Thursday, November 14, 2024

दो टके का दो टूक ... (१)

 


आज हम उपलब्ध इतिहास की मानें, तो कभी कंदराओं में रहने वाले नग्न आदिमानव भले ही क़बीलों में बँटे हुए, तब अपनी उत्तरजीविता के लिए आपस में युद्धरत रहा करते थे। परन्तु उन क़बीलों से वर्तमान क़ाबिल हो जाने तक का एक लम्बा सफ़र तय करने के बाद भी आज तो और भी ज़्यादा ही अन्य कई सारे आपसी दृष्टिकोणों वाले मतभेद जनित वर्चस्व की प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से आपसी लड़ाई में वो निरन्तर तल्लीन दिखाई देते हैं .. शायद ...

चाहे वो मामलात धर्म-सम्प्रदाय के हों, पर्व-त्योहार के हों, जाति-क्षेत्र के हों, जीवनशैली के हों .. हर क्षेत्र में, हर पल .. जनसमुदाय खेमों में बँटा हुआ दिखता है। इस वर्ष दीपावली जैसे त्योहार में भी हमारा तथाकथित बुद्धिजीवी एवं तथाकथित सनातनी समाज दो-तीन अलग-अलग हास्यास्पद मामलों में .. विवादास्पद रूप से दो गुटों में बँटा हुआ दिखा है .. शायद ...
पहले मामले में .. एक गुट, जो अपने तर्क की बुनियाद पर 31 अक्टूबर को दीपावली मनाने की बातें कह रहा था, तो दूसरा गुट 1 नवम्बर को मनाने की पैरवी कर रहा था। दूसरे मामले में एक तरफ़ आज भी तथाकथित बुद्धिजीवियों का एक वर्ग यह मानता है, कि धनतेरस-दीपावली के दौरान उल्लू दिख जाने से सालों भर घर में लक्ष्मी आतीं हैं और दूसरा वर्ग वह .. जो तथाकथित रूप से नास्तिक या फिर अल्पज्ञानी कहलाता है, वह इस मान्यता को एक सिरे से नकार देता है। उसी प्रकार तथाकथित धनतेरस के दिन अपनी हैसियत के अनुसार एक वर्ग कुछ धातु , सोना-चाँदी व उससे बने गहनों से लेकर एल्युमीनियम-स्टील तक के बर्त्तन या साईकिल से लेकर कार तक , की खरीदारी करने से अपने-अपने घर में सालों भर तथाकथित लक्ष्मी आगमन की बात मानता है ; तो वहीं दूसरा वर्ग धनतेरस के अवसर पर तथाकथित भगवान धन्वंतरि को स्वास्थ्य व औषधि- अमृत का देवता मान कर उनकी पूजा करता है।

फिर .. तीसरे मामले में .. एक गुट धर्म-त्योहार एवं सभ्यता- संस्कृति की आड़ में आतिशबाज़ी के प्रयोग का पक्षधर बना हुआ था, तो दूसरा गुट आतिशबाज़ी से फ़ैलने वाले वायु प्रदूषण के साथ-साथ ध्वनि प्रदूषण के परिणामस्वरूप पर्यावरण की क्षति की बात करते हुए इसके विरोध में कई तरह के तर्क दे रहा था। अमूमन ऐसा हर वर्ष ही होता है। एक तरफ़ कई राष्ट्रीय स्तर के समाचार चैनल वाले अपनी तथाकथित टीआरपी (टेलीविजन रेटिंग पॉइंट) के लालच में बहुसंख्यक जनसैलाब की अपभ्रंश व रूढ़िवादी सोचों वाली मान्यताओं की हाँ में हाँ मिलाते हुए, आतिशबाज़ी से पर्यावरण को कम हानि होंने की बात बतला कर आतिशबाज़ी को सही ठहरा रहे थे।
ये वही संचार के साधन हैं, जो अपने माध्यम से हमारे घरों में, हमारी हैसियत के मुताबिक उपलब्ध सस्ते से सस्ते और महँगे से महँगे टी वी पर .. नर-नारी को पहनने के लिए हमारे बाज़ारों में  उपलब्ध एक 'ब्रांडेड' चड्ढी-बनियान की बिकवाली वाले विज्ञापन में एक युवा द्वारा एक पिता से उसकी बेटी को भगा कर ले जाने की बात मोबाइल फ़ोन पर .. बड़े ही आराम से .. करते हुए दिखलाते हैं .. वो भी हमारी युवा संतानों के मस्तिष्क में .. बड़े ही आराम से .. भागने-भगाने जैसी असंवैधानिक प्रक्रिया को दिखलाते हुए .. शायद ...

दूसरी तरफ़ .. बिना किसी लाग-लपेट के .. इसी चार नवम्बर को सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति अभय श्रीनिवास ओका ने प्रतिबंध आदेशों के बावजूद दिल्ली में दीपावली के अवसर पर अधिकांश लोगों द्वारा आतिशबाज़ी किए जाने पर दिल्ली सरकार और पुलिस आयुक्त को भी जवाब तलब किया है। साथ ही उन्हें 2025 में पटाख़ों की बिक्री और उपयोग को प्रभावी ढंग से रोकने के लिए उनकी अपनी योजनाओं के साथ एक सप्ताह में हलफ़नामा दायर करने का भी आदेश दिया है।
इस मामले की गंभीरता न्यायमूर्ति के इस वक्तव्य से और भी स्पष्ट हो रही है, कि "अगर उन प्रतिबंध आदेशों को कड़ाई से लागू नहीं किया गया तो स्थिति अराजक हो सकती है।" उनका ये भी कहना था, कि "भारत सरकार द्वारा "वायु प्रदूषण अधिनियम" में 1 अप्रैल, 2024 से संशोधन करते हुए, इसके दंडात्मक प्रावधान को हटा कर, केवल जुर्माना भरने तक का ही प्रावधान कर देने से उल्लंघनकर्ताओं का भय और भी ज़्यादा कम हो गया है।

सर्वोच्च न्यायालय का मानना ​​है, कि कोई भी धर्म ऐसी किसी भी गतिविधि को प्रोत्साहित नहीं करता है, जिससे प्रदूषण पैदा होता है। अगर इस तरह से पटाख़े जलाए जाते हैं, तो इससे नागरिकों के स्वास्थ्य के मौलिक अधिकार पर भी असर पड़ेगा।"

कई समाचार पत्रों में तो ये भी टिप्पणी आयी, कि "दिल्ली में पटाख़ों पर प्रतिबंध लगाने वाले कई आदेश दीपावली के दौरान धुएँ में समा गए हैं।" दिवाली से पहले भी दिल्ली सरकार द्वारा दिए गए एक हलफ़नामे के अनुसार केवल दिवाली के दौरान पटाख़ों पर प्रतिबंध लगाए जाने और शादी व चुनाव समारोहों के दौरान प्रतिबंध नहीं लगाए जाने पर भी सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली सरकार से जवाब तलब किया है। स्वाभाविक है, कि दिवाली के साथ-साथ बारातों, जन्मदिन समारोहों, चुनाव या क्रिकेट मैच की जीत वाले समारोहों में भी आतिशबाज़ी को प्रतिबन्धित करनी चाहिए और उससे भी ज़्यादा महत्वपूर्ण ये है, कि सरकार जो भी प्रतिबंध आदेश लगाती है, उसे कड़ाई से लागू भी होनी चाहिए।

अगर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति अभय श्रीनिवास ओका देश की राजधानी - दिल्ली के लिए आतिशबाज़ी के कारण भावी अराजक स्थिति की बात कर रहे हैं ; तो ये बात कमोबेश समस्त देश ही नहीं , वरन् .. समस्त विश्व या .. यूँ कहें , कि .. सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के लिए भी उतनी ही घातक होने वाली कड़वी सच्चाई है .. शायद ...

आज (12.11.2024) .. अभी (रात के 9.12 बजे) .. इस बतकही के कुछ अंश को लिखते वक्त भी उत्तराखंड का एक विशेष त्योहार - इगास बग्वाल के अपभ्रंश स्वरुप के तहत आस-पड़ोस से जलते हुए तेज़ पटाख़ों की आवाज़ें आ रहीं हैं। इस त्योहार के बारे में हमने गत वर्ष "उज्यालू आलो, अँधेरो भगलू" ... के अन्तर्गत आदतन विस्तारपूर्वक बतकही की थी .. बस यूँ ही ...

अब इस बतकही के शेष-अवशेष को हम "दो टके का दो टूक ... (२)" में साझा करते हैं और समझते हैं, कि एक अन्य अद्भुत मान्यताओं के तहत इसी धरती पर रहने वाले एक तथाकथित हिंदू समुदाय ही दीपावली को बिना पटाख़ों के कैसे मनाते हैं भला ! ..



Saturday, November 2, 2024

कुछ सौग़ात अख़बार में ...


यूँ बुलाया तो था उसने .. फोन कर, बड़े ही प्यार से,

व्यंजन भी तो फिर .. परोसे उसने अनेक प्रकार के। 

पर पास बैठे, करे बातें कुछ देर, हम रहे इंतज़ार में,

चलते वक्त मिले खाने के सौग़ात भी तो अख़बार में।

आज की उपरोक्त चार पंक्तियों वाली बतकही .. मन के पन्ने पर क्यों पनपी, कब पनपी, कहाँ पनपी, कैसे पनपी .. इन सब से परे .. हम अभी तो .. हमारी मूल बतकही की ओर अग्रसर होते हैं .. बस यूँ ही ...

एक उपलब्ध अनुमानित आँकड़े के अनुसार भारत में प्रतिदिन अख़बारों की लगभग करोड़ों प्रतियाँ मुद्रित होती हैं और इनमें से लाखों प्रतियाँ आज भी प्रायः समोसे, जलेबियों, कचौड़ियों, कचड़ी-पकौड़े, रोटी, पराठे, नान, कुलचे, भटूरे, कतलम्बे, बन टिक्की, झालमुड़ी, घुघनी, वड़ा पाव, 'टोस्ट-आमलेट' जैसे व्यंजनों को 'पैक' करने में या परोसने में, ख़ास कर सड़क के किनारे ठेले पर बिकने वाले भोजन के लिए, 'स्ट्रीट फूड वेंडर्स' (Street Food Vendors) द्वारा धड़ल्ले से उपयोग की जाती हैं। 

जबकि "भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण (Food Safety and Standards Authority of India = FSSAI)" तो "खाद्य सुरक्षा और मानक (पैकेजिंग) विनियम, 2018" के तहत समस्त देश के हम उपभोक्ताओं और खाद्य विक्रेताओं को आगाह करते हुए आग्रह कर चुका है, कि पके खाद्य पदार्थों की 'पैकिंग', भंडारण या परोसने के लिए या फिर उपरोक्त तले हुए खाद्य पदार्थों से अतिरिक्त तेल को सोखने के लिए भी अख़बारों यानि समाचार- पत्रों के पन्नों का उपयोग हमें नहीं करनी चाहिए। 

क्योंकि .. इस संस्थान के अनुसार समाचार-पत्रों में व्यवहार की जाने वाली स्याही में सीसा और भारी धातुओं जैसे कुछ ऐसे विषैले रसायन होते हैं ; जो समाचार-पत्रों में परोसे गए या लपेटे गए खाद्य पदार्थों के जरिए मानव शरीर में प्रवेश कर के विभिन्न प्रकार की घातक बीमारियों को उत्पन्न कर सकते हैं।

साथ ही .. समाचार-पत्रों के वितरण के दौरान उसको प्रायः विभिन्न पर्यावरणीय परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है, जिनके कारण वे बैक्टीरिया, वायरस या अन्य रोगजनकों द्वारा संदूषित हो सकते हैं। जिनमें परोसा या लपेटा गया भोजन संभवतः खाद्य जनित गंभीर बीमारियों का वाहक बन सकता है।

वैसे भी हमारे जैसे आम लोग तो आम दिनों में या त्योहार विशेष के मौकों पर भी .. अपने मुहल्ले में नित्य आने वाले नगर निगम के सफ़ाईकर्मियों तक को भी .. कुछ भी खाने के सौग़ात समाचार-पत्रों के पन्नों या रद्दी काग़ज़ों में लपेट कर नहीं देते ; पर आज भी कई घरों के लोग या तो अपनी नासमझी के कारण या त्योहारों के दिन दिनभर उनके घर आए मेहमानों के जूठन को निपटाने के ख़्याल से भी या फिर सामने वाले को कमतर आँकते हुए भी .. खाने के सामान को जैसे-तैसे समाचार-पत्रों के पन्नों या रद्दी काग़ज़ों में लपेट कर दे देते हैं .. शायद ...

लब्बोलुआब ये है, कि हमें इस प्रकार से किसी को भी कमतर नहीं आँकना चाहिए और भूले से भी .. किसी को भी अख़बार के पन्नों में खाने के सामान नहीं देने चाहिए और किसी का जूठन तो कतई नहीं .. बस यूँ ही ...

क्योंकि अगर .. सामने वाला कोई भी आपको स्नेह, प्रेम या श्रद्धा और आदर की दृष्टि से देखता है, तो फिर .. आप से एक करबद्ध निवेदन है, कि आप उसके विश्वास को मत तोड़िए, ताकि उसे ये महसूस ना हो कि वह आपके घर गलत समय पर आकर उसने कोई गलती कर दी है .. शायद ...

क्योंकि .. अगर सामने वाला आपसे .. आपका विषैला सौग़ात (?) बिना कुछ बोले .. हँस कर स्वीकार कर लेता है, तो .. वो कोई बुड़बक, बकलोल, बकचोंधर या बकलण्ड यानि मूर्ख इंसान थोड़े ही ना है !!! .. शायद ...




Sunday, October 27, 2024

लज्जा की लाज ...


एक ताज़ातरीन घटना पर नज़र डालें तो .. अपने देश भारत की वर्तमान सरकार, विशेषकर गृह मंत्रालय, की उदारता की पराकाष्ठा नज़र आती है ; जब तसलीमा नसरीन जी द्वारा इसी 21 अक्टूबर को सामाजिक माध्यमों  (Social Media) में से किसी एक पर गृह मंत्री को सम्बोधित करते हुए एक प्रार्थना पत्र लिखने के बाद .. अगले ही दिन उनके (अस्थायी) निवास अनुज्ञा-पत्र (Residence Permit) का नवीकरण (Renew) कर दिया गया, जो कि इसी वर्ष जुलाई माह में ही रद्द हो चुका था।

जब कि दूसरी तरफ़ .. यही सरकार अपने देश में रोहिंग्या समुदाय के लोगों की होने वाली घुसपैठ का कड़ा विरोध करती रहती है और उन्हें खदेड़ने के लिए आमादा भी रहती है। चाहे उनकी घुसपैठ का उद्देश्य मजबूरीवश विस्थापन का हो या आतंकवाद से प्रेरित हो। जबकि वोट बैंक के निजी स्वार्थवश कई अन्य राजनीतिक दलों का उन्हें परोक्ष रूप से समर्थन ही मिलता रहता है। फलस्वरूप इस मामले में केन्द्र में वर्तमान सत्तारूढ़ सरकार को कई विपक्षी राजनीतिक दलों के द्वारा अनुचित विरोध का निरन्तर सामना करना पड़ता है .. शायद ...

यूँ देखा जाए तो .. तसलीमा जी और रोहिंग्या लोगों के समान सम्प्रदाय से जुड़े होने के बावजूद दोनों के साथ हमारी वर्तमान सरकार द्वारा किये जाने वाले बर्ताव में अन्तर का कारण है .. दोनों के हमारे देश में यहाँ आने के उद्देश्य में अन्तर का होना .. शायद ...

एक तरफ़ तसलीमा नसरीन, तारिक़ फ़तह, सलमान रुश्दी, कलबुर्गी, गोविंद पंसारे, नरेन्द्र अच्युत दाभोलकर, भगत सिंह, कबीर इत्यादि जैसे लोग, जो धर्म-सम्प्रदाय या समुदाय से तटस्थ होकर, उनकी बुराईयों के लिए बेबाक बयानबाजी करने में तनिक भी नहीं हिचकते हैं ; तो दूसरी तरफ़ शिवानी जी, इस्मत चुग़ताई, सआदत हसन मंटो जैसे लोग भी थे या हैं, जो तत्कालीन सामाजिक कुरीतियों पर चोट करते हुए तनिक भी नहीं सहमते। और तो और .. कभी मीराबाई, तो कभी अमृता प्रीतम जैसी महान आत्माएँ अपने-अपने प्रियतम से हुए मन के जुड़ाव की बेबाक बयानी में कहीं भी .. कभी भी .. कोताही नहीं बरतती हैं .. शायद ...

खास बात तो ये है, कि इनमें अधिकांश लोग लेखन या पत्रकारिता से जुड़े हुए हैं। परन्तु उन तुकबंदियों वाले और 'पैरोडीनुमा' लेखन से तो कतई नहीं, जिसे आज अधिकांश लोग अपनी उपलब्धि मानते हुए .. अपनी गर्दन को अकड़ाते नज़र आते रहते हैं .. शायद ..

वैसे भी ग़ौर करने वाली बात ये है, कि किसी भी कालखंड में, किसी भी समाज, प्रान्त या देश भर में तसलीमा नसरीन या सआदत हसन मंटो जैसे लोग विरले ही मिलते हैं। जिन्हें प्रायः भेड़चाल वाली भीड़ द्वारा एक सिरे से नकार दिया जाता है तथा उन्हीं भेड़चाल वाली भीड़ द्वारा ऐसे विरले बेबाक बयानबाजी करने वालों के विचारों वाले मार्ग या मार्गदर्शन में अनगिनत अड़चनें लगायी जाती हैं। जिनके फलस्वरूप प्रायः उन्हें उन भेड़चाल वाली भीड़ से प्रायः फ़तवा, कारावास, निर्वासन या हत्या तक जैसी अनुचित प्रतिक्रियाएँ झेलनी पड़ती हैं .. शायद ...

कभी सत्येंद्र नाथ बोस जी जैसे लोग भी हुए थे और आज भारतीय चलचित्र जगत के जॉन अब्राहम व अमोल पालेकर जैसे लोग भी हैं, जो बेबाक बयानबाजी तो नहीं करते ; परन्तु भेड़चाल वाली भीड़ के लिए ये लोग तथाकथित नास्तिक कहे / माने जाने वाले लोग हैं।

हमें हमारे पूर्वजों से विरासत में मिली शास्त्रार्थ वाली परंपराओं वाले भारत देश में भी ऐसे किसी विषय पर तर्कसंगत तथ्यात्मक विचार विमर्श करने की जगह लोग अक्सर सामने वाले का उपहास करते हुए .. अन्ततः उसको चुप करा देते हैं। हँसी आने के साथ-साथ अफ़सोस भी तो तब होता है, जब आज सहज उपलब्ध सामाजिक माध्यम (Social Media) के स्रोतों पर होने वाले तथ्यात्मक वार्तालाप के दौरान तथाकथित बुद्धिजीवियों द्वारा यदाकदा 'अन्फ्रेंड' (Unfriend) कर दिए जाने वाली टपोरी धमकी दी जाती है या फिर .. कर ही दी जाती है .. शायद ...

सर्वविदित है, कि सन् 1993 ईस्वी में बांग्लादेशी लेखिका तसलीमा नसरीन जी का उपन्यास "लज्जा" पहली बार बांग्ला भाषा में प्रकाशित हुआ था ; जिसमें एक काल्पनिक कहानी ना होकर .. तत्कालीन बांग्लादेश में बचपन से उनकी आँखों देखी और उनके द्वारा जी गयी नारकीय ज़िन्दगी का बखान है। उसमें वहाँ की साम्प्रदायिकता और महिला अधिकारों को कुचले जाने की घटनाओं के साथ- साथ एक समुदाय विशेष के कट्टरपंथियों व चरमपंथियों की वास्तविक आलोचना की गयी है।

हम सभी ने भी तो .. अभी हाल ही में इसी वर्ष अगस्त महीने में उन सभी के प्रत्यक्ष प्रमाण-स्वरुप वहाँ के आरक्षण विरोधी छात्र आंदोलन की आड़ में एक समुदाय विशेष के कट्टरपंथियों व चरमपंथियों द्वारा घटित .. मन को विचलित करने वाली उन्हीं सारी भयावह घटनाओं वाले दृश्यों को किसी डरावने वृत्तचित्र की तरह दूरदर्शन के तमाम समाचार 'चैनलों' के माध्यम से देखा है।

बांग्लादेश की तत्कालीन प्रधानमंत्री बेग़म खालिदा जिया जी की सरकार ने उनकी उस "लज्जा" के साथ-साथ अन्य कई किताबों को भी प्रतिबन्धित कर दिया था। फिर वहाँ के कट्टरपंथियों व चरमपंथियों द्वारा उनके लिए फ़तवा जारी कर दिए गए थे। जिससे कुछ दिनों तक उनको वहीं गुप्त रूप से भूमिगत रहना पड़ा था और अंततोगत्वा बांग्लादेश छोड़ना पड़ा था। तब से लेकर आज तक तसलीमा जी निर्वासन में ही हैं।

हालांकि बाद में बेग़म शेख हसीना जी के शासनकाल में भी उन्हें वही सारे विरोध झेलने पड़े थे। बांग्लादेश और एक समुदाय विशेष वाले अन्य कई देशों में भी भले ही आज भी "लज्जा" प्रतिबन्धित है ; परन्तु सन् 1993 ईस्वी के बाद के वर्षों से लेकर आज तक में "लज्जा" के अंग्रेजी व हिंदी के अलावा अन्य कई भाषाओं में अनगिनत संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं।

निर्वासन के पश्चात तसलीमा जी शुरू के लगभग दस वर्षों तक अलग-अलग समय में अलग-अलग देशों - स्वीडन, जर्मनी, फ्रांस और अमेरिका में रहीं और सन् 2004-05 ईस्वी में वह भारत आकर कोलकाता शहर में रहने लगीं ; ताकि वह अपने स्वदेश से दूर रह कर भी अपनी स्वदेशी सभ्यता व संस्कृति की अनुभूति पश्चिम बंगाल की राजधानी में रह कर कर सकें।

लेकिन सन् 2007 ईस्वी में भारत में पुनः उनका विरोध बढ़ने लगा था। उस समय पश्चिम बंगाल में बुद्धदेव भट्टाचार्य मुख्यमंत्री थे और केंद्र में मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री। मतलब .. केंद्र में यूपीए (UPA) की सरकार थी और पश्चिम बंगाल में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की।

उसी दौरान समुदाय विशेष के कट्टर गुटों ने तसलीमा जी को भारत से निकालने की अनुचित माँग करते हुए .. जगह- जगह पर अनेक हिंसक विरोध-प्रदर्शन किए थे ; जिन कारणों से उनको कोलकाता छोड़ कर पहले तो दिल्ली और फिर उसके बाद लगभग तीन माह के बाद दोबारा अमेरिका जाना पड़ा था। अमेरिका से पुनः वह सन् 2011 ईस्वी में भारत लौटीं और तब से अब तक वह भारत में ही रह रहीं हैं। हालांकि उनके पास स्वीडन की नागरिकता है, पर उन्हें भारत में ही सुकून मिलता है और इसीलिए वह फ़िलहाल भारत की राजधानी नई दिल्ली में रह रही हैं।

तसलीमा जी अपनी किताबों और बेबाक बयानों की वजह से आज भी भारत, बांग्लादेश समेत दुनियाभर के समुदाय विशेष के कट्टरपंथियों व चरमपंथियों की आँखों की किरकिरी बनी हुई .. उनके निशाने पर रहती हैं।

मसलन - अभी हाल ही में उन्होंने एक सामाजिक माध्यम (Social Media) पर अपने एक 'पोस्ट' में लिखा / कहा है, कि - "बांग्लादेश में हर कोई झूठ बोल रहा है। सेना प्रमुख ने कहा कि हसीना ने इस्तीफ़ा दे दिया है। राष्ट्रपति ने कहा कि हसीना ने इस्तीफ़ा दे दिया है। यूनुस ने कहा कि हसीना ने इस्तीफ़ा दे दिया है। लेकिन किसी ने भी त्यागपत्र नहीं देखा है। त्यागपत्र भगवान की तरह है, हर कोई कहता है कि यह वहाँ है, लेकिन कोई भी यह नहीं दिखा सकता या साबित नहीं कर सकता कि यह वहाँ है।"

वैसे तो ग़ौर करने वाली उनकी सभी खास अनुकरणीय व सराहनीय कृत्यों में से एक सबसे खासमखास है, कि कुछ वर्षों पूर्व ही उन्होंने अपने सम्प्रदाय या समुदाय के कठमुल्लाओं की परवाह किए बिना, भेड़चाल वाली भीड़ से परे हट कर स्वेच्छा से एक निर्णय लिया है और सामाजिक माध्यम (Social Media) पर इसकी घोषणा भी कीं हैं, कि वह  स्वयं के मरणोपरान्त दफ़न होना नहीं चाहती हैं। बल्कि वह अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स / AIIMS), नई दिल्ली के चिकित्सा अनुसंधान विभाग को अपना देहदान कर चुकी हैं।

यूँ तो अभी हाल ही में हमारे भारत की वर्तमान सरकार की एक और उदारता देखने / सुनने के लिए मिली है, जब हाल ही में बांग्लादेश की पदच्युत प्रधानमंत्री - शेख हसीना जी के बांग्लादेश से जान बचाकर भारत भाग आने के बाद से आज तक यहाँ किसी गुप्त स्थान पर उनको सुरक्षित शरण मिली हुई है।

लब्बोलुआब यही है, कि तसलीमा नसरीन जी के निवास अनुज्ञा-पत्र (Residence Permit) के नवीकरण (Renew) हो जाने से .. उनकी "लज्जा" की लाज आज रह गयी है .. बस यूँ ही ...

Monday, October 7, 2024

"अनुस्वार" के अलावा "चन्द्रबिन्दु" ...


आज की बतकही की शुरुआत करने के पहले आप को मन से नमन !

ईंटें भी बड़े ही कमाल की चीज़ हैं। स्थान परिवर्तन के साथ-साथ इनकी संज्ञा बदल जाती है। एक समान ईंटें, कहीं मन्दिर, कहीं मस्जिद, कहीं गुरुद्वारा, तो कहीं गिरजाघर। कहीं विद्यालय, महाविद्यालय, पुस्तकालय, सचिवालय, तो कहीं देवालय, मदिरालय बन जाती हैं .. बस यूँ ही ...

एक तरह की ही हवाएँ भी .. जब गुलाब की फुलवारी से होकर आती हैं, तो हमारी साँसों को गुलाब की सुगंध से सुगन्धित कर जाती हैं और महुआ के बागान से गुजरती हुई आती है, तो हमारी साँसें महुआ के महक से महमहा जाती है।

ठीक वैसे ही .. एक बिन्दु .. हम फ़िल्म अभिनेत्री बिन्दु जी बात नहीं कर रहे हैं, बल्कि सामान्य बिन्दु की चर्चा कर रहे हैं। इन ईंटों और हवाओं की तरह जब उसी एक ही बिन्दु का हम अपनी मातृभाषा में इस्तेमाल करते हैं, तो उसे "अनुस्वार" कहते हैं, उर्दू में "नुक़्ता", गणित में दशमलव या सामान्य बिन्दु और अँग्रेजी में तो .. 'फुल स्टॉप' .. शायद ...

पर हमारी बतकही का अभी 'फुल स्टॉप' नहीं हुआ है। अभी तो आगे भी बातें करनी है, कि हमारी हिंदी भाषा में "अनुस्वार" के अलावा "चन्द्रबिन्दु" का भी हम इस्तेमाल करते हैं और देखते हैं, कि इनके अलग-अलग इस्तेमाल से शब्द के अर्थ बदल जाते हैं। जैसे - अगर अनुस्वार के साथ "अंगना" लिखने पर, इसका मतलब स्त्री होता है और अगर चन्द्रबिन्दु के साथ "अँगना" लिखा गया तो .. अर्थ हो जाता है, आँगन यानी Courtyard ...

तो इन्हीं दो अलग-अलग अर्थ वाले दो शब्दों से जुड़ी दो पँक्तियों वाली हमारी आज की मूल बतकही है, कि -

साहिब ! ये दौर भी भला आज कैसा गुजर रहा है ?

अंगना तो हैं घर में हमारे, पर .. वो अँगना कहाँ है ?

फिर मिलेंगे नए-नए शब्दों वाली बतकही के साथ .. तब तक के लिए पुनः .. आपको मन से नमन ... .. बस यूँ ही ...

Saturday, October 5, 2024

सेरेब्रल पाल्सी ...



सेरेब्रल पाल्सी
, मालूम नहीं, आप को इसके बारे में कितनी जानकारी है। सेरेब्रल पाल्सी अथार्त मस्तिष्क पक्षाघात, जिसे कई लोग, कई दफ़ा "सी पी" भी कहते हैं। जिसकी विस्तृत जानकारी गूगल पर उपलब्ध है, अगर आप जानना चाहें तो ...

हम सभी प्रतिवर्ष 6 October को "विश्व सेरेब्रल पाल्सी दिवस" मनाते हैं। वैसे तो इस दिवस की शुरुआत सन् 2012 ईस्वी में हुई थी, परन्तु यह बीमारी सदियों पुरानी है। जिसका इलाज आज भी समस्त विश्व में उपलब्ध नहीं है। भले ही हमारे वैज्ञानिक चाँद व मंगल तक को लाँघ आए हों और .. सूरज तक पहुँचने की कोशिश कर रहे हों, पर इतने उन्नत विज्ञान, ख़ासकर चिकित्सा विज्ञान, के बावजूद .. यह बीमारी अन्य असाध्य रोगों की तरह आज तक .. अब तक लाइलाज है।

इस बीमारी से ग्रस्त बच्चों के साथ-साथ उनके परिवार के समस्त संलिप्त सदस्यों को भी ताउम्र मानसिक, शारीरिक एवं आर्थिक अतिरिक्त पीड़ा से प्रभावित रहना पड़ता है। 

परन्तु इन बीमारियों और बीमारों से जुड़ी हमारे तथाकथित बुद्धिजीवी समाज में कई गलत अवधारणाएँ व्याप्त हैं। उन्हीं अवधारणाओं पर कुठाराघात करती हुई, हमारी दो पंक्तियों वाली बतकही, उन सभी सेरेब्रल पाल्सी अथार्त मस्तिष्क पक्षाघात से ग्रस्त बच्चों को और उनके साथ समस्त संलिप्त परिवार के सदस्यों को समर्पित है .. बस यूँ ही ...

ग्रस्त तमाम बीमारियों के बीमारों को, भोगने की बात कहने वाले बुद्धिजीवियों, उन बीमारों को बतला कर, उन्हें जतला कर, उनके पाप कर्मों का फल, उनके पूर्व जन्मों का फल ।

सोचो रूढ़िवादियों, (क्षमा करें, बुद्धिजीवियों !) इहलीला हुई समाप्त जिन सभी की कोरोनाकाल में, जिस कारण से भी हो चाहे, था वो सब विज्ञान या पाप कर्मों का ही फलाफल ?









Monday, September 23, 2024

खुरचा हुआ चाँद ...


आज की बतकही की शुरुआत बिना किसी भूमिका के .. आज पढ़ने से ज़्यादा आपकी तो .. देखने व सुनने की बारी है .. शायद ...

तो सबसे पहले आप देखिए-सुनिए .. उपरोक्त 'वीडियो' को, जिसमें गत रविवार, 22.09.2024 को रात आठ बजे प्रसार भारती के अंतर्गत आकाशवाणी देहरादून द्वारा प्रसारित लगभग पन्द्रह मिनट वाले साप्ताहिक कार्यक्रम - "काव्यांजलि" में हमारी एकल बतकही (चार कविताओं के एकल काव्य पाठ) को .. बस यूँ ही ...
उपरोक्त 'वीडियो' की 'रिकॉर्डिंग' व 'एडिटिंग' का सारा श्रेय जाता है .. मेरी भतीजी - "श्रेया श्रीवास्तव" को, जो 'रेडिओ स्टेशन' में 'रिकॉर्डिंग के दिन तो मेरे साथ ही थी .. देहरादून में अपने सपरिवार होने के कारण और कल रात वह लखनऊ से कार्यक्रम प्रसारण के दौरान अपने 'मोबाइल' से सम्पूर्ण कार्यक्रम के 'ऑडियो-वीडियो' की 'रिकॉर्डिंग' व तत्पश्चात् 'एडिटिंग' करके मुझे 'व्हाट्सएप्प' पर उपरोक्त 'वीडियो' भेज दी .. जो आपके समक्ष है, श्रेया के ही सौजन्य से .. बस यूँ ही ...
चलते-चलते .. उपरोक्त चारों बतकही में सबसे ताज़ातरीन बतकही है - "खुरचा हुआ चाँद" .. जो .. जाने-अंजाने में .. दरअसल .. वास्तव में .. 'रेडिओ स्टेशन' में जिस दिन दोपहर में 'रिकॉर्डिंग' होनी थी, उसी दिन सुबह-सुबह जागने के बाद ही स्वतःस्फूर्त शैली में बिस्तर छोड़ने के पूर्व ही पूर्ण होता चला गया था .. बस यूँ ही ...
तो आप ही के लिए ...

खुरचा हुआ चाँद ...


आज ...
सुबह की पोटली में,
क्षितिज की एक छोर से,
उचकता, उभरता, ऊँघता-सा
मद्धिम सूरज, दिखा कुछ-कुछ कुतरा हुआ-सा .. शायद ...

दिखी परकटी हवा,
बलात्कृत अल्हड़ नदियाँ,
कहीं-कहीं से कतरी हुई धरती,
सागर .. किसी गिरहकट का सताया हुआ-सा .. शायद ...

शाम की गठरी में
दिखा खुरचा हुआ चाँद,
अलोप लगे कुछ तारों के कंचे भी,
भटकती आत्माएँ विलुप्त जुगनुओं की यहाँ-वहाँ.. शायद ...

सिकड़ी में जकड़ी सुगंधें,
दिखी बिखरी ठठरियाँ फूलों की,
टकले दिखे सारे के सारे जंगल भी,
मानव दिखे ग़ुलाम-हाट में, रोबोट बने क्रेता-विक्रेता.. शायद ...

बन गए अल्पसंख्यक, मानव सारे,
बाद भी यहाँ जनसंख्या-विस्फोट के,
सत्ता सारी धरती की, हाथों में रोबोट के,
मानवी कोखों में भ्रूण, रोबोट-शुक्राणु है बो रहा .. शायद ...

तभी अज़ान की और,
पूजन की घंटियों की आवाज़ें,
पड़ोस के अलार्म व कुकर की आवाज़ें,
लोगों की आवाजाही की आवाज़ें, गयीं नींद से मुझे जगा.. शायद ...

साथ-साथ नींद के,
सुबह के सुनहरे सपने भी,
बिखर गए काँच की किरिच की तरह,
वही तो सोचूँ, कि हम मानवों का ब्रह्माण्ड भला ऐसा हो सकता है क्या ?
नहीं ना ? .. शायद ...

विशेष - आपको उपरोक्त बतकही के एक अनुच्छेद में पढ़ने के लिए मिला होगा - "बलात्कृत अल्हड़ नदियाँ", परन्तु आकाशवाणी की अपनी कुछ विशेष हदों के कारण उसी बतकही के वाचन में आपको सुनने के लिए मिलेगा - "शोषित अल्हड़ नदियाँ" .. बस यूँ ही ...

वैसे तो हम इसे "अपहृत अल्हड़ नदियाँ" भी बोल या पढ़ सकते हैं, क्योंकि .. बलात्कृत, शोषित व अपहृत .. तीनों ही विशेषणों में आपसी तालमेल है .. कारण .. बलात्कार भी एक अपहरण है और अपहरण भी बलात्कार ही है, अगर बलात्कार के संकुचित अर्थ से परे उसके विस्तृत अर्थ पर ग़ौर की जाए तो .. और .. दोनों ही दुर्घटनाओं में .. पीड़ित हो या पीड़िता .. दोनों ही का समान शोषण होता है .. शायद ... .. नहीं क्या ? ... 】🙏

Thursday, September 19, 2024

चौबीस दिनों तक .. बस यूँ ही ...


अक्सर देखी है हमने, वकालत करते लोगों को, दुनिया भर में, अपने ख़ून के अटूट रिश्ते की।

पर महकती तो है मुस्कान घर-घर में, दो अलग-अलग ख़ूनों के संगम से, पनपे नन्हें फ़रिश्ते की।

उपरोक्त दो पंक्तियों के साथ आज की बतकही की शुरुआत (और अन्त भी .. शायद ...) करते हुए, इसकी अगली श्रृंखला में आप सभी से अपनी भी एक बात कह लेते हैं .. .. आगामी रविवार, 22 सितम्बर 2024 को रात आठ बजे प्रसार भारती के अंतर्गत आकाशवाणी, देहरादून से प्रसारित होने वाले पन्द्रह मिनट के कार्यक्रम - "काव्यांजलि" में ध्वनितरंगों के माध्यम से मेरी एकल बतकही के दौरान होने वाली है .. हमारी और आपकी एक संवेदनात्मक मुलाक़ात .. बस यूँ ही ...

अब .. आज चलते-चलते .. अपने साथ-साथ कुछ .. कुछ-कुछ अपने परिवेश की भी बतकही कर ली जाए .. .. विगत मंगलवार को सुबह मुहल्ले में आसपास नित्य विचरने वाले तथाकथित 'स्ट्रीट डॉग' .. मने .. कुत्ते-कुत्तियाँ को रोज़ की तरह 'बिस्कुट' या दूध-रोटी देने पर, वो सभी अपना-अपना मुँह घुमा कर, पड़ोस की कुछेक चहारदीवारियों के किनारे पड़ी जूठी हड्डियों की ओर तेजी से लपक लिए और उनको चबाने में मशग़ूल हो गए। हड्डियाँ भी तादाद में दिखीं थीं। स्वाभाविक है, कि एक दिन पहले की रात ही में आसपास के लोगों द्वारा इतने सारे माँस भक्षण किये गए होंगे। एक जगह तो बकरे (या बकरी) की और एक जगह मुर्ग़े (या मुर्गी) की हड्डियाँ पड़ी हुई जान पड़ती थीं .. शायद ...

यहाँ देहरादून में वर्तमान प्रवास के दौरान आसपास में एक-दो लोग .. जो लोग पहाड़ी-मैदानी में भेद किए बिना .. हमसे बातचीत करते हैं, उनसे तहक़ीक़ात की गई, तो मालूम हुआ, कि विगत मंगलवार से ही हमारे सभ्य-सुसंस्कृत समाज में हर वर्ष माना जाने वाला या मनाया जाने वाला तथाकथित पितृ पक्ष का आरम्भ हुआ है। इसीलिए पितृ पक्ष और नवरातरा (नवरात्रि) में क्रमशः पन्द्रह व नौ यानी कुल चौबीस दिनों तक लगातार धार्मिक मान्यताओं के अनुसार मांसाहार वर्जित होने के कारणवश .. चौबीस दिनों तक शाकाहारी व सात्वीक रहने की बाध्यता के कारण .. उन धार्मिक चौबीस दिनों के आरम्भ होने के एक दिन पहले तक तो .. यानी विगत सोमवार की रात तक मांसाहारी लोगों द्वारा मन भर या दम भर माँस भकोसा गया है।

ख़ैर ! .. पितृ पक्ष और नवरात्रि क्यों मनायी जाती है .. कब मनायी जाती है .. और इसका क्या महत्व है .. इन सब की चर्चा ना करते हुए .. बस्स ! .. समाज के उन तमाम मनीषियों से .. बुद्धिजीवियों से .. केवल और केवल .. एक ही सवाल है, कि .. पितृ पक्ष के पन्द्रह दिनों और इसके तदनंतर नौ दिनों की नवरात्रि के कुल चौबीस दिनों के आरम्भ होने के दो-तीन दिन पहले से ही और एक दिन पहले की देर रात तक इतना अत्यधिक मात्रा में मांसाहार का उपभोग लोगबाग क्यों करते हैं भला ? 

जिसका प्रमाण .. मुहल्ले भर में कुछ चहारदीवारियों के आसपास विगत मंगलवार की सुबह में .. सोमवार की रात तक खाए गए मांसाहार की अवशेष पड़ी जूठी, चूसी-चबायी हड्डियाँ थीं। वैसे तो अगर .. विज्ञान की बात मानें, तो बकरे के माँस को मानव के पाचन तंत्र में पच कर अपशिष्ट निकलने तक में बारह से चौबीस घन्टे का समय लग सकता है। परन्तु हम सभी अगली सुबह .. सुबह-सुबह नहाने के क्रम में सिर (बाल) धोकर नहा लेने के बाद स्वयं को एकदम पाक-साफ़ मान लेते हैं .. शायद ...

अगर उपरोक्त विधियों से हम पाक-साफ़ होने वाली बात को सही व सच मान भी लें, तो भी .. ये बात नहीं पच पाती है, कि तीन सौ पैंसठ दिनों में कुछ ही दिनों के लिए ही लोग पाक-साफ़ होने या रहने की चेष्टा क्यों करते हैं भला ? और तो और .. उन पाक-साफ़ रहने वाले विशेष दिनों के समाप्त होने के बाद भी तो पुनः मांसाहार के लिए हमलोग बेतहाशा टूट पड़ते है .. शायद ...

ये तो वही बात हुई, कि धूम्रपान या मद्यपान या फिर दोनों ही करने वाले किसी युवा विद्यार्थी को जब ये पता चलता है, कि उस के अभिभावक उसके अध्ययन के दौरान उससे मिलने के लिए उसके छात्रावास तक या किराए के कमरे तक आने वाले हैं, तो उनके आने के एक दिन पहले अपने व्यसनानुसार मन भर धूम्रपान या मद्यपान या फिर दोनों ही करके .. अपने धूम्रपान व मद्यपान के सारे साजोसामान उनसे छुपा कर रख देता है और फिर उनके जाने पर भी, जाते ही वह युवा विद्यार्थी उतनी देर या उतने दिनों की भरपाई (?) करते हुए .. छूट कर धूम्रपान या मद्यपान या फिर दोनों ही करता है, क्योंकि उस दौरान तो उस युवा विद्यार्थी को अपना धूम्रपान व मद्यपान का व्यसन मज़बूरन बन्द रखना पड़ता है .. शायद ...

हम लोगों की भी मनःस्थिति इन चौबीस दिनों में कुछ-कुछ या ठीक-ठीक .. धूम्रपान या मद्यपान या फिर दोनों ही व्यसन करने वाले उस युवा विद्यार्थी की तरह ही होती है ..  नहीं क्या ?


आगामी रविवार, 22 सितम्बर 2024 को रात आठ बजे प्रसार भारती के अंतर्गत आकाशवाणी, देहरादून से प्रसारित होने वाले पन्द्रह मिनट के कार्यक्रम - "काव्यांजलि" में पुनः मिलते हैं हमलोग .. बस यूँ ही ...