Monday, September 6, 2021

ना 'सिरचन' मरा, ना मरी है 'बुधिया' ... -(भाग-१).

मानो आम में दूध मिला हुआ हो ... :-

बिहार राज्य में रह कर भी, कई बिहारवासियों की तरह ही, शायद आप भी बिहार के इन दो विश्वस्तरीय महत्वपूर्ण और विशेष गौरवशाली पर्यटन स्थलों के बारे में अनभिज्ञ हो सकते हैं, जिनके बारे में, यूँ तो विश्व स्तर पर बेहतर जाना जाता है। जिनमें एक तो .. सामान्य ज्ञान के अंतर्गत, इस राज्य में सिगरेट और बन्दूक के कारखाने के लिए प्रसिद्ध मुंगेर जिले में, गंगा नदी के किनारे सन् 1963-64 ईस्वी से स्थापित "बिहार योग विद्यालय" (Bihar School of Yoga) है और दूसरा राज्य की राजधानी- पटना जिला के लगभग पश्चिमी छोर पर, गंगा-तट से कुछ ही दूरी पर सन् 1988-89 ईस्वी से अवस्थित "तरुमित्र आश्रम" है।

वैसे तो .. "बिहार योग विद्यालय" तो एक आश्रम की ही तरह है; जहाँ पूरे विश्व से योग में रूचि रखने वाले लोग यदाकदा स्वास्थ्य लाभ या ध्यान (Meditation) के लिए उपलब्ध अल्पकालिक प्रवास की सुविधा के तहत आते-जाते रहते हैं। परन्तु इसके बारे में .. विस्तार से फिर कभी। फ़िलहाल .. आज, अभी चर्चा करते हैं, तरुमित्र आश्रम की .. बस यूँ ही ...




पर आप कहीं .. इस "तरुमित्र आश्रम" संज्ञा में जुड़े आश्रम शब्द से किसी पौराणिक काल के परिदृश्य में खोने मत लग जाइएगा। ना, ना .. दरअसल यह कोई आश्रम नहीं है और .. वैसे भी तो .. "तरुमित्र" के नाम से ही लोगों में ज्यादा प्रचलित भी है। दरअसल यह पर्यावरण को संवारने के लिए लोगों को जागरूक करने और इस से जोड़ने के लिए अनवरत कार्यरत एक गैर सरकारी संगठन (NGO) है, जिसका मुख्यालय पटना के दीघा नामक क्षेत्र में, ठीक-ठीक तो नहीं मालूम, परन्तु अनुमानतः लगभग तीस एकड़ में विस्तार पाए हुए है .. शायद ...


"बिहार योग विद्यालय" के बारे में या "तरुमित्र" के बारे में यूँ तो विस्तृत जानकारियाँ वर्तमान के सहज-सुलभ उपलब्ध शिक्षक- 'गूगल' के पास है ही। पर इन जगहों पर सशरीर आ कर, यहाँ के शुद्ध वातावरण की विशुद्ध हवा में साँस लेने का अलग ही आनन्द है। साथ ही, विशेष तौर पर, तरुमित्र के परिसर में, विभिन्न प्रकार के परिंदों की सुमधुर, मनभावन गूँजती आवाज़ें, जो यूँ तो प्रायः शहरों-महानगरों में पूरी तरह नदारद ही रहती हैं या फिर वहाँ की चिल्ल-पों में ग़ुम-सी ही हो जाती हैं .. शायद ...

लगभग पचास-चालीस वर्ष पहले तक हमारे बचपन के दिनों में अभिभावकगण, पटना के इसी दीघा वाले क्षेत्र में तत्कालीन बहुतायत में उपलब्ध बाग़ीचों से, तब सैकड़े की दर से बिकने वाले प्रसिद्ध दूधिया मालदह आम, अपने सामने तुड़वा कर और टोकरे में भरवा कर, रिक्शे पर लदवा कर सीधे घर तक लाया करते थे। आम टूटने से लेकर टोकरी के रिक्शा पर लदने तक की अवधि में हम बच्चों द्वारा खाया जाने वाला आम बाग़ीचे के मालिक या ठीकेदार के तरफ से हम बच्चे या बड़ों के लिए भी मुफ़्त होता था। उस दूधिया मालदह आम की ख़ासियत होती थी, उसका कागज-सा पतला छिलका और पतली व छोटी-सी गुठली .. पूरा आम गूदा से भरा हुआ और स्वाद की ख़ासियत तो .. अहा !! .. मानो आम में दूध मिला हुआ हो या फिर दूध में आम। उस पतली गुठली को भी चूसने का, तब बचपन में अलग ही मजा होता था। पर ... आज ना तो यहाँ वो बाग़ीचे रहे और ना ही वो .. दूधिया मालदह आम। अब तो वो सारे बाग़ीचे कट गए। बढ़ती आबादी के साथ-साथ, बढ़ते शहरीकरण के तहत, वहाँ पर बनती तमाम बहुमंजिली इमारतों की बाढ़ ने तो सब को लगभग लील ही लिया है .. शायद ...





"अर्थिकल" तख़ल्लुस भी ... :-

ख़ैर ! .. अभी बात हो रही है, तरुमित्र की, तो .. यह संस्थान पटना शहर के सड़कों के किनारे-किनारे और गंगा नदी के किनारे भी, पेड़-पौधों की कई सारी हरित पट्टियों से पाट के उसे ऑक्सीजन पट्टियों में परिवर्तित करने के लिए हरदम प्रयासरत रहती है। यह पेड़-पौधों को लगाने के साथ-साथ, सालों भर उसके देखभाल का भी काम करती है। जबकि कई निजी या सरकारी संस्थाओं के लोग अक़्सर पर्यावरण दिवस के नाम पर साल में एक बार पेड़-पौधे कई जगहों पर लगाते तो हैं जरूर, वो भी 'सोशल मिडिया' पर अपनी 'सेल्फ़ी' चिपकाने भर के लिए, पर बाद में उन पेड़-पौधों का रख-रखाव उन भीड़ में से कम ही लोग कर पाते हैं .. शायद ...

यहाँ के अलावा गुजरात, मेघालय, तमिलनाडु, कर्नाटक और केरल जैसे कई राज्यों के कई सुदूर स्थानों पर भी इसकी शाखाएँ कार्यरत है। यहाँ प्रयोग किये जाने वाले हर उपकरण या अन्य रोजमर्रे के सामान पर्यावरण हितैषी (Eco Friendly) होते हैं। यहाँ के मानव निर्मित जंगल में 500 से भी अधिक दुर्लभ प्रजातियों के पेड़-पौधे यहाँ की प्रदूषणमुक्त खुली हवा में साँसें ले रहे हैं। यहाँ पाटली के भी कई सारे वृक्ष हैं, जिनके बारे में कुछ इतिहासकार मानते हैं, कि अतीत के एक कालखंड में इनके वृक्ष बहुतायत संख्या में होने के कारण ही पटना का प्राचीन नाम पाटलिपुत्र रखा गया था।

















यहाँ एक विशाल जननिक पौधशाला (Genetic Nursery) और उत्तक संवर्धन प्रयोगशाला (Tissue Culture Lab) की भी सुविधा है। विश्व स्तर पर लगभग पाँच हजार से अधिक स्कूल और काॅलेज इसके सदस्य हैं, जिनके हजारों छात्र-छात्राएँ भी इस के सदस्य हैं। इसके निदेशक- फादर राॅबर्ट अर्थिकल ने अपने नाम के आगे "अर्थिकल" तख़ल्लुस भी 'अर्थ' (Earth = पृथ्वी) को ध्यान में रखते हुए जोड़ रखा है। इस से इनकी पर्यावरण के प्रति जुड़ी समर्पित भावनाओं का पता चलता है।


यहाँ इसके हरे-भरे विशाल परिसर में उपलब्ध पर्यावरण हितैषी आवासीय सुविधा में कुछ आजीवन स्वयंसेवकगण भी रहते हैं। यहीं एक बार अभिगमन के दौरान यहाँ के एक आजीवन स्वयंसेवक - शशि दर्शन जी से मुलाक़ात हुई थी, जो उनके कथनानुसार यहाँ के सूचना प्रौद्योगिकी (Information Technology) के लिए कार्यरत हैं।

एक आजीवन स्वयंसेवक - शशि दर्शन

ये संस्थान स्थानीय, राज्य और केंद्रीय प्रशासनिक प्राधिकरणों जैसे राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (State Pollution Control Board), वन पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन विभाग (The Department of Forest, Environment and Climate Change), नगर निगम निकाय (The Municipal Corporation Body), राज्य कृषि विभाग (The State Department of Agriculture) के साथ भी प्रायः सहयोग करता है।

प्रति वर्ष संयुक्त राष्ट्र द्वारा आयोजित होने वाले पर्यावरण सम्मेलन में इस संस्थान से प्रतिनिधिगण भाग लेने जाते हैं। विश्वस्तरीय मंच पर भी यहाँ के सदस्यगण कई दफ़ा उल्लेखनीय प्रदर्शन करते रहते हैं।

मध्य अमेरिका में स्थित हौन्डुरस देश के एक गैर-लाभकारी निजी कृषि विश्वविद्यालय- Zamorano Pan-American Agricultural School और अमेरिका के ही पेंसिल्वेनिया के एक निजी अनुसंधान विश्वविद्यालय- Lehigh University के विद्यार्थीगण प्रशिक्षुता कार्यक्रमों (Internship Programs) के लिए अक़्सर यहाँ आते हैं।













अब फिर जल्द ही हम मिलते हैं, "ना 'सिरचन' मरा, ना मरी है 'बुधिया' ... - (भाग-२)" के साथ .. बस यूँ ही ...



Monday, August 16, 2021

जलुआ नहीं जी, जलवे ...

झेल कर रोज़ाना सालों भर,
धौंस अक़्सर पुरुषों की कभी,
निकाला करती थीं महिलाएं,
शायद .. आज भी कहीं-कहीं,
मन की भड़ास, होकर बिंदास,
अंदर दबी कुंठाएँ, अवसाद भी, 
और कभी कभार मन की कसक।
अपने गले फाड़ती, कुछ पैरोडी गाती,
कुछ सुरी, कुछ बेसुरी,
ढोलक-चम्मच की थाप पर, 
गा-गा कर पुरुषों वाली माँ-बहन की,
ऐसी-तैसी करने वाली गालियाँ बेधड़क।
वर पक्ष की महिलाएं, वधू पक्ष के लिए,
शुभ तिलक के शुभ अवसर पर,
या फिर वर पक्ष के लिए, वधू पक्ष की महिलाएं,
बारातियों को सुना-सुना कर, उनके भोज जीमने तक।
भद्द पीटती थी, फिर तो सभी बारातियों की,
माँ, बहन, मौसी, चाची, फुआ, भाभी की,
करके सभी की ऐसी की तैसी मटक-मटक .. बस यूँ ही ... 

अबलाएं बन जाया करती थीं सबलाएं, 
एक रात के लिए कभी बारातियों के,
जाते ही वर पक्ष के घर से,
डोमकच या कहीं-कहीं जलुआ के बहाने ;
'कॉकटेल'-सी बन जातीं थी फिर तो ..
स्वच्छंदता और उन्मुक्तता की यकायक।
मिटा कर भेदभाव सारे ...
नौकरानी और मालकिनी की,
बन जाती थीं कुछ औरतें पहन कर, 
लुंगी, धोती-कुर्ता या फुलपैंट-बुशर्ट पुरुष वेश में ..  
कोई दारोग़ा, कोई डाकू,
कोई लैला, कोई मजनूं,,
कोई प्रसूता, कोई 'दगडर* बाबू',
कोई चुड़ैल, कोई ओझा-औघड़ ज्ञानी।
होती थीं फिर कुछ-कुछ ज्ञान की बातें,
दी जाती थी कभी-कभी .. खेल-खेल में,
कई यौन शिक्षा भी संग हास-परिहास के, 
कभी होती थीं पुरुषों वाली 
उन्मुक्त अश्लीलता भी बन कर मजाक .. बस यूँ ही ... 

पड़ती नहीं अब आवश्यकता
शायद रोज़ाना घुट-घुट कर,
अवसाद इन्हें मिटाने की ;
क्योंकि महिलाएं हों या लड़कियाँ,
हर दिन ही तो अब पहनती हैं,
पोशाक पुरुषों वाले ये कहीं-कहीं,
बड़े शहरों, नगरों या महानगरों में बिंदास।
बकती हैं पुरुषों वाली गालियाँ भी,
खुलेआम धूम्रपान, मद्यपान जैसी मौज़,
करती हैं अधिकतर .. 
पुरुषों वाली ही, हो बेलौस।
औरतें वर पक्ष की होतीं भी तो नहीं,
घर पर अब बारात जाने वाली रात,
बल्कि चौक-चौराहे, सड़कों जैसे,
सार्वजनिक स्थलों पर, 
आतिशबाज़ी और बारातियों के बीच,
बैंड बाजे की फ़िल्मी धुन पर, 
बिखेरे जाते हैं अब तो
डोमकच या जलुआ नहीं जी, जलवे कड़क .. बस यूँ ही ...


【 * = दगडर = डॉक्टर ( एक आँचलिक सम्बोधन ). 】.










 



Sunday, August 15, 2021

एक मीरा नहीं, कईं मीराएँ ...

कुछ लोगों का मानना है, कि आज स्वतंत्रता दिवस है, तो हमें ज़श्न मनाना चाहिए, उसकी सालगिरह मनानी चाहिए। सच भी है, अगर कोई बुद्धिजीवी यह बात बोल रहे / रहीं हैं, तो बातें गलत हो भी कैसे सकती है भला ! है ना ? तो .. हमें एक दूसरे को सुबह-सुबह सबको शुभकामनाओं की फ़ुहार में सराबोर कर ही देनी चाहिए। इनमें कोई बुराई भी तो नहीं। 'गूगल' पर या 'व्हाट्सएप्प' पर कई सारी 'कॉपी-पेस्ट' वाली शुभकामनाओं की भी, 'रेडीमेड' कपड़ों की तरह, लम्बी और अनगिनत फ़ेहरिस्त 'रेडीमेड' तैयार हैं। बस .. 'कॉपी' कर के चिपका कर, आगे 'फॉरवर्ड' भर कर देना है। वो सारे सामने वाले भी खुश, आप भी खुश .. शायद ...
पर एक अदना-सा सवाल, उन बुद्धिजीवियों से, कि .. एक ही दिन अगर एक भाई का जन्मदिन हो और उसी दिन उसके दूसरे भाई की हत्या कर के उसकी इहलीला समाप्त कर दी गई हो, तो उस दूसरे भाई की पुण्यतिथि के मातम को नज़रअंदाज़ करते हुए, एक भाई का जन्मदिन मनाना कितना उचित है, दूसरे की पुण्यतिथि के अवसर पर ही ?? फिर .. अगर पहले का हम जन्मदिन मना भी रहे हैं, पर वह रुग्णावस्था में है, तो उस समय शायद मेरी प्राथमिकता होनी चाहिए, उसे उसके स्वास्थ्य को पुनः वापस दिलाने की। ताकि जब उसका जन्मदिन मनाया जाए, तो घर-परिवार के लोग और स्वयं वह भी अपने स्वस्थ शरीर के साथ खुल कर ख़ुशी मना सकें। अब ये क्या .. कि वह 'वेंटिलेटर' पर 'ऑक्सीजन सिलेंडर' के रहमोकरम पर आश्रित होकर, अपनी ठहरी साँसों को घसीट रहा हो और हम उसे सालगिरह की मुबारक़बाद दे रहे हों।
ऐसे में देने वाले भी हम, लेने वाले भी हम, कहने वाले भी हम, सुनने वाले भी हम ही, केक काटने वाले भी हम, खाने वाले भी हम। हम जिसके लिए जश्न मनाने की बात कर रहे हैं, वह तो मरणावस्था में बेसुध पड़ा है। अब ऐसे में भी कोई बुद्धिजीवी ये तर्क देते / देती हैं, कि किसी के जन्मदिन पर तो उसे मुबारक़बाद देनी चाहिए, ज़श्न मनानी चाहिए, उसकी बुराइयों यानि बुरी बीमारियों को नज़रअंदाज़ कर देनी चाहिए। उसी दिन उसके सगे भाई की, की गयी निर्मम हत्या वाली मौत के मंज़र भुल कर, झटक देनी चाहिए। तब तो .. साहिबान !!!  .. उन बुद्धिजीवियों की मर्ज़ी .. वैसे भी आज स्वतंत्र लोकतांत्रिक भारत का स्वतंत्रता दिवस है .. कुछ भी करने की सभी को आज़ादी है .. बस यूँ ही ...
वैसे हमारी ही चंद पंजीकृत बेमुरव्वत ? ... ", " क्या सच में पगला गया हूँ मैं !????????", " गणतंत्र दिवस के बहाने - चन्द पंक्तियाँ - (२२) - बस यूँ ही ...  ", "बस यूँ ही ... ", " अनचाहा डी. एन. ए.", और " काला पानी की काली स्याही " जैसी पुरानी बतकहियाँ .. हमें आज .. आप सभी क्या .. किसी को भी अपने मोबाइल के 'क्वर्टी की-बोर्ड' पर अपनी उंगलियों को टपटपा कर "स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक बधाइयाँ" बाँट कर एक जिम्मेवार सभ्य भारतीय नागरिक बनने से रोकती-सी .. शायद .. एक रुआँसी गुहार लगा रही है .. बस यूँ ही ...
इसीलिए ऐसे में तो ...हमारे जैसे मंद बुद्धि वाले लोग, आज के दिन तो .. "हँसुआ के बिआह में खुरपी के गीत" वाली बात को ही चरितार्थ करने की 'स्टुपिडपना' करेंगे .. तो .. आज .. किसी आधुनिक 'टीनएजर' प्रेमी-प्रेमिका के क्षणिक छिछोरे आवेशित प्रेम की तरह, आज वाले उपजे एकदिवसीय देशप्रेम को त्याग कर, आइए ना !! .. कुछ और ही राग अलापते हैं .. बस यूँ ही ...

(१) एक मीरा नहीं, कईं मीराएँ ...

सुना है कि .. कभी ..
हुई थी एक मीरा भी ...
बनी दिवानी, 
किसी कान्हा की,
थिरकाती नर्म 
उंगलियाँ अपनी,
बजाती इकतारा,
भटकती फिरती गली-गली,
गाती, पुकारती, विरहनी-सी, 
कान्हा को अपने,
बनी प्रेम दीवानी 
किसी कान्हा की .. शायद ...

यूँ तो .. ग़ुम रह जाती हैं ..
आज भी गुमनाम, ना जाने .. 
एक मीरा नहीं, कईं मीराएँ,
अनगिनत कामकाजी मीराएँ,
थिरकाती हुईं,
'शेप' में बढ़ाए हुए,
रंगे 'नेलपॉलिश' से
अपने नाखूनों वाली 
टपटपाती उंगलियाँ,
किसी दफ़्तर के 
'कंप्यूटर' वाले
'क्वर्टी की-बोर्ड' पर ही।
कुछ कुशल गृहिणी मीराएँ,
बटलोही के खदकते चावल 
या कड़ाही में सिंझती 
सब्जी के दौरान,
गैस-चूल्हे वाले चबूतरे पर 
रसोईघर के अपने अक़्सर,
चटकाती रहती हैं कभी, 
तो कभी .. 
थपथपाती हैं उंगलियाँ अपनी,
गुनगुनाती-सी कुछ भी,
कभी बारहमासा, कभी कजरी,
कभी भजन, या कभी गीत कोई फ़िल्मी .. बस यूँ ही ...

भटकती तो हैं .. अब ये नहीं, 
गलियों में किसी, वरन् नापती हैं,
रोजाना की अपनी-अपनी तय दूरियाँ, 
उपलब्ध बसों, मेट्रो जैसे 
'पब्लिक ट्रांस्पोटों' में।
हाँ ! .. वैसे तो .. वो .. खुलकर,
बस .. मन बहलाने को भी,
गा भी तो नहीं पातीं,
कि ... कहीं मान ना बैठे इस
सभ्य समाज का कोई 
सभ्य सज्जन पुरुष 
उसे बदचलन या मनचली। 
चिहुँकी भी रहती हैं, हर क्षण कि ..
'ऑटो' में बैठा पास कोई,
चरित्रवान एक चरित्र कहीं,
बरपाने ना लगे क़हर
कूल्हे पर उसके 
केहुनी अपनी रगड़ कर,
किसी माचिस की डिबिया पर,
तिल्ली के घर्षण की मानिंद।
तो .. इस डर से .. बस .. गुनगुना भर लेती हैं,
नग़में रूमानी कोई मन ही मन,
वो भी .. फ़िल्मी कोई नए या 
पुराने भी कभी-कभी .. बस यूँ ही ...


(२) एक मीरा नहीं, कईं मीराएँ ...

ना तो कोई भजन, ना ही गीत,
कान्हा के लिए किसी, 
बल्कि लिखती हैं इनमें से तो कई बारहा,
शुरू होने से ख़त्म होने तक के अन्तराल,
गैस-सिलेंडर के और ..
दूध वाले या अख़बार वाले के 
नागे वाले दिनें, कैलेंडरों में घेर कर।
लिखती हैं, कभी काटती हैं, 
सूची लम्बी-लम्बी,
महीने भर के 'बजट' के अनुसार,
ताकि आ सके महीने भर के राशन
मुहल्ले-शहर की दुकान से या फिर 'ऑनलाइन',
ताकि घर-परिवार के साथ-साथ
निबाहे जा सकें आए-गए भी। 
या फिर लिखती हैं कई, लिए गए बढ़े-घटे,
साप्ताहिक नियमित माप,
'फास्टिंग' या 'पी पी' वाले,
'शुगर लेबल' के कभी मधुमेह से 
पीड़ित धर्मपति के अपने
या कोई बढ़े-घटे माप, स्वयं के रक्तचाप के,
कभी-कभार तो .. दोनों ही के,
अब तो .. 'ऑक्सीजन लेबल' भी,
कोई-कोई लेटी हैं अपने थुलथुले बदन के 
वज़न और .. माप बदन के तापमान के भी .. बस यूँ ही ...

काम से इतर तो ये अब 
भटक भी नहीं सकतीं,
डर है कि कहीं .....
क्या कहा आपने ? .. 
क्या ?? .. बलात्कार का डर ?
अरे ! ना, ना .. साहिब ! 
होते थे बलात्कार तो तब भी,
बात-बात में बलात्कार,
अजी साहिबान ! ..
होती थीं तब भी अपहरणें भी,
पर आज की तरह तब
जलायी नहीं जाती थीं
बलात्कृत अबलाएँ।
हाँ .. तब जलायी जाती होंगीं, 
सतियाँ .. हो सकता है .. बेशक़, 
पत्थर भी बना दी जाती होंगीं,
तथाकथित दिव्य श्रापों से वे, पर ...
पर अब तो आजकल ..
बलात्कार के बाद ..
जला भी दी जाती हैं बेचारी।
कर दी जाती हैं तब्दील फ़ौरन,
राख और कंकाल में,
कभी तेज़ाब से या फिर कभी माचिस से,
नहला कर धारों से पेट्रोल की .. बस यूँ ही ...

ईमानदारी के साथ, मीराएँ आज की,
निभाना अपने काम को ही,
पावन पूजा हैं मानती, 
मानती हैं फ़िज़ूल,
फटकना या भटकना मंदिरों में कहीं-कभी।
काश ! .. जो इस दफ़ा,
कोई कान्हा ही रच लेता,
इन मीराओं की पीड़ाओं के गीत,
और गाता फिरता भटकता हुआ, 
संग 'स्पेनिश गिटारों' के,
गलियों में, सड़कों पे,
पर .. तलाश में कतई नहीं अपनी मीरा की,
वरन् रखवाली की ख़ातिर उनकी ही, जो ...
एक मीरा नहीं, कईं मीराएँ ...
लोकतांत्रिक स्वतन्त्र भारतीय
चौक-सड़कों पर हैं, आज भी असुरक्षित-सी .. शायद ...




Saturday, August 14, 2021

क्षुप कईं मेंथा के ...

जब कभी भी तुम ..
रचना कोई अपनी रूमानी 
और तनिक रूहानी भी,
अतुकान्त ही सही, पर ...
बटोर के चंद शब्दों को 
किसी शब्दकोश से, 
जिन्हें .. टाँक आती हो,
मिली फुरसत में हौले से,
नीले आसमान पे, किसी वेब पन्ने के;
तूतिया मिली अपनी अनुभूति की,
भावनाओं की गाढ़ी लेई को 
लपेसी हुईं मन की उंगलियों से
और फिर .. औंधी पड़ी बिस्तर पर या 
सोफ़े पर, मन ही मन मुस्कुराती हो,
या .. कभी 'बालकॉनी' में खड़ी,
गुनगुनाती हो, तो ..
तो उग ही आते हैं हर बार,
महसूस कर-कर के स्वयं को उनमें,
सितारे .. ढेर सारे .. टिमटिमाते, 
आँखें मटकाते, मानो .. आश्विन महीने के,
धुले और खुले आकाश में,
एक रात की तरह, अमावस वाली .. बस यूँ ही ... 

हरेक पंक्ति होती है जिसकी, मानो .. 
हो शाम से तर क्यारी कोई,
चाँदनी में जेठ की पूनम की,
मंद-मंद सुगंध बिखेरती,
रात भर खिली रजनीगंधा की।
या फिर सुबह-शाम वैशाख में 
हों सुगंध बिखेरते क्षुप कईं मेंथा° के,
सभी खेतों में बाराबंकी या बदायूँ के।
नज़र आते हैं, झूमते .. हरेक शब्द भी,
जैसे .. पसाने के बाद माँड़,
मानो .. करने के लिए फरहर°°भात,
झँझोड़ने पर भात भरे तसले को, 
अक़्सर .. झूमते हैं झुमके 
या कभी झूमतीं हैं,
जुड़वे कानों में तुम्हारे,
लटकीं तुम्हारी जुड़वीं बालियाँ। 
नज़र आते हैं हर अनुच्छेद, 
थिरकते हुए अनवरत, 
मानो थिरकते हैं अक़्सर ..
'शैम्पू' किए, तुम्हारे खुले बाल,
जब कभी भी तुम, किसी सुबह या शाम,
खुली छत पर अपनी, कूदती हो रस्सी .. बस यूँ ही ...


मेंथा° = हमारे देश- भारत के उत्तर प्रदेश राज्य वाले बाराबंकी और 
               बदायूँ ज़िले में पुदीना की ही एक संकर प्रजाति के "मेंथा"     
               नामक क्षुप की खेती होती है, जिससे देश के कुल 
               उत्पादन का आधे से अधिक "मेंथा का तेल" उत्पादित 
               किया जाता है। 
               इस तेल का लगभग तीन-चौथाई भाग निर्यात किया जाता 
               है। इसी के रवाकरण (Crystallization) से पिपरमिंट 
               (Peppermint) बनाया जाता है। इसके खेत दूर से ही 
               एक सुकून देने वाले महक से महकते हैं। वैसे .. पिपरमिंट 
               मिले कुछ खाद्य पदार्थों के स्वाद तो आप सभी ने ही ..
               चखे ही होंगे .. शायद ...
फरहर°° =  फरहर = फरहरा = चावल से पका ऐसा भात जो एक-
                 दूसरे से लिपटा या सटा हुआ न हो ,  ( फार = अलग - 
                 अलग )। 】




Thursday, August 12, 2021

कभी-कभार ही सही ...

पालथी मरवाए या कभी
करवा कर खड़े कतारों में,
हाथों को दोनों जुड़वाए, 
आँखें भी दोनों मूँदवाए, 
बचपन से ही बच्चों को अपने,
स्कूलों - पाठशालाओं में उनके, 
हम सभी ने ही तो ..
समवेत स्वरों में कभी पढ़वाए,
तो कभी लयबद्ध गववाये ...
" त्वमेव माता च पिता त्वमेव,
  त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।
  त्वमेव विद्या च द्रविणं त्वमेव,
  त्वमेव सर्वम् मम देवदेवं। " .. बस यूँ ही ...
 
बड़े होकर तभी तो वही बच्चे,
आज भी या फिर ताउम्र मूंदे,
हमारी तरह ही अपनी-अपनी आँखें , 
झुंड में ही अक़्सर सारे के सारे ;
वही सब बतलाए गए .. समझाए गए,
ज़बरन पहचान करवाए गए,
उन्हीं "माता-पिता" विशेष और
"बंधु-सखा" विशेष के आगे,
आए दिन कतारबद्ध हैं नज़र आते।
वो भी .. भेज कर अनाथ आश्रम 
आजकल जैविक "माता-पिता" को ये अपने।
धरा के "बंधु-सखा" को भी ये अपने 
अक़्सर ही तो इन दिनों हैं ठुकराते .. शायद ...

बौद्धिक क्षमता के बलबूते पर अपने,
संग सहयोग से योग्य शिक्षकों के,
देख कर चहुँओर की बहुरंगी दुनिया भी
और पढ़ कर पुस्तकों को सारे,
ये यूँ "विद्या" तो हैं, पा ही लेते।
पर "द्रविणं" का अर्थ ..
ठीक से .. शायद ...
समझाया नहीं इनको हम सब ने।
तभी तो पड़े हैं धोकर हाथ ये सारे,
आज तक सब कुछ ठुकराये, 
सब कुछ बिसराये,
बस और बस .. केवल .. 
"द्रविणं" के आगे-पीछे .. शायद ...

परे .. इस धरती और उस ब्रह्माण्ड के,
धरती के इंसानों और प्राणियों से भी परे,
छोड़ कर इन प्रत्यक्ष संसार को, 
जो हैं ख़ुद ही भरे-पूरे, 
ज़बरन फिर इन्हें .. अबोध मासूमों को,
एक अनदेखी दुनिया को,
भला क्यों ... दिखलायी हमने ?
काश ! .. कि हम कभी इन्हें,
संग-संग इन तथाकथित प्रार्थनाओं के ही 
या फिर इन सब के बदले में,
केवल इंसान और इंसानियत के, 
संग-संग अच्छी नीयत के भी ..  
कभी-कभार ही सही .. 
पर .. पाठ पढ़ाते .. बस यूँ ही ...




Wednesday, August 11, 2021

ज्वलंत समस्या दिवस ...

हम ने गत वर्ष इसी माह अपनी बतकही के तहत "हलकान है भकुआ - (१)" शीर्षक के साथ ही, आगे भी एक श्रृंखला के सिलसिले के बारे में सोची थी, पर नियमित हो ना पाया। वैसे हमारा ही नहीं, आप सभी का भी, भकुआ नाम का यह चरित्र (काल्पनिक) आज भी निरन्तर अपनी हलकानी से परेशान रहता है बेचारा ... च् .. च् .. च् ... 
पर आज वह मन ही मन बहुत ही खुश है, इसी से आज की बतकही के अंत में उसकी ख़ुशी देख कर कर, शीर्षक में हम "हलकान है भकुआ - (२)" नहीं लिख पाए। वैसे इस शीर्षक से भी शीघ्र मिलवाने की चेष्टा रहेगी हमारी। फ़िलहाल तो .. आइए, देखते हैं, हमेशा हलकान रहने वाले भकुआ की आज की मिलने वाली ख़ुशी की वह अनूठी वजह क्या है भला ! .. बस यूँ ही ...

ज्वलंत समस्या दिवस ...
" जैसे इन दिनों कई राज्यों की सत्तारूढ़ सरकार द्वारा हर महीने के पहले और तीसरे मंगलवार को या कभी-कभी शनिवार को भी "संपूर्ण समाधान दिवस" आयोजित किया जाता है ; ठीक वैसे ही उसके उलट, सरकार के विरोध में इस बार की मासिक गोष्ठी या दो महीने बाद होने वाले वार्षिक सम्मेलन का विषय हम लोग रखते हैं -"ज्वलंत समस्या दिवस"। " - 'हॉल' में 'माईक' पर यह आवाज़ गूँज रही है .. शहर की एक साहित्यिक संस्था की अध्यक्ष महोदया - श्रीमती रंजना मिश्रा जी 'पोडियम' के पीछे से बोल रही हैं  - " किसी को कोई संदेह हो, तो अभी स्पष्ट कर लीजिएगा आप लोग और ये कब होना है, उस की तारीख़ और समय भी आप लोग विचार विमर्श कर के, सबकी उपस्थिति की सुविधा को जानते-समझते हुए, आपस में तय कर के हमको आज ही जाने से पहले बतला दीजिए। वैसे .. 'वेन्यू' तो आप सभी को पता ही है। बस यहीं, जहाँ अभी हम सभी, हर बार की तरह उपस्थित हैं, चाय और समोसे के साथ। "

अध्यक्ष महोदया के अन्तिम वाक्य कुछ-कुछ उनके चुटीले अंदाज़ में बोलने के कारण, हॉल में उपस्थित सदस्यगण में से, प्रतिक्रियास्वरुप कुछ लोग मौन मुस्कुराहट, तो कुछ लोग अपने-अपने, अलग-अलग तरीके से हँस कर उनके अंदाज़-ए-बयां का अनुमोदन करते नज़र आ रहे हैं। कभी अध्यक्ष महोदया की तरफ, तो कभी आपस में एक-दूसरे की ओर देख कर सहमति जताते नज़र आ रहे हैं ; मानो उनकी आँखें कह रही हो - " वाह ! दी' (दीदी) आपने तो सच में कुछ क़माल-सा कर दिया है। "

"आरक्षण जैसी समस्या पर तो बोल सकते हैं ना दीदी ? " - ये इस संस्था की एक कर्मठ सदस्या - ताप्ति सिंह द्वारा पूछा गया, एक ऊहापोह भरा सवाल भर था।

"आरक्षण को समस्या मत बतलाइए, बल्कि आरक्षण का प्रतिशत जाति-विशेष के कल्याण के लिए नहीं बढ़ रहा है , उसे समस्या बतलाइए। कई समुदायों को तो अभी तक आरक्षण नहीं मिला , उन सब बातों को समस्या बतलाइए। " - अध्यक्ष महोदया की खनकदार आवाज़ माइक पर गूँजी - "आप समझ रही हैं ना मेरी बात ? खुल कर नहीं बोलना चाहती थी, पर बोल रही हूँ, कि अपनी संस्था में कई सदस्य या सदस्या भी 'ओबीसी' हैं, कुछ जनजातीय और कुछ अन्य अल्पसंख्यक भी हैं। अब अगर ऐसे में आरक्षण के विरुद्ध, विरोध में आप कुछ भी बोलेंगी, तो उन सब को बुरा लगेगा। हो सकता है, कि वे लोग इस बात से रूष्ट होकर संस्था छोड़ कर चले जाएं। संस्था आखिरकार इन्हीं के पैसों से तो चलती है ना ?  समझ रही हैं ना, कि हम क्या कहना चाह रहे हैं ? हमें हमारी दुकान चलानी है तो .. सब को खुश रख के चलना होगा। हमें वही बोलना होगा, जिससे सब खुश रहें और अपनी दुकान भी चलती रहे। वैसे भी हमारे बोलने से कुछ थोड़े ही ना बदलाव आने वाला है जी। "

" तो .. दीदी ! बढ़ती जनसंख्या की समस्या पर ? " - एक अन्य सदस्या - अनुजा सिन्हा का सामान्य-सा सवाल था।

"अरे .. ना .. ना .. ये बच्चे, बढ़ती आबादी .. ये सब भी कोई समस्या है भला ? अरे ! बच्चे तो ईश्वर के वरदान हैं, उनकी देन हैं, उनके काम में कैसे ख़लल डाल सकते हैं हम भला ? वही आबादी तो हमारी ताकत हैं। हम इसी के बल पर तो पड़ोसी दुश्मन को कम से कम इस मामले में जल्द ही पछाड़ने वाले हैं। हमारे भगवानों की भी तो अनेक संतानें थीं। पूज्य राम जी भी, अपने पिता जी की तीन पत्नियों से उपजे कुल चार पुत्रों में से एक थे। कौरव सौ, तो पांडव पाँच थे। कृष्ण जी भी देवकी की आठवीं संतान थे। श्री चित्रगुप्त भगवान जी की तो दो-दो पत्नियाँ और बारह संतानें थीं जी। " - अध्यक्ष महोदया तार्किक मुद्रा में समझाते हुए उत्तर दे रहीं हैं - " दरअसल .. समस्याएँ तो सरकार की है, जो सब को सम्भाल नहीं पा रही है। सब को रोजगार नहीं दे पा रही है, तो परिवार नियोजन का राग अलाप रही है। इसीलिए सारी समस्याएँ आप तो .. बस .. आप सत्तारूढ़ सरकार से जनित ही दिखलाइये। सारी आबादी को मुफ़्त राशन, मुफ़्त बिजली देनी चाहिए सरकार को। समझ रही हैं ना आप ? इस से 'पब्लिसिटी' भी मिलेगी आपको। और फिर अपनी संस्था में ही तो कितनों की पाँच-पाँच संतानें हैं। किसी-किसी के तो मोक्ष प्राप्ति के लिए या वंश बढ़ाने के लिए ,  बेटे के ना पैदा होने के चक्कर में चार-चार, सात-सात बेटियाँ हैं। उनको भी तो बुरा लग सकता है यह विषय, है कि नहीं ? तो वही लिखिए, वही बोलिए, जिनमें सब खुश रहें आपसे। "

" हमारे 'एसी' जैसे उपकरण से उत्पन्न होने वाले 'ब्लैक होल' और उससे बढ़ते 'ग्लोबल वार्मिंग' की समस्या पर तो बोल ही सकते हैं ना ? " - अब तक सब कुछ ध्यानपूर्वक मौन होकर सुन रहीं, ये एक नयी सदस्या तरन्नुम ख़ातून सवाल कर रहीं हैं।

" इस को ऐसे मत बतलाइए, बल्कि हमें बतलाना होगा , कि वर्तमान सत्तारूढ़ सरकार , देश में वातावरण प्रदूषण नियंत्रित नहीं कर पा रही है। इसी कारण से 'ग्लोबल वार्मिंग' बढ़ रही है। " - अध्यक्ष महोदया फिर से समझाने लगीं -" सरकार एकदम से निकम्मी है। ऐसा ही कुछ आलेख तैयार कीजिए। "

" बाहरी घुसपैठिए शरणार्थी लोगों की अपने देश में बढ़ती आबादी की समस्या पर अगर बोलें तो कैसा रहेगा, दीदी ? " - एक युवा, पर पुरानी - सदस्या अंजना त्रिपाठी भी , जो अब तक बीच में उठ कर बाहर जा के , फोन आने पर, फोन पर किसी से बात कर रहीं थीं ; अंदर आते ही, मौका पाकर अपने मन की शंका को दूर करने के लिए पूछ बैठीं हैं।

" ये 'सीएए', 'एनआरसी', सब बेकार की बातें हैं अँजू। "बासुदेव कुटुम्बकम्" वाले देश में  बाहर के कुछ शरणार्थी, भावी वोट बैंक बन कर भारत में बस भी जाते हैं तो क्या बुराई है भला ? अरे ! .. पहले तो हमें, हमारी हिंदी में घुसी चली आ रही, घुसपैठिए अंग्रेजी को रोकना होगा। तुम समझ रही हो ? यह सब से बड़ी समस्या है। अब वे लोग बेशर्म हैं, कि हमारी "लाठी" लेकर, अपना "चार्ज" जोड़कर,  "लाठीचार्ज" बना लिए ; पर हम लोग तो उतने बेशर्म नहीं हो सकते हैं , कि विपत्ति में 'फेसमास्क', 'सेनेटाइजर', 'क्वारंटाइन', 'सोशल डिस्टेंसिंग' जैसे शब्दों को धड़ल्ले से 'यूज' करते रहें। इन विदेशी घुसपैठिए शब्दों को हिंदी से जल्द से जल्द विस्थापित करना होगा, वर्ना हमारी हिंदी ग़ुलाम बन कर, घुट-घुट कर मर जायेगी। ये सरकार भी ना .. एकदम निकम्मी है। कुछ भी नहीं करती। यही सब तो .. सब से बड़ी समस्या है। इन सब समस्याओं पर बात करो। अपना नाम भी होगा, अपना काम भी होगा। तुम एकदम से फ़ालतू की - 'सीएए', 'एनआरसी' की बात ले कर बैठ जाती हो। "

तभी भकुआ तिवारी, जो अध्यक्ष महोदया के घरेलू नौकर हैं और इस तरह के सम्मेलनों-गोष्ठियों में अपनी "मैडम" जी के साथ सेवा करने के लिए प्रायः आते रहते हैं, जिन्हें बुज़ुर्ग होने के नाते इज्ज़त से, सभी उपस्थित सदस्यगण  तिवारी जी कहते हैं। वह अपने दाएँ हाथ में चाय की केतली और बाएं हाथ में उपस्थित लोगों की संख्या के अनुसार कुछ प्लास्टिक वाले चाय के कपों का एक खम्भानुमा ढेर लेकर प्रवेश करते है। बारह बजे के आसपास समोसा के साथ चाय की पहली ख़ेप इन्हीं के हाथों परोसी जा चुकी है। उन्हें शायद शाम के साढ़े चार बजे वाली दूसरी ख़ेप की चाय परोसने के लिए भी पहले से ही कहा हुआ है। उसी का वह पालन भर कर रहे हैं .. शायद ...

एक-दो मिनट के लिए सभी की हलचल भरी हरक़तें बढ़ सी गई, क्यों कि अभी माइक मौन है। अब फिर से सब सामान्य हो गए हैं। भकुआ तिवारी जी चाय परोस रहे हैं। सभी की कुर्सी तक वह एक-एक कर जा रहे हैं और लोग बारी-बारी से ऊपर से एक कप खींच कर केतली की ओर बढ़ाते जा रहे हैं। अब फिर से लगभग शांति व्याप्त हो गई है। सब का ध्यान मंच पर। यह अलग बात है, कि कभी-कभार बीच-बीच में किसी-किसी के मुँह से चाय सुरकने की आवाज़ - "सुर्र -सुर्र" करके सुनायी दे जा रही है। 

मंच पर विराजमान माइक से अध्यक्ष महोदया - श्रीमती रंजना मिश्रा जी की आवाज़ हॉल में फिर से गूँजी - " आप समस्या का विषय भी चुनें तो उनमें पैनी बातें मत कहिए। इस से आपकी साख खराब होती है। सोशल मीडिया पर आपके 'फॉलोवर्स' घटते हैं। आपकी पोस्ट पर कोई 'लाइक' या 'कमेंट' नहीं करता है। ऐसे में 'सोसाइटी' में आपकी 'स्टेटस' को धक्का पहुँचता है। है कि नहीं ? समझ रहे हैं ना आप लोग। आप सभी को यहाँ, आप लोगों के ही बीच आज उपस्थित संध्या अग्रवाल जी से सबक़ लेनी चाहिए। सोशल मीडिया पर इनके एक लाख से ज्यादा 'फॉलोवर्स' हैं। हजारों की संख्या में 'लाइक', 'कॉमेंट्स' आते रहते हैं इनके पोस्ट पर। इनकी तरह कोई रूमानी गज़ल लिखिए। समय-समय पर त्योहारों के अनुसार पैरोडी भजन लिखिए। सभी व्रत-उपवास की महिमा लिखिए ; जिन से मद्यपान, ध्रूमपान जैसी बुरी लतों के बावज़ूद भी सबके पति की आयु लम्बी हो जाती हो, ताकि सब औरतें अपने पति से पहले सुहागिन ही मरें। " - अचानक अध्यक्ष महोदया, सामने 'पोडियम' पर रखे 'मिनरल वॉटर' की बोतल को मुँह से लगा कर, लगातार बोलने के कारण, अपने सूखते गले को तर कर के, एक नज़र घड़ी पर डालते हुए बोलीं - " वैसे भी समस्या के बारे में सोचना साहित्यकार का काम नहीं है, बल्कि सरकार का है, हम 'टैक्स' क्यों भरते हैं ? इसी के लिए ना ? 
समझ रहे हैं ना आप लोग .. हम कहना क्या चाह रहे हैं ? "

समवेत स्वर में आधा से ज्यादा, लगभग तीन चौथाई सदस्यों ने हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा - कोई " हाँ 'मैम' ", कोई " हाँ दीदी " ..  आप सोलह आना सच कह रही हैं। "

" इसीलिए तो दीदी हम .. कभी भी किसी समस्या पर लिखते ही नहीं। हमेशा प्राकृतिक सुन्दरता को लेकर शब्द-चित्र बनाते हैं। अरे दीदी, आप ठीक ही कह रही हैं, कि समस्या को दूर करने के लिए सरकार तो हैं ही ना ! फिर भगवान भी तो हैं ही ना दीदी ! बुजुर्गों की बात को आज कल हम नए फैशन में भुलते जा रहे हैं, कि - होइए वही जो राम रचि राखा। है कि नहीं ? "- यह शालिनी श्रीवास्तव जी बोल रही है। बोलते-बोलते कई दफ़ा उनकी जीभ, उनके होठों पर पुते 'लिपस्टिक' की परतों को मानों किसी राजमिस्त्री की "करनी" की तरह स्पर्श कर-कर के उसे अपनी जगह पर जमे रहने के आश्वासन देने का काम कर रही है।

"आप सही कह रहीं हैं शालिनी जी। अरे लिखना ही है तो रूमानी लिखिए, ग़ज़ल लिखिए, चाँद लिखिए, चाँदनी लिखिए, कोई धार्मिक कथा लिखिए, किसी दिवस विशेष पर लिखिए या फिर किसी शहीद की मौत पर अपने वातानुकूलित कमरे में चाय की चुस्की के साथ मर्सिया लिखिए .. समस्याओं को तो हमेशा रहनी है। किसके पास समस्या नहीं है जी ? घर-घर में तो समस्या ही समस्या है। फिर ऐसे में किसी रोने-धोने वाली मनहूस "आर्ट फ़िल्म" या "दूरदर्शन" की किसी 'टीवी सीरियल' या 'टेलीफिल्म' की तरह , समस्याओं की कालिख से पुती आपकी नीरस पोस्टों को कौन पढ़ेगा जी ? " - ये शुरू से मौन, एक सभ्य सदस्य - श्री मनोज यादव जी हैं - " एकदम सही कह रही हैं आप। "

" समाज में किन्नरों की समस्या पर भी बोल सकते हैं आप लोग। पर इसका ये मतलब नहीं है, कि हमारा समाज ही किन्नर बन कर मूक बैठा है, आप इसको ही समस्या बतलाइए। कभी नहीं। ये बतलाने की क्या जरूरत पड़ी है ? " - बीच में अध्य्क्ष महोदया फिर से बोल पड़ीं हैं।

तभी बाहर ही एक 'स्टूल' पर बैठे भकुआ तिवारी जी अचानक से अंदर प्रवेश करते हैं। अंदर उपस्थित लोगों को भी बाहर से कुछ अनचाहे शोर सुनायी पड़ रहे हैं। सबका ध्यान अब तिवारी जी और बाहर से आने वाले शोर की तरफ खींच जाता है।
" मैडम ! बाहर सड़क किनारे के कूड़े की ढेर पर, वो समोसे वाले जूठे कागज़ी प्लेट और चाय वाले जूठे कप फेंके थे, तो उसी को देख कर कुछ हिजड़े आ गए हैं, गेट के भीतर। उनको लग रहा है, कि कोई भोज-भात है यहाँ पर। " - एक साँस में तिवारी जी अध्यक्ष महोदया को, हिजड़ों से जल्द-से जल्द छुटकारा पाने की घबराहट में बोल गए हैं।

" मंजरी जी ! तिवारी जी को दस रुपए दे दीजिए। " अध्यक्ष महोदया ने अपनी नाक पर नीचे की ओर सरक आई, अपनी चश्मे को नाक पर वापस ऊपर चढ़ाते हुए , संस्था की कोषाध्क्षय महोदया को आदेशात्मक लहज़े में अभी बोल रही हैं - " संस्था के ख़र्चे में चढ़ा दीजिएगा।" फिर मंजरी जी के 'पर्स' से निकल कर, दस रुपए का एक नोट, तिवारी जी के हाथ में जाते ही, अध्क्षय महोदया अपनी बात को तिवारी जी की ओर मुख़ातिब हो कर बोल रहीं है - " ये दस रुपया देकर भगाइए उन सब को जल्दी। ना जाने कहाँ-कहाँ से आ जाते हैं ये लोग ? अपने पिछले जन्मों का ही तो फल भुगत रहे हैं ये लोग। "

" जाति- धर्म में बंटे हमारे इस समाज की हो रही दुर्गति को तो समस्या बतला कर कुछ लिख सकते हैं ना 'आँटी' जी ? " - ये है सुमन झा, जो अभी-अभी स्नातक हुआ है और एक तयशुदा राशि की भुगतान कर के इस संस्था का नया-नया सदस्य बना है, का एक हिचकता हुआ-सा प्रश्न है। हिचकता हुआ-सा, क्योंकि अब तक तो वह सारी समस्याओं के विषयों पर अपनी 'आँटी' जी की नकारात्मक प्रतिक्रिया ही सुनता आ रहा है।

" सुमन, तुम अभी बच्चे हो। हमारे बाल धूप में नहीं सफ़ेद हुए हैं। हम लोगों ने दुनिया देखी है बेटा। अभी तुम नए-नए आये हो यहाँ, शायद आज दूसरी बार, यूँ ही आते रहोगे तो, बहुत कुछ सीखने के लिए मिलेगा। ये धर्म, जाति, पंथ वाले बँटवारे हमारी समस्या नहीं है, बल्कि हमारी धर्म निरपेक्षता कम हो गयी, यही समस्या है। " - अध्यक्ष महोदया अपनी बुज़ुर्गियत टपकाती हुई, अपनी नसीहत देती, अपनी गर्दन अकड़ाती हुई बोल रही हैं - " वैसे भी तुम अपनी ही बिरादरी के, ब्राह्मण हो, तो जल्दी ही सीख जाओगे। जानते हो, ये 'सीएए', 'एनआरसी' जैसी बला ला कर और 370, तलाक़ जैसे मुद्दे को हटा कर, देश से धर्म निरपेक्षता की भावना को कम करते हुए, देश को बर्बाद करने पर तूली हुई है । "

" जी ! आँटी जी। फिर और कुछ विषय पर सोचते हैं। आप जैसा कहेंगी, जिस विषय के लिए मार्गदर्शन करेंगी, उसी पर लिखेंगे, बोलेंगे। " - अपनी 'आँटी' जी की हाँ में हाँ मिलाते हुए, कुछ-कुछ संदेहात्मक सोच के साथ सुमन झा बोल रहा है।

यूँ तो गोष्ठी अभी और भी एक घण्टा भर चलने वाली है। इसकी समाप्ति पर सभी लोगों के वापस जाने के लिए हॉल से बाहर निकलने के पहले बाहर 'स्टूल' पर किसी द्वारपाल या आदेशपाल की तरह बैठे 'तिवारी जी' अपने एक झोले में कुछ रख रहे हैं। ज्यादा कुछ नहीं, बस दो-तीन सदस्यों के बीच में ही चले जाने से बच गए समोसे हैं। मसलन - दीपाली जी की सास की तबीयत अचानक बिगड़ जाने के कारण, उनके घर से फोन आने पर मन मार कर, सब को 'सॉरी' बोल कर जाना पड़ा है। मनीषा जी के पति को अचानक 'ऑडिट' के लिए सरकारी दौरे पर शाम की 'फ्लाइट' से बाहर जाने के सरकारी आदेश मिलने से, उनके जाने की 'पैकिंग' के लिए बीच में ही जाना पड़ गया है। दीप्ति का 'बॉय फ्रेंड' आज अपने घर पर अकेले है, परिवार के सभी लोग सिनेमा देखने गए हैं, 'नून शो' शायद। तो दीप्ति भी इस सुनहरे अवसर के लुत्फ़ के लिए, अपनी मम्मी की अचानक बीमारी का बहाना बना कर जा चुकी है। 
साथ ही तिवारी जी उस बड़े-से डिब्बे को भी अपने झोले में अंटा रहे हैं, जो पिछले परसों मनाए गए शब-ए-बारात के विशेष हलवे से भरे हुए, आज तरन्नुम ख़ातून मैडम द्वारा उनके 'मैडम' जी को सुबह मिले थे। मैडम जी ने पूरा का पूरा डिब्बा, जस का तस, सब की नज़रों से बचा कर सुबह ही तिवारी जी को दे दीं हैं। भकुआ तिवारी जी को उनके घरेलू नौकर होने के कारण ही अच्छी तरह मालूम है, कि मैडम जी ये सब मामले में बहुत ही नियम से रहती हैं। "छुआ" पानी तक नहीं पीती हैं।
भकुआ तिवारी जी अपने मैडम जी की आज की सुनी हुई, कुछ समझी हुई, कुछ ना समझी गयी बातों में, केवल इस बात से ही खुश हैं, कि बेकार ही में वह अपने मात्र छः बच्चों, पाँच बड़ी बेटियाँ और बहुत ओझा-गुणी, मनौती-मन्नत के बाद मिले, सब से छोटे कुलदीपक बेटे -धनेसरा, के कारण चिंतित रहते हैं। वो भी ससुरी सरकार के "परिवार नियोजन, परिवार नियोजन" टीवी पर दिन रात चिल्लाने से। मैडम जी कितनी अच्छी बात बोलीं हैं आज, कि भगवानो के (भगवान को) भी तो ओतना-ओतना (उतना-उतना) बच्चा हुआ है। तो .. हम लोग तो उनकरे (उन्हीं के) बनाए इंसान हैं ना ? आज घर जा के अपनी मेहरारू (जोरू) झुमरिया को भी ये सब बतलायेंगे। वो तो छौये गो ( छः ही) बच्चे में ही अपने लिए "अपरेसन" (ऑपरेशन) के लिए सोच रही है। झूठमुठ के अपने भी परेशान रहती है और हमको भी परेशान करती है .. .. पगली ...







 

Tuesday, August 10, 2021

आसमां में कहीं पर ...

१) ख़ैर ! ...

क़ुदरत सब के साथ है, अपना हो या गैर।
वक्त कितना भी हो बुरा, हो जाएगा ख़ैर .. शायद ...

२) आसमां में कहीं पर ...

सुना है, रहता है तू अपने ही आसमां में कहीं पर,
फ़ुरसत में कभी तो एक बार, आजा ना जमीं पर।

खुली हैं यूँ तो यहाँ तेरे नाम पर, दुकानें कई मगर,
कहीं भी उन में तो तू आता नहीं, कभी हमें नज़र।
है भी क्या वहाँ तुझे, इस लुटती दुनिया की ख़बर ?
सुरा और अप्सरा से परे, चल बता ना ओ बेख़बर !

सुना है, रहता है तू अपने ही आसमां में कहीं पर,
फ़ुरसत में कभी तो एक बार, आजा ना जमीं पर।

चीत्कारों की चिंता नहीं तुझे, होता ना कोई असर।
जाति-धर्म, रंग-आरक्षण के होते वहाँ पे भेद अगर,
होती न का तब भी तुझे ठिकाने मिटने की फ़िकर ?
गोह, गैंडे की चमड़ी से भी है ज्यादा, तू तो थेथर।

सुना है, रहता है तू अपने ही आसमां में कहीं पर,
फ़ुरसत में कभी तो एक बार, आजा ना जमीं पर।

होते हैं प्रभु तेरे नाम के आगे भी क्या  धनखड़,
सिंह, शेख, गाँधी, मोदी, मिश्रा, नायर, नीलगर, 
श्रीवास्तव, खान, पठान, कुरैशी, तिवारी, शर्मा, 
सिन्हा, सोलंकी, पिल्लई, चोपड़ा, दुबे, धनगर ?

सुना है, रहता है तू अपने ही आसमां में कहीं पर,
फ़ुरसत में कभी तो एक बार, आजा ना जमीं पर।

बँटी है क्या तेरी दुनिया भी प्रभु, टुकड़ों में ऊपर,
अमेरिका, क्यूबा, नार्वे, नाइज़ीरिया, या नाइजर,
ऑस्ट्रेलिया, आस्ट्रिया, इटली, फ्रांस, मेडागास्कर,
भारत, पाकिस्तान, चीन, जापान, ईरान बनकर ?

सुना है, रहता है तू अपने ही आसमां में कहीं पर,
फ़ुरसत में कभी तो एक बार, आजा ना जमीं पर।

सुना कि बनायी तूने ही धरती, हर नगर, हर डगर,
हो के पालनहार, तो क्यों अनदेखी कर देता जबर ?
लहू, बिंदी-सिंदूर, काजल-लोर जिनसे हैं रहे पसर।
खड़ा है क्यों सदियों से, सौ तालों में बना तू पत्थर।

सुना है, रहता है तू अपने ही आसमां में कहीं पर,
फ़ुरसत में कभी तो एक बार, आजा ना जमीं पर .. बस यूँ ही ...