" बेटे के साथ दोस्त बन कर रहो। बाप बनने की कोशिश मत करो। बाप तो तुम हो ही। " - ये संवाद अभी हाल ही में 'रिलीज़' हुई 'सेंसर बोर्ड' से मिली 'ए सर्टिफिकेट' वाली 'फ़िल्म' - "ओ एम् जी 2" (ओह माय गॉड 2) का है, जो कि पुरानी फ़िल्म "ओह माय गॉड" की 'सीक्वल' है। बेटे के संदर्भ में बोले गये यही संवाद बेटी के लिए भी उतना ही उचित है। बस .. दोस्त की जगह सहेली बनने की जरूरत है, पिता को भी .. माँ को भी। यह संवाद किसी भी अभिभावक के लिए एक मूलमंत्र है या यूँ कहें कि .. सफल अभिभावक होने की पहली शर्त्त है। साथ ही कट्टर अभिभावकों के सुधरने के लिए एक उचित सीख भी है .. शायद ...
"ओह माय गॉड" .. जिसका शाब्दिक अर्थ यूँ तो होता है - "हे भगवान !" या "हाय भगवान !" .. किन्तु गूगल द्वारा विशेषार्थ भी बतलाया गया है .. "अरे बाप रे !" .. स्वाभाविक भी लगता है कि हम सामान्य परिस्थितियों में कितनी भी विदेशी भाषा झाड़ लें .. पर विपदा में मुँह से अनायास "अरे बाप रे !" या "अरे मईया रे !" ही प्रायः निकलता है। यूँ तो 'आउच' बोलने वाली की भी जनसंख्या कम नहीं है जी ! .. शायद ...
अभी हाल ही में मेरे आईआईटीयन बेटे ( आईआईटीयन बोलने में गर्व महसूस होता है, है ना ? ) द्वारा देखे जाने के बाद इस 'फ़िल्म' की प्रसंसा करते हुए देख लेने की सलाह मिलने के बाद कल रविवार की छुट्टी के मौके पर इसे देख पाया .. बस यूँ ही ...
अभी एक या दो दिन पहले ही एक 'न्यूज़ चैनल' पर हालिया 'रिलीज़' तीन फिल्मों की 'बॉक्स ऑफिस' पर रुपया बटोरने के आधार पर समीक्षा की जा रही थी, जिसके अनुसार हालिया 'रिलीज़' फिल्मों - "ग़दर 2", "जेलर" और "ओ एम् जी 2" - तीनों में सबसे ज्यादा कमाई करने वाली 'फ़िल्म' - "ग़दर 2" है और सबसे कम कमाई वाली - "ओ एम् जी 2"। इसकी वज़ह तो 'फ़िल्म' देखने के बाद समझ में आयी।
दरअसल हमारा तथाकथित समाज अपने द्वारा तथाकथित सभ्य-सुसंस्कृत समाज की तयशुदा सही या गलत रुपरेखा में किसी भी तरह का उचित या अनुचित हस्तक्षेप सहज स्वीकार नहीं कर पाता है .. शायद ...
अब जिस समाज के पास मध्यप्रदेश के छतरपुर में पत्थर के बने सैकड़ों साल पहले के विश्वविख्यात "खजुराहो मंदिर" के अलावा, बिहार के हाजीपुर में लकड़ी के बने मिनी खजुराहो और उत्तरप्रदेश के वाराणसी अवस्थित नेपाली मंदिर के साथ-साथ नेपाल में भी खजुराहो सदृश मंदिर हैं, जिनकी दीवारें रतिक्रीड़ाओं की विभिन्न भावभंगिमाओं वाली मूर्त्तियों से श्रृंगारित की गयीं हैं। इनके अलावा सैकड़ों साल पहले ही रची गयी अनुपम रचना - "कोकशास्त्र" की थाती है, जिसके आधार पर विकसित कहे जाने वाले पश्चिमी देशों में भी 'रिसर्च' किये जाते रहे हैं। और तो और .. जिस यौन क्रिया द्वारा किसी भी प्राणी का सृजन होता है, उसे ही हमारा तथाकथित सभ्य-सुसंस्कृत बुद्धिजीवी समाज निषिद्ध साबित करने में आमादा दिखता है। ऐसे में हमारा ये समाज उस डॉक्टर की तरह प्रतीत होता है, जो अपने 'केबिन' में धूम्रपान करते हुए किसी कैंसर के मरीज़ को सिगरेट ना पीने की सलाह दे रहा होता है .. शायद ...
वैसे भी हमारा हमेशा ये यक्ष प्रश्न रहा है तथाकथित समाज से कि जिन क्रियाओं द्वारा किसी भी प्राणी का सृजन होता है, उन के विषय पर खुल कर बात करना निषिद्ध कैसे हो सकता है भला ? .. वो "गन्दी बातें" भी कैसे हो सकती हैं भला ? ख़ैर ! .. इन खुले विचारों वाला अभिभावकता तो हमें नसीब नहीं हो पाया था, पर हमें आत्मसंतोष है इस बात का कि हम स्वयं ऐसा .. हर विषय पर खुल कर बातें करने वाला अभिभावक बन सके .. बस यूँ ही ...
सहस्त्रों वर्ष पूर्व हमारे पुरखों द्वारा हमारी दिनचर्या की तय वैज्ञानिक और न्यायोचित सटीक पद्धतियाँ कई सारे प्रदूषित संस्कारों वाले बाहरी आक्रमणकारियों और दमनकारियों की कूटनीति के कारण उनका अपभ्रंश स्वरूप भर ही आज हमारे इस समाज का आदर्श बना हुआ है, जिसे हम अपनी गर्दन अकड़ाते हुए ढो रहे हैं .. शायद ...
इस 'फ़िल्म' में सभी बड़ों को ये नसीहत दी गयी है कि हमें बच्चों और युवाओं के साथ यौन शिक्षा पर खुल कर बात करनी चाहिए। ताकि वो सारे अपने बालपन से युवावस्था के बीच की पगडंडी सुगमता से नाप सकें। ना कि इस ज्ञान की कमी में उन्हें अपनी तमाम स्वाभाविक उत्सुकता को शान्त करने के लिए गलत और अनुचित लोगों के सम्पर्क में आकर स्वयं का और .. स्वाभाविक है उनसे जुड़ा हम अभिभावकों का भी सारा सुनहरा सपना चकनाचूर हो जाए .. सारा का सारा भविष्य मटियामेट हो जाए। वैसे भी एक समझदार अभिभावक अपने बच्चों के साथ उनकी बढ़ती उम्र के क्रमानुसार, वह उन सब घटनाओं की चर्चा करता है, जिससे वह अपनी आयु की उस अवस्था में दो-चार हुआ होता है और उसके फलस्वरूप होने वाले तमाम लाभों या होने वाली हानियों से रूबरू हुआ होता है .. शायद ...
उन्हीं घटनाओं में से एक है .. हस्तमैथुन .. जिसके संदर्भ में हमारे सभ्य समाज में समाज के तमाम हम जैसे सभ्य लोगों की स्थिति अपने 'केबिन' में धूम्रपान करने वाले उसी डॉक्टर की तरह है .. शायद ...
कई दिनों से ऋतुस्राव यानि मासिकधर्म पर समाज-परिवार में खुल कर बात करने और इस प्राकृतिक प्रक्रिया को कुंठा की श्रेणी से निकाल बाहर करने का समर्थन करते हुए, हस्तमैथुन जैसी प्राकृतिक प्रक्रिया के विषय पर भी चर्चा करने की इच्छा केवल सभ्य समाज के सभ्य जनों के मन खट्टा हो जाने के भय से सशंकित और दमित हुआ पड़ा था मन के किसी अँधेरे कोने में। परन्तु इस 'फ़िल्म' से उस दमित इच्छा को सहज़ मार्गदर्शन करती हुई रोशनी मिली और अभी हम इस विषय पर निःसंकोच लिखने की हिम्मत कर पा रहे हैं .. बस यूँ ही ...
अंत में प्रसंगवश .. "रोटी" 'फ़िल्म' के लिए लिखी गयी आनंद बक्षी जी की दर्शनशास्त्र से सराबोर एक रचना की चर्चा करने की हिमाक़त कर रहे हैं, जिसका मुखड़ा है -
"यार हमारी बात सुनो, ऐसा इक इंसान चुनो ~~~
जिसने पाप ना किया हो, जो पापी ना हो" ~~~
और उसी का एक अंतरा है जो अंतर्मन को उद्वेलित कर जाता है -
"इस पापन को आज सजा देंगे, मिलकर हम सारे
लेकिन जो पापी न हो, वो पहला पत्थर मारे ~~~
हो ~~~ पहले अपने मन साफ़ करो रे ~~~
फिर औरों का इंसाफ करो" ~~~
इसका आशय यही है कि इस बतकही को अनर्गल कह कर सिरे से नकारने के पहले एक बार हम अपने अतीत के 'एल्बम' के पन्नों को .. भले ही अकेले में .. पर एक बार टटोलने का कष्ट जरूर करें कि हम भले ही आदी हों या ना हों .. पर .. उम्र के किसी ना किसी पड़ाव पर .. कभी ना कभी .. किया भी है या ... सच में नहीं किया है कभी भी .. हस्तमैथुन ? ...
फ़िलहाल .. आइए सुनते हैं आनंद बक्षी की रचना को ... लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के संगीत के साथ किशोर कुमार जी की आवाज़ में .. बस यूँ ही ...