एक प्रशिक्षु-सा ही :-
इन युवाओं के कारण ही टीवी के मशहूर कार्यक्रम- 'द ग्रेट इंडियन लाफ्टर चैलेंज के पाँचवें 'सीजन' के विजेता (Winner of The Great Indian Laughter Challenge, Season-5th, 2017)- अभिषेक वालिया के साथ एक ही मंच पर 2020 में 'स्टैंडअप कॉमेडी' (Standup Comedy) करने का भी मौका मिला .. बस यूँ ही ...
ख़ैर ! .. फ़िलहाल तरुमित्र आश्रम के रमणीक परिसर में अवस्थित महाविद्यालय के BMC के छात्रों द्वारा बनाई गयी फ़िल्म- कफ़न की बात करते हैं। सुबह से शाम तक तरुमित्र के इसी रमणीक परिसर में और परिसर में ही अवस्थित महाविद्यालय के भवन व उसके 'कैंटीन' में सभी युवा छात्र-छात्राओं के साथ-साथ, कब और कैसे बीत गया, मालूम ही नहीं चल पाया। यूँ तो .. 'शूटिंग' का समय तय था .. सुबह नौ बजे से, पर शुरू हुआ .. लगभग दस-ग्यारह बजे; तो वस्तुतः पूरी फ़िल्म दस-ग्यारह से शाम चार बजे तक में फ़िल्म की शूटिंग पूर्ण कर ली गई थी। इसी समय में, बीच-बीच में हल्का-फुल्का 'रिफ्रेशमेंट', दोपहर का 'लंच' भी शामिल था। एक छात्रा के घर से लायी गई पूड़ी-भुजिया भी, जो उनकी माँ ने बड़े ही प्यार से बना कर 'टिफ़िन' में सहेज कर उसे सुपुर्द किया होगा, मिल-बाँट कर खाने के लिए मिला। सभी दिन भर बहुत ही उत्साहित और ऊर्जावान थे। उनके साथ-साथ हम भी स्वयं को एक प्रशिक्षु-सा ही महसूस कर रहे थे। उन से भी बहुत कुछ सीखने के लिए मिल रहा था।
ना सिरचन मरा :-
इनके प्यार से बुला भर लेने से मेरा इन लोगों के बीच सहज ही समय निकाल कर उपस्थित हो जाना, अनायास अपने उच्च विद्यालय की पढ़ाई के दौरान पढ़ायी/पढ़ी गईं, बिहार के फणीश्वरनाथ रेणु जी की आँचलिक कहानी- ठेस के एक पात्र- सिरचन की बरबस याद हो आती है। ख़ासकर उस कहानी की कुछ पंक्तियाँ- मसलन - " सिरचन मुँहजोर है, कामचोर नहीं। ", " बिना मज़दूरी के पेट-भर भात पर काम करने वाला कारीगर। दूध में कोई मिठाई न मिले, तो कोई बात नहीं, किंतु बात में ज़रा भी झाल वह नहीं बर्दाश्त कर सकता। ", " कलाकार के दिल में ठेस लगी है। वह अब नहीं आ सकता। " इत्यादि .. आज भी इन सारी पंक्तियों के अलावा, कहानी का अंतिम दृश्य मन को द्रवित और आँखों के कोरों को नम कर जाता है। लगता है, मानो .. उस कलाकार- सिरचन की आत्मा पूरी की पूरी आकर हमारे अंदर समा गई हो। ऐसे में लगता है, मानो वह सिरचन आज भी मेरे अंदर ज़िन्दा है, मरा नहीं है .. बस यूँ ही ...
वैसे तो हर सच्चा कलाकार अपने आप में एक सिरचन ही होता है, जिसे प्यार मिले तो पानी और ना मिले तो पत्थर बन जाने में तनिक भी हिचक नहीं होती। अगर उसकी आत्मा सिरचन की आत्मा से सिक्त नहीं है, तो वह कलाकार हो ही नहीं सकता .. शायद ...
ना मरी है बुधिया ... :-
फ़िल्म के अंत में इन लोगों ने मूल कहानी से परे, बुधिया की आत्मा को एक संदेशपरक और दर्शन से भरे, छत्तीसगढ़ी लोकगीत को गाते हुए तथा उस गीत पर उसे नाचते-झूमते हुए दिखलाने का प्रयास किया है। हालांकि यह लोकगीत, अन्य कई-कई पुराने लोकगीतों, ठुमरियों, सूफ़ी गीतों की तरह "पीपली लाइव" नामक एक फ़िल्म में भी बेधड़क इस्तेमाल किया गया है।
वैसे भी बुधिया की केवल आत्मा ही क्यों भला, हमारे परिवेश में तो आज भी कई सारी बुधियाएँ सशरीर अपनी घिसटती ज़िन्दगी जीती हुई, तड़प-तड़प कर दम तोड़ देती हैं और घीसू की तरह हम भी बहरे-अँधे बने, उन की पीड़ाओं से बेपरवाह हम अपनी ज़िन्दगी जी या काट या फिर भोग रहे होते हैं .. शायद ...
आज बस .. अब कल आइए .. कुछ भी कहते-सुनते (लिखते-पढ़ते) नहीं हैं .. बल्कि हम मिलकर देखते हैं .. मुंशी प्रेमचंद जी की मशहूर कहानी- कफ़न पर आधारित एक लघु फ़िल्म .. हम प्रशिक्षुओं का एक प्रयास भर .. "ना 'सिरचन' मरा, ना मरी है 'बुधिया' ... -(भाग-४)." में .. बस यूँ ही ...
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 08 सितम्बर 2021 शाम 3.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteजी ! सुप्रभातम् वाले नमन संग आभार आपका ...
Deleteहर कलाकार के अंदर सिरचन रहता है ....अभी देखी नहीं है ये लघु फ़िल्म । देखते हैं । वैसे हर इंसान जीवन भर प्रशिक्षु ही होता है। कुछ न कुछ सीखता रहता है । चित्र सभी प्रभावी ।
ReplyDeleteजी ! नमन संग आभार आपका ...
Deleteफ़िल्म देख आये । अभिनय लाजवाब ..... बस जब माधव घर के दरवाजे से बाहर आ कर बुढ़िया के मरने की खबर देता है तो घर का दरवाजा कहानी के अनुरूप नहीं लगा । कुछ और सैटिंग करनी चाहिए थी । या दरवाजा नहीं दिखाते ।
ReplyDeleteजी ! आपकी समीक्षा बिलकुल सही है, वैसे और भी कई सारी त्रुटियाँ हैं इसके फिल्मांकन में। दरअसल सब कुछ इन्हीं युवाओं को ही करना था, वो भी कैंपस के भीतर ही।
Deleteकॉलेज द्वारा तय मात्र पाँच घन्टे की समय सीमा में ही सारी शूटिंग पूरी कर ली गई। मटका, बोतल(एसिड की खाली बोतल), चुक्कड़, चादर, अपने लिबास- धोती, गंजी वग़ैरह जैसे जरूरत के कई सारे सामान हम अपने मन से घर से ही ले गए थे, वर्ना ये लोग और भी परेशान हो जाते .. कैमरा मैन या एडिटिंग वाले को अवश्य दरवाजा हटा देना चाहिए था 🙏
बुधिया*
ReplyDeleteजी !
Deleteनमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा गुरुवार (9-09-2021 ) को 'जल-जंगल से ही जीवन है' (चर्चा अंक 4182) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। रात्रि 12:01 AM के बाद प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
जी ! नमन संग आभार आपका ...
Deleteसुन्दर
ReplyDeleteजी ! नमन संग आभार आपका ...
Deleteबहुत ही प्रभावी लेख और तस्वीरें......वैसे तस्वीरें देखकर शूटिंग के बारे में विचार कर रही हूँ देखने में कहाँ समझ आती हैं कलाकार की परेशानियां...पर समझ आ रहा है कि सुबह से शाम तक ऐसे जंगल में कैमरे के सामने....
ReplyDeleteनमन आप सभी कलाकारों की इस अप्रतिम कला को।
जी ! नमन संग आभार आपका ... (फ़िल्म अवश्य देखिएगा ..)
Deleteवाह!सुंदर लेख! तस्वीरें देख कर बहुत अच्छा लगा!
ReplyDeleteजी ! शुभाशीष संग आभार तुम्हारा ... वैसे कफ़न फ़िल्म भी देखी या नहीं 🤔🤔
Delete