Monday, August 2, 2021
चंचल चटोरिन ...
Tuesday, July 27, 2021
बंद है मधुशाला ...
ऐ जमूरे !!
हाँ .. उस्ताद !!!
खेल-मदारी तो हुआ बहुत रे जमूरे,
आज ले लें हम क्यों ना कुछ संज्ञान ...
साहिबान !
क़द्रदान !!
सावधान !!!
होता था मतलब कभी शिकंजी का-
- तरावट, पर भला अब किसे पता !?
है बच्चा-बच्चा भी अब तो जानता,
होता है ठंडा मतलब 'कोका-कोला'।
आदत पड़ी कोसने की घोटालों को,
पर फूलती हैं जी, रोटियाँ तो हमारी,
रसोई में आज भी इसकी आँच पर।
बता ना ! है भला ये कैसा घोटाला?
यूँ चुभती तो हैं अक़्सर उन्हें भी जी,
धूल से भरी पड़ी वो तमाम किताबें,
छोड़ देते हैं पर निज सेहत के लिए,
धूल से 'एलर्जी' का वे देकर हवाला।
कभी दौलत, तो कभी शोहरत, तो ..
तौल कर कभी पद के भी तराजू पर,
है इंसानों के वजूद को तो तवज्जोह
देने का यहाँ, युगों पुराना सिलसिला।
स्वतः ही हो अनुवांशिक उपनाम से,
उगे जाति-उपजाति, धर्म-पंथ जिनके,
हैं खुद ही वो एक नमूना पूर्वाग्रही के,
कहें दूजों को जो, है ये गड़बड़झाला।
होता आस्वादन खारापन का जीभ को
उनकी, रिसे हैं जिनकी आँखों से आँसू।
लड़खड़ाते भी देखे हैं उनके ही कदम,
पड़ता है अक़्सर जिनके पाँव में छाला।
यूँ हैं आडंबरें, बाधाएं, विडंबनाएं घुली,
हर दिन, हर ओर, हर बार ही जीवन में।
निकले लाख दिवाला, दीवाली मनाने में
पर, हम भी हैं मतवाला, तू भी मतवाला।
जरूरी तो नहीं साहिब! अर्द्धनग्नता औ'
रंगीन रासायनिक सौन्दर्य प्रसाधनें कई।
ना हो यक़ीन जो, तो एक बार निहारिए,
श्वेत-श्याम 'पोस्टर' में बाला .. मधुबाला।
हुक्मरान का हुंकार - "बनाने से कानून *
कुछ नहीं होगा", सही, तभी तो राज्य में,
मिलती क़बाड़ में खाली बोतलें, जब कि
मद्यपान निषेध है यहाँ, बंद है मधुशाला।
सड़ने ही दूँ दाँतों को मीठी गोलियों से,
या करूँ पेश कड़वे पानी चिरायते के?
तू कहे तो कुछ बतकही कर लें हम या ..
जड़ लें मुँह पर अपने फिर एक ताला? .. बस यूँ ही ...
ऐ जमूरे !!
हाँ .. उस्ताद !!!
खेल-मदारी तो हुआ बहुत रे जमूरे,
आज ले लें हम क्यों ना कुछ संज्ञान ...
साहिबान !
क़द्रदान !!
सावधान !!!
【 * - एक राज्य विशेष के योग्य मुख्यमंत्री महोदय ने बढ़ती आबादी से पनपे हालात की नज़ाकत समझते हुए, अपने राज्य में परिवार नियोजन की बात कही, तो दूसरे राज्य विशेष के योग्य (?) मुख्यमंत्री महोदय जी ने जुमला उछाला कि "खाली क़ानून बनाने से कुछ नहीं होगा।"
ऐसा इन ज़ुमले वाले योग्य (?) महोदय के द्वारा कहा जाना फबता भी है, कोई फबती नहीं कस रहे हैं महोदय, क्योंकि इनके राज्य में तो वर्षों से "बच्चन जी" (मधुशाला) कानूनन निषेध हैं, पर कबाड़ी के पास खाली बोतलों की भरमार है .. शायद ...
हालांकि बात भी तो कुछ हद तक सही ही/भी है कि जब तक लोगबाग की मानसिकता नहीं बदलेगी, केवल क़ानून से कुछ नहीं होना है। "दहेज निषेध अधिनियम, 1961" जैसे क़ानून बना कर हमने क्या उखाड़ लिया भला ? और भी ऐसे सैकड़ों कानूनें है यहाँ .. बस यूँ ही ... 】
Sunday, July 25, 2021
पंजीकृत बेमुरव्वत ? ...
सरकार द्वारा तयशुदा शुल्क से अधिक राशि,
वाहन चलाने के अनुज्ञा पत्र हेतु भुगतान करने जैसा,
तोड़ कर यातायात के नियमों को बिन रसीद,
सिपाही को "कुछ" भुगतान कर के स्वयं बचने जैसा,
'पासपोर्ट' बनने के दौरान जाँच के बदले में,
"खर्चा-पानी शुल्क" देने पर ही, 'फ़ाइल' बढ़ने जैसा,
रेलयात्रा के दौरान 'टीटीई' से बिना रसीद के,
"अतिरिक्त सेवा शुल्क" से अतिरिक्त सेवा लेने जैसा ...
दहेज़ की लेन-देन की गई किसी शादी में,
शिष्ट, गरिष्ठ, स्वादिष्ट भोज का स्वाद चखने जैसा,
"ध्वनि के लिए बने अधिनियम" के विरुद्ध भी,
शोर मचाती बारातों के 'डीजे' के साथ नाचने जैसा,
वो भी रात के दस बजे के बाद या फिर कभी,
सारी-सारी रात किसी जागरण में ताली पीटने जैसा,
तीर्थस्थलों के मंदिरों में शीघ्र दर्शन करने हेतु,
न्यास या फिर पंडों को "सेवा शुल्क" अदा करने जैसा ...
घोषित "शुष्क दिवस" के दिन भी 'ब्लैक' में,
बोतलें, दुकान के पिछले दरवाजे से भी खरीदने जैसा,
बेटा, बाप से या बाप, बेटे से छुपा कर या फिर,
सार्वजनिक स्थलों पर क़ानून तोड़ते, धूम्रपान करने जैसा,
स्कूल के दिनों में अपनी उम्र को साल-दो साल,
कम बतला के, मौलिक उम्र से अधिक नौकरी करने जैसा,
तुलनात्मक कम योग्यता रख कर भी बारम्बार,
आरक्षण की लगा लंगी एक योग्य को, आगे बढ़ने जैसा ...
अगर .. ना भी ऐसे सारे सुअवसर मिलें हों कभी,
ना ही की हो कभी प्रयास हमने, कोई जुगाड़ लगाने जैसा,
फिर भी इर्द-गिर्द ये त्रासदियाँ देख कर भी सारी,
विचलित ना हुए हों हम या होकर भी रहे हों मौन रहने जैसा,
या कोई भी एक इनमें से पुनीत कार्य किया हो,
हमने तो, पाक गीता या कुरान के ऊपर हाथ रखने जैसा-
काम ना करके, हाथ धड़कते दिल पर रख के अपने,
सोचते हैं एक बार .. ज़िन्दा हैं हम जिसके धड़कनों जैसा ...
यूँ तो है प्रतिबंधित नहीं, मनाना "कारगिल दिवस",
किसी के लिए भी, फिर भी .. सोचते है एक बार ..
मनाने से पहले हम, हाँ .. आइए, सोचते है एक बार ..
मनाने से पहले हम, "कारगिल दिवस", कि ... कहीं
कर तो नही रहे हम उन शहीदों का अनादर या फिर
चर्चा भर भी करके कोई "कारगिल दिवस" की हम
अपनी तरफ से, कहीं बन तो नहीं रहे हैं, ठीक ...
मेरी तरह ही .. आप भी कोई ..पंजीकृत बेमुरव्वत ? .. बस यूँ ही ...
【 १) वाहन चलाने के अनुज्ञा पत्र - Driving License.
२) ध्वनि के लिए बने अधिनियम - "पर्यावरण संरक्षण अधिनियम,
1986" की धारा 15 को ही "ध्वनि प्रदूषण (विनियमन एवं
नियंत्रण) नियमावली, 2000" कहते हैं, जिसके अनुसार
आवासीय क्षेत्रों में दिन में ध्वनि का स्तर 55 डेसिबल
(Decibels /dB) और रात में 45 डेसिबल तक ही मान्य है।
परन्तु शादी के 'डीजे' (Disc Jockeys), पटाखें और
जागरण या अज़ान वाले लाउडस्पीकर लगभग 100 डेसिबल
तक का या उस से भी ज्यादा शोर मचाते हैं; जबकि वैज्ञानिक
शोध कहता है, कि 60 से ज्यादा डेसिबल की ध्वनि कान के
पर्दों के लिए नुकसानदेह होती है .. शायद ...
२)अ) डेसिबल - ध्वनि तंरगों की तीव्रता नापने की इकाई।
३) शुष्क दिवस - Dry Day.
(जिस दिन सरकारी अध्यादेश से शहर में शराब की दुकानें
बंद रहती हैं - 26 जनवरी, 15 अगस्त, 02 अक्टूबर।)।
४) आरक्षण - इसका अर्थ तो सभी जानते हैं। जिन्हें मिलता हो, वो
भी और जिन्हें ना मिलता हो, वो भी।
पर .. चूँकि भारतीय सेनाओं (जल, थल, वायु) में जातिगत
आरक्षण के आधार पर भर्ती नहीं होती, अतः हरेक भारतीय
सेना के शहीद भी आरक्षणभोगी या आरक्षण से लाभान्वित
नहीं होते हैं। ( बेशक़ भारतीय थल सेना में जाति, पंथ या क्षेत्र
के आधार पर सैन्य-दलों (रेजिमेंट/Regiments) में वर्गीकृत
अवश्य किया जाता है, जो अंग्रेजों की शुरू की गई एक प्रणाली
है। )
ऐसे में अगर हम वर्तमान में भी आरक्षण से लाभान्वित होकर
भी अगर उन की कोई चर्चा करते हैं, तो यह उनका अनादर ही
होगा .. शायद ...
५) कारगिल दिवस - 26 जुलाई. (सन् 1999 ईस्वी के बाद से). 】.
Saturday, July 24, 2021
'मॉडर्न आर्ट'-सी ...
Wednesday, July 21, 2021
वो हो जाने दूँ ? ...
Saturday, July 17, 2021
एतवार के एतवार ये ...
मेड़ों से
सीलबंद
खेतों के
बर्तनों में
ठहरे पानी
के बीच,
पनपते
धान के
बिचड़ों की तरह,
आँखों के
कोटरों की
रुकी खारी
नमी में भी
उगा करती हैं,
अक़्सर ही
गृहिणियों की
कई कई उम्मीदें .. शायद ...
आड़ी-तिरछी
लकीरें
इनके पपड़ाए
होठों की,
हों मानो ...
'डिकोडिंग'
कोई ;
एड़ियों की
इनकी शुष्क
बिवाई की
कई आड़ी-तिरछी
लकीरों से सजे,
चित्रलिपिबद्ध
अनेक गूढ़
पर सारगर्भित
'कोडिंग' के
सुलझते जैसे .. शायद ...
गर्म मसाले संग
लहसुन-अदरख़ में
लिपटे मुर्गे, मांगुर या
झींगा मछलियों के
लटपटे मसाले वाली,
या कभी सरसों या
पोस्ता में पकी
कड़ाही भर
रोहू , कतला या
हिलसा के
झोर की गंध से,
'किचन' से लेकर
'ड्राइंग रूम' तक,
अपने घर की और ...
आसपड़ोस तक की भी,
सजा देती हैं अक़्सर
एतवार के एतवार ये .. शायद ...
शुद्ध शाकाहारी
परिवारों में भी
कभी पनीर की सब्जी,
या तो फिर कभी
कंगनी या मखाना
या फिर ..
बासमती चावल की
स्वादिष्ट सोंधी
रबड़ीदार तसमई से
सजाती हैं,
'बोन चाइना' की
धराऊ कटोरियाँ
एतवार के एतवार ये,
ताकि ...
सजे रहें ऐतबार,
घर में हरेक
रिश्तों के .. बस यूँ ही ...
【 "गृहिणियों" .. यहाँ, यह संज्ञा, केवल उन गृहिणियों के लिए है, जो आज भी कई भूखण्डों पर, चाहे वहाँ के निवासी या प्रवासी, किसी भी वर्ग (उच्च या निम्न) के लोग हों, उनके परिवारों में महिलायें आज भी खाना बनाने और संतान उत्पन्न करने की सारी यातनाएँ सहती, एक यंत्र मात्र ही हैं। घर-परिवार के किसी भी अहम फैसले में उनकी कोई भी भूमिका नहीं होती।
बस .. प्रतिक्रियाहीन-विहीन मौन दर्शक भर .. उनकी प्रसव-पीड़ा की चीख़ तक भी, उस "बुधिया" की चीख़ की तरह, आज भी "घीसू" और "माधव" जैसे लोगों द्वारा अनसुनी कर दी जाती हैं .. बस यूँ ही ... 】.