Sunday, January 30, 2022
खुरपी के ब्याह बनाम क़ैद में वर्णमाला ... भाग-२
Wednesday, January 26, 2022
खुरपी के ब्याह बनाम क़ैद में वर्णमाला ... भाग-१.
Sunday, December 5, 2021
तलाश है जारी .. बस यूँ ही ...
साहिब !!! .. साहिबान !!!!! ...
कर दीजिए ना तनिक ..
बस .. एक अदद मदद आप,
'बहुते' (बहुत ही) 'इमरजेंसी' है माई-बाप,
दे दीजिए ना हुजूर !! .. समझ कर चंदा या दान,
चाहिए हमें आप सभी से चंद धनराशि।
छपवाने हैं कुछ इश्तिहार,
जिसे साटने हैं हर गली,
हर मुहल्ले की निजी,
सरकारी या लावारिस दीवारों पर।
होंगे टंगवाने हर एक चौक-चौराहों पर
छपवा कर कुछ रंगीन फ्लैक्स-बैनर भी।
रेडियो पर, टीवी पर, अख़बारों में भी
देने होंगे इश्तिहार, संग में भुगतान के
तय कुछ "पक्के में" रुपए भी।
दिन-रात हर तरफ, हर ओर,
क्या गाँव, क्या शहर, हर महानगर,
करवानी भी होगी निरंतर मुनादी भी।
लिखवाने होंगे अब तो FIR भी
हर एक थाने में और देने पड़ेंगे,
थाने में भी साहिब .. साहिबों को फिर कुछ ..
रुपए "कच्चे" में, माँगे गए "ख़र्चे-पानी" के .. शायद ...
थक चुके हैं अब तक तो हम युग-युगांतर से,
कर अकेले जद्दोजहद गुमशुदा उस कुनबे की तलाश की।
घर में खोजा, अगल-बगल खोजा, मुहल्ले भर में भी,
खोजा वहाँ-वहाँ .. थी जहाँ तक पहुँच अपनी,
सोच अपनी, पर अता-पता नहीं चला ..
पूरे के पूरे उस कुनबे का अब तक कहीं भी।
निरन्तर, अनवरत, आज भी,
अब भी .. तलाश है जारी ...
साहिब !!! .. साहिबान !!!!! ...
पर नतीज़ा "ज़ीरो बटा सन्नाटा" है अभी भी।
दिखे जो उस कुनबे का एक भी,
तो मिलवा जरूर दीजिएगा जल्द ही।
आने-जाने का किराया मुहैया कराने के
साथ-साथ मिलेगा एक यथोचित पारितोषिक भी।
है कुनबे के गुमशुदा लोगों की पहचान,
उनमें से है .. कोई बैल पर सवार,
तो है किसी की शेर की सवारी,
है कोई उल्लू पर सवार, तो किसी की चूहे की सवारी,
कोई पूँछधारी तो .. कोई सूँढ़धारी ..
हमारी तो अब भी इनकी तलाश है जारी .. बस यूँ ही ...
Saturday, December 4, 2021
मन की मीन ...
खींचे समाज ने
रीति-रिवाज के,
नियम-क़ानून के,
यूँ तो कई-कई
लक्ष्मण रेखाएँ
अक़्सर गिन-गिन।
फिर भी ..
ये मन की मीन,
है बहुत ही रंगीन ...
लाँघ-लाँघ के
सारी रेखाएँ ये तो,
पल-पल करे
कई-कई ज़ुर्म संगीन,
संग करे ताकधिनाधिन ,
ताक धिना धिन ..
क्योंकि ..
ये मन की मीन,
है बहुत ही रंगीन ...
ठहरा के सज़ायाफ़्ता,
बींधे समाज ने यदाकदा,
यूँ तो नुकीले संगीन।
हो तब ग़मगीन ..
बन जाता बेजान-सा,
हो मानो मन बेचारा संगीन ..
तब भी ..
ये मन की मीन,
है बहुत ही रंगीन ...
Thursday, December 2, 2021
अपनी ठठरी के भी बेचारे ...
इस सितम्बर-अक्टूबर महीने में अपनी वर्तमान नौकरी के कारणवश एक स्थानविशेष पर रह रहे किराए के मकान वाले अस्थायी निवास को कुछ अपरिहार्य कारणों से बदल कर एक अन्य नए किराए के मकान में सपरिवार स्थानांतरण करना पड़ा।
उस समय तथाकथित पितृपक्ष (20 सितम्बर से 6 अक्टूबर) का दौर था। ऐसे में उस समय कुछ जान-पहचान वाले तथाकथित शुभचिन्तक सज्जनों का मुझे ये टोकना कि - "पितृपक्ष में घर नहीं बदला जाता है या कोई भी नया या शुभ काम नहीं किया जाता है। करने से अपशकुन होता है।" - अनायास ही मुझे संशय और अचरज से लबरेज़ कर गया था।
हमको उनसे कहना पड़ा कि किसी भी इंसान या प्राणी के लिए सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण होता है, उसका जन्म और मरण। ऐसे में उसका जन्म लेने वाला दिन और उसका मृत्यु वाला दिन तो सब से ज्यादा महत्वपूर्ण होना चाहिए। जब उन दो महत्वपूर्ण दिनों के लिए कोई तथाकथित शुभ मुहूर्त तय ही नहीं है, तो फिर मकान बदलने या नए घर के गृह प्रवेश के लिए या फिर किसी की छट्ठी-सतैसा, शादी-विवाह के लिए शुभ मुहूर्त तय करने-करवाने का क्या औचित्य है भला ? सभी जन मेरे इस तर्क ( या तथाकथित कुतर्क ) को सुनकर हकलाते-से नजर आने लगे।
फिर हमने कहा कि जब इंसान का मूल अस्थायी घर तो उसका शरीर है और पितृपक्ष में किसी के शरीर छुटने यानि मृत्यु के लिए तथाकथित पितृपक्ष या तथाकथित खरमास की समाप्ति की प्रतीक्षा नहीं करनी होती है या फिर नए शरीर में किसी शिशु को इस संसार में आने के लिए भी इन तथाकथित पितृपक्ष या तथाकथित खरमास की समाप्ति की प्रतीक्षा नहीं करनी होती है, तो फिर मकान बदलने के लिए पितृपक्ष की समाप्ति की प्रतीक्षा क्यों करनी भला ?
फ़िलहाल उन सज्जनों की बातों को तो जाने देते हैं, पर अगर आप को ये तथाकथित "मुहूर्त, अपशकुन, पितृपक्ष, खरमास" जैसे निष्प्राण चोंचलों के सार्थक औचित्य के कई या कोई भी उचित तर्क या कारण मालूम हो, तो मुझ मूढ़ को भी तनिक इस से अवगत कराने की कृपा किजिएगा .. प्रतीक्षारत - एक मूढ़ बुड़बक .. बस यूँ ही ...
फ़िलहाल उस दौरान मन में पनपे कुछ शब्दों को अपनी बतकही की शक्ल में आगे बढ़ाते हैं :-
(१) शुभ मुहूर्त :-
जन्म-मरण का जो कोई शुभ मुहूर्त होता किसी पत्रा में नहीं,
तो करना कोई भी शुभ काज कभी भी, होगा खतरा में नहीं।
(२) अपनी ठठरी के भी बेचारे ... :-
साहिब! अपनी बहुमंजिली इमारतों पर यूँ भी इतराया नहीं करते,
बननी है जो राख एक दिन या फिर खुद सोनी हो जमीन में गहरे।
यूँ तो पता बदल जाता है अक़्सर, घर बदलते ही किराएदारों के,
पर बदलते हैं मकान मालिकों के भी, जब सोते श्मशान में पसरे।
"लादे फिरते हैं हम बंजारे की तरह सामान अपने कांधे पर लिए"-
-कहते वे हमें, जिन्हें जाना है एक दिन खुद चार कांधों पे अकड़े।
पल-पल गुजरते पल की तरह गुजरते बंजारे ही हैं यहाँ हम सारे,
आज नहीं तो कल गुजरना तय है, लाख हों ताले, लाख हों पहरे।
वहम पाले समझते हैं खुद को, मकान मालिक भला क्यों ये सारे,
हैं किराएदार खुद ही जो चंद वर्षों के, अपनी ठठरी के भी बेचारे।
Monday, November 29, 2021
एक पोटली .. बस यूँ ही ...
चहलक़दमियों की
उंगलियों को थाम,
जाना इस शरद
पिछवाड़े घर के,
उद्यान में भिनसार तुम .. बस यूँ ही ...
लाना भर-भर
अँजुरी में अपनी,
रात भर के
बिछे-पसरे,
महमहाते
हरसिंगार तुम .. बस यूँ ही ...
आँखें मूंदे अपनी फिर
लेना एक नर्म उच्छवास
अँजुरी में अपनी और ..
भेजना मेरे हिस्से
उस उच्छवास के
नम निश्वास की फिर
एक पोटली तैयार तुम .. बस यूँ ही ...
हरसिंगार की
मादक महमहाहट,
संग अपनी साँसों की
नम .. नर्म .. गरमाहट,
बस .. इतने से ही
झुठला दोगी
किसी भी .. उम्दा से उम्दा ..
'कॉकटेल' को यार तुम .. बस यूँ ही .. शायद ...