Saturday, June 5, 2021

राजा आप का .. तड़ीपार ... (भाग-२).

अब आज "राजा आप का .. तड़ीपार ... (भाग-२)." की तख़्ती पर फ़िल्मों के बहाने अंजानी भाषाओं के अंजाने शब्दों के साथ-साथ अपनी कई आपबितियों की भी बतकही को आगे पसारने की कोशिश करते हैं।

हाँ .. तो .. "राजा आप का .. तड़ीपार ... (भाग-१)."  के तहत अन्त में बात हो रही थी- सन् 1993 ईस्वी में फ़िल्म ग़ुलामी की तरह ही संयोगवश मिथुन चक्रवर्ती की ही एक और फ़िल्म आने के बाद फिर से एक अंजान शब्द से पल्ले पड़ने की। वह शब्द था, उस फ़िल्म का नाम- "तड़ीपार"। दरअसल .. यूँ तो बचपन में शैतानी से किसी के सिर पर चपत लगाने के लिए स्थानीय बोली में तड़ी मारना शब्द तो सुना था। पर तड़ीपार का शाब्दिक अर्थ बाद में जानकारों से जान पाया कि इसका अर्थ होता है- निर्वासन यानी देश निकाला। मतलब किसी दोषी को उसके किसी गैरकानूनी कृत्य के लिए या फिर किसी विशेष संक्रमण से संक्रमित किसी रोगी को बलपूर्वक कुछ नियत समय के लिए या हमेशा-हमेशा के लिए घर, गाँव, मुहल्ले, शहर या देश से बलपूर्वक निकाल देना।

अंजान शब्दों की बातें करते-करते बीच-बीच में कुछ फ़िल्मी बातें भी होती रहें तो हमारा मनोरंजन होता रहता है। है कि नहीं ? ... दरअसल सत्तर-अस्सी के दशक तक हमारे कई समाज में, जिनमें एक हमारा समाज भी था, गाने में प्रयुक्त शब्द या फ़िल्म के नाम वाले शब्द का अर्थ एकदम से घर में या शिक्षक से पूछना या उसकी चर्चा करना, अनुशासनहीनता मानी जाती थी। तब फ़िल्में देख पाना भी आज की तरह इतना सहज़-सुलभ और आसान नहीं था। जितना कि आज .. स्मार्ट फ़ोन (Smart Phone) के स्क्रीन (Screen) पर उंगलियाँ दौड़ाने-फिसलाने भर से पलक झपकते ही स्क्रीन पर मनपसंद फ़िल्मों के गाने या कई सारी पूरी की पूरी फ़िल्में ही/भी हमारी इंद्रियों को फ़ौरन तृप्त करने में लग जाती हैं। उस दौर में तो अभिभावक की मर्ज़ी से फ़िल्म देखने की अनुमति मिलती थी, जो बच्चों या किशोरों के लिए अभिभावकों की नज़र में उचित होती थी। अधिकांशतः तो उन लोगों के साथ ही जाना होता था।
और फ़िल्में भी कैसी-कैसी ? .. बिहार (तत्कालीन बिहार = वर्तमान बिहार + वर्तमान झाड़खण्ड) की राजधानी पटना के सिनेमाई पर्दे पर दोबारा-तिबारा आयी हुई पुरानी श्वेत-श्याम फ़िल्में- दो बीघा जमीन, जिस देश में गंगा बहती है, मुग़ल-ए-आज़म, दोस्ती या फिर रंगीन फ़िल्में- वक्त (पुरानी), मदर इंडिया, हाथी मेरे साथी, आराधना, एक फूल दो माली, जानवर और इंसान, रानी और लाल परी, हक़ीकत (पुरानी), आँखें (पुरानी), अमन, अनुराग, अँगूर, खट्टा-मिट्ठा, गोलमाल (पुरानी), रोटी कपड़ा और मकान, शोर, जय संतोषी माँ जैसी फ़िल्में ही दिखलाने के लिए ले जाया जाता था।

इसके अलावा जब एक ही फ़िल्म, एक ही सिनेमा हॉल में तीन-तीन साल तक अपने चारों या पाँचों शो (Show) के साथ टिकी रह जाती थी, तो लोकप्रियता के कारण शोले जैसी फ़िल्म पटना के एलफिंस्टन (Elphinstone) सिनेमा हॉल में देखने के लिए मिल जाती थी। छुटपन में शोले हो या जिस देश में गंगा बहती है, इन फिल्मों के डाकूओं द्वारा की जाने वाली गोलीबारी या मारधाड़ वाले दृश्यों के आने पर हॉल ही में कुर्सी के नीचे डर कर रोते हुए छुप जाने वाली बात पर, आज ख़ासकर तब स्वयं पर हँसी आती है, जब कभी भी आज दो-तीन साल के बच्चों को भी मोबाइल पर गेम (Game) खेलते हुए आराम से 'ठायँ-ठायँ', 'ढ-ढ-ढ-ढ' कर के बन्दूक चलाते हुए देखता हूँ।

उन दिनों राजकपूर जी की मेरा नाम जोकर नामक फ़िल्म सामान्य से तुलनात्मक ज़्यादा लम्बी अवधि की फ़िल्म होने के कारण इसके होने वाले दो मध्यांतरों (Intervals) का भी एक अलग रोमांच और कौतूहल था, जिस कारणवश मेरा नाम जोकर को भी पटना के अशोक सिनेमा हॉल में देखने का अवसर मिल पाया था। पद्म विभूषण व साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित एक प्रसिद्ध लेखक- आर॰ के॰ नारायण के उपन्यास पर आधारित फ़िल्म होने के कारण गाइड फ़िल्म को भी देखने का अवसर मिला था। तब "काँटों से खींच के ये आँचल, तोड़ के बंधन बाँधी पायल" या फिर "ओ मेरे हमराही ! मेरी बाँह थामे चलना" जैसे गीतों का भावार्थ कम ही समझ में आता था। बस यह लगता था कि नायक-नायिका अभी खुश हैं, इसी कारण से दोनों ख़ुशी में गा रहे हैं-  "गाता रहे मेरा दिल, तू ही मेरी मंज़िल, हाय ~~, कहीं बीते ना ये रातें, कहीं बीते ना ये दिन, .. गाता रहे मेरा दिल ..~~ ..."
सन् 1972 ई. में आयी मनोज कुमार की शोर फ़िल्म संयोग से पटना के तत्कालीन आधुनिकतम तकनीक से सुसज्जित अप्सरा नामक नए सिनेमा हॉल में आयी थी। यह पटना के प्रसिद्ध गाँधी मैदान के दक्षिण की ओर, एक्सिबिशन रोड के उत्तरी छोर पर अवस्थित था। "था" इस लिए बोल रहा हूँ, क्योंकि वर्तमान में मल्टीप्लेक्स युग आने के कारण यह पटना के और भी कई पुराने गोदामनुमा सिनेमा हॉलों की तरह वर्षों से बन्द पड़ा है। अप्सरा सिनेमा हॉल के उद्घाटन के दिन वाले शोर फ़िल्म के इकलौते शो का निमंत्रण-सह-प्रवेश पत्र मेरे अभिभावक को भी मिला था। हमलोग गए भी शोर फ़िल्म, वो भी नए हॉल में पहला दिन, देखने के लिए। मध्यांतर (Interval) में समोसा-कचौड़ी और मिठाई से भरा एक-एक स्नैक्स-बॉक्स (Snax Box) भी सभी निमन्त्रित दर्शकगण को हॉल के मालिक की ओर से बाँटा गया। छः वर्ष की उम्र में तो अपनी ख़ुशी का कोई ठिकाना ही नहीं था। मानो खुशियों का खज़ाना मिल गया था।

इसमें सोने पर सुहागा वाली एक और बात ये हुई थी कि इस फिल्म में ख़ान बादशाह के क़िरदार को निभाने वाले प्रेमनाथ जी उस दिन अपनी इंडियन एयरलाइन्स (Indian Airlines) की  फ्लाइट/उड़ान (Flight) में किसी तकनीकी कारण से बिलम्ब होने के कारण उस अप्सरा सिनेमा हॉल के पास के ही इंडिया होटल (India Hotel) में ठहराए गए थे। तब पटना का यह आलीशान (Posh)  होटल हुआ करता था। उस समय तो गाँधी मैदान में बीचोबीच खड़ा हो कर चारों ओर नज़रें घुमाने पर इकलौती सबसे ऊँची बिल्डिंग (Building) आरबीआई (RBI - Reserve Bank of India) की बिल्डिंग ही नज़र आती थी। पर आज तो चारों ओर के ज्ञान भवन और उसके प्रांगण में अवस्थित बापू सभागार व सभ्यता द्वार, श्री कृष्ण मेमोरियल हॉल, ट्विन टॉवर-बिज़नेस सेंटर्स (Twin Tower-Business Centres), पाँच सितारा मौर्या होटल, दो-दो गगनचुम्बी बिस्कोमान भवन, जिनमें से एक के ऊपर एक रिवॉल्विंग रेस्टुरेन्ट (Revolving Resturant)- पिंड बालूची (Pind Balluchi), एलफिंस्टन (Elphinstone) और मोना सिनेमा के मल्टीप्लेक्स (Multiplex) वाली बिल्डिंग के समक्ष आरबीआई की बिल्डिंग तो मानो 'गुलिवर्स ट्रेवल्स' (Gulliver's Travels) के उस 'गुलिवर' के सामने 'लिलिपुट' की तरह प्रतीत होती है।

हाँ तो .. बातों-बातों में अप्सरा सिनेमा हॉल, शोर फिल्म और प्रेमनाथ जी की बातें कहीं और भटक गई। ख़ैर ! ... जब प्रेमनाथ जी को यह पता चला कि उनकी फ़िल्म शोर से ही यहाँ किसी नए हॉल का उद्घाटन हो रहा है तो, वह मध्यांतर में आकर अपनी अदा और आवाज़ के साथ हँसते हुए सभी को सम्बोधित किए थे। तब पटना की आबादी आज के पटना की तरह, गंगा नदी पर उत्तरी बिहार को पटना से जोड़ने वाले पुल- गाँधी सेतु को 1980 में चालू होने के बाद, घनी-बढ़ी आबादी वाली नहीं हुआ करती थी। तब भी और आज भी फ़िल्मी कलाकारों को देखना, उन से मिलना, हाथ मिलाना, ऑटोग्राफ (Autograph) लेना, अब तो सेल्फ़ी (Selfie) लेना भी एक सनक (Craze) तो है ही ना .. शायद ...

साहित्य की कोख़ से ही जन्मी फ़िल्में भी साहित्य की तरह ही किसी भी कोमल मन पर सहज़ ही अपनी गहरी छाप छोड़ जाती हैं। बचपन में देखी गई फ़िल्म- वक्त (बलराज साहनी वाली) का असर कुछ ऐसा पड़ा था बालमन पर; कि आज तक .. किसी भी बात पर रत्ती भर भी घमंड मन में पनपना चाहता भी है, तो वक्त फ़िल्म में "ऐ मेरी ज़ोहरा-ज़बीं तुझे मालूम नहीं, तू अभी तक है हंसीं और मैं जवाँ .. तुझपे क़ुरबान मेरी जान, मेरी जान" ... वाले गाने के बाद वो अचानक आया क़ुदरती क़हर- भूकम्प की याद ताजा हो जाती है। इस फ़िल्म ने तभी से छुटपन में ही प्रकृति या समय से सहम कर जीना समझा दिया था। आज भी किसी भी बात पर गर्दन अकड़ाने की हिम्मत या नौबत नहीं आती है और ताउम्र आएगी भी नहीं या आनी भी नहीं चाहिए  .. शायद ...

और हाँ ... फ़िल्म जय संतोषी माँ फ़िल्म की तो कुछ अलग ही महिमा देखी गई थी। देश भर में हिन्दी भाषी अन्य राज्यों के शहरों-गाँवों का तो नहीं पता, पर बिहार की राजधानी पटना के रूपक सिनेमा हॉल का तो पता है, कि पर्दे पर जब-जब फ़िल्मी अवतार के रूप में तथाकथित संतोषी माता परंपरागत सिनेमाई "ढन-ढनाक" वाली आवाज़ (संगीत) के साथ अवतरित होतीं थीं .. अपनी दुखियारी भक्तिन की विपदा की घड़ी में उसके दुःख भरे गाने- "मदद करो हे संतोषी माता ~~~" की समाप्ति पर; तब-तब दर्शकगण में से अधिकांश लोगों द्वारा उनकी अपनी हैसियत और श्रद्धा के मुताबिक सिनेमा हॉल में पर्दे की तरफ, मतलब फ़िल्मी संतोषी माँ की तरफ, तत्कालीन प्रचलन वाले पाँच, दस, बीस, पच्चीस (चवन्नी), पचास (अठन्नी) पैसे या एक रुपए के सिक्के, फूल-माले उछाले जाते थे। कई बार पीछे से या ऊपर के डी सी, बी सी (DC, BC) क्लास (class) के दर्शकों द्वारा उछाले गए सिक्के अपनी रफ़्तार वाले संवेग से आगे बैठे हुए कई दर्शकों के कान या सिर चोटिल कर देते थे। लगभग प्रत्येक शो के बाद सिक्के हॉल में इतना ज़्यादा जमा हो जाते थे कि हर शो के बाद सारे सिक्के बुहार कर सिनेमा हॉल के कर्मचारियों द्वारा बोरे में भरे जाते थे। जिस कारण से हर अगला शो आधे घन्टे-पैंतालीस मिनट देर से ही शुरू हो पाता था।


 वैसे तो प्रायः फिल्मों को या इस की बातों को हम केवल मनोरंजन का साधन मात्र मानते हैं, परन्तु इसके सम्मोहन के असर के विराट रूप का अनुमान तो तब होता है .. जब हम अपनी एक नज़र ...... फ़िलहाल तो हम अपनी आँखों को थोड़ा विश्राम दे लें आज अभी और फिर कल मिलते हैं "राजा आप का .. तड़ीपार ... (भाग-३)". के तहत जय संतोषी माँ फ़िल्म से जुड़ी और भी रोचक और अनूठी बातों को लेकर। साथ ही फिल्मों के सम्मोहन वाले असर के विराट रूप की बातों के साथ .. बस यूँ ही ...

(तब तक अगर आपके पास समय हो तो गाइड फ़िल्म के इस लोकप्रिय और सदाबहार गाने से अपने मन के तार को छेड़ने के लिए इस की साझा की गई लिंक को छेड़ने की बस ज़हमत भर कीजिए ... .. बस यूँ ही ...)





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