स्वतंत्रता-दिवस पर हमने
ना बदली है अपनी डी. पी.
और ना ओजपूर्ण वीर रस की
कोई एक भी रचना है रची
ना ही कोई देशभक्ति भाषण
मंच पर चढ़ कर है चीख़ी
ना फहराया है झंडा और
ना ही गाया राष्ट्रगान ही
ना बाँटी हैं जलेबियां और
ना ख़ुद ही है खाई
यूँ तो कर के ये सब
जतला रहे है सभी
देखो ना जरा ! ये देशभक्ति
जैसे करा के सत्यनारायण की कथा
या लगा कर संगम में
कुम्भ वाली डुबकी
दिखलाते हैं अक़्सर भक्ति
और सुना है ...
पा लेते हैं शायद पाप से भी मुक्ति
पर पगला गया हूँ शायद मैं ...
कांके या आगरा या फिर है कहीं
उस से भी बड़ा है कोई पागलखाना
वहाँ ले जाया ना जाऊँ मैं अभी-अभी...
लगता है पगला गया हूँ शायद मैं ...
क्यों नज़र आती है मुझको
जलेबी की गर्म टपकती चाशनी में
शहीदों के टपकते गर्म लहू ...
'उस रात' भटके शरणार्थियों के
भटकते लहूलुहान हुए छितराए वज़ूद
तुम ही जरा बतलाओ ना मुझको !...
क्यों राष्ट्रगान के 'जन गण मन' के आरोह से
'जय हे, जय हे' के अवरोह तक
सुनाई देती है मुझको बारम्बार
बस चीत्कार के आरोह-अवरोह
'उस रात' कटे स्तनों के ढेर से
आते तार से मध्य और मध्य से होते
मंद्र सप्तक चीखों के ही बारहा
साथ ही 'उस रात' रेंगती-खिंचती
सिसकती सूनसान रातों में
लोहे की पटरियों पर जेम्स वॉट की
भाप वाली इंजन की बेसुरी आवाज़
जो ढोती रही थी रात-रात भर
कराहती ज़िंदगियों और ...
स्तन कटे कई बेजान लाशों को भी
तुम ही जरा बतलाओ ना मुझको !...
कड़कदार कलफ़ वाली वर्दियों के परेडों में
ना जाने क्यों नज़र आती है वो 'उस रात' की
लम्बी सरकती कतारें डरी-सहमी-सी
सूखे लहू के कलफ़ वाले चिथड़ों में लिपटे
घायल बदन में बस सहमी साँसों को ढोते
झंडों को फहराने की ख़ातिर जब
मुख्य-अतिथि सरकाते हैं उस से बंधी रस्सी
तब मुझे 'उस रात' ज़बरन खोले गए
कई मजबूरों के सलवारों के नारे
क्यों भला याद आते हैं मुझको
और जब झंडे के फहरने के साथ-साथ
छितराती हैं नाज़ुक मरे फूलों की कोमल पंखुड़ियाँ
'उस रात' बिखेरी गई कितनी मजबूरों की अस्मत
क्यों कर भला उन फूलों में झलक जाती हैं मुझको
तुम ही जरा बतलाओ ना मुझको !...
पर पगला गया हूँ शायद मैं ...
कांके या आगरा या फिर है कहीं
उस से भी बड़ा है कोई पागलखाना
वहाँ ले जाया ना जाऊँ मैं अभी-अभी...
लगता है पगला गया हूँ शायद मैं ...
तुम ही जरा बतलाओ ना मुझको !...
क्या सच में पगला गया हूँ मैं !????????
ना बदली है अपनी डी. पी.
और ना ओजपूर्ण वीर रस की
कोई एक भी रचना है रची
ना ही कोई देशभक्ति भाषण
मंच पर चढ़ कर है चीख़ी
ना फहराया है झंडा और
ना ही गाया राष्ट्रगान ही
ना बाँटी हैं जलेबियां और
ना ख़ुद ही है खाई
यूँ तो कर के ये सब
जतला रहे है सभी
देखो ना जरा ! ये देशभक्ति
जैसे करा के सत्यनारायण की कथा
या लगा कर संगम में
कुम्भ वाली डुबकी
दिखलाते हैं अक़्सर भक्ति
और सुना है ...
पा लेते हैं शायद पाप से भी मुक्ति
पर पगला गया हूँ शायद मैं ...
कांके या आगरा या फिर है कहीं
उस से भी बड़ा है कोई पागलखाना
वहाँ ले जाया ना जाऊँ मैं अभी-अभी...
लगता है पगला गया हूँ शायद मैं ...
क्यों नज़र आती है मुझको
जलेबी की गर्म टपकती चाशनी में
शहीदों के टपकते गर्म लहू ...
'उस रात' भटके शरणार्थियों के
भटकते लहूलुहान हुए छितराए वज़ूद
तुम ही जरा बतलाओ ना मुझको !...
क्यों राष्ट्रगान के 'जन गण मन' के आरोह से
'जय हे, जय हे' के अवरोह तक
सुनाई देती है मुझको बारम्बार
बस चीत्कार के आरोह-अवरोह
'उस रात' कटे स्तनों के ढेर से
आते तार से मध्य और मध्य से होते
मंद्र सप्तक चीखों के ही बारहा
साथ ही 'उस रात' रेंगती-खिंचती
सिसकती सूनसान रातों में
लोहे की पटरियों पर जेम्स वॉट की
भाप वाली इंजन की बेसुरी आवाज़
जो ढोती रही थी रात-रात भर
कराहती ज़िंदगियों और ...
स्तन कटे कई बेजान लाशों को भी
तुम ही जरा बतलाओ ना मुझको !...
कड़कदार कलफ़ वाली वर्दियों के परेडों में
ना जाने क्यों नज़र आती है वो 'उस रात' की
लम्बी सरकती कतारें डरी-सहमी-सी
सूखे लहू के कलफ़ वाले चिथड़ों में लिपटे
घायल बदन में बस सहमी साँसों को ढोते
झंडों को फहराने की ख़ातिर जब
मुख्य-अतिथि सरकाते हैं उस से बंधी रस्सी
तब मुझे 'उस रात' ज़बरन खोले गए
कई मजबूरों के सलवारों के नारे
क्यों भला याद आते हैं मुझको
और जब झंडे के फहरने के साथ-साथ
छितराती हैं नाज़ुक मरे फूलों की कोमल पंखुड़ियाँ
'उस रात' बिखेरी गई कितनी मजबूरों की अस्मत
क्यों कर भला उन फूलों में झलक जाती हैं मुझको
तुम ही जरा बतलाओ ना मुझको !...
पर पगला गया हूँ शायद मैं ...
कांके या आगरा या फिर है कहीं
उस से भी बड़ा है कोई पागलखाना
वहाँ ले जाया ना जाऊँ मैं अभी-अभी...
लगता है पगला गया हूँ शायद मैं ...
तुम ही जरा बतलाओ ना मुझको !...
क्या सच में पगला गया हूँ मैं !????????
कई सन्दर्भ के साथ अर्थ दे रही है और यही है कविता की सफलता सटीक एवं सार्थक लेखन
ReplyDeleteशुक्रिया आपका !!
Deleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 14 अगस्त 2019 को साझा की गई है........."सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद
ReplyDeleteजी जरूर ! साभार आपका साझा करने के लिए !
Deleteतीक्ष्ण कटाक्ष मार्मिक प्रस्तुति
ReplyDeleteरचना तक आने के लिए आभार ऋतु जी !
ReplyDeleteआज़ादी के साथ मिला दंश आजीवन चुभता रहेगा पर इससे आज़ादी की खुशियाँ कभी कम नहीं होगी।
ReplyDeleteवतन की माटी की खुशबू महसूस करिये और दुआ करिये आज़ादी के फूल कभी न मुरझाये।
जी बेहद मार्मिक रचना है...।
यही तो हम इंसानों की दुनिया की विडंबना है कि नवजात शिशु की ख़ुशी में हम प्रसूता का दर्द दरकिनार कर देते हैं। 'उस शाम' के दर्द के भुक्तभोगी के दर्द को भी महसूस करना होगा ना हमें !?
ReplyDeleteवैसे भी क्या हम "आज़ाद" हैं !?
मार्मिक विशेषण के लिए आभार आपका ...