आज की रचना/सोच - "बहूँगा मैं धमनियों में तुम्हारी ..." से पहले आदतन कुछ बतकही करने की ज़्यादती करने के लिए अग्रिम क्षमाप्रार्थी हैं हम।
दरअसल .. रोजमर्रे की आपाधापी में यह ध्यान में ही नहीं रहा कि इस साल भी जून महीने के तीसरे रविवार को, सन् 1910 ईस्वी के बाद से हर वर्ष मनाया जाने वाला "फादर्स डे" (Father's Day) यानी "पिता दिवस", आज 20 जून को ही होगा। यूँ तो गत कई दिनों से चंद सोशल मीडिया से होकर गुजरती हमारी सरसरी निग़ाहों में इसकी सुगबुगाहट महसूस हो रही थी। पर जब ब्लॉग-मंच - "पाँच लिंकों का आनन्द" की 20 जून की प्रस्तुति के लिए अपनी एक .. दो साल पुरानी रचना/सोच - "बस आम पिता-सा ..." के नीचे यशोदा अग्रवाल जी की एक प्रतिक्रिया- "आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" रविवार 20 जून 2021 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!" पर परसों ही नज़र पड़ी, तब तो पक्का यक़ीन हो गया कि 20 जून को ही "फादर्स डे" है।
तमाम "दिवसों" को लेकर, गाहे-बगाहे मन में ये बात आती है, कि .. कितनी बड़ी विडंबना है, कि एक तरफ तो हम लोगबाग में से चंद बुद्धिजीवी लोग अक़्सर चीखते रहते हैं कि .. हमारी सभ्यता-संस्कृति या भाषा की अस्मिता, अन्य भाषाओं या सभ्यता-संस्कृतियों की घुसपैठ से खतरे में पड़ रही है। वहीं दूसरी तरफ हम हैं कि .. विदेशों से आए "दिवसों" को मनाने में तनिक भी नहीं हिचकते हैं। बल्कि गौरवान्वित महसूस करते हैं। ऐसा इसलिए कहना पड़ रहा है, क्योंकि सर्वविदित है कि .. संयुक्त राज्य अमेरिका के पश्चिमी वर्जीनिया में पहली बार "मदर्स डे" (Mother's Day) सन् 1908 ईस्वी में मई महीने के दूसरे रविवार यानी 10 मई को मनाने के बाद, हर वर्ष मई महीने के दूसरे रविवार को लगभग पूरे विश्व में यह दिवस मनाया जा रहा है।
साथ ही, उसी तर्ज़ पर संयुक्त राज्य अमेरिका की ही राजधानी वाशिंगटन में पहली बार सन् 1910 ईस्वी में जून के तीसरे रविवार यानी 19 जून को "फादर्स डे" (Father's Day) मनाए जाने के बाद से ही हर वर्ष जून महीने के तीसरे रविवार को आज तक यह दिवस मनाया जा रहा है। सम्पूर्ण विश्व में इनके विस्तारण में निःसन्देह किसी तथाकथित दैविक शक्ति का तो नहीं, बल्कि विज्ञान का भी/ही बहुत बड़ा योगदान रहा है। विज्ञान के उत्पाद - उपग्रहों से चलने वाले इंटरनेट की नींव पर खड़े सोशल मीडिया की देन से ही यह सम्भव हो पाया है।
विश्व भर में मनाए जाने वाले पहले "फादर्स डे" के इसी 19 जून ने, ना जाने कब यादों के मर्तबान से पाकड़ के 'टुसे' (किसलय) के अचार जैसे कसैले, सन् 2007 ईस्वी के 19 सितम्बर, बुधवार के दिन के उस कसैलेपन को अनायास दिला दिया; जिस दिन ने पापा का साथ हमेशा-हमेशा के लिए मुझसे और मेरे पूरे परिवार से छीन कर छिन्न-भिन्न कर दिया था। अगले दिन 20 सितम्बर, वृहष्पतिवार को उनके दाह-संस्कार के दौरान ही इस रचना/सोच -"बहूँगा मैं धमनियों में तुम्हारी ..." का बीज दिमाग के तसले में टपका था। तब से वो सोच का टपका हुआ बीज, डभकता-डभकता .. मालूम नहीं कितना पक भी पाया है या कच्चा ही रह गया। अगर पका तो भोग लगेगा और कच्चा रह गया तो भविष्य में पौधा बनने की आशा रहेगी, एक संभावना रहेगी .. शायद ...
तब मेरा बेटा लगभग 10 वर्ष का था और उस के छुटपन के कारण उसे शवयात्रा में व श्मशान तक ले जाने की, उस वक्त वहाँ सभी उपस्थित लोगों की मनाही के बावज़ूद उसे दाह-संस्कार में साथ लेकर गया था। सदैव ये सोच रही है, कि बातें "गन्दी/बुरी" हो या "अच्छी/भली", उसे अपने बच्चों या युवाओं से मित्रवत् साझा करनी चाहिए। साथ ही, उसे दोनों ही के क्रमशः दुष्परिणामों और सुपरिणामों से भी अवगत करानी चाहिए। तभी तो वह आगे जाकर आसानी से अच्छे और बुरे की पहचान करने वाले विवेक के स्वामित्व को आत्मसात् कर सकेंगे। अंग्रेजी में एक कहावत (Proverb) भी है, कि "The child is father to/of the man." .. बस यूँ ही ...
बहूँगा मैं धमनियों में तुम्हारी ...
बेटा !
भूल कर कि ..
उचित है या अनुचित ये,
दस वर्ष की ही
तुम्हारी छोटी आयु में,
शवयात्रा में
तुम्हारे दादा जी की,
शामिल कर के
आज ले आया हूँ मैं
श्मशान तक तुम्हें।
सांत्वना देने वाली
भीड़ द्वारा आज,
छोटी उम्र में तुम्हें यहाँ
लाने के लाख विरोध के विरुद्ध।
भीड़ चाहे अपने समाज की,
रोना रो कर रस्मो-रिवाज की,
भले ही होते रहें क्रुद्ध।
लाया हूँ तुम्हें एक सोच लिए कि
ना जाने इसी बहाने
मिल जाए ना कहीं,
फिर से जगत को
एक और नया बुद्ध।
देखो ना तनिक ! ..
जल रहें हैं किस तरह
अनंत यात्रा के पथिक
देखो ना !! ..
सीने के बाल इनके,
जिन पर बचपन में मैं
फिराया करता था
नन्हें-नन्हें हाथ अपने।
सिकुड़ रही हैं जल कर
रक्तशिराओं के साथ-साथ
उनकी सारी उँगलियाँ भी कैसे ?
और तर्जनियाँ भी तो ..
जो हैं शामिल उन में,
जिन्हें भींच मैं अपनी
नन्हीं मुट्ठियों में
सीखा था चलना
डगमग-डगमग डग भर के।
सुलग रहे हैं
देखो सारे अंग,
फैलाते चिरायंध गंध
और धधक रहे हैं
शिथिल पड़े अब
निष्प्राण इनके सारे तंत्र।
पर .. अभी क्या ..
कभी भी नहीं ! ..
कभी भी नहीं !!! ...
होगा .. ना इनका और
ना कभी भी मेरा अन्त
और हाँ .. तुम्हारा भी।
हो जाए चाहे
मेरा भी देहावसान,
चाहे ऊर्जाविहीन तन
हो जाए देहदान,
सारा घर .. कमरा ..
मेज और कुर्सी,
या फिर बिस्तर का कोना
हो जाए सुनसान।
बहूँगा मैं धमनियों में तुम्हारी,
अनवरत तब भी।
जिस से ये दुनिया क्या ..
तुम भी रहोगे अन्जान।
मेरे "वाई" और अपनी माँ के
"एक्स" गुणसूत्र के युग्मज से
जो हुआ है तुम्हारा निर्माण।
गुणसूत्रों का वाहक मैं,
तुम्हारे दादा जी का और
मेरे गुणसूत्रों के हो तुम।
फिर होगी तुम से
अगली संतति तुम्हारी
बस यूँ ही .. पीढ़ी दर पीढ़ी
चलती रहेगी एक के बाद दूसरी,
फिर तीसरी और ...
बहूँगा मैं धमनियों में तुम्हारी
अनवरत तब भी।
जिस से ये दुनिया क्या ..
तुम भी रहोगे अन्जान।
जो चला आ रहा है युगों से
चलता ही रहेगा अनवरत ..
जीवित साँसों और
धड़कनों की तरह अनवरत ..
रुकता है ये कब भला पगले !
वो तो मुझमें ना सही
कल तुममें चलेगा ..
परसों किसी और में
पर चलेगा .. निर्बाध ..
अनवरत और ..
बहूँगा मैं धमनियों में तुम्हारी .. बस यूँ ही ...
सन् 2019 ईस्वी। अप्रैल का महीना। शाम का लगभग सात-साढ़े सात बजे का समय। अवनीश अपने घर में शयन कक्ष से इतर एक अन्य कमरे के एक कोने में जमीन पर ही बिछे हुए दरी-चादर वाले बिछौने पर लेटे हुए थे। कुछ ही घन्टे पहले अपने चंद रिश्तेदारों और कुछ पड़ोसियों-दोस्तों के साथ मिलकर "बाँस-घाट" (पटना में गंगा नदी के किनारे एक श्मशान घाट) पर अपने पापा का दाह-संस्कार कर के घर लौटे थे। दाह-संस्कार के क्रम में हुई भाग-दौड़ से ऊपजी शारीरिक थकान और अपने पापा के खोने की पीड़ा से ऊपजी मानसिक थकान के मिलेजुले कारणों से अनायास ऊपजी अवनीश की गहरी नींद की कोख़ से कुछ ही देर में खर्राटों की आवाज़ जन्म लेने लगी थी, जो घर में पसरी हुई बोझिल ख़ामोशी वाले रिक्त स्थानों को भर रही थी।
अचानक उनके पास ही 'एक्सटेंशन बोर्ड/कॉर्ड' में चार्ज हो रहे उनके और उनकी धर्मपत्नी अवनि के फोन में से एक फोन के बजने से उनकी नींद टूट गई और खर्राटों की आवाज़ की जगह 'मोबाइल' की 'रिंग टोन' ने ले ली थी। वह 'मोबाइल' बिना देखे, अपनी आँखें बन्द किये हुए ही, बस इतनी ही जोर से बोले, ताकि अंदर के कमरे में मम्मी के पास उपस्थित उनकी अवनि उनकी आवाज़ सुन सके और फोन ले जाए - "अव्वी ! .. तुम्हारा फोन .."
अक़्सर दोनों ही एक-दूसरे को प्यार भरे इसी नाम से सम्बोधित करते हैं। मतलब, अवनीश के लिए अवनि- अव्वी और अवनि के लिए अवनीश भी- अव्वी, यानी अवनीश भी अव्वी और अवनि भी अव्वी .. दोनों ही एक दूसरे के लिए "अव्वी"। यूँ तो दोनों के फोनों के अलग-अलग 'रिंग टोन' होने के कारण, वे दोनों ही फोन आने पर, बिना फोन देखे ही दूर से समझ जाते हैं, कि किसके फ़ोन पर फ़ोन आया है। साथ ही .. एक बात और कि .. आपसी अच्छी तालमेल होने के कारण कोई भी फोन आने पर उत्सुकतावश या जासूसीवश एक दूसरे के मोबाइल के 'स्क्रीन' पर आपस में कोई भी ताकता या झाँकता तक नहीं है और ना ही पूछता भी है, कि किसका फोन आया था या उस से क्या बातें हो रही थी।
अवनि चार्ज होते फोन को चुपचाप निकालकर, कॉल रिसीव कर के धीरे से - "हेल्लो" कहते हुए दूसरे कमरे में चली गई। ताकि उसकी फोन पर बातें करने से अवनीश की नींद ना खराब हो जाए।
फिर पाँच-दस मिनट के बाद ही अवनि वापस आकर अपना मोबाइल फिर से उसी जगह पर चार्ज में लगाने लगी। तभी बस यूँ ही अवनीश ने पूछ भर लिया कि - "किसका फोन था ?"
"मँझले मामा जी का था।"
"क्या कह रहे थे ?"
"कह रहे थे कि एक ही शहर में, पास में ही रह कर, वे पापा जी के दाह संस्कार में शामिल नहीं हो सके हैं, इसका उनको बहुत ही खेद है।"
"कोई बात नहीं, समय नहीं मिल पाया होगा शायद !"
"ना ! ना-ना, बोल रहे थे, कि अभी ढाई महीने पहले ही तो सरिता का कन्यादान किए हैं। इसी कारण से वे लोग अपने सामाजिक रस्म-रिवाज़ वाले नियम-कायदे से बंधे हैं। मज़बूरी है, वर्ना आते जरूर। ये भी बोले कि मेरी तरफ से माफ़ी माँग लेना अवनि बेटा।"
"ओ ! .. कोई बात नहीं। पर बड़े होकर माफ़ी माँगने वाली बात तो .. अच्छी नहीं है। है ना ?"
"बाद में आएंगे मिलने मम्मी जी से .. ऐसा भी बोले हैं।"
"अच्छा ! ठीक है, आने दो, जब उनके समाज के बनाए रस्म-रिवाज उनको आने की अनुमति दे दें, तो आ जाएं, किसने रोका है भला। है कि नहीं।"
सरिता- अवनि के मंझले मामा जी की तीन बेटियों- सरिता, मनीषा और समीरा में से उनकी बड़ी बेटी यानी अवनि की ममेरी बहन है।अभी ढाई माह पहले ही जनवरी महीने वाले शादी के शुभ मुहूर्त में, इसी शहर के एक अच्छे मैरिज हॉल से उसकी शादी हुई थी, जहाँ अवनीश और अवनि भी सपरिवार निमंत्रित थे। तब अवनीश के मम्मी-पापा यानी अवनि की मम्मी जी और पापा जी भी गए थे। पापा जी .. जो अभी कुछ घन्टे पहले ही सनातनी विचारधारा के अनुसार पंच तत्वों में विलीन हो चुके थे।
यह तो सर्वविदित है कि हमारे हिन्दू धर्म में एक लोक(अंध)परम्परा है, जिसके अनुसार जो कोई भी किसी लड़की की शादी में कन्यादान करते हैं या फिर लड़के की शादी करने पर भी, शादी के बाद साल भर तक, किसी के यहाँ भी किसी के मरने पर नहीं जाते हैं। जब तक मृतक के परिवार को "छुतका" (सूतक) रहता है, तब तक उस के यहाँ जाना वर्जित है। हमारे हिन्दू समाज की एक मान्यता है कि अगर ऐसी परिस्थिति में भूले से भी, जो कोई भी, शादी करवाने वाले अभिभावक या नवविवाहित दम्पति जाते हैं, तो उनके साथ कुछ भी अपशकुन घटित हो सकता है। तथाकथित भगवान जी नाराज़ हो जाते हैं .. शायद ...
अभी इस दुःखद घड़ी में भी मंझले मामा जी के आए हुए फोन से, केवल अपनी भगनी- अवनि से बातें होना और अवनीश या उनकी मम्मी से आज की दुःखद घटना के बारे में कोई भी बात ना करना; आपको-हमको शायद अटपटी बात लगे, पर अवनीश के लिए यह कोई भी आश्चर्य का विषय नहीं है। वह अपनी शादी के अब तक के दो-तीन सालों में, अपने ससुराल वालों के इस अलग अंदाज़ वाली आदत से अच्छी तरह वाकिफ़ हो चुके हैं; कि किसी भी तरह के दुःख या ख़ुशी के मौके पर, अवनि के मायके से किसी का भी फोन प्रायः अवनि को ही आता है। और तो और .. यहाँ तक कि उनकी शादी की सालगिरह की शुभकामनाएं भी अवनि के मायके वाले अकेले अवनि से ही साझा करके उस दिन की औपचारिकता की इतिश्री कर देते हैं हर बार।
वैसे तो अवनीश बचपन से अपने घर-परिवार में ये चलन देखते हुए आए हैं, कि अगर किसी बुआ जी, मौसी जी या किसी भी 'कजिन' दीदी लोगों के ससुराल में किसी ख़ास आयोजन के मौके पर आमन्त्रित करने के लिए या किसी अवसर पर शुभकामनाएं देने के लिए या फिर दुःख की घड़ी में शोक प्रकट करने के लिए उन लोगों के अलावा तदनुसार फूफा जी, मौसा जी या जीजा जी या फिर उनके मम्मी-पापा से बातें की जाती रहीं हैं। हो सकता है यह पुरुष-प्रधान समाज होने के कारण ऐसा होता हो। पर अवनीश करें भी तो क्या भला .. अवनि का मायका इस मामले में है ही कुछ अलग-सा। वैसे तो अवनीश को इन में भी सकारात्मकता नज़र आती है, कि यह पुरुष-प्रधान समाज को चुनौती देती हुई, किसी महिला-प्रधान समाज को गढ़ने की प्रक्रिया वाली शायद कोई चलन या जुगत हो।
इसी साल :-
सन् 2021 ईस्वी। अप्रैल का महीना। अवनीश अपनी सुबह की दिनचर्या निपटाने के बाद रोज़ाना की तरह ही 'वाश रूम' के पास वाले 'वाश-बेसिन' के ऊपर टंगे आइने में अपनी छवि निहारते हुए, अपने 'मैक-थ्री' के 'ट्रिपल ब्लेड' वाले 'शेविंग रेज़र' से दाढ़ी बना रहे थे। वह मंगलवार, बृहस्पतिवार या शनिवार को दाढ़ी नहीं बनाने और ना ही बाल कटवाने से अपशकुन होने जैसी मान्यता या परम्परा को एक दक़ियानूसी सोच की या एक बेबुनियाद ढकोसला की पैदावार भर मानते हैं। उनकी सोच के अनुसार, अगर ऐसा हो रहा होता तो रत्न टाटा, बिरला, अंबानी, अडानी .. ये सब के सब रोज ही 'शेव' करने वाले लोग इतने बड़े आदमी नहीं होते।
तभी पास ही मेज पर पड़े फोन के बजने पर, रसोईघर में नाश्ता की तैयारी कर रही अवनि को उन्होंने आवाज़ दी कि- "अव्वी ! तुम्हारा फोन .."
"आ रही हूँ ..."
"अपने पास ही क्यों नहीं रखती हो, ताकि कोई फोन आए तो तुमको पता चल सके।"
"अच्छा बाबा ! सुबह-सुबह इतना गुस्सा मत होओ।"
"मोबाइल की फिर जरूरत ही क्या है भला .. ऐसे में एक 'लैंड लाइन' फोन लगवा लो।"
"तुम्हारे बकबक में ना ... फोन भी कट गई।"
अवनि फोन लेकर वापस रसोईघर में चली गई। 'कॉल' आए हुए 'नंबर' पर 'कॉल बैक' कर के बातें करने लगी - "प्रणाम मामा जी !, मामी जी कैसी हैं ? ..." कुछ ही देर में बातें खत्म करते हुए - "अच्छा, प्रणाम मामा जी ... जी, जी, हाँ-हाँ, ठीक है। जी ! बोल दूँगी "इनको"। हाँ, हाँ, समझ रही हूँ। समझा भी दूँगी इनको। अब रखती हूँ। जी, मामा जी। जी, प्रणाम मामा जी।"
अब तक अवनीश 'शेव' करने के बाद अपने गालों पर 'सुथॉल एंटीसेप्टिक लिक्विड' मलते हुए, नाश्ते के लिए 'डाइनिंग टेबल' तक आ चुके थे। पिछले साल की तरह ही, इन दिनों भी 'लॉकडाउन' के तहत 'वर्क फ्रॉम होम' के अंतर्गत वह घर से ही अपने 'ऑफिस' का काम निपटा रहे थे। अतः नियत समय पर 'ऑफिस' पहुँचने की उन्हें कोई हड़बड़ी नहीं होती है। इसी कारण से नाश्ता आने तक आज का अख़बार खोल कर पन्नों पर छपे समाचारों पर अपनी नज़रें फिराने लगे।
तभी अवनि गर्मागर्म नाश्ता ले कर आ गई। लगभग आठ बजने वाले थे। अवनि नाश्ता की थाली मेज पर रख कर, 'टीवी' चालू कर के, 'इंडिया टीवी चैनल' पर बाबा राम देव के रोजाना आने वाले लगभग चालीस-पैंतालीस मिनट के कार्यक्रम को 'रिमोट' से चला कर गौर से देखने लगी। मम्मी जी भी मनोयोग से योग वाला कार्यक्रम देखने के लिए आ कर साथ में बैठ गईं। कुछ देर में नाश्ता, अख़बार और योग का कार्यक्रम सब कुछ ख़त्म होने के बाद सभी अपने-अपने काम में लगने के लिए वहाँ से उठ गए। मम्मी अपने कमरे में लेटने चली गईं, अवनीश अपने काम के मेज पर 'कंप्यूटर' के सामने और अवनि रसोईघर में सभी के लिए काढ़ा बनाने।
पर जाने से पहले, पहले मम्मी जी के जाने के बाद, अवनि .. अवनीश के पास बैठ कर कहने लगी कि- "सुबह उस समय मँझले मामा जी का फोन आया था। कह रहे थे कि परसों उनकी मँझली बेटी- मनीषा की शादी है। पर अभी 'लॉकडाउन' में सरकार के दिशानिर्देश के अनुसार अधिकतम पचास लोग ही शादी के आयोजन में शामिल हो सकते हैं। इसी कारण से वे इस शादी में हमलोगों को नहीं बुला पा रहे हैं।"
"वैसे भी तो .. अभी कोरोना के समय भीड़-भाड़ वाले जगहों में जाने से बचना ही चाहिए। अच्छा हुआ जो निमन्त्रण नहीं आया। आता भी तो शायद नहीं जा पाते हमलोग।"
"कह रहे थे कि उनके गोतिया लोग और लड़के वालों का परिवार मिला कर ही पचास से ज्यादा लोग हो जा रहे हैं। तो गोतिया में से ही कई लोगों को आने से रोका जा रहा है। बाहर से या मुहल्ले से किसी को भी नहीं बुलाया गया है।"
"स्वाभाविक है .. वैसे भी सरकारी दिशानिर्देशों को मानने में हम आम लोगों की ही भलाई है। हमारी रक्षा-सुरक्षा के लिए ही तो बनाए जाते हैं तमाम नियम-क़ानून। है कि नहीं ?"
"एक छोटे-से 'कम्युनिटी हॉल' में सब कुछ सम्पन्न हो रहा है। कोई धूम-धड़ाका नहीं होगा। दरअसल लड़के की माँ बीमार रहती हैं, तो उनकी ज़िद्द से, सरिता की शादी के समय ही ये तय की हुई शादी, जल्दी में निपटायी जा रही है। बोल रहे थे, कि बाद में वे लोग मिलने आ जायेंगे या हमलोग जा कर मिल लेंगें।"
"कोई बात नहीं। चलो .. फ़िलहाल अभी तो 'किचेन' में जल्दी से जा कर अपने इन हाथों से एक 'कप' अदरख़-तेजपत्ता वाली कड़क चाय बना कर लाओ। फिर काम करने बैठूं। काढ़ा दोपहर में पिला देना।"
"ठीक है .. अभी आयी ..."
आज :-
सन् 2021 ईस्वी का जून महीना। तेरह तारीख़, दिन-रविवार। सुबह लगभग साढ़े पाँच बजे का समय।
"अव्वी !" - अवनि लगभग झकझोरते हुए अवनीश को जगा रही है।
"अरे ! .. क्या हुआ ?.. इतनी क्यों चीख़ रही हो। आज 'सन्डे' है। आज तो कम से कम आराम से सोने दो ना अव्वी ! .. 'प्लीज़' .. अभी सोने दो ..."
"अव्वी, अभी-अभी मंझले मामा जी की छोटी वाली बेटी- समीरा का फ़ोन आया था। मामी जी भी बात कीं। रो -रो के बुरा हाल है दोनों का"
"अरे ! .. क्या हुआ ? .. क्या हो गया सुबह-सुबह ?"- अवनीश घबरा कर बिस्तर पर उठ बैठे।
" मंझले मामा जी नहीं रहे अव्वी।" - अवनि रुआँसी हो गयी।
"मामी जी कह रही थीं, कि कल रात ठीक ही थे। समय से खा-पीकर और कल शनिवार को रात दस बजे आने वाले रजत शर्मा की "आपकी अदालत" 'इंडिया टीवी' पर देख कर देर से सोए थे।"
"फिर ? .. अचानक ?.."
"समीरा बतला रही थी, कि सुबह चार-सवा चार बजे अचानक अपने सीने में दर्द कहते हुए उठे। मामी जी और समीरा को आवाज़ दिए। मामी जी तो पास में ही सोयी थीं, आवाज़ पा कर जाग गईं और समीरा भी बगल वाले कमरे से जाग कर फ़ौरन आयी।"
"बहुत ही दुःखद बात है .."
"अंत समय में .. समीरा के हाथ को कस के पकड़ लिए थे और रोने लगे थे। कहने लगे .. बेटा माफ़ कर देना। तुम्हारी शादी नहीं ... कहते-कहते उनकी जुबान लड़खड़ा गयी। शरीर निढाल हो गया। समीरा के हाथ को पकड़े हुए उनके हाथ की पकड़ ढिली पड़ गयी।"
"ओह ! ..."
"फोन कर के पास वाले डॉक्टर अंकल को बुलाया गया था। वह आकर जाँच कर के बतलाए कि मामा जी अब नहीं रहे। उनको 'मैसिव हार्ट अटैक' आया था। डॉक्टर अंकल बोल रहे थे, कि समय पर इलाज मिल पाता तो .. शायद ..." - अवनि बोलते-बोलते रो पड़ी -
"पर इतनी जल्दी में सारा कुछ हो गया, कि किसी को कुछ भी करने का मौका ही नहीं मिला .."
अब तक अवनीश नींद की गिरफ़्त से पूर्णतः बाहर आ चुके थे। बिस्तर से उठ कर, तेजी से 'वाश रूम' की ओर भागते हुए अवनि को बोले -"तुम भी जल्दी से 'फ़्रेश' होकर तैयार हो जाओ। हम भी आ रहे हैं। हम दोनों को फ़ौरन वहाँ जाना चाहिए।"
आधे घन्टे में दोनों झटपट मामी जी के घर जाने के लिए तैयार हो गए। पर .. अवनि से नहीं रहा गया। वह अपने मन की एक ऊहापोह मिटाने के लिए अवनीश से सवाल पूछ ही बैठी, कि - "अव्वी, पापा जी के वक्त मामा जी, जिस किसी भी कारण से हो, एक शहर में रह कर भी नहीं आए थे। मंझली बेटी की शादी में, जिस किसी भी कारण से हो, बुलाये भी नहीं।"
"तो ?"
"तो फिर .. अव्वी .. आप कैसे बिना बुलाए उनके यहाँ जाने के लिए अपने मन से तैयार हो गए ?"
"देखो (सुनो) अव्वी, मामा जी उस वक्त नहीं आए, ये उनकी सोच पर आधारित उनका फैसला था। वैसे भी तो ... तुम गौर से देखोगी, कि हमारे समाज की अधिकांश परम्पराएं सभ्यता-संस्कृति के नाम पर सदियों से चली आ रही अंधपरम्पराएँ हैं। जिनमें समय के अनुसार परिवर्त्तन की आवश्यकता है। सोचो ना जरा .. कोई भी परम्परा इंसान की सुविधा के लिए होनी चाहिए, ना कि बाधा बनने के लिए।"
"हाँ ... वो तो है ..."
"आज देखो कि दो माह पहले ही शादी किए हैं मनीषा की और स्वयं ही चले गए। ऐसे में धाराशायी हो गयी ना सूतक मानने वाली अंधपरम्परा और हाँ .. एक और बात, कि किसी के घर उसकी ख़ुशी में शरीक़ होने ना भी जाओ, तो कम से कम और जरूर से जरूर उसकी विपदा की घड़ी में उसके क़रीब जाना चाहिए। ऐसे मौकों पर कोई बुलाता नहीं अव्वी, बल्कि मानवता के नाते हमें जाना होता है या यूँ कहो कि जाना ही चाहिए।"
"हम तो तैयार ही हैं .. बस यूँ ही ... मन में एक बात आयी तो, पूछ लिया आपसे।"
"फिर .. इस शहर में हमलोगों के सिवाय उनका नजदीकी रिश्तेदार कोई है भी तो नहीं। उनके किसी भी रिश्तेदार को अन्य शहर से यहाँ आने में कम से कम सात से आठ घण्टे लगेगें। हो सकता है कि इस कोरोनाकाल में कोरोना के डर से कई लोग आएं भी ना।"
"हाँ, सही कह रहे आप। ऐसा हो सकता है।"
मम्मी को इस दुःखद घटना की जानकारी देकर, दोनों अपनी 'बाइक' पर अपने घर से मात्र लगभग सात किलोमीटर दूर मामा जी के घर के लिए निकल पड़े हैं।
आज ही मामा जी के घर पर :-
घर में प्रवेश करते ही मामी जी और समीरा अवनि से लिपट कर रोने लगीं- "पापा हम को छोड़ के चले गए दीदी। अब हम अनाथ हो गए।"
अवनि ने दोनों को सम्भाला- "ऐसा नहीं बोलते। अभी मामी जी हैं। और हमलोग भी तो हैं ही ना .. ऐसा क्यों सोचती हो तुम।"
अवनीश एक टक से अतिथि कक्ष में जमीन पर एक बिछाए चादर पर पड़े हुए मामा जी के शव को निहार रहे थे। लग रहा था मानो अभी सोए हुए हों। बस .. जाग कर उठ बैठेंगे। पास ही आठ-दस अगरबत्तियाँ सुलग रही हैं। अवनीश के दिमाग में चल रहा है, कि जिस बाँस के सहारे अभी अगरबत्तियाँ सुलग रही हैं, उसी बाँस की अर्थी पर सवार हो कर हम इंसानों का शरीर भी सुलग कर .. ना, ना, धधक-धधक कर जल कर राख हो जाता है।
थोड़ा सामान्य होने पर समीरा से पता चला कि रमण 'अंकल' सुबह आये थे। कुछ देर में 'फ़्रेश' हो कर आने बोल गए हैं। दरसअल रमण 'अंकल' मामा जी के गाँव के ही, चार घर छोड़ कर, रहने वाले हैं। एक ही जाति के भी हैं। दोनों साथ ही गाँव के 'हाई स्कूल' से पास किये और शहर के एक ही 'कॉलेज' में पढ़ाई पूरी कर के एक ही साथ इस शहर की 'स्टील' की बड़ी 'फैक्ट्री' में नौकरी 'ज्वाइन' कर ली थी। दोनों साथ ही 'रिटायर' भी हुए हैं। लब्बोलुआब ये कि दोनों लँगोटिया यार रहे हैं। एक बार नौकरी करने आए इस शहर में तो फिर इसी शहर में दोनों ही बस गए हैं।
मामी जी से ये भी पता चला कि सरिता और "मेहमान" (सरिता के पति) पाँच-छः घंटे में आ जायेंगे। मनीषा और मेहमान 'हनीमून' के लिए मालदीव गए हुए हैं, इसलिए उनका समय पर आना सम्भव नहीं है। मुहल्ले में आस-पड़ोस से भी कोरोना के डर से कोई भी झाँकने नहीं आया। अभी किसी तरह भी, किसी की भी मृत्यु हो, तो लोग कोरोना के डर से नहीं आते हैं।
लगभग आधे घन्टे बाद रमण 'अंकल' अपने लगभग तीस वर्षीय इकलौते बेटे- पवन के साथ आ गए हैं। पंडित जी से फोन पर बात कर के एक 'लिस्ट' लिख ली गई है। बाद में अवनीश, रमण 'अंकल' और पवन, सभी आपस में सलाह-मशविरा कर के उस एक 'लिस्ट' से दो 'लिस्ट' बना लिए हैं और बाँस-कफ़न की जुगत में निकल पड़े हैं। पवन अपनी 'बाइक' से अलग और अवनीश रमण 'अंकल' के साथ अलग ओर, ताकि सारा काम समय से निपट जाए।
अब तक रमण 'अंकल', अवनीश और पवन बाज़ार से आ गए हैं। सरिता से समीरा की बात हुई है अभी-अभी। बस .. वह और मेहमान पहुँचने ही वाले हैं। तब तक घर में मामा जी को नहलाने, हल्दी लगाने जैसी रस्में सब लोग पूरी कर रहे हैं। अर्थी सजते-सजते मनीषा और उनके पति आ गए। एक बार फिर से समूह-रुदन की आवाज़ सीने को चीरने लगी है। अब मामा जी को श्मशान घाट ले जाने की भी बारी आ चुकी है।
इधर अवनीश के दिमाग में चल रहा है, कि आज मामा जी की अर्थी को मिलने वाले चार कन्धों में चौथा कंधा उनका होगा। एक- रमण 'अंकल', दूसरा सरिता के पति का, तीसरा रमण 'अंकल' के बेटे पवन का और .. चौथा .. स्वयं अवनीश का। बस ... चार दिन की ज़िन्दगी के पटाक्षेप के बाद मात्र चार कंधे ही तो चाहिए। बाक़ी तो सब .. कहते हैं ना .. कि बाक़ी सब तो मोह-माया है। चाहे समाज की भीड़ हो या समाज की रस्म-रिवाजें। अब आज ही कहाँ गई उन पचास लोगों की भीड़, जो इनकी मँझली बेटी की शादी में जुटी थी। आज कहाँ पालन हो पा रहा है, उस परम्परा की, जिसमें शादी करने के बाद एक साल तक अभिभावक या वे नवविवाहित जोड़ें किसी के मृत्यु होने वाले घर में नहीं आ-जा सकते हैं, वर्ना अपशकुन हो जाता है। मामा जी ने भी तो अपनी मनीषा की शादी लगभग ढाई महीने पहले ही तो की है और आज खुद ही, ख़ुद के घर में मृत पड़े हैं।
अब तक देखते-देखते मामा जी के जाने का समय भी आ ही गया है। मामी जी, सरिता और समीरा, तीनों दरवाजे को छेक कर खड़ी हो गई हैं, किसी शादी में होने वाली द्वार-छेकाई वाली रस्म की तरह-
"मत ले जाइए पापा को।"
"मत ले जाइए मेहमान इनको .. इनके बिना कैसे जी पाएंगे हम। सरिता ! .. समीरा ! .. रोक लो ना पापा को। सरिता ! तुम्हारी बातें तो पापा कभी नहीं टालते हैं ना ! समीरा ! जगाओ ना पापा को । "
मामी जी बेहोश होकर गिर गईं हैं। अवनि ग्लास में पानी अंदर से लाकर मामी जी के मुँह पर छींटा मारती है - "संभालिए मामी जी अपने आप को। अगर आप ऐसे करेंगी तो समीरा, सरिता का क्या होगा। ये सोची हैं अभी? 'प्लीज' संभालिए अपने आप को। समीरा चुप हो जाओ। अपने मन पर काबू रखो सरिता। तुम लोग ऐसे अगर देह छोड़ दोगी, तो घर कौन संभालेगा भला .. बोलो ?"
अब चारों लोगों के कंधे पर सवार होकर मामा जी अपनी अनन्त यात्रा पर निकल पड़े हैं- "राम नाम सत्य है।" ... पर अवनीश के मन में राम-नाम की जगह कुछ और ही चल रहा है- "काश ! समाज की उन तमाम बेबुनियाद रस्म-रिवाजों, दकियानूसी सोचों वाली परम्पराओं को भी वह इसी तरह अर्थी पर सजा कर किसी धधकती चिता पर जला पाता .. काश ! ... बस .. केवल तीन अन्य कंधों की तलाश है; क्योंकि उसका तो है ही ना .. चौथा कंधा .. शायद ...
(आइये .. इस बोझिल माहौल के बोझ को कुछ हल्का करने के लिए सुनते हैं ... साहिर लुधियानवी जी के शब्दों-सोचों को .. गाने की शक़्ल में .. बस यूँ ही ... )
'मैरिनेटेड' मृत मुर्गे की बोटियों से,
बढ़ाते हैं हम, रसोईघर की शोभा।
जाते ही फिर शव क्यों अपनों के,
धोते हैं भला घर का कोना-कोना ?
(2)
तोड़ेंगे जो चुप्पी हमसभी मिलजुल,
टूटेगी वर्जनाएं सारी, जो हैं फिजूल।
(3)
तामझाम में, एकदिवसीय "दिवस" के,
कुछ इस क़दर हुए, हम सभी मशग़ूल।
हो भला अब परिवर्तन भी तो क्योंकर,
"दिनचर्या" में हों ये, ये बात गए हैं भुल।
(4)
मंगल तक तो चला गया है, अपना मंगल-यान;
अमंगल होता जो आडंबर से, नहीं इनका भान।
(5)
पापयोनि-समूह में रख गए,
भला क्यों स्त्री को "रहबर"* ?
नर अंध भक्तों* ने भी किया,
नारी-जीवन को दुरूह गहवर .. शायद ...
( गीता के अध्याय- 9 में श्लोक-32** के संदर्भ में)
【* - तथाकथित
** - गीता के अध्याय- 9 में श्लोक-32 अक्षरशः :-
मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्।।09/32।।
अथार्त् :-
हे पार्थ ! स्त्री, वैश्य और शूद्र, ये जो कोई पापयोनि वाले हों, वे सभी मेरे शरण में आकर परम गति को प्राप्त होते हैं।।
(गूगल से साभार)】
(6)
"रक्तदान- महादान" कह-कह कर,
करना है अब से तो कोई दान नहीं।
कह कर - "रक्त साझा- सच्ची पूजा",
अब तो हमको, सच्ची पूजा करनी।
(१) "कलम आपकी, राजा आप का, अखबार आप का, लिखें, कौन रोक रहा है ? जितना चाहे लिखें।"
(२) "उन्हें मोहतरमा इसलिए कह रहा हूँ, क्योंकि वह हमेशा स्त्री-पोशाक में ही रहती हैं। उन लोगों में भी नर-मादा जैसा, कुछ-कुछ भेद होता हो शायद।"
(३) "हम भी उस विज्ञापन के फंतासी या तिलिस्म में सम्मोहित होकर सनक जाते हैं- गोरा होने के लिए, ठंडा होने के लिए, सेहत बेहतर करने के लिए और अब तो 'इम्युनिटी पॉवर' (Immunity power) बढ़ाने के लिए भी।"
(४) "ठीक यही "तड़ीपार" की सजा देने वाली सामंती या मनुवादी मानसिकता, मुखौटों के साथ आज हमारे सोशल मीडिया के उपभोगकर्ता बुद्धिजीवियों के बीच भी अक़्सर पनपती दिखती है। नहीं क्या ?"
(५) "ये 'अनफ्रैंड' करना भी हमें "तड़ीपार" करने जैसा ही कुछ-कुछ लगता है .. शायद ..."
: - (आज के इसी "राजा आप का .. तड़ीपार ... (भाग-४). 【अन्तिम भाग】." के कुछ अंश ... ।).
ख़ैर ! .. बहुत हो गई फिल्मों और अंजान भाषाओं के शब्दों की बतकही .. अब "राजा आप का .. तड़ीपार ... (भाग-४). 【अन्तिम भाग】." में बकैती कर लेते हैं, प्रसंगवश आये हुए शब्दों - "राजा आप का .." और "तड़ीपार" की।
इस से पहले बस .. केवल एक बार और ज़िक्र कर लेते हैं, हम सिनेमा के सम्मोहन, तिलिस्म, फंतासी (फैंटेसी) और सनक के असरों के विराट रूप वाले जाल या यूँ कहें, मायाजाल के बारे में। सुबह जागने पर किसी-किसी की चाय की तलब से लेकर लोगबाग के साबुन (या हैंड वाश भी) या दंतमंजन (या टूथ पेस्ट भी) तक की जरुरतों से लेकर रात में सोने के पहले पी जाने वाली किसी हेल्थ-ड्रिंक्स (Health Drinks) या फिर कंडोम जैसे उपयोग या उपभोग किए जाने वाले हरेक वस्तुओं के विज्ञापनों का जाल, हमारे आसपास सोते-जागते .. मोबाइल के पर्दे से लेकर, टीवी के पर्दे तक, दैनिक समाचार पत्र से लेकर चौक-चौराहों के बड़े-बड़े विज्ञापन-पट्ट (होर्डिंग/ Hoardings) तक भरे पड़े रहते हैं। ख़ासकर कुछ ख्यातिप्राप्त व्यक्ति (सेलिब्रेटी/Celebrity) को उस वस्तु विशेष को इस्तेमाल करते हुए दिखाया जाता है। भले ही वह विज्ञापन वाला पेय या खाद्य-पदार्थ, सौंदर्य-प्रसाधन वग़ैरह हमारे स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह हो या विज्ञापन में दिखने वाला या वाली, वो 'सेलिब्रेटी' उनका कभी उपभोग भी ना करता/करती हों। परन्तु .. चूँकि उस विज्ञापन में अभिनय करने के लिए उन्हें लाखों रुपए मिलते हैं और वह इंसान धन के लिए, यानी अपने फ़ायदे के लिए, उस विज्ञापन देने वाली कम्पनी के साथ मिलकर हम लोगबाग को धोखा देने यानी ठगने के लिए आगे आ जाता है। हम भी उस विज्ञापन के फंतासी या तिलिस्म में सम्मोहित होकर सनक जाते हैं- गोरा होने के लिए, ठंडा होने के लिए, सेहत बेहतर करने के लिए और अब तो .. 'इम्युनिटी पॉवर' (Immunity power) बढ़ाने के लिए भी। ये सारी की सारी प्रक्रियाएं सिनेमा के उसी सम्मोहन, तिलिस्म, फंतासी (फैंटेसी) और सनक के असर जैसा ही हमारे ऊपर असर करता भी है। ख़ासकर .. बच्चों, युवाओं और महिलाओं पर। कई महिलाओं के तो कई सारे फैशन (Fashion) के पैमाने टीवी सीरियलों की नायिकाओं के फैशन के आधार पर ही तय होते हैं। बिलकुल दक्षिण भारतीय राजनीति में, वहाँ के सिनेमा-जगत के सम्मोहन भरे हस्तक्षेप के जैसा .. शायद ...
यूँ तो "तड़ीपार" जैसी सजा, सामंतवादी या मनुवादी सोच की उपज ही प्रतीत होती है। जो आज भी खाप पंचायत या गोत्र पंचायत के रूप में अनेक राज्यों में सिर उठाए खड़ी है। तथाकथित लोकतंत्र इन परिस्थितियों में एक लकवाग्रस्त रोगी से ज्यादा कुछ ख़ास नहीं जान पड़ता है। ठीक यही "तड़ीपार" की सजा देने वाली सामंती या मनुवादी मानसिकता, मुखौटों के साथ आज हमारे सोशल मीडिया के उपभोगकर्ता बुद्धिजीवियों के बीच भी अक़्सर पनपतती दिखती है। नहीं क्या ? कभी-कभार .. किसी के अपने फेसबुक (Facebook) की मित्रता सूची (Friend List) से किसी को, किसी बात पर, हटाना (Unfriend करना) एक आम बात है। चाहे वह बात या इंसान उचित हो या अनुचित। बस .. हटाने वाले के मन-मुताबिक़ किन्हीं बातों का नहीं होना ही काफ़ी होता है। ये 'अनफ्रैंड' करना भी हमें "तड़ीपार" करने जैसा ही कुछ-कुछ लगता है .. शायद ...
मेरे साथ ही घटित कई घटनाओं में से तीन घटनाएँ अभी भी याद हैं। वैसे घटनाओं की ज़िक्र करने के समय उन तीनों का नाम लेकर, गोपनीयता के नियम का उल्लंघन करना उचित नहीं रहेगा। तो.. बिना नाम लिए हुए ही ...
पहली घटना :-
यह किसी पुरुष या महिला के साथ घटित ना होकर, किसी किन्नरमोहतरमा के साथ घटी घटना है। उन्हें मोहतरमा इसलिए कह रहा हूँ, क्योंकि वह हमेशा स्त्री-पोशाक में ही रहती हैं। उन लोगों में भी नर-मादा जैसा, कुछ-कुछ भेद होता हो शायद। ख़ैर ! .. आपको ये भी स्पष्ट कर दें कि वह कोई आम किन्नर नहीं हैं, बल्कि बिहार की राजधानी, पटना में वह काफ़ी विख्यात हैं। कुछ महकमें में उनका बड़ा नाम है। कई-कई कवि सम्मेलनों, मुशायरों में, सामाजिक संस्थानों द्वारा आयोजित समारोहों में, राजनीतिक गलियारों में आयोजकगण उन्हें अपने मंच पर सम्मानित कर के खुद को गौरवान्वित महसूस करते हैं। गत वर्ष के लॉकडाउन की शुरुआत होने के कुछ पहले तक, कई मंचों पर या चित्र-प्रदर्शनियों में भी उन से यदाकदा मुलाकातें और कई विषयों पर बातें भी हुईं हैं, विचार-विमर्श या बहस के रूप में।
ठीक-ठीक .. अक्षरशः याद तो नहीं, पर संक्षेप में इतना याद है कि एक बार अपने फेसबुक पर उन्होंने जातिगत आरक्षण के लिए, वर्तमान से और भी ज्यादा प्रतिशत को बढ़ाने के पक्ष में कुछ पोस्ट (Post) किया था। साथ ही, वर्तमान में बिहार की सत्ता से बाहर एक राजनीतिक दल के नाम के क़सीदे भी पढ़ी/लिखी थीं उस पोस्ट में। उसी राजनीतिक दल की तारीफ़ की गई थी, जिस के शासन-काल में काल ही काल घिरा हुआ था। अपहरण, ट्रेन-डकैती, राहजनी, डकैती, हत्या, बलात्कार, भ्रष्टाचार जैसे कई अपराध "छुट्टा" (खुला) साँढ़ की तरह चारों ओर मुँह मारने के लिए आज़ाद थे। उनकी मित्रता-सूची में होने के कारण मेरी नज़र से जब वह पोस्ट गुजरी तो आरक्षण के पक्ष वाली बात आदतन मुझे नागवार गुजरी। मैंने प्रतिक्रियास्वरुप उचित तर्क के साथ जातिगत आरक्षण के विरोध में अपनी कुछ बातें रखी। इस तरह एक-दो घन्टे के अंदर ही, 'न्यूटन के तीसरे नियम' के अनुसार दो-तीन बार क्रिया-प्रतिक्रियाएँ हुई। शायद, छुट्टी का दिन रहा होगा, तभी मैं भी त्वरित प्रतिक्रिया कर रहा था।
हमारी चल रही विषय विशेष की स्वस्थ बातें, तर्क-वितर्क और विचार-विमर्श अचानक उनकी ओर से उग्र हो गया। अंततः शर्मनाक बातें उनकी ओर से वेब पन्ने पर छपने लगीं। बहस की बेशर्मी वाले पहलू की पराकाष्ठा तो तब हो गयी, जब गुस्से में उन्होंने आरक्षण के समर्थन में "हमारी (उनके अनुसार तथाकथित सवर्णों की) माँ-बहनों को तथाकथित दलितों और आरक्षण-प्राप्त अन्य जातियों के पुरुषों के साथ बिस्तर पर सोने की छूट मिलने जैसी बातें लिख डाली।" हम तो हतप्रभ हो गए। वैसे तो उनकी इस तरह की कुछ अभद्र कही/लिखी बातें, मेरे लिए ज्यादा आश्चर्यजनक बातें नहीं थी। क्योंकि तब मुझे पुरखों की कही गयी, बहुत पते की एक पुरानी बात मेरे दिमाग में अचानक कौंध कर मेरे मन को शांत कर गयी; कि "बहुत गुस्से में या बहुत ही ख़ुशी में इंसान अपनी मातृभाषा का ही उपयोग कर जाता है। उस समय उनकी स्व-भाषा के साथ-साथ उनकी मानसिकता के अंतस का भी पता चल पाता है।" ऐसा ही उस विख्यात किन्नर मोहतरमा ने दिखलाया भी। पर उस वक्त तो तत्क्षण फेसबुक को देखना उचित नहीं समझते हुए, देखना बन्द कर दिया।
पर जब उसी दिन शाम तक दुबारा फेसबुक पर झाँका, तो पाया कि उनकी तरफ से हम 'अनफ्रैंड' यानी तड़ीपार किए जा चुके हैं। अफ़सोस इस बात की रही, कि हम वेब पन्ने के उस अपशब्द वाले हिस्से का स्क्रीन शॉट (Screen shot) नहीं ले पाए थे, जिसे उन किन्नर मोहतरमा की कलुषिता को प्रमाण के तौर पर, उस दिन या आज भी दिखलाने पर, उनको आदर देने वाले सभी पटना के बुद्धिजीवियों की आँखें फटी की फटी रह जाती .. शायद ...
दूसरी घटना :-
यह घटना भी एक मोहतरमा से ही जुड़ी हुई है, पर वह किन्नर नहीं हैं। सचमुच में महिला ही हैं और ऐसी-वैसी नहीं, बल्कि पटना शहर में सोशल मीडिया की एक जानी मानी आरजे (RJ -Radio Jockey) रह चुकी हैं या हैं। कई मंचों पर उन के साथ में शरीक़ होने का मौका भी मिला है। लगभग दो-ढाई साल पहले, एक बार उन्होंने कॉपी-पेस्ट (Copy & Paste) कर के दो पंक्तियाँ अपने फेसबुक पर कुछ यूँ चिपका दिया था, कि -"अक़्सर हम साथ साथ टहलते हैं ! / तुम मेरे ज़ेहन में और मैं छत पर !! " हूबहू दो पंक्तियाँ कुछ दिन पहले मेरी नज़रों से किसी एक के इंस्टाग्राम (Instagram) पर गुजरी थी। हमें लगा कि इनमें से कोई एक तो है, जो नक़ल कर रहा/रही है। हमने फेसबुक पर ही 'पब्लिकली' (Publicly) अपनी बतकही वाले मजाहिया अंदाज़ में कुछ यूँ बकबका दिया कि - "एक ही रचना की दो दावेदारी, एक FB पर, दूसरा इंस्टाग्राम पर, बहुत बेइंसाफी है ('शोले' वाले dialogue की पैरोडी के तर्ज़ पर .. आदमी दो और गोली तीन, बहुत बेइंसाफी है रे कालिया) ... वैसे copy & paste का जमाना है भाई 😪😪 "। (वैसे तो शोले फ़िल्म का संवाद था- "गोली छः .. और आदमी तीन .. बहुत बेइंसाफी है रे ...")
यह बात उन मोहतरमा को इतनी नागवार गुजरी कि उन्होंने कुछ दिनों बाद मुझे अपनी मित्रता-सूची से तड़ीपार कर दिया। फिर बाद में इन दो पंक्तियों के सही लेखक/लेखिका को खोजने की हमने कोशिश गूगल पर की तो पता चला कि ये दोनों पंक्तियाँ सोशल मीडिया के तमाम मंचों- फेसबुक, इंस्टाग्राम, यौरकोट, यूट्यूब इत्यादि पर हज़ारों लोगों ने अपने-अपने नाम से कॉपी-पेस्ट कर रखा है। पर इसके मूल रचनाकार का पता नहीं चल पाया। अगर आपको मालूम हो तो बतलाने का कष्ट कीजियेगा। धन्य हैं ! .. ऐसे साहित्य-चोर-चोरनियाँ ! .. नमन है उन सबों को .. बस यूँ ही ...
तीसरी घटना :-
अब संयोग कहें या क़ुदरत का क़माल, तीसरी घटना भी एक मोहतरमा के साथ ही हाल-फिलहाल ही में घटी है। यह भी पटना के कवि सम्मेलनों और मुशायरों में नज़र आती हैं। समाजसेविका भी बतलाती हैं स्वयं को। कई मंचों पर उनके साथ सहभागी बनने का मौका भी मिला है। एक दिन उनकी बिटिया द्वारा पढ़ी गई, अपनी ही एक रचना की वीडियो को उन्होंने अपने फ़ेसबुक पर साझा किया। कविता स्वतंत्रता से जुड़ी हुई थी और कविता व वाचन, दोनों ही, क़ाबिलेतारीफ़ भी थी। उनके घर के बैठकख़ाने में पढ़ी गई, कविता के समय, उनकी बिटिया के पीछे अलमारी पर रखी एक 'एक्वेरियम' (Aquarium) में कुछ मचलती रंगीन समुद्री मछलियाँ दिख रही थीं। स्वतंत्रता की कविता के समय, परतंत्र मछलियों को देख कर, कुछ-कुछ आँखों को खटक रही थी। बस फिर क्या था .. हमने औरों की तरह केवल तारीफ़ के पुल नहीं बाँधे, बल्कि तारीफ़ के साथ-साथ बिटिया को दुआ भी दिया और ... स्वतंत्रता की कविता के समय 'एक्वेरियम' में रखी परतंत्र मछलियों के खटकने की बात भी कह डाली। उस दिन औरों की प्रतिक्रियाओं पर उन्होंने प्रतिदान-प्रतिक्रिया तो दिया, पर मेरे लिए ख़ामोश ही रहीं। उनकी मर्ज़ी। ख़ैर ! ... बात आयी-गयी हो गई। मैं भी भूल गया।
इस साल तथाकथित किसान आंदोलन के नाम पर 26 जनवरी को लाल किले पर हुए हमले और तोड़फोड़ वाली घटना के लगभग सप्ताह-दस दिनों के बाद, लाल किला से सम्बंधित वर्षों पुराने अपने एक लम्बे रोचक यात्रा-वृत्तांत को मोहतरमा ने अपने फ़ेसबुक पर साझा किया। संक्षेप में कहें तो, उस के शुरू और अंत के अंश कुछ यूँ थे -
"लाल किला
मैं लाल किला हूँ । जहाँ हमारे देश के प्रधानमंत्री झंडा फहराते हैं।ऊँची -ऊँची दीवारें ,लाल रंग से सजी हैं। लाल किला अपने दोनों हाथों से वहां आ रहे लोगों का स्वागत करता है, आओ मेरे अन्दर एक इतिहास छिपा है ,मेरी दिवारों को छू कर महसूस करो ।
बात उस वक्त की है, जब मैं अपने परिवार के साथ भारत का दिल कहे जाने वाली दिल्ली गई । गोद में 9 माह का बेटा और 7 साल की बिटिया। .............................................................................
वहां पर फूलों का बाग भी है। पूरा लाल किला ही अद्भुत है ,पर *लता मंडप तो नायाब है ।बादशाह शाहजहाँ ने कहा था - अगर जमीं पर जन्नत है तो वो *लता मंडप है ,क्योंकि नमाज़ के बाद बादशाह शुकून के लिए यहीं बैठा करते थे, मैं ये सोच रही थी कि पहले के बादशाह अधिक ज्ञानी थे या आज के शासक ,खैर, मेरे अंदर अनेकों सवाल थे। मैं अपने ख्यालों में खो गई और उस वक्त को महसूस करने लगी । मैं लाल किले की शान को देख रही थी । घूमते -,घूमते सूरज कब डूब गया, वक्त का पता ही नहीं चला।रंग बिरंगी रौशनी में नहाया लाल किला बेहद खूबसूरत लग रहा था । मैं अपने बच्चों के साथ सड़क किनारे खड़ी इसे निहार रही थी ।।"
उनके इस संस्मरण के उपर्युक्त अंतिम अनुच्छेद में कही गई दो बातों में पहला- एक "सोच", कि - (1) "बादशाह शाहजहाँ ने कहा था - अगर जमीं पर जन्नत है तो वो *लता मंडप है ,क्योंकि नमाज़ के बाद बादशाह शुकून के लिए यहीं बैठा करते थे," और दूसरा- एक "सवाल", कि- (2) "पहले के बादशाह अधिक ज्ञानी थे या आज के शासक " ... कुछ-कुछ अटपटा-सा लगा। पहली वाली बात या सोच तो किसी के आस्था की बात हो सकती थी, पर दूसरी बात वाले उस सवाल पर मन में कई सवाल कौंध गए। हमने अपने मन में आये कुछ ऊहापोह को उस पोस्ट के नीचे सामान्य प्रतिक्रियास्वरूप लिख डाला कि :-
"आपका आलेख-सह-यात्रा वृत्तांत बहुत ही प्यारा है। पर अंतिम अनुच्छेद में पहले के बादशाह और आज के शासक की तुलनात्मक बात कुछ और भी लिखने के लिए मुझे मज़बूर कर गया, सुबह की व्यस्तता भरी दिनचर्या में भी ...
पहले के बादशाह ज़्यादा ज्ञानी थे और ताकतवर के साथ-साथ क्रूर भी , तभी तो उनके पूर्वज दूर-दराज़ के पड़ोसी देशों से यहाँ आ कर आक्रमण कर के अपना नाजायज़ कब्ज़ा जमाते गए और कई अपने से इतर तथाकथित धर्म-स्थलों को तहस-नहस तो करवाया ही और ज़बरन कइयों को धर्मान्तरण के लिए मज़बूर भी किया, तंग करने के लिए अन्य धर्म वालों पर "जजिया कर" तक लगाया।
ख़ैर ! लाल क़िला भले ही गर्व करने की बात हो, पर दिल्ली तो दूर है, कभी अपने पास के बड़ा गुरुद्वारा के मुख्य द्वार के पास बने अज़ायबघर की दीवारों पर टंगी तस्वीरें झाँक भर लें तो .. उन तथाकथित ज्ञानी बादशाहों की काली करतूतों की शर्मनाक दास्ताँ शर्मसार करने के लिए काफ़ी महसूस होती हैं .. शायद ...
अब आज के शासक भला उतने ज्ञानी तो हो ही नहीं सकते क्योंकि वे ज़बरन नहीं शासक बनते, बल्कि हमारी तथाकथित बुद्धिजीवी आबादी के मतों से ही तो चुन कर आते हैं .. शायद ..."
【 बड़ा गुरुद्वारा,पटना साहिब, पटना के संग्रहालय में इतिहास की चीखों और ख़ून से सनी टंगी तस्वीरों के और उसके नीचे लिखे अनुशीर्षकों के कुछ कोलाज़ हैं, जो बदनाम बादशाहों की क्रूरता को बयान करने के लिए काफ़ी हैं, .. शायद ... सम्बन्धित कई तस्वीरें अंत में भी ..】.
फिर क्या था .. वह अपने फ़ेसबुक पर तो शालीनता के साथ प्रतिदान-प्रतिक्रिया दीं, जिसका screen shot हम नहीं ले पाए। उसके बाद मैसेंजर (Messenger) पर अपनी निम्नलिखित उग्र प्रतिक्रिया देने के बाद .. हमें अपनी तथाकथित मित्रता-सूची से तड़ीपार भी कर दिया। हैरान कर देने वाली उनकी प्रतिक्रिया अक्षरशः :- "नमस्कार भैया मैंने अपनी यादो को लिखा आप भी गुरुद्वारे या सिख समुदाय को मुस्लिम बादशाह ने जो किया लिखे कलम आपकी राजा आप का अखबार आप का लिखे कौन रोक रहा है जितना चाहे लिखे"
प्रतिक्रिया में सबसे चौंकाने वाली बात थी -"राजा आप का"- यहाँ समझ नहीं पाया कि ये "राजा" किस के लिए लिखा गया और "आप का" किसके लिए कहा गया ? यह "राजा" और "आप का" एक प्रश्नवाचक चिन्ह छोड़ गया मन को मथने के लिए .. शायद ...
【आइए इन .. "आप का" और "मेरा" के भेद को मिटाने वाली साहिर लुधियानवी जी की एक रचना, मोहम्मद रफ़ी साहब की आवाज़ में एक पुरानी फ़िल्म- "धूल का फूल" के गाने की शक़्ल में सुनते हैं और इस जाहिलियत से भरे मतभेद (मनभेद) को भुलाने की कोशिश करते हैं .. बस यूँ ही ...】.
अगर आपने अब तक हमारी बतकही झेलने की हिम्मत रखी है, तो अब "राजा आप का .. तड़ीपार ... (भाग-३)". के तहत अपनी बतकही आगे बढ़ाते हुए, जय संतोषी माँ फ़िल्म से जुड़ी और भी रोचक और अनूठी बातों के साथ फिल्मों के सम्मोहन वाले असर के विराट रूप की बातें करते हैं।
पहले इसके सम्मोहन की बात करते हैं। वैसे तो प्रायः फिल्मों को या इस की बातों को हम केवल मनोरंजन का साधन मात्र मानते हैं, परन्तु इसके सम्मोहन वाले असर के विराट रूप का अनुमान तब होता है .. जब हम अपनी एक नज़र दक्षिण भारतीय राजनीति के इतिहास से अब तक के पन्ने टटोलते हैं। दरअसल फिल्मों के शुरूआती दौर में तमिल कलाकारों ने बहुत सारी फिल्मों में पौराणिक कथाओं के किरदारों को निभाया था। जिस के कारण जनता के बीच उनकी छवि धार्मिक भावनाओं से भरी हुई बनती चली गयी। नतीज़न तमिलनाडु के मुख्यमंत्रियों की फ़ेहरिस्त में सी एन अन्नादुराई, एम करूणानिधि, एम जी रामाचंद्रन, उनकी धर्मपत्नी-जानकी रामाचंद्रन, जयराम जयललिता (अम्मा) का नाम और आंध्र प्रदेश में एन टी रामाराव का नाम एक के बाद एक जुड़ना, दक्षिण भारतीय जनता पर फिल्मी सम्मोहन के असर का ही एक सशक्त उदाहरण है। यूँ तो उत्तर भारत में भी फिल्मी दुनिया से अमिताभ बच्चन, शत्रुघ्न सिन्हा, हेमा मालिनी, जया प्रदा, जया भादुड़ी, मनोज तिवारी, स्वरा भास्कर जैसे नाम जुड़े तो जरूर, पर वो रुतबा नहीं हासिल कर पाए कि उन में से कोई मुख्यमंत्री बन सकें। दक्षिण भारतीय फ़िल्म उद्योग (South Film Industry) के चिंरजीवी और पवन कल्याण जैसे फिल्मी कलाकारों ने तो अपनी अलग नयी राजनीतिक दल तक बनाने की हिम्मत दिखायी। अभी कमल हासन और रजनीकांत भी इसी तालिका में जुड़ते दिख रहे हैं।
फिल्म के तिलिस्मी असर के बारे में तब घर के बुज़ुर्गों का कहना था कि आज हमारे बीच हर साल सावनी पूर्णिमा के दिन मनाया जाने वाला रक्षाबन्धन का स्वरुप आज के जैसा नहीं था। तब के समय उस दिन घर पर केवल पंडित (जी) आते थे और घर के सभी सदस्यों को रक्षा कवच के नाम पर मौली सूता कलाई पर बाँध कर, प्रतिदान के रूप में आस्थावान भक्तों के सामर्थ्य और श्रद्धा के अनुरूप दिए गए दक्षिणा को ले कर वापस चले जाते थे। पर बाद में बलराज साहनी और नन्दा अभिनीत छोटीबहन(1959) जैसी फिल्मों के शैलेन्द्र जी के लिखे और लता जी के गाए - "भैया मेरे, राखी के बंधन को निभाना, भैया मेरे, छोटी बहन को न भुलाना, देखो ये नाता निभाना, निभाना, भैया मेरे..." - जैसे मन को छूते गीतों से सम्मोहित (Hypnotize) होने के कारण राखी का त्योहार आज वाले स्वरूप में धीरे-धीरे बदलता चला गया। साथ ही, बहन द्वारा राखी, मिठाई और भाई द्वारा बदले में दिए जाने वाले उपहार; सब मिलाकर आज इस राखी के त्योहार ने भारत को करोड़ों का बाज़ार बना दिया है। ठीक इस वैलेंटाइन डे (Valentine's Day) की तरह जो बाहर से आकर सोशल मीडिया की सीढ़ी चढ़ते हुए, चोर दरवाज़े से हमारे देखते-देखते हमारे बीच आ कर डेरा जमा चुका है।
ये सब परिवर्त्तन बस वैसे ही होता चला गया, जैसे हमारे बुज़ुर्गों ने विदेशों से आने वाली चाय को आने का मौका दिया, तो हमारी युवा पीढ़ी ने चाऊमीन, मोमो, पिज़्ज़ा को बाहर से आने दिया। देखते-देखते ही देश में ही सिगरेट, शराब, पान, खैनी (तम्बाकू) के अलावा गुटखा का भी सेवन होने लगा। अब तो नए व्यसन- ड्रग्स (Drugs) की भी लम्बी फ़ेहरिस्त बन गई है। पर इनके आने में सिनेमा का योगदान कम रहा है .. शायद ...
फ़िल्मों का ही छोटा पर्दा वाला रूप शायद हमारे-आपके घरों में टेलीविजन का पर्दा बन कर आया हुआ है। इसलिए इसके सम्मोहन भी फिल्म जैसे ही हैं। नयी पीढ़ी को तो शायद याद या पता भी ना हो, पर आप अगर अपने जीवन के चार-पाँच दशक या उस से ज्यादा गुजार चुके हैं, तो इसका एक सशक्त प्रमाण आपको अच्छी तरह याद हो शायद कि .. लोगबाग पहली दफ़ा रामायण टी वी सीरियल आने पर नहा-धोकर, अगरबत्ती-आरती जला कर सपरिवार देखने बैठते थे। कई लोग तो सीरियल खत्म होने के बाद ही अपना मुँह जुठाते (?) थे। यहाँ तक तो सनातनी श्रद्धा का प्रभाव कुछ-कुछ समझ में आता था। पर तब के आए हुए एक समाचार के अनुसार, तब एक बीयर बार (Beer Bar) में जीन्स (Jeans) पहने बैठे हुए अरुण गोविल (राम के पात्र को जीने वाले) पर पत्थर से कुछ लोगों ने हमला किया था, कि "आप राम हैं .. तो आप शराब का सेवन नहीं कर सकते।" ये उनके अनुसार उनके राम का अपमान था। च्-च् च् .. तरस आती है उन लोगबाग के नकारात्मक सम्मोहन पर कि वह भूल गए कि वह राम का अभिनय करने वाला एक कलाकार है, सच में राम नहीं। उस कलाकार का निजी जीवन भी है और वह हमारी तरह ही एक इंसान ही है, ना कि तथाकथित भगवान (राम) .. शायद ...
ये कह कर हम कोई पक्षधर नहीं हैं शराब पीने के। वैसे तो मद्यपान और धूम्रपान, दोनों ही बुरी लतें हैं। सेहत के लिए नुकसानदेह भी। प्रसंगवश ये भी बक ही दें कि कभी 'चेन स्मोकर' (Chain Smoker) रहे अरुण गोविल को राम के अभिनय करने के दरम्यान लोगों के गुस्साने पर सिगरेट की लत छोड़नी पड़ी थी, जो बाद में हमेशा के लिए छुट गई थी/है। यह है फिल्मों की फैंटेसी (Fantasy) भरी अजीबोग़रीब दुनिया.. शायद ...
फ़िल्म (Film) देखने के लिए सिनेमा हॉल (Cinema Hall) तक जाना तो होता ही था और उसकी अनुभूति भी किसी टूरिस्ट प्लेस (Tourist Place) घुमने जाने से कम नहीं होती थी। उस दौर में हमारे जैसे मध्यमवर्गीय परिवार के लिए शैम्पू आज की तरह भारतीय बाज़ार में सहज उपलब्ध नहीं होता था, तो मेहा मेडिक्योर कम्पनी (Meha Medicure , Solan, Himachal Pradesh) के पीले रंग के रैपर (Wrapper) में लाल-कत्थई रंग के मशहूर स्वास्तिक शिकाकाई नामक सिर (बाल) और देह, दोनों को चमकाने के लिए, उपलब्ध 'टू इन वन' (2 in 1) साबुन से धुले हुए सिर के हवा में लहराते हुए बाल पर बारम्बार
हाथ फिराते हुए, घर के हैंगर (Hanger) में लटके या लॉन्ड्री (Laundry) के तह लगे कपड़ों में से चुनकर सबसे अच्छा वाला क्रिच लगा पोशाक पहन कर .. किसी समारोह में जाने के जैसा ही बन-ठन कर अभिभावक के साथ सपरिवार सिनेमा हॉल तक सिनेमा/फ़िल्म देखने के लिए जाया जाता था। तब मैटिनी शो (Matinee Show) यानी तीन बजे अपराह्न से छः बजे शाम तक वाली शो लोगों की पसंदीदा शो हुआ करती थी। कभी-कभार गर्मी के मौसम में ईवनिंग शो (Evening Show/शाम छः बजे से रात के नौ बजे तक) भी जाया जाता था। सिनेमा हॉल के टिकट काउंटर (Ticket Counter) पर टिकट उपलब्ध होने के अनुसार चार-पाँच रूपए की डी सी (DC - DressCircle) या तीन-चार रूपये की बी सी (BC - Balcony Class) या फिर दो-ढाई रुपए की स्पेशल क्लास (Special Class) की सीट (Seat) पर बैठ कर फ़िल्म देखी जाती थी। एक-डेढ़ रुपए वाली फ्रंट क्लास (Front Class या General Class) में तो पर्दे पर नायक-नायिका का मुँह टेढ़ा-सा और बड़ा नज़र आता था। उनमें प्रायः निम्न मध्यमवर्गीय लोग देखा करते थे। कभी-कभार धार्मिक या देशभक्ति फिल्मों को राज्य-सरकार द्वारा कर-मुक्त कर देने पर या बाद में बने स्थायी नियम के तहत विद्यार्थी रियायत दर (Student Concession Rate) पर, फिल्म देखने में कुछ अलग ही आनन्द मिलता था।
पूरे साल भर में दो या तीन फ़िल्मों को देखने का मौका मिल जाता था तो बहुत होता था। स्कूल (School) में जो भी सहपाठी अपने अभिभावक के साथ किसी विगत छुट्टी के दिन फ़िल्म देख कर स्कूल आता था, तो उसके चेहरे पर एक अलग तरह की मुस्कान टपक रही होती थी। उस दिन जलपान की छुट्टी (Tiffin Time) में सारे खेल स्थगित कर के हम सारे सहपाठी मित्रगण उसको घेर के बैठ जाते थे और वह सिनेमा देख कर आया हुआ मित्र मानो किसी लोकप्रिय कुशल आर. जे. (रेडियो जॉकी/Radio Jockey) की तरह पूरी फ़िल्म का बखान कर देता था। हम सब भी रेडियो पर आकाशवाणी द्वारा विविध-भारती कार्यक्रम के तहत प्रसारित होने वाले हवामहल जैसे मनोरंजक नाटक की तरह सुन कर खुश हुआ करते थे। अगली बार कोई दूसरा छात्र या दूसरी छात्रा, वही सिनेमा देख कर आते तो वह अपने तरीके से सुनाता/सुनाती और पहले वाले की कमियों को गिनाता/गिनाती कि पहला वाला तो फलां-फलां सीन (Scene) या डॉयलॉग (Dialogue) के बारे में तो बतलाना ही भूल गया था। तब चॉकलेट-टॉफी के साथ उपहारस्वरूप मिलने वाले या अलग से बिकने वाले फ़िल्मी कलाकारों के तरह-तरह के पोस्टर और स्टीकर जमा करने का भी एक अलग ही शग़ल था।
दसवीं कक्षा की बोर्ड परीक्षा (Board Exam.) पास (Pass) हो जाने के बाद नदिया के पार या सावन को आने दो जैसी फ़िल्मों को दोस्तों के साथ देखने की अनुमति मिलने लगी थी। वैसे भी तब राजश्री प्रोडक्शन की फ़िल्में रूमानी होने के बावज़ूद भी पारिवारिक मानी जाती थीं। ऐसा इस लिए कह रहा हूँ क्योंकि रुमानियत को पाप मानते थे तब या आज भी अनेक जगहों पर। तभी तो 'ऑनर किलिंग' (Honour Killing) का मामला आज भी हमारे कई समाज में सिर उठाए खड़ा है। है कि नहीं ? .. ओमपुरी-स्मिता पाटिल की आक्रोश फिल्म से कला फिल्मों (Art Movies) का चस्का लगा था, जो आज तक बरकरार है।
तब कुछ लोगों में फ़िल्म आने के पहले दिन ही पहला शो को देखने का या एक फ़िल्म को कई बार देखने का एक शग़ल होता था। सिनेमा की टिकटें ब्लैक (गैरकानूनी तरीके से उचित मूल्य से ज्यादा क़ीमत पर क्रय-विक्रय) में बेचीं और ख़रीदी भी जाती थी। बचपन में जीवन का यह पहला अनुभव था, क़ानून और प्रशासन की आँखों के सामने होने वाली किसी कालाबाजारी की। संभ्रांत समाज में ऐसे लोगों की छवि अच्छी नहीं होती थी।
तब का सिनेमा हॉल आज के 'मल्टीप्लेक्स' (Multiplex) की तरह 'पुश बैक' (Push back) कुर्सी से सुसज्जित पुश बैक कुर्सी की तरह ही मखमली, आरामदायक और भव्य ना होकर; किसी कोल्ड स्टॉरेज (Cold Storage) की इमारत की तरह होता था। तब ना तो हॉल में ए सी (AC) होता था, बल्कि हॉल के दीवारों व छत पर लगे बड़े-बड़े पंखे चलते रहते थे। ना ही आज की तरह स्टीरियोफोनिक डॉल्बी साउंड सिस्टम (Stereophonic Dolby Sound System) थे। पर हाँ, ईस्टमैन कलर (Eastman Color) वाली रंगीन फिल्में बाद में आने लगी थीं।
आज के मल्टीप्लेक्स की तरह तब मंहगे पॉपकॉर्न (Popcorn) या समोसे जैसे मंहगे स्नैक्स (Snax) भी नहीं मिला करते थे। बल्कि लोग दस पैसे के टनटन भाजा (मतलब नमकीन मिक्सचर (Mixture)) या चवन्नी (पच्चीस पैसे) के समोसे खा कर, दो रुपए के
दो सौ मिलीलीटर वाली बोतल में डीप फ्रीजर (Deep Freezer) वाला ठंडा कोका-कोला (Coca-Cola) या फैंटा (Fanta) पीकर आह्लादित हो जाते थे। साथ ही अंत में हॉल से निकलते वक्त बाहर ही बिक रहे दस पैसे की उसी फ़िल्म के गाने की किताब खरीद कर और वो किताब हाथ में लेकर, हम लोग जैसे मध्यमवर्गीय परिवार के लोगों को रिक्शा पर बैठ कर घर लौटते हुए मुहल्ले में प्रवेश करने पर किसी खेल में जीते गए शील्ड (Shield) को लेकर लौटने का एहसास होता था। चेहरे पर एक मुस्कान लिए घर लौटते समय लगता था, मानो किसी पर्यटन स्थल का दौरा कर के लौट रहें हैं। चूँकि मनोरंजन (?) के लिए आज की तरह कई-कई टीवी चैनलों, सीरियलों या यूट्यूब की बाढ़ या यूँ कहें कि सुनामी-सी नहीं थी उस ज़माने में; तो साल-छः महीने में देखी गई एक फ़िल्म कई-कई दिनों तक दिमाग में तारी रहती थी और एक दिलचस्प चर्चा का विषय बना रहता था।
अब जय संतोषी माँ फिल्म की अपरम्पार महिमा की और भी बातें दुहरा लेनी चाहिए। उस फिल्म को दिखाने वाले सिनेमा घर-रूपक के मालिक ने हॉल के बाहर प्रांगण में ही बजाप्ता एक अस्थायी मन्दिर का निर्माण करवा कर सन्तोषी माता की एक विशाल मूर्ति की स्थापना करवा दी थी। शो के दरम्यान धोती और जनेऊ से सुसज्जित हुए एक तिलकधारी और तोंदधारी भी, पंडी (पंडित) जी वहाँ लगातार तैनात रहते थे। विशेषकर हर शो के शुरू होने के समय वह आरती करते और लोगों का चढ़ावा दोनों हाथों से बटोरते। बल्कि इस बटोरने के लिए दो-चार और लोग भी बहाल थे पंडी जी के सहयोग में, जो तथाकथित आस्थावान भक्तगणों के हाथों से अगरबत्ती, नारियल, फूल-माला, चुनरी-साड़ी, मुख्य रूप से प्रसादस्वरूप गुड़-चने के अतिरिक्त विभिन्न प्रकार की मिठाईयों के डिब्बे तथाकथित भक्तिभाव से ले-ले कर जमा करते थे।
वैसे धर्म-ग्रंथों में इन देवी की चर्चा कहीं है भी या नहीं, पता नहीं ; पर इनकी व्रत-कथा के आधार पर फिल्मकार ने फ़िल्म में इनको चूहे की सवारी करने वाले और हाथी के सिर वाले तथाकथित गणेश भगवान की बेटी बतलाया था। सिनेमा हॉल वाले मन्दिर के सामने महिलाओं और पुरुषों की अलग-अलग लम्बी-लम्बी कतारें लगी रहती थी। लोग आरती लेकर (?) और पंडी जी (?) से टीका लगवा कर ही सिनेमा देखने के लिए हॉल में प्रवेश करते थे। तीन साल से कुछ ज़्यादा ही बिहार की राजधानी पटना शहर के एक ही हॉल- रूपक में टिकी रही थी ये फ़िल्म। तब लोगों का अनुमान था कि इसके मालिक ने टिकट से ज्यादा तो चढ़ावे से कमाया होगा। वैसे इसके व्रत-कथा की पुस्तिका और कई आकारों में तस्वीरें छापने वाली प्रेसों ने भी खूब कमाया। जैसे टी वी सीरियल रामायण आने के बाद बाज़ारों के तथाकथित राम (तस्वीरों) में अरुण गोविल नज़र आने लगे थे/हैं, वैसे ही इस फ़िल्म के बाद संतोषी माता की तस्वीरों में अनिता गुहा नज़र आने लगी थीं।
कुछ जानकारों से पता चलता था कि अगले दिन उस अस्थायी मन्दिर की वही सारी एकत्रित पूजन सामग्रियाँ आसपास कुकुरमुत्ते की तरह नयी खुली हुई पूजन-सामग्री की उन्हीं दुकानों में कुछ कीमत कम कर के पुनः बेचने के लिए भेज दी जाती थी; जहाँ से भक्तगण इसको खरीद कर एक दिन पहले चढ़ावा चढ़ाते थे। जैसे .. अक़्सर ब्राह्मण लोग श्राद्ध के तहत दान में मिले तकिया-तोशक, कम्बल-दरी, बर्त्तन, खटिया-चौकी इत्यादि पुनः उन्हीं दुकानों को बेच देते हैं तथा हम और हमारा (अंध)आस्थावान समाज इस मुग़ालते में रहता है, कि पंडी जी इसका उपयोग/उपभोग करेंगे तो .. हमारे मृत परिजन के अगले जन्म लेने तक इसका तथाकथित सुख तथाकथित स्वर्ग में आसानी से मिलता रहेगा .. शायद ...
तब तो मुहल्ले-शहर के हर तीसरे-चौथे हिन्दू घर में शुक्रवार को इनकी पूजा कर के उपवास रखने वाली महिलाएं मिल ही जाती थीं, जो सोलह शुक्रवार के बाद इस व्रत-कथा का उद्यापन करती थीं। उद्यापन के दिन शाम में आस-पड़ोस से पाँच, सात, नौ या ग्यारह की विषम संख्या में बच्चों को प्रसादस्वरूप शुद्ध शाकाहारी भोजन के रूप में खीर, पूड़ी, चना-आलू की सब्जी के अलावा कुछ मिठाइयाँ भी घर में बैठा कर बहुत ही आदरपूर्वक और श्रद्धापूर्वक खिलायी जाती थी। प्रत्येक शुक्रवार की तरह चना-गुड़ वाला प्रसाद भी मिलता था। साथ में एक-दो रूपये नक़द भी मिलते थे दक्षिणास्वरूप। बस, शर्त ये होती थी कि उस दिन कुछ भी खट्टा नहीं खाना होता था, वर्ना उस बच्चे को उस उद्यापन के भोज से वंचित रह जाना पड़ता था। क्योंकि मान्यताओं के अनुसार उस व्रत में खट्टा खाना पूर्णतः वर्जित था। खट्टा खा कर प्रसाद खाने से अनिष्ट होने का तथाकथित भय रहता था। पढ़ने का ज्ञान होने के बावज़ूद भी सत्यनारायण स्वामी की कथा को किसी पंडित(ब्राह्मण) से ही पढ़वाने जैसी कोई पाबन्दी इस व्रत-कथा में नहीं होती थी। इसी कारण से व्रत के दौरान प्रत्येक शुक्रवार को एक दिन में आस-पड़ोस के दो-तीन घरों में कथा पढ़ने के लिए बुलावा आने पर जाना पड़ता था। ऐसे में उद्यापन के दिन खिलाते समय कथावाचक पर विशेष ध्यान दिया भी जाता था।
आसपास किसी को किसी भी समस्या का हल चाहिए होता था, तो सब कहते- "सन्तोषी माता है ना ! बस .. सोलह शुक्रवार कर लो .. और मिल जाएगा समस्या का समाधान .. बस यूँ ही ... चुटकी बजा के हो जाएगा।" परन्तु कई व्रत करने वाली महिलाओं को विधवा होते भी देखा, अन्य और भी कई कारणों से उनके घर को उजड़ते देखा, उनके बच्चों को कई बार फेल होते देखा, मुक़दमा हारते हुए देखा, बीमार होते हुए देखा। वैसे तो आज हमारे समाज में वो सोलह शुक्रवार वाला परिदृश्य इतिहास बन चुका है। नयी पीढ़ी को तो इसके बारे में कोई भान या अनुमान भी ना हो .. शायद ...
ख़ैर ! .. बहुत हो गई फिल्मों और भाषाओं की बतकही .. अब "राजा आप का .. तड़ीपार ... (भाग-४)." में बकैती करते हैं, विस्तार से राजा आपका और तड़ीपार की .. बस यूँ ही ...
(तब तक आगामी सावनी पूर्णिमा की फैंटेसी (फंतासी) में अभी से खोने के लिए नीचे वाले गाने की लिंक को छेड़ भर दीजिए .. बस यूँ ही ...).
अब आज "राजा आप का .. तड़ीपार ... (भाग-२)." की तख़्ती पर फ़िल्मों के बहाने अंजानी भाषाओं के अंजाने शब्दों के साथ-साथ अपनी कई आपबितियों की भी बतकही को आगे पसारने की कोशिश करते हैं।
हाँ .. तो .. "राजा आप का .. तड़ीपार ... (भाग-१)." के तहत अन्त में बात हो रही थी- सन् 1993 ईस्वी में फ़िल्म ग़ुलामी की तरह ही संयोगवश मिथुन चक्रवर्ती की ही एक और फ़िल्म आने के बाद फिर से एक अंजान शब्द से पल्ले पड़ने की। वह शब्द था, उस फ़िल्म का नाम- "तड़ीपार"। दरअसल .. यूँ तो बचपन में शैतानी से किसी के सिर पर चपत लगाने के लिए स्थानीय बोली में तड़ी मारना शब्द तो सुना था। पर तड़ीपार का शाब्दिक अर्थ बाद में जानकारों से जान पाया कि इसका अर्थ होता है- निर्वासन यानी देश निकाला। मतलब किसी दोषी को उसके किसी गैरकानूनी कृत्य के लिए या फिर किसी विशेष संक्रमण से संक्रमित किसी रोगी को बलपूर्वक कुछ नियत समय के लिए या हमेशा-हमेशा के लिए घर, गाँव, मुहल्ले, शहर या देश से बलपूर्वक निकाल देना।
अंजान शब्दों की बातें करते-करते बीच-बीच में कुछ फ़िल्मी बातें भी होती रहें तो हमारा मनोरंजन होता रहता है। है कि नहीं ? ... दरअसल सत्तर-अस्सी के दशक तक हमारे कई समाज में, जिनमें एक हमारा समाज भी था, गाने में प्रयुक्त शब्द या फ़िल्म के नाम वाले शब्द का अर्थ एकदम से घर में या शिक्षक से पूछना या उसकी चर्चा करना, अनुशासनहीनता मानी जाती थी। तब फ़िल्में देख पाना भी आज की तरह इतना सहज़-सुलभ और आसान नहीं था। जितना कि आज .. स्मार्ट फ़ोन (Smart Phone) के स्क्रीन (Screen) पर उंगलियाँ दौड़ाने-फिसलाने भर से पलक झपकते ही स्क्रीन पर मनपसंद फ़िल्मों के गाने या कई सारी पूरी की पूरी फ़िल्में ही/भी हमारी इंद्रियों को फ़ौरन तृप्त करने में लग जाती हैं। उस दौर में तो अभिभावक की मर्ज़ी से फ़िल्म देखने की अनुमति मिलती थी, जो बच्चों या किशोरों के लिए अभिभावकों की नज़र में उचित होती थी। अधिकांशतः तो उन लोगों के साथ ही जाना होता था। और फ़िल्में भी कैसी-कैसी ? .. बिहार (तत्कालीन बिहार = वर्तमान बिहार + वर्तमान झाड़खण्ड) की राजधानी पटना के सिनेमाई पर्दे पर दोबारा-तिबारा आयी हुई पुरानी श्वेत-श्याम फ़िल्में- दो बीघा जमीन, जिस देश में गंगा बहती है, मुग़ल-ए-आज़म, दोस्ती या फिर रंगीन फ़िल्में- वक्त (पुरानी), मदर इंडिया, हाथी मेरे साथी, आराधना, एक फूल दो माली, जानवर और इंसान, रानी और लाल परी, हक़ीकत (पुरानी), आँखें (पुरानी), अमन, अनुराग, अँगूर, खट्टा-मिट्ठा, गोलमाल (पुरानी), रोटी कपड़ा और मकान, शोर, जय संतोषी माँ जैसी फ़िल्में ही दिखलाने के लिए ले जाया जाता था।
इसके अलावा जब एक ही फ़िल्म, एक ही सिनेमा हॉल में तीन-तीन साल तक अपने चारों या पाँचों शो (Show) के साथ टिकी रह जाती थी, तो लोकप्रियता के कारण शोले जैसी फ़िल्म पटना के एलफिंस्टन (Elphinstone) सिनेमा हॉल में देखने के लिए मिल जाती थी। छुटपन में शोले हो या जिस देश में गंगा बहती है, इन फिल्मों के डाकूओं द्वारा की जाने वाली गोलीबारी या मारधाड़ वाले दृश्यों के आने पर हॉल ही में कुर्सी के नीचे डर कर रोते हुए छुप जाने वाली बात पर, आज ख़ासकर तब स्वयं पर हँसी आती है, जब कभी भी आज दो-तीन साल के बच्चों को भी मोबाइल पर गेम (Game) खेलते हुए आराम से 'ठायँ-ठायँ', 'ढ-ढ-ढ-ढ' कर के बन्दूक चलाते हुए देखता हूँ।
उन दिनों राजकपूर जी की मेरा नाम जोकर नामक फ़िल्म सामान्य से तुलनात्मक ज़्यादा लम्बी अवधि की फ़िल्म होने के कारण इसके होने वाले दो मध्यांतरों (Intervals) का भी एक अलग रोमांच और कौतूहल था, जिस कारणवश मेरा नाम जोकर को भी पटना के अशोक सिनेमा हॉल में देखने का अवसर मिल पाया था। पद्म विभूषण व साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित एक प्रसिद्ध लेखक- आर॰ के॰ नारायण के उपन्यास पर आधारित फ़िल्म होने के कारण गाइड फ़िल्म को भी देखने का अवसर मिला था। तब "काँटों से खींच के ये आँचल, तोड़ के बंधन बाँधी पायल" या फिर "ओ मेरे हमराही ! मेरी बाँह थामे चलना" जैसे गीतों का भावार्थ कम ही समझ में आता था। बस यह लगता था कि नायक-नायिका अभी खुश हैं, इसी कारण से दोनों ख़ुशी में गा रहे हैं- "गाता रहे मेरा दिल, तू ही मेरी मंज़िल, हाय ~~, कहीं बीते ना ये रातें, कहीं बीते ना ये दिन, .. गाता रहे मेरा दिल ..~~ ..."
सन् 1972 ई. में आयी मनोज कुमार की शोर फ़िल्म संयोग से पटना के तत्कालीन आधुनिकतम तकनीक से सुसज्जित अप्सरा नामक नए सिनेमा हॉल में आयी थी। यह पटना के प्रसिद्ध गाँधी मैदान के दक्षिण की ओर, एक्सिबिशन रोड के उत्तरी छोर पर अवस्थित था। "था" इस लिए बोल रहा हूँ, क्योंकि वर्तमान में मल्टीप्लेक्स युग आने के कारण यह पटना के और भी कई पुराने गोदामनुमा सिनेमा हॉलों की तरह वर्षों से बन्द पड़ा है। अप्सरा सिनेमा हॉल के उद्घाटन के दिन वाले शोर फ़िल्म के इकलौते शो का निमंत्रण-सह-प्रवेश पत्र मेरे अभिभावक को भी मिला था। हमलोग गए भी शोर फ़िल्म, वो भी नए हॉल में पहला दिन, देखने के लिए। मध्यांतर (Interval) में समोसा-कचौड़ी और मिठाई से भरा एक-एक स्नैक्स-बॉक्स (Snax Box) भी सभी निमन्त्रित दर्शकगण को हॉल के मालिक की ओर से बाँटा गया। छः वर्ष की उम्र में तो अपनी ख़ुशी का कोई ठिकाना ही नहीं था। मानो खुशियों का खज़ाना मिल गया था।
इसमें सोने पर सुहागा वाली एक और बात ये हुई थी कि इस फिल्म में ख़ान बादशाह के क़िरदार को निभाने वाले प्रेमनाथ जी उस दिन अपनी इंडियन एयरलाइन्स (Indian Airlines) की फ्लाइट/उड़ान (Flight) में किसी तकनीकी कारण से बिलम्ब होने के कारण उस अप्सरा सिनेमा हॉल के पास के ही इंडिया होटल (India Hotel) में ठहराए गए थे। तब पटना का यह आलीशान (Posh) होटल हुआ करता था। उस समय तो गाँधी मैदान में बीचोबीच खड़ा हो कर चारों ओर नज़रें घुमाने पर इकलौती सबसे ऊँची बिल्डिंग (Building) आरबीआई (RBI - Reserve Bank of India) की बिल्डिंग ही नज़र आती थी। पर आज तो चारों ओर के ज्ञान भवन और उसके प्रांगण में अवस्थित बापू सभागार व सभ्यता द्वार, श्री कृष्ण मेमोरियल हॉल, ट्विन टॉवर-बिज़नेस सेंटर्स (Twin Tower-Business Centres), पाँच सितारा मौर्या होटल, दो-दो गगनचुम्बी बिस्कोमान भवन, जिनमें से एक के ऊपर एक रिवॉल्विंग रेस्टुरेन्ट (Revolving Resturant)- पिंड बालूची (Pind Balluchi), एलफिंस्टन (Elphinstone) और मोना सिनेमा के मल्टीप्लेक्स (Multiplex) वाली बिल्डिंग के समक्ष आरबीआई की बिल्डिंग तो मानो 'गुलिवर्स ट्रेवल्स' (Gulliver's Travels) के उस 'गुलिवर' के सामने 'लिलिपुट' की तरह प्रतीत होती है।
हाँ तो .. बातों-बातों में अप्सरा सिनेमा हॉल, शोर फिल्म और प्रेमनाथ जी की बातें कहीं और भटक गई। ख़ैर ! ... जब प्रेमनाथ जी को यह पता चला कि उनकी फ़िल्म शोर से ही यहाँ किसी नए हॉल का उद्घाटन हो रहा है तो, वह मध्यांतर में आकर अपनी अदा और आवाज़ के साथ हँसते हुए सभी को सम्बोधित किए थे। तब पटना की आबादी आज के पटना की तरह, गंगा नदी पर उत्तरी बिहार को पटना से जोड़ने वाले पुल- गाँधी सेतु को 1980 में चालू होने के बाद, घनी-बढ़ी आबादी वाली नहीं हुआ करती थी। तब भी और आज भी फ़िल्मी कलाकारों को देखना, उन से मिलना, हाथ मिलाना, ऑटोग्राफ (Autograph) लेना, अब तो सेल्फ़ी (Selfie) लेना भी एक सनक (Craze) तो है ही ना .. शायद ...
साहित्य की कोख़ से ही जन्मी फ़िल्में भी साहित्य की तरह ही किसी भी कोमल मन पर सहज़ ही अपनी गहरी छाप छोड़ जाती हैं। बचपन में देखी गई फ़िल्म- वक्त (बलराज साहनी वाली) का असर कुछ ऐसा पड़ा था बालमन पर; कि आज तक .. किसी भी बात पर रत्ती भर भी घमंड मन में पनपना चाहता भी है, तो वक्त फ़िल्म में "ऐ मेरी ज़ोहरा-ज़बीं तुझे मालूम नहीं, तू अभी तक है हंसीं और मैं जवाँ .. तुझपे क़ुरबान मेरी जान, मेरी जान" ... वाले गाने के बाद वो अचानक आया क़ुदरती क़हर- भूकम्प की याद ताजा हो जाती है। इस फ़िल्म ने तभी से छुटपन में ही प्रकृति या समय से सहम कर जीना समझा दिया था। आज भी किसी भी बात पर गर्दन अकड़ाने की हिम्मत या नौबत नहीं आती है और ताउम्र आएगी भी नहीं या आनी भी नहीं चाहिए .. शायद ...
और हाँ ... फ़िल्म जय संतोषी माँ फ़िल्म की तो कुछ अलग ही महिमा देखी गई थी। देश भर में हिन्दी भाषी अन्य राज्यों के शहरों-गाँवों का तो नहीं पता, पर बिहार की राजधानी पटना के रूपक सिनेमा हॉल का तो पता है, कि पर्दे पर जब-जब फ़िल्मी अवतार के रूप में तथाकथित संतोषी माता परंपरागत सिनेमाई "ढन-ढनाक" वाली आवाज़ (संगीत) के साथ अवतरित होतीं थीं .. अपनी दुखियारी भक्तिन की विपदा की घड़ी में उसके दुःख भरे गाने- "मदद करो हे संतोषी माता ~~~" की समाप्ति पर; तब-तब दर्शकगण में से अधिकांश लोगों द्वारा उनकी अपनी हैसियत और श्रद्धा के मुताबिक सिनेमा हॉल में पर्दे की तरफ, मतलब फ़िल्मी संतोषी माँ की तरफ, तत्कालीन प्रचलन वाले पाँच, दस, बीस, पच्चीस (चवन्नी), पचास (अठन्नी) पैसे या एक रुपए के सिक्के, फूल-माले उछाले जाते थे। कई बार पीछे से या ऊपर के डी सी, बी सी (DC, BC) क्लास (class) के दर्शकों द्वारा उछाले गए सिक्के अपनी रफ़्तार वाले संवेग से आगे बैठे हुए कई दर्शकों के कान या सिर चोटिल कर देते थे। लगभग प्रत्येक शो के बाद सिक्के हॉल में इतना ज़्यादा जमा हो जाते थे कि हर शो के बाद सारे सिक्के बुहार कर सिनेमा हॉल के कर्मचारियों द्वारा बोरे में भरे जाते थे। जिस कारण से हर अगला शो आधे घन्टे-पैंतालीस मिनट देर से ही शुरू हो पाता था।
वैसे तो प्रायः फिल्मों को या इस की बातों को हम केवल मनोरंजन का साधन मात्र मानते हैं, परन्तु इसके सम्मोहन के असर के विराट रूप का अनुमान तो तब होता है .. जब हम अपनी एक नज़र ...... फ़िलहाल तो हम अपनी आँखों को थोड़ा विश्राम दे लें आज अभी और फिर कल मिलते हैं "राजा आप का .. तड़ीपार ... (भाग-३)". के तहत जय संतोषी माँ फ़िल्म से जुड़ी और भी रोचक और अनूठी बातों को लेकर। साथ ही फिल्मों के सम्मोहन वाले असर के विराट रूप की बातों के साथ .. बस यूँ ही ...
(तब तक अगर आपके पास समय हो तो गाइड फ़िल्म के इस लोकप्रिय और सदाबहार गाने से अपने मन के तार को छेड़ने के लिए इस की साझा की गई लिंक को छेड़ने की बस ज़हमत भर कीजिए ... .. बस यूँ ही ...)