साहिब !!! .. साहिबान !!!!! ...
कर दीजिए ना तनिक ..
बस .. एक अदद मदद आप,
'बहुते' (बहुत ही) 'इमरजेंसी' है माई-बाप,
दे दीजिए ना हुजूर !! .. समझ कर चंदा या दान,
चाहिए हमें आप सभी से चंद धनराशि।
छपवाने हैं कुछ इश्तिहार,
जिसे साटने हैं हर गली,
हर मुहल्ले की निजी,
सरकारी या लावारिस दीवारों पर।
होंगे टंगवाने हर एक चौक-चौराहों पर
छपवा कर कुछ रंगीन फ्लैक्स-बैनर भी।
रेडियो पर, टीवी पर, अख़बारों में भी
देने होंगे इश्तिहार, संग में भुगतान के
तय कुछ "पक्के में" रुपए भी।
दिन-रात हर तरफ, हर ओर,
क्या गाँव, क्या शहर, हर महानगर,
करवानी भी होगी निरंतर मुनादी भी।
लिखवाने होंगे अब तो FIR भी
हर एक थाने में और देने पड़ेंगे,
थाने में भी साहिब .. साहिबों को फिर कुछ ..
रुपए "कच्चे" में, माँगे गए "ख़र्चे-पानी" के .. शायद ...
थक चुके हैं अब तक तो हम युग-युगांतर से,
कर अकेले जद्दोजहद गुमशुदा उस कुनबे की तलाश की।
घर में खोजा, अगल-बगल खोजा, मुहल्ले भर में भी,
खोजा वहाँ-वहाँ .. थी जहाँ तक पहुँच अपनी,
सोच अपनी, पर अता-पता नहीं चला ..
पूरे के पूरे उस कुनबे का अब तक कहीं भी।
निरन्तर, अनवरत, आज भी,
अब भी .. तलाश है जारी ...
साहिब !!! .. साहिबान !!!!! ...
पर नतीज़ा "ज़ीरो बटा सन्नाटा" है अभी भी।
दिखे जो उस कुनबे का एक भी,
तो मिलवा जरूर दीजिएगा जल्द ही।
आने-जाने का किराया मुहैया कराने के
साथ-साथ मिलेगा एक यथोचित पारितोषिक भी।
है कुनबे के गुमशुदा लोगों की पहचान,
उनमें से है .. कोई बैल पर सवार,
तो है किसी की शेर की सवारी,
है कोई उल्लू पर सवार, तो किसी की चूहे की सवारी,
कोई पूँछधारी तो .. कोई सूँढ़धारी ..
हमारी तो अब भी इनकी तलाश है जारी .. बस यूँ ही ...
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" सोमवार 06 दिसम्बर 2021 को साझा की गयी है....
ReplyDeleteपाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जी ! नमन संग आभार आपका ...
Deleteलाजवाब।
ReplyDeleteजी ! नमन संग आभार आपका ...
Deleteगज्ज्जब
ReplyDeleteजी ! नमन संग आभार आपका ...
Delete( केवल "गज्ज्जब" कहने से काम नही चलेगा साहिब 😢, चन्द चन्दा भी भेजना होगा .. थाना के 'बड़ा बाबू' को 'कच्चे में' 'खर्चा-पानी' देना है .. गुमशुदा हेतु FIR दर्ज़ करवाने के लिए ...😢😢)
😂😂😂
नमस्कार सर, अगर आपको इनलोगो का पता मिल जाए तो मुझे भी बता दीजियेगा बहुत हिसाब बराबर करना है।,😢😢
ReplyDeleteजी ! शुभाशीष संग आभार ...
Deleteजरूर ... वैसे तो .. तलाश है जारी .. बस यूँ ही ...
सुंदर प्रस्तुति|
ReplyDeleteजी ! नमन संग आभार आपका ...
Deleteजब तक
ReplyDeleteढूंढते रहोगे
गली चौराहों में
FIR कर
पुलिस थानों में
इधर उधर
अपने मकानों में
तब तक
नहीं मिलेगा कोई
बैल की सवारी वाला
न ही कोई
सूँड धारी
न ही कर में पकड़े
खप्परधारी ,
यूँ ही बस
न कर मुनादी
स्वयं के मन में
झांकने का बन आदी
उस दिन
न देना होगा इश्तहार
न छपवाना होगा पर्चा
बच जाएगा सारा खर्चा
मन में सुकून होगा
क्योंकि
जिसे ढूँढ रहे थे
मन में
उसका वास होगा ।।।।
"मन का वासी" और "प्रकृति मासी" का तो यूँ .. मुझे मालूम हैं ही, हम तो तलाश रहे हैं उनको, जिनके लिए अकूत दौलत खर्च कर (वस्तुतः लुटा कर) कई भव्य इमारतों की क़तार सजायी जाती है या सजायी जा रही है, जिनको मिलने लोगबाग किसी स्थान-विशेष या पहाड़-विशेष तक जाते हैं .. शायद ...
Deleteमुर्दों के शहर में मूर्तियों की बाज़ार है,
समक्ष मूर्तियों के मुर्दों की यूँ कतार है
मुर्दे मौन, मूर्तियाँ भी मौन, बस ...
लाउडस्पीकरों की मची चीख़-पुकार है,
दिन में चैन नदारद,रात सोना दुश्वार है।
(तथाकथित दशहरा (इस साल ही) के समय मन की व्यथा शब्दों की शक़्ल में छलक कर, पड़ी-पड़ी कराह रही थी .. बस यूँ ही ...☺)
इस धरती पर इंसानों ने अपने अपने ईश्वर चुन रखे हैं।और हर एक ही अपनी आस्था के अनुरूप ईश्वर को मानता है ।। आप जिसे शोर समझते हैं वो उनकी भावनाएँ हैं । आप केवल मूर्तियों के पीछे ही पड़े हैं ।किसी मस्जिद के बारे में या गिरजाघर के बारे में क्या ख्याल है ?
Deleteमाना कि आज आडम्बर ज्यादा दिखता है लेकिन मैंने देखा है कि हिन्दू ही हिन्दू की जड़ों को काटता है । कोई मुसलमान मस्जिद की आजान पर नहीं प्रश्न खड़ा करेगा ।
यूँ सब ही जानते हैं कि भगवान किसी मूर्ति के मोहताज नहीं । लाउडस्पीकर पर भजन गाने से भगवान को सुनाई नहीं देता । ईश्वर हर उस व्यक्ति के मन में वास करते हैं जो किसी अन्य को प्रसन्नता प्रदान कर सके ।
प्रतिक्रियास्वरूप कही गयी आपकी स्वयं की बातों में विरोधाभास है .. शायद ...
Deleteएक तरफ तो आप कह रही हैं कि - " भगवान किसी मूर्ति के मोहताज नहीं। लाउडस्पीकर पर भजन गाने से भगवान को सुनाई नहीं देता । ईश्वर हर उस व्यक्ति के मन में वास करते हैं जो किसी अन्य को प्रसन्नता प्रदान कर सके।"
दूसरी तरफ आप ही कह रहीं हैं कि - "आप जिसे शोर समझते हैं वो उनकी भावनाएँ हैं। आप केवल मूर्तियों के पीछे ही पड़े हैं।"
दोनों बातें अलग-अलग दिशा में प्रतिध्वनित हो रहीं हैं। तय कर पाना मुश्किल हो रहा कि आप किस मान्यता की पक्षधर हैं और किस की नहीं .. शायद ...
आपके पहले वाक्य -"इस धरती पर इंसानों ने अपने अपने ईश्वर चुन रखे हैं।" - से स्वतः सिद्ध हो रहा है कि तथाकथित ईश्वर मानवनिर्मित हैं .. शायद ... क्योंकि सभी का दावा है कि इस धरती और समस्त ब्रह्माण्ड को उनके द्वारा "चयनित ईश्वर" ही चला (?) रहे हैं।
वैसे तो अगर गौर करें तो आदिमानव के ना तो कोई ईश्वर रहे होंगे और ना ही आस्था। जो कुछ भी उनके समक्ष घटित होने वाली प्राकृतिक घटनाएँ या प्रक्रियाएँ उनकी अज्ञानता के कारणवश उनकी समझ से बाहर रही होंगी, उन सभी के समक्ष उन्होंने अपने माथे या घुटने टेके होंगे .. शायद ...
कालान्तर में अलग-अलग भौगोलिक परिवेश में, अलग-अलग पनपे सभ्यताओं के बीच प्रकृति की पूजा, भले ही वह भयवश हो, आस्थावश हो या श्रद्धावश हो, ने धीरे-धीरे तथाकथित ईश्वर का रूप लेकर, ईश्वरों की मूर्तियाँ गढ़ के उनका मानवीकरण किया गया होगा। अगर उस पौराणिक काल को हम सही मान भी लें तो तब के समय की "भावनाओं" में "शोर" नहीं था .. शायद ... क्योंकि तब 'लाउडस्पीकर' या 'माइक' थे ही नहीं, नहीं क्या ? आज भी सच्चे मायने में ध्यान-उपासना करने वाले अपनी आस्था के कारण "शोर" नहीं मचाते, बल्कि मौन ध्यान लगाते हैं। वैसे तो हमें जितनी जानकारी है, सब से शान्त उपासना बौद्धमठों में या बहाईयों के पूजास्थलों पर देखने को मिलती भी है।
आप कह रही हैं कि - "हिन्दू ही हिन्दू की जड़ों को काटता है।" पर मुस्लमान हो कर भी निदा फाजली साहब की कही बात/मानसिकता पर भी एक बार गौर जरूर करनी चाहिए कि -
"कोई हिन्दू, कोई मुस्लिम, कोई ईसाई है
सब ने इंसान न बनने की क़सम खाई है।"
मस्ज़िद और गिरजाघरों की या गुरुद्वारे या आतिश बेहराम या स्यानागोगी के "पीछे नहीं पड़ने" वाली कोई बात ही नहीं है, आडम्बर और बिडंबना जिस किसी में भी हो, वो तो रहेगी ही। रही बात केवल तथाकथित मन्दिर, मूर्ति या हिंदू शब्द के "पीछे पड़ने" की तो ऐसी कोई बात भी नहीं है। दरअसल हर इंसान जिस परिवेश में साँस लेता है, उसी की चर्चा करने में अपने आप को ज्यादा सक्षम पाता है। अब हम यहाँ रह कर आतिश बेहराम के विषय में विस्तार देने में स्वयं को सक्षम नहीं पा सकते हैं .. शायद ... वैसे भी, जब कभी भी मुझे अवसर मिला है, तो हमने कई बार इनके कई आडम्बर के साथ भी यथोचित विरोध में जरूर कुछ "बुदबुदाया" है .. शायद ...
फिर आप कह रही हैं कि - "कोई मुसलमान मस्जिद की अज़ान पर नहीं प्रश्न खड़ा करेगा।" अब अगर कोई समाज या व्यक्तिविशेष या सभ्यताविशेष रूढ़िवादी है, तो हमें भी रूढ़िवादी होना ही चाहिए क्या ? वैसे भी लगभग छः सौ साल पहले ही कबीर दास जी मस्जिद और अज़ान के बारे में तो कह ही चुके हैं, कि -
"कांकर पाथर जोरि के ,मस्जिद लई चुनाय।
ता उपर मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय।"
उतना अतीत में ना जाकर हमें वर्तमान में ही/भी गौर करते हुए .. तारिक़ फ़तह, आरिफ़ मोहम्मद ख़ान (केरल के वर्तमान राज्यपाल), सलमान रुश्दी ("द सेटेनिक वर्सेज़" के रचनाकार) जैसे तथाकथित मुस्लिम पुरुषों की और तसलीमा नसरीन, सारा हैदर जैसी मुस्लिम महिलाओं की उदारवादी सोच और मानसिकता से पनपी विचारधारा वाले वक्तव्यों से एक बार जरूर रूबरू होना चाहिए, जिनके लिए कुछ को या तो देशनिकाला दिया गया है, या किसी के नाम के उनके कठमुल्लों ने फ़तवे जारी किये हैं ; तब हम आपकी ये बात कहते हुए, एक बार जरूर हकलाते नज़र आएं .. शायद ... कि "कोई मुसलमान मस्जिद की आजान पर नहीं प्रश्न खड़ा करेगा।"
उदारवादी तो बस .. उदारवादी इंसान भर होता है, वो ना तो हिंदू होता है और ना ही मुस्लमान .. शायद ...
एक बार फिर से निदा फाजली साहब को याद करते हुए, कि -
"कोई हिन्दू, कोई मुस्लिम, कोई ईसाई है
सब ने इंसान न बनने की क़सम खाई है।" .. बस यूँ ही ...
साथ ही, आपकी शिकायत - "आप केवल मूर्तियों के पीछे ही पड़े हैं ।किसी मस्जिद के बारे में या गिरजाघर के बारे में क्या ख्याल है ?" को दूर करती मेरी कुछ पुरानी बतकहियाँ ...
Deletehttps://subodhbanjaarabastikevashinde.blogspot.com/2020/06/blog-post_3.html?m=1
https://subodhbanjaarabastikevashinde.blogspot.com/2020/05/blog-post_25.html?m=1
https://subodhbanjaarabastikevashinde.blogspot.com/2019/12/blog-post_24.html?m=1
मोको कहां ढूँढे रे बन्दे
ReplyDeleteमैं तो तेरे पास में
ना तीरथ मे ना मूरत में
ना एकान्त निवास में
ना मंदिर में ना मस्जिद में
ना काबे कैलास में
मैं तो तेरे पास में बन्दे
मैं तो तेरे पास में
ना मैं जप में ना मैं तप में
ना मैं बरत उपास में
ना मैं किरिया करम में रहता
नहिं जोग सन्यास में
नहिं प्राण में नहिं पिंड में
ना ब्रह्याण्ड आकाश में
ना मैं प्रकुति प्रवार गुफा में
नहिं स्वांसों की स्वांस में
खोजि होए तुरत मिल जाउं
इक पल की तालास में
कहत कबीर सुनो भई साधो
मैं तो हूं विश्वास में
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आपकी रचना का मूल संदेश मुझे यही समझ आया।
सादर।
जी ! .. शायद ...
Delete.. बस यूँ ही ...
सुबोध भाई,जिसकी ये तलाश पूरी हुई व्व टी गंगा नहा लेगा। वैसे यदि बाहरी तौर पर तलाशा जाएगा तो तलाश पूरी नही होगी। लेकिन खुद के अंदर तलाशे गए तो शायद....
ReplyDeleteज्योति बहन, नमन संग आभार आपका ...
Deleteगंगा नहा लेने जैसी बात का तो नहीं पता, पर बाहरी और भीतरी तलाश वाली आपकी सोच से हम पूर्णतः सहमत हैं ...
इतना शोर सुन ''वाहन'' अपनी सवारियों को और भी दूर ना ले जाएं
ReplyDeleteजी ! नमन संग आभार आपका ...
Deleteवो सारा "वाहन" अब तक थक भी चुका होगा .. शायद ... अब तो Chartered Plane इस्तेमाल करना चाहिए "उन्हें" .. बस यूँ ही ...