Wednesday, August 14, 2019

क्या सच में पगला गया हूँ मैं !????????

स्वतंत्रता-दिवस पर हमने
ना बदली है अपनी डी. पी.
और ना ओजपूर्ण वीर रस की
कोई एक भी रचना है रची
ना ही कोई देशभक्ति भाषण
मंच पर चढ़ कर है चीख़ी
ना फहराया है झंडा और
ना ही गाया राष्ट्रगान ही
ना बाँटी हैं जलेबियां और
ना ख़ुद ही है खाई

यूँ तो कर के ये सब
जतला रहे है सभी
देखो ना जरा ! ये देशभक्ति
जैसे करा के सत्यनारायण की कथा
या लगा कर संगम में
कुम्भ वाली डुबकी
दिखलाते हैं अक़्सर भक्ति
और सुना है ...
पा लेते हैं शायद पाप से भी मुक्ति

पर पगला गया हूँ शायद मैं ...
कांके या आगरा या फिर है कहीं
उस से भी बड़ा है कोई पागलखाना
वहाँ ले जाया ना जाऊँ मैं अभी-अभी...
 लगता है पगला गया हूँ शायद मैं ...

क्यों नज़र आती है मुझको
जलेबी की गर्म टपकती चाशनी में
शहीदों के टपकते गर्म लहू ...
'उस रात' भटके शरणार्थियों के
भटकते लहूलुहान हुए छितराए वज़ूद
तुम ही जरा बतलाओ ना मुझको !...

क्यों राष्ट्रगान के 'जन गण मन' के आरोह से
'जय हे, जय हे' के अवरोह तक
सुनाई देती है मुझको बारम्बार
बस चीत्कार के आरोह-अवरोह
'उस रात' कटे स्तनों के ढेर से
आते तार से मध्य और मध्य से होते
मंद्र सप्तक चीखों के ही बारहा
साथ ही 'उस रात' रेंगती-खिंचती
सिसकती सूनसान रातों में
लोहे की पटरियों पर जेम्स वॉट की
भाप वाली इंजन की बेसुरी आवाज़
जो ढोती रही थी रात-रात भर
कराहती ज़िंदगियों और ...
स्तन कटे कई बेजान लाशों को भी
तुम ही जरा बतलाओ ना मुझको !...

कड़कदार कलफ़ वाली वर्दियों के परेडों में
ना जाने क्यों नज़र आती है वो 'उस रात' की
लम्बी सरकती कतारें डरी-सहमी-सी
सूखे लहू के कलफ़ वाले चिथड़ों में लिपटे
घायल बदन में बस सहमी साँसों को ढोते

झंडों को फहराने की ख़ातिर जब
मुख्य-अतिथि सरकाते हैं उस से बंधी रस्सी
तब मुझे  'उस रात' ज़बरन खोले गए
कई मजबूरों के सलवारों के नारे
क्यों भला याद आते हैं मुझको
और जब झंडे के फहरने के साथ-साथ
छितराती हैं नाज़ुक मरे फूलों की कोमल पंखुड़ियाँ
'उस रात'  बिखेरी गई कितनी मजबूरों की अस्मत
क्यों कर भला उन फूलों में झलक जाती हैं मुझको
तुम ही जरा बतलाओ ना मुझको !...

पर पगला गया हूँ शायद मैं ...
कांके या आगरा या फिर है कहीं
उस से भी बड़ा है कोई पागलखाना
वहाँ ले जाया ना जाऊँ मैं अभी-अभी...
लगता है पगला गया हूँ शायद मैं ...

तुम ही जरा बतलाओ ना मुझको !...
क्या सच में पगला गया हूँ मैं  !????????






Tuesday, August 13, 2019

चन्द पंक्तियाँ - (९ ) - बस यूँ ही ...

(1)**

शेख़ी बघारता दिनभर
किसी जेठ-सा सूरज
हो जाएगा जब ओट में
शाम के मटमैले चादर के

आएगी तब नववधू-सी रात
जुगनूओं के टाँके लगे
काले परिधानों में हौले-हौले
दिखेगी दूर सामने ओसारे में
चूती ओलती के झालर के पार
मदमाती , गुनगुनाती मदालसा-सी

झिंगूरों और मेढ़कों की
युगलबंदी के लय के साथ
और देने को साथ
उस रूमानी पल का
थिरकेंगे मचलते बच्चों-सी
हम-तुम सारी रात
सुबह जेठ सूरज के
कॉल-बेल बजाने तक ....

(2)**

सुनो ना !!!
एक शिकायत
आज सुबह-सुबह
शहद की शीशी की

कि ....
तुम्हारी एक जोड़ी
आँखों की पुतलियों ने
चुराए हैं उसके रंग
और शायद ... 
मिठास भी

तभी तो पलने वाले
आँखों में तुम्हारी
हर सपने भी होते हैं
शहद-से मीठे ...
अब बोलो ना जरा ...
उन से क्या कहें भला !!!?....


Sunday, August 11, 2019

चन्द पंक्तियाँ - (८) - बस यूँ ही ...

(1)*
अब तक "मन के डेटिंग" पर
मिली हो जब भी तुम तो ....
कृत्रिम रासायनिक
सौंदर्य- प्रसाधनों और सुगंधों की
परतों में लिपटी
किसी सौंदर्य-प्रसाधन की
विज्ञापन- बाला की तरह
चकपक करती परिधानों में

कभी एक बार तो मिलो
कृत्रिम रासायनिक
सौंदर्य- प्रसाधनों और सुगंधों की
परतों से परे
पसीने से लथपथ
किसी कला-फ़िल्म की
साधारण सांवली नायिका की तरह
धूल-धुसरित सफ़ेद साड़ी में

ताकि भर सकूँ
तुम्हारे स्व-स्वेद का सुगंध
अपनी साँसों की झोली में
और पा सकूँ
शत्-प्रतिशत स्पर्श तुम्हारा
ठीक सागर और नदी के
निश्चल स्पर्श की तरह ....

इस तरह ... कभी एक बार तो मिलो ....


(2)*
निःसंदेह रह जाते
शब्द "प्रातःकाल" अधूरे
'सुप्रभातम्' वाले
प्रातःकाल की तरह
मेरे हर दिन के


जो ना ये चुराते
अपने "बिसर्ग" की
दोनों बिन्दुओं को
तुम्हारे चेहरे के
दोनों तिल से

एक है जो तुम्हारी
ऊपरी होंठ पर
आती-जाती दोनों
साँसों के बीच
और दूसरा तुम्हारी
चंचल बायीं नयन और
नाक के बीच में ....




बस एक शर्त्त अपनी तुम हार जाओ ना !

बेटा !
शर्तें तो तुमने बचपन से ही अब तक है मुझसे सारी ही जीती ...
जिनमें कई शर्तें तो तुम सच में थे जीते और
कुछ शर्तों को जानबूझ कर था तुमसे मैं हारा
डगमगाते पैरों से जब तुम चलना सीख रहे थे तब
दौड़ने की शर्तें तुमसे मैं जानबूझ कर था हारता
केवल देखने की ख़ातिर चमक शर्त्त जीतने की 
मासूम चेहरे पर तुम्हारे
हर साल अपनी कक्षा में अव्वल आने की
तुम्हारी वो शर्तें सारी
साल-दर-साल अपने बलबूते तुमने ही जीता पर ...

बस ... आज एक शर्त मैं तुमसे जीतना हूँ चाहता
तुमने जो शर्त्त है लगाई कि 
"नाम के साथ जाति-धर्म सूचक उपनाम लगाना है ज़रूरी"
पर मेरा मानना है कि ये जरुरी है बिल्कुल नहीं
तुम कहते हो हमसे ये अक़्सर ...
"पापा ! जमाने में तो लगाते हैं सभी ना !? 
इतनी बड़ी दुनिया सारी तो मूर्ख नहीं ना !?"
क्योंकि कई परेशानियाँ तुमने है झेली
कई बार शिक्षकों ने तो कई-कई बार 
शिक्षण-संस्थानों के किरानियों ने 
चाहे वे प्रारम्भिक शिक्षा वाले थे
या फिर आई. आई. टी. का प्रांगण
कभी राह चलते अपरिचितों ने भी
केवल "शुभम्" नाम सुन कर मुँह है बिचकाया
ये बोल कर कि -" ये भी कोई पूरा नाम है क्या !?
ऐसा तो नाम नहीं है होता !!
कुछ तो उपनाम होगा धर्म-जाति सूचक !?"
पहली हवाई टिकट बनाते समय भी
नाम को लेकर आई थी परेशानी
पहली नौकरी वाली बहुराष्ट्रिय कम्पनी ने भी
था केवल "शुभम्" पर प्रश्न -चिन्ह लगाया
उपनाम को था अतिआवश्यक ठहराया
बारम्बार बात करके बात सुलझी थी
तुम्हारे इस समस्या को मंजिल मिली थी

बेटा !
हर बार जो दुनिया है कहती ..
जरुरी नहीं कि वह हो सही ही
सुकरात की जब तक साँस चली थी
तब तक तो ये पृथ्वी चिपटी ही रही थी
ज़हर पीने के वर्षों बाद पृथ्वी गोल हो गई
बचा नहीं पाये थे राजा राम अपनी भाभी को
जलती चिता के लौ पर जो जिन्दा जलती रहीं थी
पर आज कितनी भाभियाँ हैं महफ़ूज़ ये देख लो
फिर कैसा दुनिया से हार मानना
अपने लिए ना सही
अपनी अगली पीढ़ियों की ख़ातिर
कुछ सहना पड़े तो सह जाओ ना
बस एक शर्त्त तुम अपनी हार जाओ ना कि
"जाति-धर्म सूचक उपनाम जरूरी है हर नाम के साथ लगाना"

हाँ बेटा ! ...
अपनी भावी पीढ़ियों की ख़ातिर
तोड़ कर सारी अंधपरम्परायें
झेल कर कुछ परेशानियाँ
बस एक शर्त्त तुम अपनी हार जाओ ना ...
हाँ ... एक शर्त्त तुम अपनी हार जाओ ना ...


Friday, August 9, 2019

किसी दरवेश के दरगाह से

मेरी अतुकान्त कविताओं की
बेतरतीब पंक्तियों में
हर बार तुम
आ ही जाती हो
अपने बिखरे बेतरतीब
महमहाते बालों की तरह

और तुम्हारी
अतुकान्त कविताओं में
अक़्सर मैं
बेतुका बिम्ब गढ़ता-सा
अपनी बेतुकी
सोचों की तरह

मानो ... कहीं पास से ही
किसी दरवेश के
दरगाह से अक़्सर
सुलगती अगरबत्तियों के
सुगन्धित धुएँ के साथ
मन्नतों के पूरी होने के बाद
चढ़ाई गई बेली-चमेली की बुनी
चादरों की लिपटी ख़ुश्बूएँ  ...

बस आ ही जाती हों
बंद कमरों में भी
खुले रोशनदानों से
हवा के झोंको के साथ
मज़हबी बेमतलब की
बातों में बिना भेद किये

ऐसे में ... बोलो ना भला..
जरुरी तो नहीं कि ...
इन सुगन्धों के लिए
क़रीब जाकर उस
दरगाह की सीढ़ियों पर
बैठा ही जाए ...

Tuesday, August 6, 2019

चन्द पंक्तियाँ - (७) - बस यूँ ही ....

(1)#
माना कि ... पता नहीं मुझे
पता तुम्हारा,
पर सुगन्धों को भला
कब चाहिए साँसों का पता
बोलो ना जरा ...

चलो बन्द कर भी दो
अपनी दो आँखों की
दोनों खिड़कियाँ
दोनों बाँहों के
दो पल्ले दरवाजे के ...

हम तो ठहरे
आवारा सुगन्ध
आ ही जायेंगे
तुम्हारी साँसों तक
तुम्हारे मन के
रोशनदान के रास्ते .. है ना !?

(2)#
एक सूनी-पुरानी
इमारत की
किसी बदरंग दीवार पर
अनायास उग आये
पुष्पविहीन फर्न की तरह
पनप जाते हैं अनायास
कुछ रिश्ते ..जो ...
बेशक़ बागों में पनाह
पायें ना पायें पर ...
मन की आँखों में
प्रेम की हरियाली
सजाते हैं अनवरत
ठीक सावन की
हरियाली की तरह ...
है ना !?...

(3)#
प्रकृत्ति प्रदत्त
सृष्टि स्रोत
शुक्राणुओं के
महासमर-सी
कई सोचें ... कई कल्पनाएँ ...
उद्देश्यहीन रह जाती हैं
अक़्सर बस यूँ ही ...

बस एक सोच ही
जिनमें तुम रहती ... पलती...
बन विजेता इकलौती ही
बारहा प्रकृत्ति-नियम सी
है रचने बढ़ पाती
मन के कोख़ में
भावना की एक नई सृष्टि  .....








काश ! "अंधविश्वास" भी हो पाता "धारा-370" - दो संस्मरण.

दैनिक हिन्दी समाचार-पत्र 'हिन्दुस्तान' के आज के साप्ताहिक संलग्न 'हिन्दुस्तान पटना लाइव' के मुख्य-पृष्ठ पर नीचे छपे स्तम्भ 'वे दिन' में वरिष्ठ चित्रकार - आनन्दी प्रसाद बादल जी का संस्मरण (जो नियमित पढ़ता हूँ) "जमींदारी उन्मूलन पर भी लोगों ने मनायी थीं खुशियां" शीर्षक के साथ पढ़ा।

उन्होंने आज के संस्मरण में समसामयिक विषय 'कश्मीर और धारा 370' के साथ-साथ अतीत के 'जमींदारी उन्मूलन' से मिलने वाली आमजन की खुशियों की तुलना और चर्चा की है।

अंत में उन्होंने समाज के वास्तविक कोढ़ यानि 'अंधविश्वास' जैसी कुरीति से (उपर्युक्त दो मुक्तियों जैसी) मुक्ति की चर्चा करते हुए अपने बचपन के एक 'बचपना से भरी, पर सयानों को मात देती' घटना की चर्चा की है।

उनकी इसी घटना ने मुझे भी तत्क्षण अपने बचपन की घटी "दो" घटनाओं को आपलोगों से साझा करने के लिए प्रेरित कर दिया। आज का मोर्निंग वॉक भी भूल गया मैं। वैसे अपने कई करीबियों को जो इस भावना को समझ सकें, उन्हें मैंने साझा किया है।अब तक इसे साधारण समझ आप लोगों से साझा करने की हिम्मत नहीं हुई कभी। पर एक "श्रेष्ठ और स्थापित जन" के मुँह से सुनकर आज यहाँ लिखने की हिम्मत कर पा रहा हूँ। (आपसबों की प्रतिक्रिया अपेक्षित है।)

(१)#
हमलोगों की एक बुआ-दादी यानि दादा जी की बहन किसी पारिवारिक उत्सव में खगड़िया से पटना के लोदीपुर के पूर्वजों वाले घर पर सपरिवार आईं थीं। पहले शादी समारोह का आयोजन सप्ताह-पंद्रह दिन चलता था। उनके उसी प्रवास के दौरान फूफा-दादा का अचानक किसी खतरनाक बीमारी से निधन हो गया और बुआ-दादी के साथ 'विधवा' शब्द चिपक गया। सहानुभूतिवश वे कुछ माह तक यहीं रह गईं। उनके तथाकथित " जोग-टोटमा" वाली सोच से सारा घर परेशान था।
एक दिन मेरे , तब मैं 10-11 साल का रहा होऊँगा, दिमाग में खुराफ़ात सूझी और मैं अपने घर के रसोईघर से चुटकी भर सरसों, मुट्ठी भर खीर वाला अरवा चावल, चार-पांच लौंग और एक टूटी हुई सिलाई करने वाली सुई चुरा कर इकट्ठा किया।
एक शाम बिजली जाते हीं , यही जुलाई-अगस्त का महीना रहा होगा, सब 'गोतिया' लोग मोटा-मोटी खुली छत्त पर राहत की साँस लेने चले गए। अँधेरे का फायदा उठाते हुए मैंने वो सारा चोरी कर इकट्ठा किया हुआ सामान बुआ-दादी के कमरे में चुपके से खिड़की के रास्ते-बिखेर आया।
थोड़ी देर बाद बिजली आनी थी ही ... आ गई.. फिर तो सारे घर में कोहराम मच गया, मानो बिजली अपने साथ-साथ आफत भी लेकर आई हो। फिर क्या ... सबके के चेहरे पर तड़ातड़ पसीना चलने लगा। आनन-फानन में मुहल्ले के ही एक तथाकथित ओझा 'गुलाब महतो जी' , जो उन दिनों मगध महिला कॉलेज, पटना में माली थे, को बुलाया गया। ओझा जी के आने के पहले तक किसी की हिम्मत नहीं हुई उस कमरे में जाने की। वे आये, लोटे में पानी माँगा, कुछ मंत्रोच्चार किया और बोले ...किसी दुष्ट आत्मा का प्रवेश कराने की कोशिश आपलोगों के किसी पड़ोसी का है। हम अभी "बाँध दिए" हैं घर को। अब आपलोगों को कोई भय नहीं है।
मैं अपनी "कारिस्तानी" पर मन ही मन मुस्कुरा रहा था। पिटाई के डर से किसी को भी नहीं बतलाया। हाँ ..पूरे घर-परिवार को तो नहीं, सप्ताह भर बाद अपने अभिभावक को बतलाया। सच ज्यादा समय तक मैं पचा नहीं पाता, चाहे वह सही हो या गलत। जिसके कारण कई बार पिटाया हूँ और कई बार डाँट से नाश्ता किया हूँ। उस दिन भी बहुत डाँट पड़ी थी।

(२)#
मेरे पापा सीवान (बिहार) जिला के हुसैनगंज ब्लॉक में उन दिनों बी.एस. एस. ( Block Statistical Supervisor ) के पद पर थे। उस समय मैं कोई 19-20 साल का रहा होऊँगा। पढ़ता-रहता तो पटना के उसी लोदीपुर वाले मकान में, पर छुट्टियों में भाग जाता था ब्लॉक के इर्दगिर्द ग्रामीण प्राकृतिक परिवेश का अवलोकन करने। उस समय भी गर्मी का ही मौसम था। लोग सब अपने-अपने ब्लॉक के क्वार्टर के बाहर खुले में बैठे थे। औरतें- बच्चे, बड़े ..सभी अपने-अपने समूह में बैठे या टहल रहे थे। वहीं क्वार्टर के सामने एक किरानी - "मज़हर चच्चा" का परिवार रहता था। मेरे दिमाग में अचानक एक खुराफ़ात सूझी ..."मज़हर चच्ची" से निहोरा कर के उनका बुर्क़ा थोड़ी देर के लिए माँगा। बोला "एक नाटक का रिहर्सल करना है चाची, फिर लौटा देंगे।" सब मेरी इस आदत से वाकिफ थे, कभी किसी की लुंगी, तो कभी किसी का गोटेदार दुपट्टा नाटक के लिए माँगता रहता था अपने जरुरत के अनुसार। इसी लिए ज्यादा सवाल नहीं उठा। फिर वही बिजली जाने का इंतज़ार और जाते ही चुपचाप ... मैं ने हाफ पैंट और टी-शर्ट के ऊपर से ही बुर्क़ा लगभग ओढ़ लिया और ... बी डी ओ साहब के क्वार्टर के सामने खुले में बैठे बी डी ओ साहब, सी ओ साहब, बी ई ओ साहब और अन्य लोग बैठे दिन- दुनिया की बातें कर ठहाका लगा रहे थे। पापा उस दिन सुबह से ही "फील्ड" में गए हुए थे, जो अब तक नहीं लौटे थे। अगर लौटे होते तो , वहाँ बैठे होते और मैं ये हिमाकत नहीं कर पाता।
ख़ैर बहरहाल मैं थोड़ा लंगड़ाने का अभिनय करते हुए गूंगी औरत की "आऊँ ... आऊँ .." जैसी कुछ भी निरर्थक शब्द बोलते उनके सामने जाकर हाथ फैलाए मज़बूर औरत के रूप में खड़ा (खड़ी) हो गया। प्रायः ब्लॉक में सरकारी योजना का लाभ लेने के लिए आसपास के गरीब-मजबूर आते ही रहते हैं, अपनी पैरवी लेकर। अँधेरी रात ... सूनसान में एक अकेली औरत ... पुरुष मन मचल ही जाता है ना ... सब एक दूसरे का मुँह देख कुछ-कुछ फिकरे कसने लगे.. जो सच में याद नहीं ...  मैंने अपना हाथ वहीं समूह में बैठे ब्लॉक के बड़ा बाबू 'शंकर चच्चा' की ओर बढ़ाया... धीरे- धीरे बढ़ाते ही ... ले लोटा .... उ तो कुर्सी से उलट गए। उनका हाथ-पैर कांपने लगा। मौके की नज़ाकत देखते हुए मैं तो बस बुर्का ऊपर उठा कर दौड़ चला .. और साँस लिया अपने क्वार्टर में घुस कर। शुक्र था.. पापा अभी तक नहीं आये थे।
पूरे ब्लॉक में लोग बाद में दौड़े इधर- उधर , थाने से एक दो सिपाही भी आये ..सब ने कहा ..." "चुड़ैल" आई थी और शंकर बाबू पर 'अटैक' कर रही थी। उ तो हम लोग थे तो डर से भाग गई , नहीं तो .... आज तअ ..."
सुबह तक  क्या कई दिनों तक उस चुड़ैल की चर्चा ब्लॉक और आस पास के गाँव में होती रही।
ये बात भी पापा को एक सप्ताह बाद पता चल ही गई, मैंने ही बतलाया था अपनी आदतानुसार और ...मन भर या उस से भी ज्यादा डाँट सुनने को मिली।
तो ....ये थी अन्धविश्वास (?) से जुड़ी मेरे बचपन की जी हुई खुराफ़ाती दो घटनाएँ ....
काश !!! धारा-370 की तरह ये "अंधविश्वास" का भी अंत हो पाता अपने समाज से तो हमारी खुशियाँ सौ गुणी हो जाती। फिलहाल ... आइये मिलकर गाते हैं ... एक पुरानी फ़िल्म का पुराना नग़मा ...." वो सुबह कभी तो आएगी ... वो सुबह कभी तो आएगी ..."..
अब चला ...