Monday, August 16, 2021
जलुआ नहीं जी, जलवे ...
Sunday, August 15, 2021
एक मीरा नहीं, कईं मीराएँ ...
Saturday, August 14, 2021
क्षुप कईं मेंथा के ...
Thursday, August 12, 2021
कभी-कभार ही सही ...
Wednesday, August 11, 2021
ज्वलंत समस्या दिवस ...
Tuesday, August 10, 2021
आसमां में कहीं पर ...
Sunday, August 8, 2021
ज़ालिम लोशन है ना !!! ...
ओलम्पिक में स्वर्ण पदक लाते ही, लाने वाले (नीरज चोपड़ा) की वाहवाही करते हुए कोई भी नहीं थक रहा। रजत पदक या कांस्य पदक लाने वालों (या वालियों) के साथ भी कमोबेश ऐसा ही किया जा रहा है। सब अपनी-अपनी औक़ात के मुताबिक़, अपने-अपने तरीके से 'सोशल मीडिया' के 'वेब पन्ने' को भर रहे हैं। परन्तु सबसे अचरज की बात तो ये है, कि जो इंसान बिना आरक्षण के सेना में सूबेदार के पद को ग्रहण किया और बिना आरक्षण वाले लाभ के ही, अपनी योग्यता के बलबूते टोक्यो के मैदान वाले ओलम्पिक से स्वर्ण पदक ले कर अपने स्वदेश का नाम रौशन किया ; उस जैसे व्यक्ति को, देश के भविष्य की चिन्ता किए बग़ैर, अपने वोट बैंक के लिए रेवड़ी की तरह आरक्षण को बाँटने वाले और देश के स्वास्थ्य की बजाय, अपने स्वार्थ के लिए लंगर की तरह मुफ़्त में आरक्षण को भकोसने वाले लोग भी बधाई देने में तनिक भी शरमाते हुए नहीं दिखे .. उन्हें अपनी करनी पर किसी भी तरह की ग्लानि या मलाल के एहसास का कतरा मात्र भी नहीं। आपने इस बात को/पर ग़ौर किया क्या ??? ख़ैर ! .. छोड़िए भी इन बातों को .. बस ! .. जैसे चलता है , चलने दीजिए .. अब हम इन से परे रुख़ कर लेते हैं, आज की मूल बतकही की तरफ .. बस यूँ ही ...
अक़्सर बड़े-बड़े बुद्धिजीवी सुधीजनों और साहित्यकारों की बातें पढ़-सुन कर हम जैसे स्वान्तः सुखाय लिखने वाले नौसिखुए लोगों को भी यदाकदा कुछ-कुछ सीखें मिलती रहती हैं .. बस यूँ ही ...
अपनी ही औलाद 'टॉपर' ... :-
पर कुछ-कुछ बातें अटकती भी हैं, अंटती ही नहीं हमारे भेजे में, लाख अटकलें लगा लें हम। मसलन - समाज में किये गए तथाकथित सवर्णों और पिछड़ी जातियों की तरह ही, बहुतेरे बुद्धिजीवी ब्लॉगर (माफ़ कीजियेगा - चिट्ठाकार लोग) "ब्लॉग" और "फ़ेसबुक" को भी दो अलग-अलग वर्गों में बाँट कर देखते है। साथ ही, हमने अक़्सर तथाकथित उन जैसे चिट्ठाकारों को उपरोक्त "अल्पसंख्यक" वाली ख़ुशफ़हमी में देखा-पढ़ा-सुना है, कि वह अपने आप को तुलनात्मक कुछ उच्च श्रेणी का महसूस कर अपनी गर्दन अकड़ाते थकते नहीं हैं। जबकि "ब्लॉग" और "फ़ेसबुक", दोनों ही विभिन्न उपग्रहों के रहमोकरम पर चलने वाले और विदेशों से उधार लिए गए सोशल मीडिया के शुद्ध वैज्ञानिक वेब पन्ने हैं। वैसे भी इन दोनों के अलावा, अन्य और भी कई सोशल मीडिया के मंचें भी, ना तो किसी तथाकथित विश्वकर्मा भगवान के निर्माण के हिस्सा हैं और ना ही तथाकथित हनुमान जी द्वारा लायी गयी संजीवनी बूटी की तरह लाए गए हैं ; बल्कि विश्वस्तरीय वैज्ञानिकों के अथक परिश्रम के ये परिणाम है। वैसे तो स्वदेश - प्रेम एक अच्छी बात है, लेकिन हमें इतना भी अँधा प्रेम नहीं होना चाहिए, कि केवल अपनी ही औलाद 'टॉपर' दिखे और मुहल्ले या शहर भर की फिसड्डी .. शायद ...
यूँ तो .. तुलना की जाए, तो "फ़ेसबुक" कई सारे मामलों में "ब्लॉग" से ज्यादा ही सुगम और सरल है। इसी कारणवश इसके उपभोक्ता भी तुलनात्मक रूप से ज्यादा हैं, तो वहाँ भीड़ भी ज्यादा है। अगर हम "फ़ेसबुक" को भी धैर्यपूर्वक खंगालेंगे, तो वहाँ भी साहित्य की कई-कई प्रसिद्ध हस्तियाँ हमको मिल जायेंगीं ; जो हम (?) और आप जैसों से कई गुणा बेहतर भी हैं। वहीं दूसरी ओर 'ब्लॉग' पर भी आपको मुझ जैसे टुच्चे विचरते नज़र आ ही जाते हैं, जो तथाकथित सभ्य, सज्जन साहित्यकार या चिट्ठाकार लोगों की श्रेणी में कतई नहीं आते हैं .. बस यूँ ही ...
वैसे भी "ब्लॉग" और "फ़ेसबुक" के वर्ग विभाजन की हमको कोई ठोस वजह नज़र नहीं आती है। हो सकता है .. शायद ये मेरी अज्ञानता हो। हमें तो लगता है , कि ITC की मँहगी बिकने वाली कॉपी- Classmate या JYOTI PAPER INDUSTRIES की Jyoti कॉपी पर रामायण या हनुमान चालीसा लिखी जाए या फिर किसी साधारण कागज पर; तो तीनों परिस्थितियों में, किसी आस्तिक हिंदू की नज़र में, धार्मिक दृष्टिकोण से तो वह समान ही महत्व रखेगा ना !? फिर .. अगर देखा जाए, तो ऑस्कर अवार्ड प्राप्त फ़िल्मों के लिए कोई अलग सिनेमा हॉल भी तो नहीं होता है। वो सारी फ़िल्में भी तो लगती हैं, उसी मल्टीप्लेक्स में, जहाँ "शोले" जैसी चलताऊ या "जय संतोषी माँ जैसी भ्रामक फ़िल्में चलती हैं। हाँ ... उनमें जाने वाले दर्शकों के वर्ग अपनी-अपनी दिलचस्पी के अनुसार जाते हैं। फ़िल्में निम्न या उच्च हो सकती हैं, पर सिनेमा हॉल से उसके अच्छी या बुरी होने की बात तय नहीं हो सकती है। उसी तरह, रचनाएँ अच्छी या बुरी हो सकती हैं, पर उसको पोस्ट किए जाने वाले वेब पन्ने, "ब्लॉग" या "फ़ेसबुक" होने के कारण, अच्छे हैं या कि बुरे हैं, उच्च हैं या निम्न हैं, ये कदापि तय नहीं किए जा सकते .. शायद ...
दाल-भात सान कर ... :-
वैसे भी तो, "ब्लॉग" तो एक साधन मात्र ही है, हमारी अपनी-अपनी अभिव्यक्ति या प्रस्तुति का ; जहाँ समस्त विश्व में, अन्य और भी कई -कई विषयों पर "ब्लॉग" बनी पड़ी हुई हैं। कुछेक लोगों के तो खुद ही के, कई-कई तरह के विषयों पर भी अलग-अलग कई "ब्लॉगें" हैं। इस बात पर भी कुछेक लोग अपनी गर्दन अकड़ाते नज़र आते हैं। मुझ जैसे अल्पज्ञानियों के तो केवल और केवल एक ही "ब्लॉग" है - "बंजारा बस्ती के बाशिंदे" के नाम से। पर इनमें कोई हेटी जैसी बात नहीं मानी जानी चाहिए। ये भी केवल या मात्र, अपनी-अपनी पसंद की बात है। कोई भात और दाल अलग-अलग खा ले या कोई एक साथ सान कर खा ले, बात बस पसंद की है ; परन्तु इन दोनों ही परिस्थितिओं में किसी एक की भी हेटी की बात नहीं होनी चाहिए। प्रसंगवश .. एक मजे की बात है, कि हम उत्तर भारतीय लोग, दक्षिण भारतीय व्यंजन- इडली-सांभर को अलग-अलग खाते हैं, जब कि वहीं दक्षिण के लोग, हम उत्तर भारतीयों की तरह दाल-भात सान कर खाने जैसा ही , इसे एक साथ सान कर खाते हैं। बस .. तरीक़ा अपना-अपना, पसंद अपनी-अपनी .. फिर अपने कई "ब्लॉगों" के होने पर अपनी गर्दन क्यों अकड़ानी भला !?
गंगू हलवाई के लड्डू ... :-
यूँ तो अक़्सर कुछ सज्जन सुधिजन किसी भी क्षेत्र या विषय विशेष में स्वयं को "सबसे पुराना" विशेषण से विभूषित कर के भी अपनी गर्दन अकड़ाते पाए जाते हैं। पर किसी भी क्षेत्र में पुराना होना, अत्यधिक अनुभवी होने की "प्रमाणिकता नहीं भी" हो सकती है और बाद में आए, एकदम से नए की श्रेणी में होना, अल्पज्ञानी होने की "वजह भी नहीं" हो सकती है .. शायद ... मसलन - किसी मुहल्ले के किसी पुराने गंगू हलवाई के लड्डू ना जाने कब, हल्दीराम के 'ब्रांडेड' लड्डू के सामने फ़ीके पड़ गए ; ये बात उस गंगू हलवाई को भी पता ही नहीं ; क्योंकि उसे अपनी कढ़ाई में पिघलते-जलते "नेपाली डालडे" से उठते धुएँ में, सब कुछ धुंधला ही नज़र आता है .. शायद ...
"दाद" लेने की "खुजली" बनाम ज़ालिम लोशन है ना !!! ... :-
अक़्सर हम जैसे नौसिखुए लोग, दिग्गज़ों से सुनते-पढ़ते हैं, कि तथाकथित कुछ अलग-सी, "सर्वाधिकार सुरक्षित" या "Copyright Reserve" वाली विशिष्ट, 'ब्रांडेड', ब्लॉग की दुनिया में एक दूसरे की पीठ खुजलाने जैसी कोई प्रथा या रीति-रिवाज़ भी है .. शायद ... अब ये कोई लोकोक्ति हो या मुहावरा, जो भी हो, पर वैसे भी पूरे बदन की खुजली को तो हम भी खुद ही खुजा लेते हैं, सिवाय अपनी पीठ के। वहाँ की खुजली के लिए धर्मपत्नी की मदद यदाकदा जरूर लेनी पड़ती है। पर आज कल तो एक खुजाने वाली लम्बी कलम जैसी "खुजली स्टिक" भी स्थानीय बाजार में या 'ऑनलाइन' पर भी उपलब्ध हैं, जिसे हम खरीद लाये हैं। अब तो वो भी निर्भरता खत्म। अपने माननीय प्रधानमंत्री जी भी तो बार-बार कहते हैं, कि स्वावलंबी बनो, आत्मनिर्भर बनो .. तो हम भी बनने की कोशिश भर कर रहे हैं .. बस यूँ ही ...
ऐसी बातों की चर्चा, जब भी, जहाँ कहीं भी, होती है तो ... ऐसे में सन् 1929 ईस्वी में स्थापित इंदौर की 'ओरिएंटल केमिकल वर्क्स' नामक कम्पनी की एक आयुर्वेदिक उत्पाद - "ज़ालिम लोशन" के विज्ञापन के एक संवाद अनायास याद हो आते है, कि "क्या शरमा रहा है ? दाद, खाज, खुजली है। सबको होती है। हमें भी होती है।" मतलब ये है, कि "दाद" लेने की "खुजली" सभी को होती है। पर ऐसे में हमें खुजलाना क्यों भला ! अपने पास "खुज़ली स्टिक" अगर ना भी हो तो कोई चिन्ता की बात नहीं है साहिब !! .. वो भी ज़ालिम लोशन के रहते !! .. अरे बाबा ! .. बाज़ार में या 'ऑनलाइन' पर भी तो साहिब .. ज़ालिम लोशन है ना !!! .. बस यूँ ही ...
कॉपीराइट - © - वाली C की तरह :-
अब इस आपसी खुजाने और खुजलाने या यूँ कहें कि ... खीझने-खिजलाने के लिए भी हम सभी ही जिम्मेवार हैं। हम अपने आप को अलग 'टाइप' के ब्लॉगर वाले साहित्यकार मान कर, स्वयं को एक अलग तरह के अजूबा प्राणी माने बैठे हैं और स्वयं को तुर्रम ख़ाँ बनाए हुए, हम अपनी चारों ओर कॉपीराइट - © - वाली C की तरह, एक गोल घेराबंदी बनाए फिर रहे हैं। इसी कारण से इसकी पहुँच आम पाठक / उपभोक्ता तक नहीं है। सभी के सभी अपनी-अपनी गर्दन अकड़ाए नामी हलवाई (मैं जाति विशेष की नहीं, बल्कि मिठाई निर्माता-सह-विक्रेता- हलवाई की बात कर रहा हूँ) बने हुए हैं और ... शायद हैं भी। फिर एक हलवाई के, दूसरे हलवाई की मिठाई चखने वाली बात हो जाती है। इसे तो आम पाठकगण / उपभोक्ता तक पहुँचाना ही होगा ना ! .. शायद ...
जो अच्छी जलेबियाँ तलता हो ... :-
कई लोग अपने पोस्ट/रचना पर आने वाली प्रतिक्रियाओं की संख्या को लेकर चिंतित देखे-सुने जाते हैं। गुहार लगाते हुए भी। हाय तौबा मचाए हुए भी। ऐसे लोगों को गीता के ज्ञानों में से एक ज्ञान - "केवल कर्म करना ही मनुष्य के वश में है, कर्मफल नहीं। इसलिए तुम कर्मफल की आशक्ति में ना फंसो तथा अपने कर्म का त्याग भी ना करो।" - को स्मरण कर लेना चाहिए .. शायद ...
कई लोग तो अपनी पोस्ट/रचना को आकर पढ़ने की गुहार लगाते या न्योता देते भी दिख जाते हैं अक़्सर। इनको देख-सुन कर बड़े-बड़े मंचों पर श्रोतागण से ताली की गुहार लगाते नामी गिरामी हस्तियों की याद अनायास ही आ जाती है। अगर बात क्रिया-प्रतिक्रिया के आने, ना आने की है, तो इस से ब्लॉग के अच्छे या बुरे दिन, अच्छी रचना या बुरी रचना या फिर अच्छे साहित्यकार या बुरे साहित्यकार की कसौटी नहीं तय की जा सकती .. शायद ...
अब हमारे जैसे टुच्चे लोग भी तो, एक कुशल पाठक ना कभी थे, ना हैं और शायद भविष्य में भी ना बन सकेंगे। अच्छे पाठक यानी पढ़ने वाले होते, तो आज हम भी कोई घूसखोर सरकारी पदाधिकारी ना होते क्या !? इसी अपनी कमी के कारण हम भी कई पोस्टों या मंचों पर प्रतिक्रिया में कम दफ़ा ही जाते हैं या प्रायः नहीं ही जा पाते हैं, हमारे जैसे लोग। अब जरूरी तो नहीं कि एक अच्छा हलवाई (मैं जाति विशेष की नहीं, बल्कि मिठाई निर्माता-सह-विक्रेता- हलवाई की बात कर रहा हूँ), जो अच्छी जलेबियाँ तलता हो, तो उसको पचाने की भी वह मादा रखता ही हो, है कि नहीं ?
.. और बिना पढ़े ही, दो शब्दों वाली औपचारिक प्रतिक्रिया दी भी तो नहीं जाती, हमारे जैसे लोगों से। वैसे भी प्रायः हमारे जैसे लोग अपनी बातों को लाग-लपेट की चाशनी में पगाने की चेष्टा भी कतई नहीं करते; जो मन ने महसूस किया, उसे बक देते हैं। दिल पर कोई बोझ नहीं रखते। सोचते हैं कि पहले से ही मधुमेह रोगी हैं, अगर मन के बोझ से दिल की बीमारी लग गयी, तो नीम और कड़ैले के कॉकटेल-सी हालात हो जाएगी फिर। फिर तो .. ऐसे में बिना चाशनी में पगी बातें अच्छी भी हों, तो कुछ-कुछ कानाफूसी जनित, एक पूर्वअनुमानित छवि के कारण कुछ लोगों को बातें बुरी भी लग जाती है .. बस यूँ ही ...
बिना पढ़े दी गयी प्रतिक्रिया राह चलते किसी मन्दिर के सामने सड़क से गुजरते हुए ही औपचारिक सिर झुका कर कुछ बुदबुदाने जैसी ही प्रतीत होगी .. शायद ... इसके उलट, रचना/पोस्ट को पढ़ कर भी द्वेषवश (यदि समयाभाव हो तो चलेगा), अगर किसी ने प्रतिक्रिया नहीं दी हो, तो वह किसी निमंत्रित सुअवसर पर भोज खाकर, रिवाज के विपरीत, बिना न्योता (अपने या सामने वाली की हैसियत के मुताबिक़ रुपयों वाला लिफाफा) दिए निकल भागने वाला भगोड़ा (या भगोड़ी) इंसान माना जा सकता है, जो कि गलत है .. शायद ...
अपनी दुकान की मक्खी ... :-
कई पुराने ब्लॉगर लोगों को, अपने पुराने ब्लॉगर होने का और अपने ब्लॉग पर अतीत में सौ-सौ प्रतिक्रियाएँ आने का एक तरफ गर्व है, तो दूसरी तरफ इन दिनों प्रतिक्रियाएँ नहीं आने का यदाकदा मलाल होते भी देखा-सुना जाता है। हो सकता है, कि उस दौरान उन जैसे दिग्गज लोग ही इक्के-दुक्के ब्लॉगर होंगे, तब अन्य लिखने वाले लोग उनके पाठक-पाठिका बने, एक उपभोक्ता बने हुए होंगे। वही लोग शायद उन से प्रेरित हो कर अब अपनी-अपनी दुकानें खोले बैठ गए होंगे और सभी अपनी-अपनी दुकान की मक्खियों को भगाने में लगे होंगें .. इसी से प्रतिक्रियाएँ घट गई होंगीं ..शायद ...
चलते - चलते .. बस यूँ ही ...
यूँ तो उपग्रहों पर टिकी, इंटरनेट के सहारे मुफ़्त में मिले इस विदेशी ब्लॉग के वेब पन्ने पर स्थापित अपने मंच पर गर्व नहीं, कुछेक घमंड करने वाले लोग अगर .. किसी मोबाइल की तरह एक तय क़ीमत अदा कर के "पैक" भरवाने के बाद, ब्लॉग वाले मंच चला रहे होते या किसी किराए के कमरे में मंच चला रहे होते या फिर बाज़ार से कॉपी खरीद कर लिख रहे होते तो भी, तो पता नहीं, निजी होने का और भी कितना दावा करते .. शायद ...
कुछ लोग तो सोशल मीडिया पर, सार्वजनिक पोस्ट किए गए अपने किसी पोस्ट विशेष पर, चाहे वह ब्लॉग की हो या फिर फेसबुक की, उनके अनुसार किसी की अनचाही की गई प्रतिक्रिया करने वाले को कहीं और जाकर "उल्टी (वमन)" करने की नसीहत तक दे डालते हैं। वो भूल जाते हैं, कि यह सार्वजनिक (अगर 'लॉक' ना की गयी हो तो) और मुफ़्त के विदेशी वेब पन्ने भर हैं, कोई उनकी निजी जागीर नहीं .. शायद ...
किसी दिन तथाकथित विश्वकर्मा भगवान अगर अपनी लम्बी सफ़ेद दाढ़ी जोर से खुजलाये, तो .. सब की खुज़ली .. बस यूँ ही ... मिनटों में मिट जानी है, क्योंकि अगर उनकी दाढ़ी की खुज़ली को खुजलाने की हलचल से, सारे के सारे मानव निर्मित वैज्ञानिक उपग्रह धरती पर गिर कर धराशायी हो गए, तो .. ना तो इंटरनेट होगा और ना ही ये सारे रेवड़ी की तरह बँटने वाले आरक्षण की तरह सहज उपलब्ध सोशल मीडिया वाले भाँति - भाँति के वेब पन्ने .. शायद ...