ही .. तभी दहाड़ मारते हुए अपनी पूरी ताक़त के साथ माखन चिल्ला-चिल्ला कर जज साहब को सामने से बोल पड़ते हैं ...

माखन पासवान - " साहिब !!! .. हमारा मंगड़ा हिजड़ा ही पैदा हुआ था और आज भी हिजड़ा ही है तो .. तो ये भला सुगिया के साथ वो सब काम कैसे कर सकता है ? .. जज साहिब ये तो उसको अपना बहन मानता था .. हर साल उससे राखी बँधवाता था .. फिर ... "

जज साहब - " फिर ये बात आज तक तुम ने 'कोर्ट' के सामने दलील देते हुए क्यों नहीं रखी थी ? "

माखन पासवान - " साहिब ! .. हमारी मज़बूरी थी .. हम तो मंगड़ा के जनम के समय ही जान गए थे कि ये हिजड़ा पैदा हुआ है। फिर भी आज तक बड़ी मुश्किल से हम और हमारी मेहरारू मिलकर सारे गाँव-घर से ये बात छुपाए रहे .. "

जज साहब - " क्यों भला ? "

माखन पासवान - " आप लोग तो पढ़े-लिखे हैं .. आप लोगों को तो दुनिया भर की जानकारी है। आप तो जानते ही हैं कि हमारे समाज में हिजड़े के साथ लोग कैसे पेश आते हैं। "

जज साहब - " आज तो ऐसी बातें नहीं हैं। आज तो इनके पक्ष में कई सारे क़ानून बनाए गए हैं .. "

माखन पासवान - " ये सब कहने की बातें हैं जज साहिब .. पर क्या सच में स्थिति बदली है ? नहीं साहिब .. नहीं .. अगर इसके जनम के समय ये बात खुल जाती तो हिजड़े लोग उठा कर इसको ले जाते अपनी टोली में शामिल करने के लिए .. जो हम दोनों .. मियाँ-बीवी को मंजूर नहीं था साहिब .. भला कैसे अपनी औलाद को अपनी आँखों से दूर जाते हुए बर्दाश्त कर पाते .. ? .."

जज साहब - " मगर .. अगर पहले ये भेद बतला दिए होते तो 'केस' का रुख़ कुछ और होता .. "

माखन पासवान - " हम ज़ाहिल लोग .. आप पढ़े-लिखे लोगों पर बहुत भरोसा करते हैं साहिब .. हमने भी अपनी सारी जमा-पूँजी लुटा कर .. इन वक़ील साहब पर बहुत भरोसा रखे साहिब .. सोचे कि ये वक़ील साहेब हमारे मंगड़ा को बचा लेंगे, क्योंकि ..  ये तो ऐसा कुछ किया भी तो नहीं था .. "

जज साहब - " फिर .. अचानक अभी ये भेद खोलने का मतलब ? .."

माखन पासवान - " अरे साहिब ! .. हम दोनों प्राणी इसके जनम के बाद से ही कोई भी संतान की कामना नहीं किए .. समाज-पंडितों के अनुसार वंश चलाने जैसी बातों को भी दरकिनार करके .. सारा का सारा अपना प्यार-दुलार इसी पर लुटा दिए .. अब आज .. इसी मंगड़ा के फ़ाँसी लगने की नौबत आ गयी है तो .. क्या करें .. सच को सामने लाना हमारी लाचारी हो गयी है साहिब .. "

जज साहब - " तुम्हारी आज की इस बयानबाजी ने तो .. इस 'केस' की फिर से सुनवाई करने के लिए हम सभी को मज़बूर कर दिया है और .. साथ ही .. सही मायने में हिजड़ा कौन-कौन है ? .. ये एक प्रश्न-चिन्ह खड़ा कर दिया है .. "

माखन पासवान - " हिजड़ा ? .. हिजड़ा तो खाली हमारा मंगड़ा है साहिब .. है ना साहिब  ? .."

जज साहब - " नहीं माखन .. तुम्हारा मंगड़ा तो शारीरिक रूप से भले ही हिजड़ा हो सकता है, पर .. इस 'केस' में तो .. मानसिक रूप से सबसे बड़ा हिजड़ा तो .. सुगिया की लाश का 'पोस्टमार्टम रिपोर्ट' तैयार करने वाली 'डॉक्टरों' की 'टीम', इस 'केस' की तहकीकात करने वाली ख़ाकी वर्दीधारियों की 'टीम', मंगड़ा के विरुद्ध झूठी  गवाही देने वाले सारे गवाह, उसके विरुद्ध झूठे सबूत इकट्ठा करने वाले लोग, 'केस' लड़ने वाले दोनों पक्षों के वक़ील और वास्तव में उस नाबालिग सुगिया के साथ बलात्कार करने वाला बलात्कारी व उसका हत्यारा भी है .. इन सारे हिजड़ों से अपने समाज-देश को हम सभी को मिलकर मुक्त कराने की आवश्यकता है .. शायद ..."

 【आज बस .. इतना ही .. अब शेष बतकहियाँ .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (३९) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】

Monday, April 8, 2024

और मन-मृदा में ...

आज भले ही

हों हम दोनों 

एक-दूजे से

पृथक-पृथक,

वृहद् जग में ..

हो हमारा

भले ही तन पृथक;

तन वृद्ध और

थका हुआ भी ..

ना हों अब शेष वो

मिलापों की हरियाली,

ना ही ..

कामातिरेक के धूप,

ना बचे हों शेष

गलबहियों के पुष्प .. शायद ...


पर .. है आज भी

मन अथक

और मन-मृदा में

आज भी ..

हैं जड़ें जमीं 

यादों की तुम्हारी,

हों जैसे 

सुगंध लुटाती,

महमहाती ..

शेष बची

जड़ें ख़स की .. 

क्योंकि .. मेरे लिए तो

ख़ास थीं तुम कल भी,

हो आज भी और ..

रहोगी ताउम्र कल भी .. बस यूँ ही ...

Thursday, April 4, 2024

पुंश्चली .. (३७) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)

प्रत्येक वृहष्पतिवार को यहाँ साझा होने वाली साप्ताहिक धारावाहिक बतकही- " पुंश्चली .. (१)" से "पुंश्चली .. (३६)" तक के बाद पुनः प्रस्तुत है, आपके समक्ष "पुंश्चली .. (३७) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" .. बस यूँ ही ...  :-

गतांक का आख़िरी अनुच्छेद :-

कोई भी इंसान जब कभी भी किसी अन्य दुःखी इंसान के लिए पनपी सहानुभूति के दायरे को फाँद कर समानुभूति के दामन में समाता है, तो .. उसकी भी मनोदशा .. कुछ-कुछ रेशमा जैसी ही हो जाती है। कहते हैं कि .. बहुत ही उत्तम प्रारब्ध होता है उनलोगों का .. जिनके लिए हर परिस्थिति में हर पल किसी अपने या पराए की समानुभूति की प्रतीति होती हैं .. शायद ...

गतांक के आगे :- 

गत सप्ताह भी नियत दिन (गत वृहष्पतिवार) को "पुंश्चली .. (३७)" परोसने के बजाय .. हम आज परोस रहे हैं और इस अपराध के लिए क्षमायाचना भी नहीं कर रहे हैं। कारण .. अगर नियत दिन को परोसता भी तो उसमें वही .. मंगड़ा पर चल रहे केस के आख़िरी दिन कचहरी में चलने वाली दलीलें .. वही ‘माई लॉर्ड’, 'मिलॉर्ड', ‘ऑनरेबल कोर्ट’ या 'ऑर्डर-ऑर्डर' जैसे कुछेक शब्दों वाले गुलेलों के चलने के साथ-साथ .. वादी-प्रतिवादी के वक़ीलों और जज साहब के जिरह चल रहे होते, कटघरे में खड़े गवाहों के कुछ सही या फिर कुछ फ़र्जी बयानात दर्ज़ हो रहे होते .. जो ना तो माखन पासवान या मंगड़ा जैसे लोगों के पल्ले पड़ने वाला था या है भी और .. ना ही .. रेशमा या मन्टू जैसे आम इंसानों को भी .. शायद ...

ये सब समझना तो बुद्धिजीवियों के बूते की ही बात है। अब ऐसे घटनाक्रम को लिखने के लिए .. उसकी समझ भी तो हम जैसे ओछी बतकही करने वाले लोगों को भी होनी चाहिए ना ? जोकि .. तनिक भी नहीं है। वैसे भी अगर जानकारी होती भी तो .. हम क्या उखाड़ लेते भला कचहरी में। वहाँ तो न्याय करने के लिए विशिष्ट लिबासों वाले पढ़े-लिखे लोगों की जमात भरी पड़ी ही है, जो हमारे देश के संविधान-कानून के दायरे वाले साँचे में गढ़ते हुए .. गवाहों के बयानात वाले कच्चे-पक्के रंग-रोगनों से सजा कर .. गांधारी की तरह आँखों पर पट्टी चढ़ी न्याय की देवी  को जन्म देते हैं .. शायद ...

इस घटनाक्रम से जुड़े .. मंगड़ा, माखन, मन्टू और रेशमा जैसे सारे लाचार-मज़बूर और ग़रीब पात्रों को हर बार अन्ततः कचहरी के आख़िरी फ़ैसले को ही मानना होता है .. वर्ना उसकी अवमानना हो जाएगी। पर अभी .. इस माहौल में ऊहापोह का झंझानिल अगर सबसे ज्यादा वेग के साथ किसी के मन में है, तो .. वह माखन पासवान ही है। बाकी लोग तो उस वेग से आंशिक रूप से ही प्रभावित हैं और अधिकांश लोग तो बस्स .. मूक दर्शक भर ही हैं .. जो या तो .. बलात्कार एवं हत्या के लिए उस बलात्कृत व मृत नाबालिग सुगिया में ही मीनमेख निकालने का प्रयास करने वाले लोग हैं या फिर कुछ तथाकथित दोषी गूँगा मंगड़ा को कोस रहे हैं। कुछ लोग तो .. राज्य और केन्द्र में सत्तारूढ़ सरकार को भी इस जघन्य अपराध के लिए बारी-बारी से दोषी ठहरा रहे हैं। लब्बोलुआब ये है कि .. जितने मुँह .. उतनी ही बातें .. शायद ...

ऐसे मौके पर माखन के मनोबल का संबल बनी रेशमा ही केवल उसकी मानसिक या आर्थिक पीड़ा को महसूस कर पा रही है, तो माखन कपस- कपस कर रोता हुआ उससे अपने मन की बात कह रहा है ...

माखन - " मंगड़ा भले ही गूँगा है .. पर अगर उससे इशारे में गीता की क़सम खिलायी जाए कि .. गीता की क़सम खा कर कहते हैं, कि हम जो भी कहेंगे सच कहेंगे, सच के सिवा कुछ भी नहीं कहेंगे .. या हम से भी क़सम खिलवा लिया जाए तो .. तब तो हम बाप-बेटा झूठ नहीं बोलेंगे ना बेटा ? ये लोग आज तक क़सम क्यों नहीं खिलवा रहे हैं ? " 

रेशमा - " चच्चा .. ये सब पुरानी बातें हैं .. अंग्रेज़ों के ज़माने की .. आज के दिनों में अपने देश के कानून में गीता, कुरान या किसी भी धार्मिक किताब का कोई भी चर्चा नहीं है। दरअसल अपने देश की फिल्मों में आज भी उस प्राचीन ज़माने की प्रथा को ही दिखालाया जाता है, जिनमें गवाह को उनके धर्म-सम्प्रदाय के अनुसार गीता या कुरान पर हाथ रखकर कसम खानी होती है और हमलोगों को लगता है कि अदालत में ऐसा ही होता है। "

माखन - " अच्छा ! .. हमलोग जैसा जाहिल लोग क्या जाने ये सब .. नया-नया चलन-परिवर्तन भला .."

रेशमा - " हाँ चच्चा ! .. आज अपने देश की अदालतों में यह प्रथा प्रचलन में नहीं है। "

माखन - " हाँ .. अब समझ गए .. "

रेशमा - " चच्चा ! .. सिनेमा और टी वी सीरियल सब में बहुत सारा चीज झूठ-मुठ के परोसा जाता है और हम सब अपनी गाढ़ी कमाई और क़ीमती समय ख़र्च करके उसे देखने जाते हैं। और तो और .. सिनेमा-सीरियल में बस्स .. केवल एक गुहार भरे गीत गाने के बाद किसी मरणासन्न के उठ बैठने पर हमलोग ताली भी बजाते हैं। "

मन्टू - " दोषी कौन है ? .. हम ही लोग ना .. "

रेशमा - " हाँ .. उधर चर्च का घंटा बजता है और इधर हीरो-हीरोइन के घर में कोई खुशखबरी आ जाती है। धातु के एक मामूली-से टुकड़े पर सात सौ छियासी उकेरा हुआ हो तो .. वह धातु का टुकड़ा हीरो विशेष को गोली लगने से बचा लेता है .. सारी की सारी .. निरी कोरी  बकवास .. "

पर इनकी बकवासों के बीच अभी समय तेजी से सरकता जा रहा है और अन्ततः अभी माखन पासवान के बाइस वर्षीय गूँगे बेटे- मंगड़ा पर लगे गाँव के ही धनेसर कुम्हार की सोलह साल की बेटी सुगिया के साथ बलात्कार करने और हत्या करने के आरोप में पिछले छः महीने से चल रहे 'केस' की सुनवाई के बाद फ़ैसला आने ही वाला है और लीजिए .. आ ही गया ...

वैसे तो मंगड़ा को 'आईपीसी' की धारा यानी भारतीय दंड संहिता की धारा 376 के तहत सुगिया के बलात्कार के लिए आजीवन कारावास की सजा हो सकती थी, परन्तु .. भारतीय दंड संहिता की धारा 302 के अनुसार उसी सुगिया की हत्या के अपराध के लिए उसे मृत्युदंड से दंडित किया गया है। अब ऐसे में माखन का अगला क़दम क्या होगा या हो सकता है .. उसे अगले भाग में देखते हैं .. बस यूँ ही ...

【आज बस .. इतना ही .. अब शेष बतकहियाँ .. आगामी वृहष्पतिवार को ..  "पुंश्चली .. (३८) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】