आज की रचना/सोच - "बहूँगा मैं धमनियों में तुम्हारी ..." से पहले आदतन कुछ बतकही करने की ज़्यादती करने के लिए अग्रिम क्षमाप्रार्थी हैं हम।
दरअसल .. रोजमर्रे की आपाधापी में यह ध्यान में ही नहीं रहा कि इस साल भी जून महीने के तीसरे रविवार को, सन् 1910 ईस्वी के बाद से हर वर्ष मनाया जाने वाला "फादर्स डे" (Father's Day) यानी "पिता दिवस", आज 20 जून को ही होगा। यूँ तो गत कई दिनों से चंद सोशल मीडिया से होकर गुजरती हमारी सरसरी निग़ाहों में इसकी सुगबुगाहट महसूस हो रही थी। पर जब ब्लॉग-मंच - "पाँच लिंकों का आनन्द" की 20 जून की प्रस्तुति के लिए अपनी एक .. दो साल पुरानी रचना/सोच - "बस आम पिता-सा ..." के नीचे यशोदा अग्रवाल जी की एक प्रतिक्रिया- "आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" रविवार 20 जून 2021 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!" पर परसों ही नज़र पड़ी, तब तो पक्का यक़ीन हो गया कि 20 जून को ही "फादर्स डे" है।
तमाम "दिवसों" को लेकर, गाहे-बगाहे मन में ये बात आती है, कि .. कितनी बड़ी विडंबना है, कि एक तरफ तो हम लोगबाग में से चंद बुद्धिजीवी लोग अक़्सर चीखते रहते हैं कि .. हमारी सभ्यता-संस्कृति या भाषा की अस्मिता, अन्य भाषाओं या सभ्यता-संस्कृतियों की घुसपैठ से खतरे में पड़ रही है। वहीं दूसरी तरफ हम हैं कि .. विदेशों से आए "दिवसों" को मनाने में तनिक भी नहीं हिचकते हैं। बल्कि गौरवान्वित महसूस करते हैं। ऐसा इसलिए कहना पड़ रहा है, क्योंकि सर्वविदित है कि .. संयुक्त राज्य अमेरिका के पश्चिमी वर्जीनिया में पहली बार "मदर्स डे" (Mother's Day) सन् 1908 ईस्वी में मई महीने के दूसरे रविवार यानी 10 मई को मनाने के बाद, हर वर्ष मई महीने के दूसरे रविवार को लगभग पूरे विश्व में यह दिवस मनाया जा रहा है।
साथ ही, उसी तर्ज़ पर संयुक्त राज्य अमेरिका की ही राजधानी वाशिंगटन में पहली बार सन् 1910 ईस्वी में जून के तीसरे रविवार यानी 19 जून को "फादर्स डे" (Father's Day) मनाए जाने के बाद से ही हर वर्ष जून महीने के तीसरे रविवार को आज तक यह दिवस मनाया जा रहा है। सम्पूर्ण विश्व में इनके विस्तारण में निःसन्देह किसी तथाकथित दैविक शक्ति का तो नहीं, बल्कि विज्ञान का भी/ही बहुत बड़ा योगदान रहा है। विज्ञान के उत्पाद - उपग्रहों से चलने वाले इंटरनेट की नींव पर खड़े सोशल मीडिया की देन से ही यह सम्भव हो पाया है।
विश्व भर में मनाए जाने वाले पहले "फादर्स डे" के इसी 19 जून ने, ना जाने कब यादों के मर्तबान से पाकड़ के 'टुसे' (किसलय) के अचार जैसे कसैले, सन् 2007 ईस्वी के 19 सितम्बर, बुधवार के दिन के उस कसैलेपन को अनायास दिला दिया; जिस दिन ने पापा का साथ हमेशा-हमेशा के लिए मुझसे और मेरे पूरे परिवार से छीन कर छिन्न-भिन्न कर दिया था। अगले दिन 20 सितम्बर, वृहष्पतिवार को उनके दाह-संस्कार के दौरान ही इस रचना/सोच -"बहूँगा मैं धमनियों में तुम्हारी ..." का बीज दिमाग के तसले में टपका था। तब से वो सोच का टपका हुआ बीज, डभकता-डभकता .. मालूम नहीं कितना पक भी पाया है या कच्चा ही रह गया। अगर पका तो भोग लगेगा और कच्चा रह गया तो भविष्य में पौधा बनने की आशा रहेगी, एक संभावना रहेगी .. शायद ...
तब मेरा बेटा लगभग 10 वर्ष का था और उस के छुटपन के कारण उसे शवयात्रा में व श्मशान तक ले जाने की, उस वक्त वहाँ सभी उपस्थित लोगों की मनाही के बावज़ूद उसे दाह-संस्कार में साथ लेकर गया था। सदैव ये सोच रही है, कि बातें "गन्दी/बुरी" हो या "अच्छी/भली", उसे अपने बच्चों या युवाओं से मित्रवत् साझा करनी चाहिए। साथ ही, उसे दोनों ही के क्रमशः दुष्परिणामों और सुपरिणामों से भी अवगत करानी चाहिए। तभी तो वह आगे जाकर आसानी से अच्छे और बुरे की पहचान करने वाले विवेक के स्वामित्व को आत्मसात् कर सकेंगे। अंग्रेजी में एक कहावत (Proverb) भी है, कि "The child is father to/of the man." .. बस यूँ ही ...
बहूँगा मैं धमनियों में तुम्हारी ...
बेटा !
भूल कर कि ..
उचित है या अनुचित ये,
दस वर्ष की ही
तुम्हारी छोटी आयु में,
शवयात्रा में
तुम्हारे दादा जी की,
शामिल कर के
आज ले आया हूँ मैं
श्मशान तक तुम्हें।
सांत्वना देने वाली
भीड़ द्वारा आज,
छोटी उम्र में तुम्हें यहाँ
लाने के लाख विरोध के विरुद्ध।
भीड़ चाहे अपने समाज की,
रोना रो कर रस्मो-रिवाज की,
भले ही होते रहें क्रुद्ध।
लाया हूँ तुम्हें एक सोच लिए कि
ना जाने इसी बहाने
मिल जाए ना कहीं,
फिर से जगत को
एक और नया बुद्ध।
देखो ना तनिक ! ..
जल रहें हैं किस तरह
अनंत यात्रा के पथिक
देखो ना !! ..
सीने के बाल इनके,
जिन पर बचपन में मैं
फिराया करता था
नन्हें-नन्हें हाथ अपने।
सिकुड़ रही हैं जल कर
रक्तशिराओं के साथ-साथ
उनकी सारी उँगलियाँ भी कैसे ?
और तर्जनियाँ भी तो ..
जो हैं शामिल उन में,
जिन्हें भींच मैं अपनी
नन्हीं मुट्ठियों में
सीखा था चलना
डगमग-डगमग डग भर के।
सुलग रहे हैं
देखो सारे अंग,
फैलाते चिरायंध गंध
और धधक रहे हैं
शिथिल पड़े अब
निष्प्राण इनके सारे तंत्र।
पर .. अभी क्या ..
कभी भी नहीं ! ..
कभी भी नहीं !!! ...
होगा .. ना इनका और
ना कभी भी मेरा अन्त
और हाँ .. तुम्हारा भी।
हो जाए चाहे
मेरा भी देहावसान,
चाहे ऊर्जाविहीन तन
हो जाए देहदान,
सारा घर .. कमरा ..
मेज और कुर्सी,
या फिर बिस्तर का कोना
हो जाए सुनसान।
बहूँगा मैं धमनियों में तुम्हारी,
अनवरत तब भी।
जिस से ये दुनिया क्या ..
तुम भी रहोगे अन्जान।
मेरे "वाई" और अपनी माँ के
"एक्स" गुणसूत्र के युग्मज से
जो हुआ है तुम्हारा निर्माण।
गुणसूत्रों का वाहक मैं,
तुम्हारे दादा जी का और
मेरे गुणसूत्रों के हो तुम।
फिर होगी तुम से
अगली संतति तुम्हारी
बस यूँ ही .. पीढ़ी दर पीढ़ी
चलती रहेगी एक के बाद दूसरी,
फिर तीसरी और ...
बहूँगा मैं धमनियों में तुम्हारी
अनवरत तब भी।
जिस से ये दुनिया क्या ..
तुम भी रहोगे अन्जान।
जो चला आ रहा है युगों से
चलता ही रहेगा अनवरत ..
जीवित साँसों और
धड़कनों की तरह अनवरत ..
रुकता है ये कब भला पगले !
वो तो मुझमें ना सही
कल तुममें चलेगा ..
परसों किसी और में
पर चलेगा .. निर्बाध ..
अनवरत और ..
बहूँगा मैं धमनियों में तुम्हारी .. बस यूँ ही ...
तो मुझमें ना सही
ReplyDeleteकल तुममें चलेगा ..
परसों किसी और में
पर चलेगा .. निर्बाध ..
अनवरत और ..
बहूँगा मैं धमनियों में तुम्हारी ..
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति।
जी ! नमन संग आभार आपका ...
Deleteभीड़ चाहे अपने समाज की,
ReplyDeleteरोना रो कर रस्मो-रिवाज की,
भले ही होते रहें क्रुद्ध।
लाया हूँ तुम्हें एक सोच लिए कि
ना जाने इसी बहाने
मिल जाए ना कहीं,
फिर से जगत को
एक और नया बुद्ध।
सुबोध जी , पिताजी के स्नेहिल चित्र के साथ इस भावपूर्ण रचना को पढ़कर निशब्द हूँ | स्नेही पिताको खोना और मन समझाने के लिए इस कल्पना के साथ जीना कि पिता हमारी धमनियों में बहते एक मन भिगोता संस्कार है | भूमिका वाली स्थिति हमने भी 2003 में अपने पिताजी के स्वर्गवास के समय देखी थी |उस समय मेरा भतीजा १० साल का ही था और उसके विचलित मन को शांत करने लिए हम उसे इसी तरह की बातें समझा रहे थे |निसंदेह बातें अछि हों या बुरी बच्चों से छिपानी नहीं चाहिए | वे अपने चिंतन से खुद सक्षम हो जाते हैं सही गलत का निर्णय लेने में | मार्मिक रचना के लिए क्या कहूं ?
पिताजी की पुण्य स्मृति को सादर नमन |
जी ! नमन संग आभार आपका ...
Deleteआपको मेरे शब्दों ने निःशब्द किया और मुझे आपकी विस्तृत व सूक्ष्म विश्लेषण वाली प्रतिक्रिया ने। आपने "नब्ज़ पर हाथ रखने" वाले तर्ज़ पर रचना की आत्मा को स्पर्श करते हुए बुद्ध वाली पंक्तियों को ही उद्धरित किया है।
पिता का धमनियों में बहना भले ही एक कल्पना हो, पर हर प्राणी में उनके जनक का डीएनए (DNA) तो रहता ही है, जो सदियों से स्थानांतरण होता आ रहा है और आगे भी होता रहेगा .. शायद ...
ये बात तो हम हर जानने-मिलने वाले वयस्क को कहते हैं कि अपनी भावी पीढ़ी के साथ अभिभावक की तरह कम और मित्र की तरह ज्यादा रहना चाहिए। सभी विषय पर चर्चा करनी चाहिए और साथ में "अच्छे" व "बुरे" की पहचान के लिए विवेक भी प्रदान करना चाहिए। किसी बात विशेष को "बुरी बात" कह के टालने से बच्चों के भटकने की सम्भावना ज्यादा हो जाती है,बनिस्बत चर्चा करने के .. शायद ...
आपके पिता जी के भी 18 साल हो गए .. सादर नमन उनके पुण्यात्मा को ...
शुक्रिया सुबोध जी, बुद्ध इसीलिए बुद्ध हुए क्योंकि दुखों से उनका सामना अप्रत्याशित रूप में हुआ (सबसे प्रचलित कथा यही कहती है उनके बारे में।) आज शहरी जीवन में देखती हूं बच्चों को जीवन के सहज अनुभवों से दूर रखा जा रहा है। अगर उनके सामने भी। दुःख अप्रत्याशित प्रकट हों तो वे अवसाद और गहन विषाद का शिकार हो जाते हैं। निश्चित रूप से बुद्ध भी अपनें साथ ना जाने कितना लड़े होंगे बुद्धत्व प्राप्त करने से पहले। सो मित्रवत बच्चों को जीवन के हर अनुभव के लिए तैयार होना सिखाना ही एक अभिभावक का मूल कर्तव्य होना चाहिए। और पिताजी को गए 18वर्ष होने को हैं। पर लगता है कल की ही बात हो। उनके सरकारी नौकरी से रिटायर होने में डेढ़ साल बाकी थे। पर अंततः, इन सब चीजों के बारे में सोचकर यहीनिष्कर्ष निकलता है कि हम सब भी तो उसी राह के राही हैंबस ये। ही बात संतोष देती है। आभार आपके सार्थक विमर्श का।
ReplyDeleteजी ! तभी तो पुरखों ने कहा है और अटल सत्य भी है कि "दुनिया रैन बसेरा है, ना तेरा है ना मेरा है" .. कबीर भी कहते हैं कि "आये हैं सो जायेंगे, राजा, रंक, फ़कीर" .. पर अपनों की यादें कभी धूमिल नहीं पड़ती हैं .. शायद ...
Deleteबुद्ध ने ही क्यों .. नरेन्द्र नाथ दत्त ने भी तो विवेकानन्द तक के सफ़र तय करने में ना जाने कितने कष्टों का सामना किया होगा। अनेकों उदाहरण भरे पड़े हैं ...
दूसरी ओर .. यूँ तो मैं किसी शैक्षिक-उत्पाद (BYJU'S) के विज्ञापन-विशेष की तरफ़दारी तो नहीं कर रहा, पर उनमें जो ख़ास बात, उसकी Punch Line,- " ... Parents से Partner की दूरी आसानी से खत्म हो जाती है।" मुझे निजी तौर पर बहुत ही भाती है; जो बच्चों और अभिभावकों के सच्चे और उपयोगी रिश्ते को बहुत ही साफ़गोई से बतला और बोल जाती है .. बस यूँ ही ...
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" रविवार 19 जून 2022 को साझा की गयी है....
ReplyDeleteपाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जी ! नमन संग आभार आपका ...
Deleteआपकी यह रचना मुझे भी बहुत कुछ याद दिला गयी । मेरा बेटा भी अपनी दादी और बाबा की अनंत यात्रा के समय क्रमशः 10 और 11 वर्ष का था । और वह भी दोनों की शव यात्रा में शामिल हुए था । ज़िन्दगी के उतार चढ़ाव उसने भी जल्दी ही महसूस कर लिए थे । हृदय के उद्गार बहुत अच्छे से लिखे हैं ।
ReplyDeleteजी ! नमन संग आभार आपका ...
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