Thursday, December 4, 2025

'सायरन' वाली गाड़ी

आज तड़के सुबह सक्सेना जी के पड़ोस में रहने वाले पैंसठ वर्षीय वर्मा जी स्वर्ग सिधार गए हैं। तभी से ही मुहल्ले भर में उनके घर से लगातार ज़ोर-ज़ोर से रोने-बिलखने की आवाज़ें आ रही हैं। 

हम इंसानों की ये एक अजीबोग़रीब विडंबना है कि .. हम विभिन्न धामों की तीर्थयात्राएँ कर-कर के अपने लिए मरणोपरांत तथाकथित स्वर्ग या जन्नत की कामना करते हुए मन्नतें माँगते तो ज़रूर हैं .. परन्तु हम मरना भी नहीं चाहते हैं। जबकि हमारे जन्म के साथ ही हमारे साथ मौत की भी एक चिट चिपकी हुई होती है .. जिसको हम सभी ताउम्र नज़रंदाज़ करते रहते हैं। पर वह चिट हमारी तमाम अवहेलनाओं के बावजूद हमें समय-समय पर ताकीद भी करती रहती है और एक दिन .. वही चिट चट से हमारी ज़िन्दगी चट कर जाती है .. शायद ...

फ़िलहाल मृतक वर्मा जी के घर जाने के बाद वहाँ के मातमी माहौल में काफ़ी देर तक बिना दाना-पानी के रहने का अंदेशा है सक्सेना जी और उनके परिवार को भी। 

दरअसल उनके परिवार में सक्सेना जी मधुमेह से पीड़ित हैं तो .. ज़्यादा देर तक वह खाली पेट नहीं रह सकते हैं। साथ ही श्रीमती सक्सेना आयुर्वेद के अनुसार वात, पित्त और कफ जैसे तीन जैविक दोषों में से वात दोष से कुछ ज़्यादा ही परेशान रहती हैं। गैस की दवाईयों के सेवन के बाद भी दिन-रात विभिन्न प्रकार की ज़ोरदार आवाज़ों वाली ध्वनि प्रदूषण करती रहती हैं। यानी .. अब .. सरल व आम बोलचाल की या ठेठ भाषा में कहें तो .. वह दिन-रात पादती रहती हैं या डकारती रहती हैं। ऐसे में .. वह भी अधिक देर तक भूखे पेट नहीं रह सकती हैं।

इसीलिए सक्सेना जी के परिवार के चारों सदस्यों ने .. वह, उनकी धर्मपत्नी, उनका बेटा और उसकी पत्नी यानी सक्सेना जी की बहू ने भी किसी तरह ज़ल्दी-ज़ल्दी में रात की बची हुई बासी रोटी पर 'जैम' और कल सुबह के बचे हुए 'ब्रेड' के कुछ 'स्लाइस' पर 'फ्रीज' में रखे हुए 'बटर' को लगा कर अपना-अपना मुँह जूठा लिया है। 

'इंडक्शन' पर ही आनन-फानन में चाय भी बना ली गयी है। क्योंकि लोकलाज और समाज के रीति-रिवाज़ों का भी .. औपचारिक ही सही .. पर निर्वाह तो करना ही पड़ता है। लोगबाग कहते हैं,  कि पड़ोस में किसी का मृत शरीर पड़ा हो, तो अपने घर में भी चूल्हा नहीं जलाया जाता है .. भले ही वह चूल्हा .. गैस वाला ही हो। 

वैसे भी .. अगर ताज़ा नाश्ता 'इंडक्शन' पर ही बनाया भी जाता तो .. कड़ाही-छोलनी की छनर-मनर की या 'प्रेशर कुकर' की सीटी की आवाज़ या फिर कुछ छौंके जाने पर तेल-मसाले के गंध के साथ-साथ छनन-छन्न की आवाज़ से अगल-बगल में पोल खुल जाने पर वर्षों तक जगहँसाई का भी डर बना रहता है।

खैर ! .. सक्सेना जी और उनके परिवार के सभी सदस्य अभी अपने घर पर ही जल्दी-जल्दी नाश्ता-पानी करने के बाद एक आम मध्यम वर्गीय परिवार की तरह ही नाश्ते के पश्चात चाय पीने की परम्परा को निभाते हुए .. अब मृत वर्मा जी के घर जा कर उनके शोक संतप्त परिजनों को सांत्वना देने वाली औपचारिकता निभाने की तैयारी कर रहे हैं।  

चाय की चुस्की लेते हुए अचानक सक्सेना जी भावुक होकर अपने इकलौते बेटे-बहू को सम्बोधित करके एक जागरूक नागरिक की तरह कहते हैं, कि - " देखो बेटा .. हम मरेंगे ना .. तो हमको विद्युत दाह गृह में ही जलाना .. नौ मन लकड़ी मत खरीदना .. क्योंकि उसके लिए पेड़ों को काटे जाते हैं और .. उन सब कटाव के परिणामस्वरूप हमारे पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। "

प्रतिक्रिया स्वरूप श्रीमती सक्सेना जी तमक और छोह के मिश्रित भाव के साथ अपने धर्मपति को सम्बोधित करके बोल पड़ती हैं, कि - " का (क्या) भोरे-भोरे (सुबह-सुबह) अपने मुँह से फ़ालतू बात बोल रहे हैं जी ! .. मरे आपका दुश्मन .. "

तभी यकायक मुहल्ले में प्रवेश करती हुई 'सायरन' वाली एक गाड़ी की आवाज़ से सक्सेना जी के घर के सभी लोग चौंक जाते हैं। वैसे भी अपने देश में आपातकालीन वाहनों की ख़ास 'सायरन' की आवाज़ हमेशा आम आदमी के दिल की धड़कन बढ़ा ही देती है .. चाहे वह ख़ाकी वर्दी वाले किसी आला अफ़सर या परिवहन विभाग के उच्च अधिकारी की गाड़ी के 'सायरन' की आवाज़ हो या अग्निशामक ('फायर ब्रिगेड' यानी दमकल) गाड़ियों की हो या फिर किसी 'एम्बुलेंस' की हो।

अभी उत्सुकतावश सक्सेना जी और उनके अन्य तीनों परिजन बाहर की ओर झाँके तो .. देखते हैं कि .. उस 'सायरन' बजाती हुई गाड़ी पर 'एम्बुलेंस' या कुछ और लिखे होने की जगह "दधीचि देहदान समिति, बिहार" लिखी हुई है।

पौराणिक कथाओं में दधीचि ऋषि और उनके अस्थि दान के बारे में पढ़ने-सुनने के कारण दधीचि शब्द से तो सक्सेना जी परिचित हैं। परन्तु यह देहदान शब्द पढ़ कर सक्सेना जी चौंकते हुए जिज्ञासावश पूछ बैठते हैं कि - " अरे ! .. ई (ये) का (क्या) है हो (जी) ? "

अब तक 'सायरन' वाली गाड़ी वर्मा जी के घर के सामने जाकर रुक गयी है। तभी सक्सेना जी की नई नवेली बहू सभी की चाय पी गई जूठी प्यालियों को उठाते हुए बतलाती है कि - " पापा जी .. ये देहदान वालों की गाड़ी है। लगता है कि .. वर्मा जी 'अँकल' अपने जीते-जी इस का 'फॉर्म' भर दिए होंगे। "

सक्सेना जी एकदम से अचम्भित होकर अपनी बहू से ही पुनः पूछते हैं कि - " देहदान ? .. 'फॉर्म' ? .. हम कुछ समझे नहीं बहुरानी .. "

चाय की जूठी प्यालियों को 'किचेन' के 'सिंक' में आहिस्ता से रखते हुए उनकी बहू - " पापा जी .. इसमें समझने जैसी कोई बात ही नहीं है। अपने देश में मृत देह को दान करने के लिए एक संस्थान है। ये उसी की गाड़ी आयी है। "

सक्सेना जी - " अच्छा ! "

बहू - " हाँ पापा जी .. देहदान के लिए इच्छुक व्यक्ति को अपने जीते-जी इस संस्थान के एक 'फॉर्म' भर को भर कर उस पर अपने परिवार के दो सदस्यों के हस्ताक्षर के साथ-साथ अपनी स्वीकृति के लिए अपना भी हस्ताक्षर करके वहाँ जमा करना होता है। "

सक्सेना जी - " उससे क्या होता है बहुरानी ? .."

बहू - " मृत व्यक्ति के परिवार द्वारा तयशुदा समय-सीमा में इन लोगों को सूचित करने पर ये लोग मृत व्यक्ति के दिए गए पते पर आकर बहुत ही आदरपूर्वक मृत देह ले जाते हैं। मृतक के उपयोगी अंगों को बाद में कई ज़रूरतमंद लोगों को शल्य चिकित्सा द्वारा लगा कर उन्हें नया जीवन प्रदान किए जाते हैं। जैसे .. आँखें, 'लिवर', 'किडनी'.. और भी बहुत कुछ और .. और तो और .. शेष बचा हुआ कंकाल 'मेडिकल स्टूडेंटस्' की पढ़ाई के काम में आ जाता है। "

सक्सेना जी अचरज के साथ - " अच्छा ! "

बहू - " और नहीं तो क्या ! .. जिन्हें अपने देश में परम्परा के नाम पर हम सभी मृत देह के साथ हर दिन हज़ारों की संख्या में .. बस यूँ ही .. जला या दफ़ना देते हैं पापा जी। "

सक्सेना जी -" हाँ बहू .. सही ही कह रही हो तुम तो .. "

बहू - " पापा जी .. देहदान ना भी किया जाए तो .. कम-से-कम नेत्रदान से तो पूरे विश्व भर के अंधापन को मिटाया जा सकता है। हालांकि.. ये सब कुछ .. सरल-सुलभ है। अगर हम लोग पूर्वजों की परम्पराओं के साथ-साथ वर्तमान पीढ़ी की सोचों की भी क़द्र करनी सीख जाएँ पापा जी। हो सकता है कि .. वो सारी परम्पराएँ तब के संदर्भ में उचित रही होंगी। वैसे भी .. नया ज्ञान साझा करने में क्या ही बुराई हो सकती है भला ! "

तभी उनका बेटा नाराजगी जताते हुए अपनी धर्मपत्नी को लगभग झिड़कते हुए कहता है, कि - " क्या बके जा रही हो जी तुम सुबह-सुबह .. पापा ने तो तुमसे भी ज़्यादा दुनिया देखी हुई है ना ? "

तत्क्षण श्रीमती सक्सेना भी अपने बेटा के हाँ में हाँ मिलाते हुए बोल पड़ती हैं कि - " आउर (और) नहीं तो का (क्या) जी ! "

तभी बहू अपने पति को सम्बोधित करते हुए नम्रता के साथ बोलती है कि -   " हम कब भला पापा जी के अनुभव और उनकी समझदारी से असहमत हैं जी। हम तो केवल ये बतलाना चाह रहे हैं कि .. समय के साथ हमारे पकवानों व परिधानों में होने वाले परिवर्तनों के साथ-साथ हमारी परम्पराओं में भी यथोचित परिवर्तन होनी ही चाहिए। "

सक्सेना जी - " बहू ठीक ही कह रही है बेटा .. चलो .. अभी जल्दी से वर्मा जी के घर चलो। नहीं तो उ (वो) गाड़ी उनको लेकर चली जायेगी .. और हाँ .. चलो .. ज़रा उनलोगों से देहदान के 'फारम' ('फॉर्म) भरने की प्रक्रिया के बारे में भी हमको अपने लिए भी समझना है। "

अब सक्सेना जी के परिवार के चारों सदस्य देहदान की एक नूतन व सकारात्मक विचारधारा लिए हुए अपने पड़ोसी वर्मा जी के शोकाकुल परिवार से मिलने उनके घर की ओर पैदल ही प्रस्थान कर रहे हैं।

Friday, November 28, 2025

है आतुर चरित्रहीन मुझ-सा .. बस यूँ ही ...

हम सभी अपनी-अपनी आपाधापी भरी ज़िन्दगी में एक-दूसरे को अक्सर कहते मिलते हैं, कि - " यार ! वक्त ही नहीं मिल पाता। " किन्तु हमारा सारा वक्त तो हमारे पास ही होता है; जोकि सबको समान रूप से ही मिलता है। पर वक्त कब, कहाँ, कैसे और किसको देना है, ये प्रायः तय होता है .. हमारी चाहतों या प्राथमिकताओं के आधार पर .. शायद ...

अगर हम और आप अपनी इन्हीं आपाधापी भरी ज़िन्दगी में से केवल 15 मिनट का समय चुरा पाए;  तो फिर .. हम और आप मिलकर बतकही करेंगे। अपनों के बारे में, अपनापन के बारे में, स्नेह, श्रद्धा और प्रेम के बारे में, अनाम रिश्तों के बारे में, मन के आरोही-अवरोही विज्ञान के बारे में, उत्तराखंड के पहाड़, बर्फ़ और बादलों के साथ-साथ प्रेम-प्रस्तुति में पत्थरों की अहम भूमिका के बारे में।

आपको बस, केवल आपके अपने चहेते Smart मोबाइल फ़ोन में Google के Search Option में

"AIR Dehradun" को Type करनी है। 
जिसके परिणामस्वरूप आए कई Options में से पहले वाले Option को ही Click करते ही 

Screen पर ये AIR Dehradun वाला Page आ जाएगा।

 बस उस Page के Video वाले Sign पर उंगली से दबाते ही

आपका आधुनिक Radio cum Transistor चालू ...

इस तरह आप मानो यकायक किसी Time Machine की तरह मोबाइल के आधुनिक युग से रेडियो-ट्रांजिस्टर के पुरातन युग में प्रवेश कर जायेंगे।

तो बस्स ! .. आइए ! .. 30 नवम्बर, दिन - रविवार को रात 8 बजे AIR यानी All India Radio, Dehradun से होने वाले 15 मिनट के एक यादगार प्रसारण (Broadcasting) को सुनने का यथासंभव प्रयास करते हैं।

वैसे भी .. 30 नवम्बर को हिंदी पंचांग के अनुसार रात के 9 बज कर 29 मिनट तक रेवती नक्षत्र के शुक्ल पक्ष की दशमी है और हिंदी पंचांग के अनुसार ही रात के 8 बजे तक तथाकथित राहु काल की भी समाप्ति हो चुकी होगी। 

तो फिर .. तैयार हो जाइए .. मीन राशि वाले रेवती नक्षत्र के शुक्ल पक्ष की चाँदनी रात की बरसती चाँदनी में भींगते हुए .. रिश्तों की, प्यार की और गोलार्द्ध चाँद की भी बतकही सुनने के लिए और सुनकर महसूसने के लिए .. बस यूँ ही ...


फ़िलहाल .. चलते-चलते एक ताजातरीन बतकही भी : - 


है आतुर चरित्रहीन मुझ-सा .. बस यूँ ही ...


आए हैं आप शायद 

दिखलाने आईना मुझे

इस भरी महफ़िल में,

पर दिखेगा केवल

मुखौटा भर मेरा,

जान नहीं पायेंगे आप

बात जो है अभी मेरे दिल में।

देखना जो हो अगर कभी 

मुखौटे से बाहर मुझे और

मन को भी मेरे दिगम्बर रूप में,

दिगम्बर स्वरूप में, तो यक़ीन मानिए ..

आप आ जाइए कभी 

रात के अँधियारे में या 

फिर मेरी तन्हाई में कभी।

घूरिए फिर दूर से मेरे

मुखौटाविहीन दिगम्बर मन को

किसी सीसीटीवी कैमरे के जैसे।


थूकेंगे तब तो आप अवश्य मुँह पर मेरे,

जैसे थूका था कभी "बसंती" ने

"शोले" में "गब्बर" के मुँह पर

और हँस भी दें शायद आप

"वेलकम" वाले " 'गैंगस्टर'- उदय शेट्टी " बने

नाना पाटेकर की तरह

और बोलने भी लगें आप शायद ..

" मिर्ज़ापुर " के " लाला " वाले 

उस किरदार के संवाद, 

किसी 'मीम' के माफ़िक़ मुँह पर ही मेरे, 

कि .. " बड़े हरामी हो बेटा ! "

निःसंदेह .. आप थूकना मुँह पर मेरे,

हँसना भी मुझ पर ज़ोर से और ..

ठहराना हरामी भी मुझे, पर .. ज़रा ठहरिए .. 

क्योंकि कह रहा हूँ मैं अभी आपसे,

एक अन्य 'मीम' की तरह ही ..

कि .. " अभी रुको ज़रा ! " ..  " पिक्चर अभी बाकी है। "


क्योंकि .. कीजिएगा ये सब तभी,

साथ मेरे आप सभी .. किया ही नहीं हो जब 

जीवन में अपने आपने कभी एक बार भी ...

हस्तमैथुन .. हस्तमैथुन यानी 'मैस्टर्बेशन' ,

'मैस्टर्बेशन' तो .. समझते ही होंगे आप ? 

और शायद ... किया भी होगा 

आपने कभी ना कभी ? 

और हाँ .. वासनायुक्त होकर उस दरम्यान,

अपने किसी एक या कई-कई 'क्रशों' को 

कर-कर के बिंबित अंतर्मन में,

अपनी आँखें मूंदे बिस्तर पर अपने,

ना किया हो आपने नग्न,

"वीनस" या "डोरीफोरस" के जैसे ..

कई-कई दिगम्बर अवतारों में।

तब तो .. बेशक .. आएँ आप यहाँ ..

हर तरह से दण्डित होने के लिए ..

है आतुर चरित्रहीन मुझ-सा .. बस यूँ ही ...

          

गैंगस्टर = Gangster 

मीम = Meme

मैस्टर्बेशन = Masturbation

क्रश = Crush

वीनस = Venus de Milo

डोरीफोरस = Doryphoros




{ चित्र (मूर्ति) सौजन्य से - सालारजंग संग्रहालय, हैदराबाद. }

{ Pic (Statue) Courtesy - Salar Jung Museum, Hyderabad. }

Tuesday, November 25, 2025

बित्ते भर का छोकरा ...


सुबह के साढ़े सात बजे एक आम मध्यमवर्गीय संयुक्त परिवार के घर में .. करीब नौ वर्षीय बिट्टू 'स्कूल' जाने की तैयारी में पीठ पर 'बैग' लादे हुए ही 'डाइनिंग टेबल' के सामने कुर्सी पर बैठा सुबह का नाश्ता कर रहा है ; ताकि अगर 'स्कूल ऑटो' का 'हॉर्न' नीचे फाटक पर बजे तो वह अपने पहले तल्ले वाले 'फ़्लैट' से दौड़ता-भागता हुआ नीचे 'ऑटो' तक शीघ्र भाग कर जा सके।

बग़ल वाली कुर्सी पर उसके पापा चाय की चुस्कियों के साथ-साथ आज के ताज़ा अख़बार की ताज़ी ख़बरों पर अपनी नज़रें दौड़ा रहे हैं। उनके बग़ल में बिट्टू की दादी माँ बैठीं सामने 'टी वी' पर " आस्था 'चैनल' " से सुबह-सवेरे प्रसारित होने वाले भक्ति के कार्यक्रमों को देख-सुन रहीं हैं। दरअसल दादी माँ स्नान करने की प्रतीक्षा में बैठी हैं , क्योंकि बिट्टू की 'मम्मी' 'बाथरूम' से नहा कर अभी निकलने ही वाली हैं .. शायद ...

शहरों में किराए के 'टूबीएचके' वाले 'फ़्लैट' में जब एक ही 'कंबाइंड लैट्रिन बाथरूम' हो .. तब तो यूँ ही 'एडजस्ट' तो करना ही पड़ता है। जिनमें होता है .. एक 'डाइनिंग हॉल' या 'डाइनिंग स्पेस' कह लीजिए, उसी के बग़ल में 'किचेन' और .. उससे सटा हुआ या सामने एक 'कंबाइंड लैट्रिन बाथरूम' का अंदर की तरफ़ खुलने वाला दरवाज़ा या कहीं- कहीं बाहर की तरफ़ भी .. शायद ...


अक्सर 'बालकॉनी' में गौरैयों, कबूतरों या पंडुकों की आवाज़ें सुनकर ख़ुश होने वाला बिट्टू .. अचानक 'बालकॉनी' से कुछ कौवों की काँव- काँव की आवाज़ें अभी अपने कानों में पड़ते ही ख़ुश होते हुए अपनी दादी से कहता है - " दादी माँ ! देखो आज कौवा भी आया है। "

दादी माँ - " हाँ रे ! .. लगता है आज अपने घर कोई ना कोई मेहमान आने वाला है .. तभी तो ये लोग इतना हल्ला कर रहे हैं। "


बिट्टू - (हँसते हुए) " नहीं दादी माँ .. कोई आने- जाने वाला नहीं है अपने घर में आज .. वो तो सामने वाले 'पार्क' के पास जो कूड़े के ढेर पड़े रहते हैं ना ! .. वहीं पर कल शाम से ही एक मरा हुआ 'स्ट्रीट डॉग' पड़ा हुआ है। उसी के 'ऑपरेशन' में ये लोग सुबह से ही लगे हुए हैं। "

दादी माँ - " राम- राम .. "

बिट्टू - " उन्हीं में से कुछ को प्यास लगी है, तो वही लोग 'बालकॉनी' में .. जो चिड़ियों के लिए बर्त्तन में मम्मी पानी रखती हैं ना ! .. वही पानी पी रहे हैं .. "


तभी फाटक पर 'स्कूल ऑटो' के 'हॉर्न' की आवाज़ सुनकर बिट्टू - " 'बाय पापा', 'बाय मम्मी', 'बाय' दादी माँ " कहता हुआ .. हड़बड़ी में प्रत्युत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ही .. तेज़ी के साथ 'फर्स्ट फ्लोर' से नीचे की ओर सीढ़ियों को नापता हुआ भाग कर चला जाता है और उसी समय .. 'बाथरूम' खाली हो जाने पर दादी माँ नहाने के लिए 'बाथरूम' की ओर .. मन ही मन भुनभुनाती हुई प्रस्थान करती हैं, कि - " हमने सालों दुनिया देखी है और ये हम ही को समझाने चला है। अब ये बित्ते भर का छोकरा हमारी बात काटने चला है .. हँ .. ना त् .. ! "


[अब आप सभी भी यहाँ से प्रस्थान कीजिए 🙏 और जाइए .. जाकर अपने-अपने कामों को निपटाइए। दिन-रात केवल अपने-अपने 'मोबाइल' और 'सोशल मीडिया' में मत खपते रहिए 😀 .. बस यूँ ही ...]

Thursday, November 6, 2025

शब्दकोश है शून्य .. शायद ...


हे नर ! .. 
हे तथाकथित पति परमेश्वर !
हर बार मछली का मुड़ा
या मछली की फ्राई पेटी,
बकरे के पुठ वाला पर्चा
या शोरबे से चुनी हुई कलेजी 
या फिर .. घी-प्याज़ में तली हुई 
कलेजियाँ सारी की सारी ही।
सुगन्धित बिरियानी के साथ 

ज़्यादा से ज़्यादा बिरिस्ता, 

और हर बार मुर्गे का लेग पीस भी।

गाढ़ी दाल के ऊपर-ऊपर तैरता घी,

ये सब है वो परोसती,

विशेष रूप से थाली में तुम्हारी,

कभी चखना के तौर पर

या तो .. भोजन के लिए कभी।

दही जब भी तो .. कटोरा भरा, 

वो भी छाली से अंटा पड़ा,

रात में भर गिलास जब कभी दूध भी,

तो डाल कर मलाई पूरे पतीले की।

ये सब है उसका प्यार तुम्हारे लिए 

या फिर सम्मान है तुम्हारे लिए,

क्योंकि .. 

ब्याह लाए हो उसे तुम

साथ इक भीड़ की गवाही के,

तो तुम बन गए हो उसके ..

तथाकथित पति परमेश्वर,

या ख़ुदा जैसे ख़ाविंद।

है ना ? .. 

हे चराचर के स्वघोषित सर्वोत्तम चर जीव- नर !


पर बदले में इन सब के 

परोसा है क्या ही सब तुमने समक्ष उसके,

रात के नितांत एकांत में ?

सिगरेट की दुर्गन्ध से गंधाता अपना मुँह,

शराब की बदबू से बसाती अपनी साँसें,

खैनी या गुटखे की बदबूदार 

बजबजाती अपनी लार

और कामोत्तेजक अकड़े उसके बदन को

मिलने वाले चरमसुख से पहले ही 

स्वयं का शीघ्रपतन वाला स्खलन,

जो रति क्रीड़ा कम, 

लगती है उसे पीड़ा ज़्यादा।

तदोपरांत खर्राटेदार निढाल अपना बदन,

बिस्तर के चादर पर लिजलिजी सीलन 

और उस पर उसका सुलगता तन-मन।

और हाँ .. शब्दकोश है शून्य 

या यूँ कहें कि .. सुन्न है तुम्हारी,

पूर्व लैंगिक गतिविधियों से भी,

क्योंकि बतलाया ही नहीं तुम्हें कभी 

ना तो परिवार-समाज ने और .. 

ना ही किसी सिलेबस ने भी कभी।

यूँ झेलती है प्रायः हर रात वो

तुम्हारी बदबूदार बजबजाती 

लार से लेकर लिजलिजे वीर्य तक।

ऐसे में लगने लगते हो तुम 

मन को उसके ..

पति कम, पतित ज़्यादा,

ख़ाविंद कम, ख़ब्ती ज़्यादा ..शायद ...

नहीं क्या ? .. बोलो ना ! .. 

हे नराधम नर ! .. बस यूँ ही ...


{ आज की बतकही पूर्णरूपेण समर्पित है, उन नारियों की कसक को, जो पेशे से तथाकथित आम गृहलक्ष्मी हैं।

भूले से अगर वो सात्विक भी हैं, तब तो उनके लिए ये बतकही कुछ ज़्यादा ही समर्पित है। 

बशर्ते .. उन नारियों में से जिस किसी के भी तथाकथित पति परमेश्वर या ख़ुदा जैसे ख़ाविंद तमाम उपरोक्त व्यसनों के या उनमें से किसी भी एक व्यसन के आदी हों। 

वैसे तो .. इस बतकही के केन्द्र में केवल बानगी के तौर पर ही एक मांसाहारी दम्पती का चयन किया गया है। परन्तु .. अगर चिंतन किया जाए तो .. कम-से-कम किसी मानव के लिए तो .. मांसाहार भी एक व्यसन ही है .. शायद ...

ये बतकही श्रद्धांजलि (?) भी है .. दुनिया के उन तमाम व्यसनों को और उन व्यसनी पतियों को भी। साथ ही .. उनसे कुछ सवाल भी .. बस यूँ ही ... }


[ कोलाज हेतु चित्र साभार :- सालारजंग संग्रहालय एवं शिल्परामम आर्ट & क्राफ्ट विलेज, हैदराबाद। ]

Monday, September 22, 2025

नवरात्रि के एक दिन पहले ...


शुरू होने के एक दिन पहले सावन या नवरात्रि,
दम भर खाए मांसाहार की हड्डियां चबायी-चूसी
डाल देते तो हो अक्सर सड़क किनारे तुम सभी,
कुछ अन्न-शोरबा भी जूठन स्वरूप अवशेष बची।

समक्ष उन सभी के जिसे अक्सर आवारा है कहती 

सर्वोच्च अदालत अपने देश की, जो वो है ही नहीं।

वो बेचारे तो लावारिस हैं, बेज़ुबान हैं, बेजान नहीं,

संवेदनशील हैं, आती ना हो मानवी भाषा भले ही।


दो इन्हें भी जूठन से परे गर्म तवे वाली रोटी कभी,

हों गाढ़े औंटे गुनगुने गाय-भैंसी के दूध ना भी सही,

सुसुम पानी में घोले गए पावडर वाले दूध ही सही,

बड़े ना भी, छोटे पैकेट ही सही, 'पेडिग्री' की कभी।


गटक जाते हो तुम इन सब से भी ज़्यादा क़ीमत की 

हर रोज़ 'जंक फूड', गुटखा, शराब, सिगरेट या खैनी।

भाती नहीं घर की पकी रसोई, करते हो फिजूलखर्ची,

खाने में मोमो-चाउमिन, बर्गर-पिज्जा या बनटिक्की।


पुचकारो, सहलाओ, फेरो अपनी स्नेहसिक्त हथेली,

किसी निज प्रिय की आँखों की तरह ही कभी-कभी,

फ़ुर्सत निकाल झाँको कभी तो इनकी आँखों में भी।

भैरव के हो उपासक तो मानो इन्हें निज संतान-सी।


हँसो इनकी टेढ़ी दुम पर, पर सीखो इनसे वफ़ादारी,

त्याग दो कभी एक सिनेमा, एक जन्मदिन की पार्टी।

निकालो और दो ... कुछ वक्त इन सभी को भी कभी

तब ना ये आवारे फिरेंगे लावारिस गलियों में शहर की .. शायद ...


{ एक सवाल - समस्त तथाकथित आस्तिकों की आस्था के अनुसार लगभग सभी देवी-देवताओं की सवारी कोई ना कोई पशु या पक्षी ही है। मंदिरों में या अपने-अपने घरों में बने पूजा के ताकों पर देवी-देवताओं के साथ-साथ उन सभी की भी पूजा सभी तथाकथित भक्तगण जाने-अंजाने करते हैं। वैसे भी तो सभी पशु या पक्षी भी तो उसी प्रकृति या विधाता की ही अनुपम कृति हैं .. शायद ...

फिर भला पशु-पक्षियों से इतनी नफ़रत भला क्यों .. कि उन्हें .. या तो अपने दरवाज़े से दुत्कार दिया जाए या फिर .. अपने भोजन की थाली में सजायी जाए ? }


आप सभी उस प्रकृति या विधाता की सर्वोच्च अनुपम कृति हैं। आप में सोचने- समझने की मादा उन निरीह पशु-पक्षियों से बहुत ही अधिक है। है ना ? .. तो फिर .. एक बार सोचिए ना !!! .. बस यूँ ही ...


आप सभी को नवरात्रि (तथाकथित) की हार्दिक शुभकामनाएँ ! 🙏











Sunday, September 14, 2025

21 सितंबर को अघोषित कर्फ्यू ...


सुना है कि .. आज हर वर्ष की भांति 14 सितंबर को राष्ट्रीय हिंदी दिवस है। वैसे आपको ये भी मालूम ही होगा कि .. 10 जनवरी को विश्व हिंदी दिवस मनाया जाता है।

आज से ठीक एक सप्ताह बाद यानी 21 सितंबर को ..तीस वर्ष पहले 1995 में दिन था गुरुवार , जिस दिन so called भक्तगण non veg (मांसाहार) नहीं खाते हैं। बाक़ी दिन तो भकोसते ही हैं।

तो .. उस 21 सितंबर 1995 को पूरे भारतवर्ष में अघोषित कर्फ्यू लग गई थी। लोग शहर भर में आ- जा रहे तो थे, पर एक ही विशेष स्थान पर। विशेषतौर पर चाय की दुकानें बंद हो गईं थीं। दूध के लिए त्राहिमाम हो रहा था। याद आई वो घटना ?

1995 के बाद जन्मे हुए लोगों को बतलाते चलें कि .. उस दिन भारत ही नहीं , विश्व भर में तथाकथित (so called) गणेश की प्रतिमा दूध पी रही थी। हमारी तो उसी साल जून महीने में शादी हुई थी। तो .. हम तो मन ही मन ख़ुश हो रहे थे, कि .. अब तो मेरे ऊपर भी कृपा बरसेगी। जब गणेश जी दूध पी रहे हैं तो हमारी धर्मपत्नी के गोद में भी दूध पीने वाला या वाली का शीघ्र ही पदार्पण होगा। पर वो तो पधारा .. दो वर्षों बाद 1997 में। वो भी दिन- रात के अथक .. ओह ! .. सॉरी .. सॉरी, दिन- रात नहीं, बल्कि कई रातों वाले हमारे अथक परिश्रम के। 

और .. गणेश जी का दूध पीना बंद हुआ .. वैज्ञानिकों के द्वारा केशिका क्रिया (Capillary Action) को समझाए जाने पर। वर्ना हम आज भी अंधश्रद्धा में चूर .. भ्रमित होकर दूध की धारों को नालियों और सड़कों पर बहा रहे होते और शहर भर में चाय की तमाम दुकानें भी बंद ही पड़ी रहतीं।

ठीक ऐसा ही भ्रम हमारे समाज में कुछ बुद्धिजीवियों के गुटों ने फैलाया है - "मेरी भाषा, मेरी पहचान" जैसा नारा (Slogan) बोल कर। इस नारा से मिलने वाली पहचान का तो पता नहीं, उल्टा हमें ये नारा कमजोर बनाता है। भाषाएं हमें एक नहीं करतीं, अलग करती हैं, पृथक करती हैं। अपने देश में ही भिन्न भिन्न भाषा- भाषियों से या विश्व के अन्य समाज से। ठीक जाति, उपजाति और धर्म- मज़हब की तरह। किसी एक भाषा की जानकारी और उस से बंधना या उस में अपनी पहचान की आशा या तलाश करना हमें बंधन प्रदान करती है, जबकि कई भाषाओं से जुड़ाव या जानकारी हमें विस्तार और गति देती है .. शायद ...

जिस मराठी भाषा के लिए वर्तमान में चंद लोग कुत्ते- बिल्ली की तरह लड़ रहे हैं। उसी मराठी भाषा की मराठी भाषी होते हुए भी लता मंगेशकर जी देशी- विदेशी 20 से भी ज़्यादा भाषाओं में गाना गायीं थीं। कुत्ते- बिल्लियों की भौं- भौं और म्याऊँ- म्याऊँ भले ही उनकी पहचान हो सकती है। परन्तु .. इंसानों के लिए "मेरी भाषा, मेरी पहचान" जैसा भ्रम फैलाना मतलब .. अपनी युवा पीढ़ी को कुएँ का मेढक बनाने जैसा ही हैं। उदाहरण  स्वरूप हम उत्तराखंड के संदर्भ में गढ़वाल या कुमायूँ क्षेत्र की बात करें तो .. आज प्रसून जोशी की पहचान समस्त देश में उनकी कुमाऊनी भाषा से नहीं बनी है, बल्कि .. उस कुमाऊनी भाषा से इतर हिंदी भाषा में लिखने से बनी है .. शायद ...

भ्रम का एक अन्य उदाहरण .. आज ही सुबह- सुबह "पाँच लिंकों के आनन्द" नामक ब्लॉग के जन्मदाता व अभिभावक और साथ ही हम सभी के अग्रज भी .. श्री दिग्विजय अग्रवाल जी ने सोशल मीडिया के एक अभिन्न मंच फ़ेसबुक पर एक पोस्ट लिखा कि :- 

लोगों का तर्क है कि 

“अंग्रेजी अंतर्राष्ट्रीय भाषा है”

दुनिया में 204 देश हैं

और अंग्रेजी सिर्फ 11 देशों में ही बोली, पढ़ी और समझी जाती है, 

फिर ये कैसे अंतर्राष्ट्रीय भाषा है?

ऐसे में मुझसे रहा नहीं गया .. उनके अग्रज होने के बावजूद हमने उन्हें सच्चाई से अवगत कराया। वैसे भी पुरखे या बड़े जो भी कह गए या कह रहे हैं ; उन्हें आँखें मूंद कर मान लेना एक जिम्मेवार इंसान या नागरिक का काम नहीं है। हरेक इंसान को स्वयं तार्किक होना ही चाहिए और .. भावी पीढ़ी को भी प्रश्न करने से नहीं रोकना चाहिए .. शायद ...

ऐसे में हमारी उपलब्ध जानकारी के आधार पर हमारा उत्तर था, कि : - 

महोदय,

सुप्रभात सह सादर नमन,🙏

ऐसा इसलिए नहीं कहा जाता कि अंग्रेज़ी विश्व भर के आम लोगों की बोलचाल की भाषा है, बल्कि ऐसा इसीलिए बोला जाता है या वास्तविकता भी है कि -

वर्तमान में .. वैश्विक विज्ञान, प्रौद्योगिकी, अंतरराष्ट्रीय व्यापार, शिक्षा, कूटनीति, मनोरंजन, रेडियो, समुद्री यात्रा और विमानन की सम्पर्क या सामान्य भाषा अंग्रेजी ही है।

मसलन - समस्त विश्व में  वैज्ञानिकों के द्वारा पानी को H2O और सोना को Au ही लिखा, पढ़ा, बोला या समझा जाता है।

वैसे तो .. विश्व भर में तथाकथित धर्मग्रंथों की ही भाषाएँ नाना प्रकार की होती हैं .. शायद ...

Friday, September 12, 2025

अंग्रेज़ी वर्णमाला की आख़िरी Z ...

जैसे हमारी ज़िंदगी का हर पल, हर दिन, मनोरंजक ही हो .. ये आवश्यक तो नहीं। वैसे ही हर रील (या बतकही) में मनोरंजन ही हो .. ये ज़रूरी नहीं। हम प्रायः अपनी रीलों में अपनी मसल्स और मेकअप ठूंस -ठूंस कर या फिर ऊटपटांग हरकतों से भरी छिछोरे मनोरंजन वाली रील सोशल मीडिया पर परोसने के आदी हैं और बहुतायत में लोग देखने के भी। पर हमने अभी- अभी देखा कि .. उसी सोशल मीडिया ने हमारे पड़ोसी राष्ट्र में तख़्तापलट कर दिया।

सर्वविदित है कि अंग्रेज़ी वर्णमाला की जो आख़िरी Z है, उसी Z वाली Z या Z+ सुरक्षा .. अपने देश में सुरक्षा देती है बड़े बड़े नेताओं और मंत्रियों को। परन्तु पड़ोसी राष्ट्र की उसी Z वाली .. Gen-Z पीढ़ी ने अपने पूरे देश को तहस- नहस करने में कोई भी कसर नहीं छोड़ी है। बल्कि अपने देश के नेताओं- मंत्रियों को दौड़ा- दौड़ा कर मारा भी और देश छोड़कर बाहर जाने या देश में ही कहीं गुमनाम स्थान में छुपने के लिए लाचार कर दिया। भले ही तथाकथित तौर पर वो सभी के सभी भ्रष्टाचार या भाई- भतीजावाद के शिकार रहे हों।

ऐसे परिदृश्य में .. बांग्लादेश हो या नेपाल .. दोनों ही एक से लगे। जिसने ये पुनः साबित कर दिया कि उग्र भीड़ की .. ना तो कोई जाति होती है और ना ही कोई धर्म। बस्स .. लूटपाट, लूटखसोट, आगजनी, मारपीट, नारेबाजी, हत्या इत्यादि- इत्यादि और बलात्कार भी, जो .. इस भीड़ ने नहीं की। पर टेलीविजन पर ही सही .. जो भी तस्वीरें दिखीं .. वो घिनौनी और भयावह भी थीं .. शायद ...


समाचारों में उपलब्ध गिनती के अनुसार तथाकथित विद्रोहियों, आंदोलनकारियों या प्रदर्शनकारियों में से भी लगभग 30 लोग मरे, जिन्हें अब शहीद घोषित करने की माँग हो रही है और लगभग 1000 से भी अधिक घायल हुए हैं। पर जो .. एक उम्र-ए-दराज़ महिला ज़िंदा जला दी गईं। जो किसी देश के पूर्व प्रधानमंत्री की पत्नी तो बाद में थीं, पहले तो वह किसी वृद्ध पति की धर्मपत्नी थीं। किसी की माँ, किसी की बहन, किसी की बेटी भी थीं। 


फिर .. ख़बरों के आँकड़ों के अनुसार वहाँ के 25 कारगारों से लगभग 15000 से भी अधिक क़ैदियों का भाग जाना व लगभग 560 अपराधियों का हिरासत से भाग निकलना और इन सभी का उसी आम समाज में पुनः ग़ैरक़ानूनी तरीके से वापस आ जाना .. उस समाज- देश के साथ- साथ बिना पासपोर्ट व वीजा के ही आवागमन वाले पड़ोसी देश होने के नाते हमारे देश के लिए यानी हमारे लिए भी संभवतः खतरनाक ही है। 


किसी उचित माँग को भी अनुचित और हिंसात्मक तरीके से माँगी जाए तो .. इसे जुर्म ही कहा जाना चाहिए और वहीं .. अगर अनुचित माँग को अनुचित तरीके से माँगा या फिर जबरन या साजिशन मनवाया जाता है, तो उसे आतंकवाद कहा जाता है .. शायद ...


ऐसी मनहूस घड़ियों में रोम के जलने वाले दिन के नीरो की, मैनहट्टन परियोजना के तहत परमाणु बम के आविष्कार वाले दिन की, जर्मनी की लोककथा The Pied Piper of Hamelin (द पाइड पाइपर ऑफ हेमलिन) यानी बांसुरीवाला और चूहे की कहानी की भी और .. .. अपनी so  called आज़ादी वाले दिन के बंटवारे की .. एक साथ यादें ताज़ी हो जाती हैं। जिनमें एक तरफ़ कुछ पाने की ख़ुशी तो .. दूसरी तरफ़ बहुत कुछ गुम हो जाने की टीस। एक तरफ़ सोशल मीडिया ऐप्स की पाबंदी के विरोध से पाबंदी का हट जाना और दूसरी तरफ़ .. उस विरोध या विद्रोह में देश की ढांचा का जल जाना। वो भी हैवानियत भरी निम्नस्तरीय लूटखसोट के साथ .. मानो .. चंगेजी ख़ून दौड़ रही हों उन सभी की रगों में .. शायद ...


वैसे भी अग्नि वेदी , हवनकुंड, चूल्हा , चिता जब एक या कुछ लोग जलाते हैं, तो किसी का नुकसान नहीं होता ; परन्तु .. जब एक उग्र भीड़ किसी ज़िन्दा इंसान, घर, मोहल्ला, शहर को जलाती है तो .. बहुत कुछ खो जाता है .. जल जाता है .. गुम हो जाता है .. आम जनजीवन, शिक्षा, आपातकालीन उपचार, व्यापार, रेहड़ी, दिहाड़ी .. सबकुछ ठप हो जाते हैं .. थम जाते हैं .. एक स्पंदनहीन मृत देह की तरह .. शायद ... 


ये आंदोलन शहर को बिना जलाए और बिना लूटे भी किया जा सकता था। 9 सितंबर को जलने के बाद आज देखने पर ऐसा लग रहा है .. मानो पूरे शहर, पूरे राष्ट्र के मुँह पर कालिख पोती हुई है। और फिर .. इसकी भरपाई भी तो so called Gen-Z के कामगार या व्यापारी अभिभावक रूपी आम जनता की गाढ़ी कमाई से लिए गए टैक्सों से ही तो की जाएगी ना ? .. शायद ...



[ सभी उपरोक्त Pics 'आजतक' के सौजन्य से. ]