Thursday, February 27, 2020

इतर इन सब से

जब तुम हिन्दू बनोगे
तब वो मुसलमान बनेंगें
पर दोनों ही साँसें लोगे .. एक ही हवा में 

जब तुम अवतार कहोगे
तब वो पैगम्बर कहेंगें
पर दोनों ना दिखे हैं अब तक .. इस जहाँ में

जब तुम धर्म कहोगे
तब वो मज़हब कहेंगें
पर दोनों ही सिर झुका कर .. आँखें मूंदोगे

तुम बलि में 'झटका' मारोगे
वो क़ुर्बानी में 'हलाल' करेंगें
पर दोनों ही समान निरीह का ही .. क़त्ल करोगे

कभी तुम मंदिर में जाओगे
कभी वो मस्ज़िद में जाएंगें
पर दोनों इमारतों में एक-सी ही .. ईंट जोड़ोगे

जब तुम पूजा करोगे
तब वो ईबादत करेंगे
पर दोनों ही अपने दोनों हाथ .. ऊपर करोगे

तुम श्मशान का रुख़ करोगे
वो कब्रिस्तान का रुख़ करेंगे
पर दोनों ही एक दिन .. इसी मिट्टी में मिलोगे

दोनों ही मिलकर इतर इन सब से
धरती पर जब यहाँ इंसान बनेंगे
एक ही क़ुदरत से मिली सौगात .. तभी तो जिओगे

'लुटेरे', 'दंगाई', 'दमनकारी', 'बलात्कारी' ...
हर युग में ये सारे .. कभी नहीं इंसान बनेंगे
नागवार गुजरेगा इन्हें अगर जो तुम इनको कहोगे ..
कि ...
" मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना ..." 



Thursday, February 20, 2020

मुखौटा (लघुकथा).


14 फ़रवरी, 2020 को रात के लगभग पौने नौ बज रहे थे। पैंतालीस वर्षीय सक्सेना जी भोजन तैयार होने की प्रतीक्षा में बस यूँ ही अपने शयन-कक्ष के बिस्तर पर अधलेटे-से गाव-तकिया के सहारे टिक कर अपने 'स्मार्ट मोबाइल फ़ोन' में 'फेसबुक' पर पुलवामा के शहीदों की बरसी पर श्रद्धांजलि-सन्देश प्रेषित कर स्वयं के एक जिम्मेवार भारतीय नागरिक होने का परिचय देने में तल्लीन थे।
तभी 'मोबाइल' में किसी 'व्हाट्सएप्प' की 'नोटिफिकेशन-ट्यून्' बजते ही वे 'फेसबुक' से 'व्हाट्सएप्प' पर कूद पड़े। कई साहित्यिक 'व्हाट्सएप्प ग्रुप' में से, जिनके वे सदस्य थे, एक 'ग्रुप' में एक 'मेसेज' दिखा - " एक दुःखद समाचार - मिश्रा जी के ससुर जी गुजर गए। "
तत्क्षण उन्होंने भी अपनी तत्परता दिखाते हुए शोक प्रगट किया -
"  ओह, दुःखद । मन बहुत ही व्यथित हुआ। ईश्वर उनकी आत्मा को शान्ति दें । "
इधर उनकी यंत्रवत शोक-प्रतिक्रिया पूर्ण हुई और संयोगवश उसी वक्त चौके से उनकी धर्मपत्नी की आवाज़ आई - " आइए जी बाहर .. खाना लगा रहे हैं। टी वी भी चालू कर दिए हैं। पिछले साल का पुलवामा वाला दिखा रहा है। आइए ना ... "
" आ गए भाग्यवान ! बस खाना खाने से पहले वाली 'शुगर' की दवा तो खा लेने दो।" फिर वाश-बेसिन में 'लिक्विड-शॉप' से हाथ धोते हुए बोले -" वैसे 'जिंजर-लेमन' तंदूरी 'चिकेन' की बड़ी अच्छी ख़ुश्बू आ रही है तुम्हारे 'किचेन' से .. आज एक -दो रोटी ज्यादा बना ली हो ना ? "
" हाँ जी! ये भी कहने की बात है क्या ? " - लाड़ जता कर बोलते हुए धर्मपत्नी चौके से अपने दोनों हाथों में दो थालियों में खाना लिए निकलीं .. एक सक्सेना जी के लिए और दूसरी अपने लिए। रात का भोजन प्रायः दोनों साथ ही करते हैं।
'डाइनिंग हॉल' अब तक दोनों के ठहाके और गर्मागर्म मुर्गे-रोटी की सोंधी ख़ुश्बू से महमह करने लगा था।



Tuesday, February 18, 2020

हाईजैक ऑफ़ पुष्पक ... - भाग- २ - ( आलेख / एक विचार ).

आज मंगलवार है। हम में से एक सम्प्रदाय विशेष के अधिकांश लोग अपनी साप्ताहिक दिनचर्या के अनुसार आज और शनिवार को भी कहीं जाएं या ना जाएं परन्तु अपने आसपास या शहर के किसी नामीगिरामी हनुमान उर्फ़ महावीर मन्दिर में जरूर जाते हैं। फिर एक सिन्दूरी टीका माथे पर लगाये, अकड़े गर्दन में गेंदे के फूलों की माला और हाथ में लड्डू का डिब्बा या ठोंगा या फिर दोना मन्दिर से बाहर आते दिख जाएंगे।
अगर किसी कारणवश ना भी जा पाएं तो घर में उनकी पूजा अवश्य करते हैं। अगर यह भी ना हो पाया तो अपने आम दिनचर्या निपटाते हुए हनुमान- चालीसा जोर-जोर से या मन ही मन दुहराते हैं।
कईयों को इसका शाब्दिक अर्थ मालूम है और कईयों को नहीं, चाहे वे किसी भी पीढ़ी के हों।
बाक़ी दिन मांसाहार करने वाले कई लोग भी आज दिल्ली सरकार के परिवहन की व्यस्तता को सुचारू करने के लिए चलाये गए "ऑड-इवन" वाली प्रणाली की तरह शाकाहार खा कर तथाकथित हनुमान जी को खुश करने की कोशिश करते हैं।
कुछ लोग अपनी मंशा पूरी होने की ख़ुशी में, भले वो दो नंबर की कमाई वाली मनचाहे स्थान पर तबादले की बात हो या परीक्षा में चोरी कर के पास करने की बात हो या फिर नाजायज़ कोई केस किसी मंहगे वकील के दम पर जीती गई हो, डब्बा भर-भर कर अपने औकातानुसार डालडे या शुद्ध घी का बेसन या मोतीचूर का लड्डू उनके भोग में चढ़ाते हैं। भले वह लड्डू भक्तगण प्रसादस्वरूप स्वयं सपरिवार या मुहल्ले में बाँट कर खाते हैं और कुछ अंश तोंदिले पंडित के हिस्से आता है।
अब हमें हमारी भावी पीढ़ी को ये हनुमान-चालीसा बकवाने के पहले उसका अर्थ उन्हें समझाना चाहिए और बुरा ना माने तो खुद भी जानना चाहिए।
उसके कुछ अंश विचारणीय अवश्य हैं। इसका विश्लेषण अवश्य करना चाहिए कि इसमें सच्चाई कितनी है। है भी या नहीं । या कहीं तुलसीदास जैसे प्रकांड विद्वान की कोरी कल्पना भर है, किसी कॉमिक्स के किसी काल्पनिक पात्र "स्पाइडर मैन" , "सुपर मैन" या फिर "शक्तिमान" की तरह।
तुलसीदास जी ने लिखा है :-

" जुग सहस्र जोजन पर भानू ।
  लील्यो ताहि मधुर फल जानू ॥"

मतलब :-

" जो सूर्य इतने योजन दूरी पर है कि उस पर पहुँचने के लिए हजार युग लगे। दो हजार योजन की दूरी पर स्थित सूर्य को आपने एक मीठा फल समझ कर निगल लिया। "

आप की कितनी भी अंधभक्ति हो, एक बार इसको सत्यता की कसौटी पर अवश्य कसनी चाहिए। अगर आप नहीं कसेंगें तो कम से कम भावी पीढ़ी को तो कसने से मत रोकिये-टोकिए। हनुमान जी की कृपा आप पर हो या ना हो पर ऐसा करने से आपकी बड़ी कृपा होगी।

तुलसीदास जी ने पूरी रचना में बस हनुमान जी की अति महिमामंडन ही की है। हम भी उसे सम्प्रदायविशेष की सभ्यता-संस्कृति बचाने के नाम पर बस दुहराए जा रहे हैं।
आगे उन्होंने लिखा है :-

"   संकट कटै मिटै सब पीरा ।
    जो सुमिरै हनुमत बलबीरा ॥ "

मतलब :-

" हे वीर हनुमान जी! जो आपका सुमिरन करता रहता है, उसके सब संकट कट जाते है और सब पीड़ा मिट जाती है। "

ऐसे में तो इसको बच्चों के पाठ्यक्रम में शामिल करनी चाहिए थी या है। इस से विश्व ना सही अपने देश की दुर्दशा का विनाश तो कम से कम हो ही जाना चाहिए था या है। दिन प्रतिदिन जिस तरह मुहल्ले या शहर-गाँव के चौक-चौराहों या फुटपाथों पर अतिक्रमण कर-कर के इनके मंदिरों की संख्या बढ़ती जा रही है, उस तरह मंदिरों की आबादी की गणना के अनुसार तो अब तक भारतवर्ष को विपदा-आपदा मुक्त देश हो जाना चाहिए था। पर सच्चाई इस से इतर है। तनिक गौर कीजिए। भेड़-चाल मत चलिए। कम से कम बुद्धिजीवियों को तो पहल करनी चाहिए। या नहीं !???
बच्चे बेचारे अपनी लगन, बुद्धिमता और मेहनत से अच्छी पढ़ाई के फलस्वरूप वे अपनी कक्षा में प्रथम हो भी जाए तो आप उसके हौसले और आत्मबल व आत्मविश्वास का हनन कर उसे हनुमान जी की कृपा बतला कर उनके नाम पर सवा किलो लड्डू चढ़ा कर मुहल्ले वाले , नाते-रिश्तेदारों  और जान-पहचान वालों को हँस-हँस कर बाँटेंगें।
बेचारे बच्चे भी अपनी प्रतिभा को शक भरी निगाह से देखने लगते हैं। अन्ततः वे उस काल्पनिक शक्ति के समक्ष नतमस्तक हो कर आपकी तरह दुहराने लगते हैं ... " जै , जै , जै , हनुमान गोसाईं, कृपा करहुँ ....." और अपने पास करने के लिए तथाकथित हनुमान जी से मनता (मन्नत) मानने लगते हैं। फिर तो पीढ़ी दर पीढ़ी या सिलसिला चली आ रही है और उम्मीद ही नहीं आपकी कुम्भकर्णी नींद में विश्वास भी हो गया है कि अनवरत युगों-युगों तक इनकी दुकान चलते रहने वाली है, वर्ना कितने तोंदिलों की बेरोजगारी में इजाफ़ा हो जाएगा।
चलते-चलते एक-दो बात पूछनी है आप सभी से कि (१) क्या जो बातें सच्ची हो और लोगों को कड़वी लगे तो क्या नहीं बोलनी चाहिए ? (२) अगर एक-दो या समूह का मन खट्टा होता हो किसी बात से और उस बात की सच्चाई परखने की जरुरत हो तो क्या उसकी चर्चा एक गुनाह है ? (३) किसी बात को तर्क की कसौटी पर कसने के लिए चर्चा करना , बस चर्चा भर है या उसे कुतर्क कह कर ठंडे बस्ते में डाल कर अन्धानुसरण करना और भावी पीढ़ियों से भी करवाना सही है ???

जाते- जाते .... :-

हमारा महिमामंडित हनुमान चालीसा शाब्दिक अर्थ के साथ जो गूगल पर भी आसानी से उपलब्ध है। फिर भी आपकी सुविधा के लिए विस्तार से :-

हनुमान चालीसा तुलसीदास जी की अवधी में लिखी एक काव्यात्मक कृति है जिसमें तथाकथित प्रभु राम के महान भक्त हनुमान के गुणों एवं कार्यों का चालीस चौपाइयों में वर्णन है। यह अत्यन्त लघु रचना है जिसमें पवनपुत्र श्री हनुमान जी की सुन्दर स्तुति की गई है।

॥ हनुमान चालीसा ॥

दोहा
श्रीगुरु चरन सरोज रज निज मनु मुकुरु सुधारि ।
बरनऊँ रघुबर बिमल जसु जो दायकु फल चारि ॥

बुद्धिहीन तनु जानिके सुमिरौं पवनकुमार ।
बल बुद्धि बिद्या देहु मोहिं हरहु कलेस बिकार ॥

चौपाई
जय हनुमान ज्ञान गुन सागर ।
जय कपीस तिहुँ लोक उजागर ॥
राम दूत अतुलित बल धामा ।
अंजनिपुत्र पवनसुत नामा ॥
महाबीर बिक्रम बजरंगी ।
कुमति निवार सुमति के संगी ॥
कंचन बरन बिराज सुबेसा ।
कानन कुंडल कुंचित केसा ॥
हाथ बज्र औ ध्वजा बिराजै ।
काँधे मूँज जनेऊ साजै ॥
संकर सुवन केसरीनंदन ।
तेज प्रताप महा जग बंदन ॥
विद्यावान गुनी अति चातुर ।
राम काज करिबे को आतुर ॥
प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया ।
राम लखन सीता मन बसिया ॥
सूक्श्म रूप धरि सियहिं दिखावा ।
बिकट रूप धरि लंक जरावा ॥
भीम रूप धरि असुर सँहारे ।
रामचंद्र के काज सँवारे ॥
 लाय सजीवन लखन जियाये ।
 श्रीरघुबीर हरषि उर लाये ॥
 रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई ।
 तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई ॥
 सहस बदन तुम्हरो जस गावैं ।
 अस कहि श्रीपति कंठ लगावैं ॥
 सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा ।
 नारद सारद सहित अहीसा ॥
 जम कुबेर दिगपाल जहाँ ते ।
 कबि कोबिद कहि सके कहाँ ते ॥
 तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा ।
 राम मिलाय राज पद दीन्हा ॥
 तुम्हरो मंत्र बिभीषन माना ।
 लंकेस्वर भए सब जग जाना ॥
 जुग सहस्र जोजन पर भानू ।
  लील्यो ताहि मधुर फल जानू ॥
  प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं ।
  जलधि लाँघि गये अचरज नाहीं ॥
  दुर्गम काज जगत के जेते ।
  सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते ॥
  राम दुआरे तुम रखवारे ।
  होत न आज्ञा बिनु पैसारे ॥
  सब सुख लहै तुम्हारी सरना ।
  तुम रच्छक काहू को डर ना ॥
  आपन तेज संहारो आपै ।
  तीनों लोक हाँक तें काँपै ॥
  भूत पिसाच निकट नहिं आवै ।
  महाबीर जब नाम सुनावै ॥
   नासै रोग हरै सब पीरा ।
   जपत निरंतर हनुमत बीरा ॥
   संकट तें हनुमान छुड़ावै ।
   मन क्रम बचन ध्यान जो लावै ॥
   सब पर राम तपस्वी राजा ।
    तिन के काज सकल तुम साजा ॥
    और मनोरथ जो कोई लावै ।
    सोई अमित जीवन फल पावै ॥
    चारों जुग परताप तुम्हारा ।
    है परसिद्ध जगत उजियारा ॥
    साधु संत के तुम रखवारे ।
    असुर निकंदन राम दुलारे ॥
    अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता ।
    अस बर दीन जानकी माता ॥
    राम रसायन तुम्हरे पासा ।
    सदा रहो रघुपति के दासा ॥
    तुम्हरे भजन राम को पावै ।
    जनम जनम के दुख बिसरावै ॥
    अंत काल रघुबर पुर जाई ।
    जहाँ जन्म हरिभक्त कहाई ॥
   और देवता चित्त न धरई ।
   हनुमत सेई सर्ब सुख करई ॥
    संकट कटै मिटै सब पीरा ।
    जो सुमिरै हनुमत बलबीरा ॥
     जै जै जै हनुमान गोसाईं ।
     कृपा करहु गुरु देव की नाईं ॥
     जो सत बार पाठ कर कोई ।
      छूटहि बंदि महा सुख होई ॥
      जो यह पढ़ै हनुमान चलीसा ।
      होय सिद्धि साखी गौरीसा ॥
      तुलसीदास सदा हरि चेरा ।
      कीजै नाथ हृदय मँह डेरा ॥
   
दोहा
 पवनतनय संकट हरन मंगल मूरति रूप ।
 राम लखन सीता सहित हृदय बसहु सुर भूप ॥

आरती
 मंगल मूरती मारुत नंदन
 सकल अमंगल मूल निकंदन
 पवनतनय संतन हितकारी
 हृदय बिराजत अवध बिहारी
 मातु पिता गुरू गणपति सारद
 शिव समेट शंभू शुक नारद
 चरन कमल बिन्धौ सब काहु
 देहु रामपद नेहु निबाहु
 जै जै जै हनुमान गोसाईं
 कृपा करहु गुरु देव की नाईं
 बंधन राम लखन वैदेही
 यह तुलसी के परम सनेही ॥

 सियावर रामचंद्रजी की जय॥

इन सारे चौपाइयों-दोहों का शाब्दिक हिन्दी रूपांतरण निम्न प्रकार है :-

गुरु महाराज के चरण कमलों की धूलि से अपने मन रुपी दर्पण को पवित्र करके श्री रघुवीर के निर्मल यश का वर्णन करता हूँ। जो चारों फल धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को देने वाला हे।
हे पवन कुमार! मैं आपको सुमिरन करता हूँ। आप तो जानते ही हैं कि मेरा शरीर और बुद्धि निर्बल है। मुझे शारीरिक बल, सदबुद्धि एवं ज्ञान दीजिए और मेरे दुःखों व दोषों का नाश कर दीजिए.

श्री हनुमान जी! आपकी जय हो। आपका ज्ञान और गुण अथाह है। हे कपीश्वर! आपकी जय हो! तीनों लोकों - स्वर्ग लोक, भूलोक और पाताल लोक में आपकी कीर्ति है।
हे पवनसुत अंजनी नंदन! आपके समान दूसरा बलवान नही है
हे महावीर बजरंग बली! आप विशेष पराक्रम वाले है। आप खराब बुद्धि को दूर करते है और अच्छी बुद्धि वालों के साथी और सहायक है।
आप सुनहले रंग, सुन्दर वस्त्रों, कानों में कुण्डल और घुंघराले बालों से सुशोभित हैं।
हे शंकर के अवतार! हे केसरी नंदन! आपके पराक्रम और महान यश की संसार भर में वन्दना होती है।
आप प्रकान्ड विद्या निधान है। गुणवान और अत्यन्त कार्य कुशल होकर श्री राम काज करने के लिए आतुर रहते है।
आप श्री राम चरित सुनने में आनन्द रस लेते है। श्री राम, सीता और लखन आपके हृदय मे बसे रहते है।
आपने अपना बहुत छोटा रुप धारण करके सीता जी को दिखलाया और भयंकर रूप करके लंका को जलाया।
आपने विकराल रुप धारण करके राक्षसों को मारा और श्री रामचन्द्र जी के उदेश्यों को सफल कराया।
आपने संजीवनी बुटी लाकर लक्ष्मण जी को जिलाया जिससे श्री रघुवीर ने हर्षित होकर आपको हृदय से लगा लिया।
श्री रामचन्द्र ने आपकी बहुत प्रशंसा की और कहा कि तुम मेरे भरत जैसे प्यारे भाई हो।
श्री राम ने आपको यह कहकर हृदय से लगा लिया कि तुम्हारा यश हजार मुख से सराहनीय है।
श्री सनक, श्री सनातन, श्री सनन्दन, श्री सन्त कुमार आदि मुनि ब्रह्मा आदि देवता नारद जी, सरस्वती जी, शेषनाग जी सब आपका गुणगान करते है।
यमराज,कुबेर आदि सब दिशाओं के रक्षक, कवि विद्वान, पंडित या कोई भी आपके यश का पूर्णतः वर्णन नहीं कर सकते।
आपने सुग्रीव जी को श्रीराम से मिलाकर उपकार किया, जिसके कारण वे राजा बने।
आपके उपदेश का विभिषण जी ने पालन किया, जिससे वे लंका के राजा बने। इसको सब संसार जानता है।
जो सूर्य इतने योजन दूरी पर है कि उस पर पहुँचने के लिए हजार युग लगे। दो हजार योजन की दूरी पर स्थित सूर्य को आपने एक मीठा फल समझ कर निगल लिया।
आपने श्री रामचन्द्र जी की अंगूठी मुँह मे रखकर समुद्र को लांघ लिया, इसमें कोई आश्चर्य नहीं है।
संसार मे जितने भी कठिन से कठिन काम हो, वो आपकी कृपा से सहज हो जाते हैं।
रामचन्द्र जी के द्वार के आप रखवाले है, जिसमें आपकी आज्ञा बिना किसी को प्रवेश नहीं मिलता अर्थात् आपकी प्रसन्नता के बिना राम-कृपा दुर्लभ है।
जो भी आपकी शरण में आते है, उस सभी को आनन्द प्राप्त होता है और जब आप रक्षक हैं तो फिर किसी का डर नहीं रहता।
आपके सिवाय आपके वेग को कोई नहीं रोक सकता। आपकी गर्जना से तीनों लोक कांप जाते हैं।
जहाँ महावीर हनुमान जी का नाम सुनाया जाता है, वहां भूत, पिशाच पास भी नहीं फटक सकते।
वीर हनुमान जी! आपका निरंतर जप करने से सब रोग चले जाते हैं और सब पीड़ा मिट जाती है।
हे हनुमान जी! विचार करने में, कर्म करने में और बोलने में, जिनका ध्यान आपमें रहता है, उनको सब संकटों से आप छुड़ाते है।
तपस्वी राजा श्री रामचन्द्र जी सबसे श्रेष्ठ है। उनके सब कार्यों को आपने सहज में कर दिया।
जिस पर आपकी कृपा हो, वह कोई भी अभिलाषा करें तो उसे ऐसा फल मिलता है, जिसकी जीवन में कोई सीमा नहीं होती।
चारो युगों सतयुग, त्रेता, द्वापर तथा कलियुग में आपका यश फैला हुआ है। जगत में आपकी कीर्ति सर्वत्र प्रकाशमान है।
हे श्री राम के दुलारे! आप सज्जनों की रक्षा करते है और दुष्टों का नाश करते है।
आपको माता श्री जानकी से ऐसा वरदान मिला हुआ है, जिससे आप किसी को भी आठों सिद्धियां और नौ निधियां दे सकते है।
आप निरंतर श्री रघुनाथ जी की शरण में रहते है, जिससे आपके पास बुढ़ापा और असाध्य रोगों के नाश के लिए राम-नाम की औषधि है।
आपका भजन करने से श्री राम जी प्राप्त होते हैं और जन्म-जन्मांतर के दुख दूर होते हैं।
अंत समय में आप श्री रघुनाथ जी के धाम को जाते है और यदि फिर भी जन्म लेंगे तो भक्ति करेंगे और श्री राम भक्त कहलाएंगे।
हे हनुमान जी! आपकी सेवा करने से सब प्रकार के सुख मिलते है, फिर अन्य किसी देवता की आवश्यकता नहीं रहती।
हे वीर हनुमान जी! जो आपका सुमिरन करता रहता है, उसके सब संकट कट जाते है और सब पीड़ा मिट जाती है।
हे स्वामी हनुमान जी! आपकी जय हो, जय हो, जय हो! आप मुझ पर कृपालु श्री गुरु जी के समान कृपा कीजिए।
जो कोई इस हनुमान चालीसा का सौ बार पाठ करेगा वह सब बंधनों से छूट जाएगा और उसे परमानन्द मिलेगा।
भगवान शंकर ने यह हनुमान चालीसा लिखवाया है , इसलिए वे साक्षी हैं कि जो इसे पढ़ेगा उसे निश्चय ही सफलता प्राप्त होगी।
हे नाथ हनुमान जी! तुलसीदास सदा ही श्री राम का दास है। इसलिए आप उसके हृदय में निवास कीजिए।

हे संकट मोचन पवन कुमार! आप आनंद मंगलों के स्वरूप हैं।
हे देवराज! आप श्री राम, सीता जी और लक्ष्मण सहित मेरे हृदय में निवास कीजिए.

सियावर रामचंद्रजी की जय॥
अब तक आपने धैर्यपूर्वक पढ़ा और इतु-सा भी सोचा तो फिर भाग-३ के लिए वक्त निकालिएगा जरूर ...




Sunday, February 16, 2020

ऋचाओं-सी ...

कंदराओं में
शिलाओं पर
इतिहास
गढ़ा है
सदियों यहाँ
हमारे पुरखों ने

रची अनेकों
जुबानी ही
उपनिषद-ग्रंथों की
अमर ऋचाएँ
युगों तक
ऋषि-मुनियों ने

फिर बोलो
ना जरा ..
दरकार भला
पड़ेगी क्यों
कलम की सनम
प्रेम-कहानी लिखने में

ऋचाओं-सी
मुझे याद ज़ुबानी
तुम कर लेना
तराशुंगा मैं तुमको
अपने सोंचों की
कंदराओं में

फिर तलाशेंगे प्रेम ग्रंथ
मिलकर हमदोनों
उम्र-तूलिका से
क़ुदरत की उकेरी
एक-दूसरे के
बदन की लकीरों में




हाईजैक ऑफ़ पुष्पक ... - भाग- ३ - ( आलेख /संस्मरण/ एक विचार ).


" नालायक हो गया है। इतना बुलाने पर भी नहीं आया ना पप्पुआ !? " - ये पप्पू के चचेरे बड़े चाचा जी की आवाज है जो पप्पू के छोटे सगे भाई बबलू को अपने पप्पू भईया को संयुक्त पारिवारिक पूजा में साथ बैठने के लिए उसके अध्ययन-कक्ष से बुलाने कुछ देर पहले भेजे थे और उसके साथ नहीं आने पर लौटे हुए बबलू से पूछ रहे हैं।

फिर मँझले दादा जी यानी पप्पू के इसी चचेरे बड़े चाचा जी के पिता जी यानी उसके मृत दादा जी के मँझले भाई की आवाज आई - " साल भर में एक बार आने वाला त्योहार है। पता नहीं अपने आप को समझता क्या है। चार अक्षर पढ़-लिख क्या गया है , एकदम दिमाग सातवें आसमान पर चढ़ा रहता है इसका। "
" नहीं आना है ना आए .. कम से कम अपना कलम-दवात तो भेज देता पूजा के लिए ..." - छोटे वाले दादा जी बीच का रास्ता निकालते हुए बोले।

" नहीं आ रहा है तो छोड़िए उसको। पूजा की मुहूर्त निकली जा रही है। सबको तेज भूख भी लगी है। अभी बजरी खाने में भी समय लगेगा वह अलग। एकदम बदतमीज हो गया है।"- उन्हीं बड़े चचेरे चाचा जी की बड़बड़ाहट थी, जिनको उनके द्वारा पप्पू के बुलाने पर भी उसके ना आने के कारण उनको अपनी मानहानि लगने से उत्पन्न गुस्से को शांत करने के लिए निकल रही थी - " देखे नहीं उस दिन बांसघाट (बिहार की राजधानी पटना में गंगा नदी के किनारे बसे कई श्मशान घाटों में से एक) पर छोटका बाबू जी के 'दसमा' (पप्पू जिस सम्प्रदाय विशेष से सम्बन्ध रखता है, वहाँ किसी सगे के मरने के बाद दाहसंस्कार के दसवें दिन सभी पुरुष अपना बाल मुड़वाते हैं और दोनों हाथों-पैरों के सारे नाखून कटवाते हैं) में बाल नहीं ही मुंडवाया, केवल नाखून कटवाया। हीरो बन गया है। खाली कुतर्क करता रहता है। "

अक़्सर हमारे अभिभावक अपने बच्चों को डांटने , कोसने या मारने-पीटने का काम उस बच्चे के सुधारने या सुधरने के लिए कम बल्कि  अपने स्वयं के मन के गुस्सा को शांत करने के लिए ज्यादा ही करते हैं।
जिस त्योहार की बात हो रही है वह दरअसल दीपावली के एक दिन बाद हिन्दी कैलेंडर के मुताबिक़ कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष के दूसरे दिन हिन्दू सम्प्रदाय के तथाकथित कायस्थ जाति के लोग अपने तथाकथित कलम-दवात के देवता यानी ईष्ट भगवान- चित्रगुप्त का पूजन कर के मनाते हैं। इसे चित्रगुप्त-पूजा या दवात-पूजा या कलम-दवात की पूजा भी कहते हैं। बिहार में इस जाति को लाला भी कहते हैं। ये जाति बारह उपजातियों में बँटी हैं जो पूरे देश और विदेश में भी अलग-अलग जातिसूचक उपनाम के साथ पाई जाती हैं।इस त्योहार के दिन अन्य हिन्दू जाति के लोग यमद्वितीया के नाम से मनाते हैं। कहीं-कहीं बजरी कूटने के नाम से भी जाना जाता है।

"चित्रगुप्त व्रत कथा" नामक धार्मिक पुस्तिका में लिखी गई पूजन-विधि का अनुसरण करते हुए उस कथा का संस्कृत या हिन्दी या फिर बारी-बारी से दोनों भाषा में वाचन किया जाता है। कहीं-कहीं तथाकथित ब्राह्मण यानि पंडी (पंडित) जी को इस वाचन के लिए बुलाया जाता है या फिर घर का ही कोई भी एक सदस्य इसे पढ़ता है और अन्य सभी ध्यानपूर्वक सुनते हैं। परिवार के सभी सदस्य सुबह से उपवास में रहते हैं और पूजन-समापन के बाद ही चरणामृत और प्रसाद ग्रहण करने के बाद अगर किन्ही पुरुष की बहन रही तो उसके हाथों से कूटे गए बजरी (इसको बजरी कूटना ही कहते हैं) खाकर उसके हाथों बने शुद्ध शाकाहारी भोजन ग्रहण करते हैं।

हम में से अधिकांश को यह ज्ञात होगा कि एक समय था जब फाउन्टेन पेन यानि कलम और दवात की स्याही का संगम ही लिखने का एकमात्र साधन था। एक दिन पहले ही रात में घर के सारे कलम-दवात इक्कठे कर लिए जाते थे। सुबह उन सब की पानी-साबुन के साथ धुलाई होती थी। उस दिन कोई भी कलम नहीं छूता था यानि लिखने का काम नहीं होता था। बच्चे लोग खुश होते थे कि उस दिन पढ़ाई-लिखाई से छुटकारा मिल जाती थी या आज भी मिल जाती है। पूजा के लिए विशेष कंडे लाए जाते थे और उसे चाकू से छील कर पुरखों की संस्कृति और परम्परा को निभाते हुए उसी को दवात वाले स्याही में डूबा कर एक कागज़ पर रोली और घी से बनाए गए चित्रगुप्त भगवान की कार्टूननुमा चित्र के नीचे कुछ मंत्र लिखे जाते थे और आज भी इस परम्परा की निर्वाह की जाती है। मंत्रों के नीचे फिर सभी उसी कागज पर अपनी-अपनी सालाना आमदनी और खर्च लिखते हैं। बड़ी चतुराई से आमदनी से ज्यादा खर्च लिख कर दिखाया जाता है, इस मान्यता के साथ कि आमदनी से ज्यादा खर्च लिख कर दिखाने से भगवान जी उस अंतर की भरपाई करने के लिए आमदनी अपनी कृपा से बढ़ा देंगें। मतलब बच्चों को बचपन से ही अन्जाने में बड़े-बुजुर्ग छल-प्रपंच सिखाते हैं।
वैसे डॉट पेन और बॉल पेन के आने के पहले तक लिखने का एकमात्र साधन फाउंटेन पेन और पेन्सिल ही थी। उस कलम के लिए नीले, काले, लाल और हरे रंग की तरल स्याही, जो काँच के दवात में उपलब्ध थी , को भर कर कलम में लगे नीब के सहारे लिखा जाता था।

हाँ तो .. वे लोग पप्पूआ के नहीं आने पर पूजा प्रारम्भ कर दिए। ना चाहते हुए भी कानों में बड़े चचेरे भईया द्वारा उस तथाकथित पावन कथा की आवाज़ कान तक आ रही है। पहले कुछ अंश संस्कृत में फिर उसके अर्थ हिन्दी में पढ़ा जा रहा है। प्रायः संस्कृत तो बस अंक लाने तक ही रट कर समझ कर आता है .. तो हिन्दी वाले वाक्य पप्पू समझ पा रहा है।

" भीष्म जी बोले - हे युधिष्ठिर ! (शायद वही महाभारत वाले हैं) पुराण संबंधी कथा कहता हूँ। इसमें संशय नहीं कि इस कथा को सुनकर प्राणी सब पापों से छूट जाता है। "

पप्पू मन ही मन बुदबुदाता है - " मन तो कर रहा कि पूरे परिवार, समाज, देश .. सभी बुद्धिजीवियों से सवाल करूँ कि अगर किसी कथा के सुन भर लेने से पाप से छुटकारा मिल जातीA हो तो क्या ऐसी कथा सुननी चाहिए !? ऐसी कथा समाज में पाप के फैलाव में मददगार साबित नहीं होगा क्या !? तब तो रोज पाप करो और एक दिन क्यों साल के 365 - 366 (अधि/वृद्धि वर्ष में) दिन ये कथा सुनकर पापी पापमुक्त हो जाए। नहीं क्या !???

" सतयुग में नारायण भगवान् से , जिनकी नाभि में कमल है। उससे चार मुँह वाले ब्रह्मा जी पैदा हुए ... ब्रह्मा जी ने मुख से ब्राह्मणों को, बाहुओं से क्षत्रियों को , जंघाओं से वैश्यों को और पैरों से शूद्रों को उत्पन्न किया और ... "

अब नाभि में कमल, चार मुँह वाले ब्रम्हा जी और उनके मुख, बाँह, जाँघ व पैर से अलग-अलग जाति के मनुष्य का जन्म लेना जैसी ऊटपटाँग बातें वहाँ अपने बुजुर्गों के साथ पालथी मारकर बैठे और कथा सुन रहे अंग्रेजी मीडियम से प्राइवेट स्कूल में पढ़ने वाले चचेरे छोटे भाई बंटी के समझ से परे थी। वह चुपके से सू-सू के बहाने उठ कर एक सरकारी स्कूल में दसवीं कक्षा में पढ़ने वाले अपने उसी पप्पू भईया के पास भाग आया। सवाल दागने लगा - " पप्पू भईया ऐसा सच में होता है क्या !? मतलब हम सोच रहे हैं कि आगे की उच्च क्लासों में या कहीं कॉलेज में इस तरह का विज्ञान भविष्य में हमको पढ़ाया जाए। अभी तक के जीव-विज्ञान के किताब, कोर्स या क्लास में ऐसा सब नहीं पढ़ाया गया है। "
पप्पू के छः दादा जी में से चार दादा जी का भरा-पूरा परिवार परदादा जी की संपत्ति वाले एक ही बड़े से मकान के अलग-अलग हिस्से में रहता है। कुल तैंतीस लोगों की सदस्यता है। बाक़ी के दो दादा जी का परिवार पटना से बाहर के शहरों में जहाँ नौकरी करने गए वहीं जगह-जमीन लेकर बस गए।

गुस्से से पप्पू की मुट्ठियाँ भींच जाती है और वह जोर से अपनी भिंची मुट्ठी अपने और सामने ही आकर बैठे बंटी के बीच पड़े मेज पर पटकता है - " बंटी ... ऐसा कुछ भी सच ना था  और ना है। अगर सच होती ये सारी बातें तो निश्चित तौर पर हमारे-तुम्हारे पाठ्यक्रम में जोड़कर हमें पढ़ाई जाती। अचरज तो इस बात की है कि पोंगापंथी वाला इंसान अगर कोई नासमझी करे तो बात समझ में आती है पर अपने ही घर में देखो ना सारे चाचा जी लोग, दादा जी लोग, मेरे पापा , तुम्हारे पापा .. कोई पदाधिकारी, कोई वकील, कोई डॉक्टर, कोई इंजिनीयर, कोई प्रोफेसर .. सारे के सारे पढ़े-लिखे लोग हैं ... साथ में सारे पढ़ने वाले भाई-बहन ... सब के सब साल-दर-साल इस कथा को अन्धानुसरण करते हुए दुहरा रहे हैं। अपनी जाति-विशेष और उनमें भी कई उपजाति-विशेष की धारणा पाले गर्दन अकड़ाए हुए हैं। " - जग से गिलास में पानी डाल कर पी कर आगे बोला - " चलो ... तुम आ गए .. अच्छा किए। इनको बोल कर समझा नहीं सकते, बोल कर विरोध नहीं कर सकते तो ... कम-से-कम ऐसे मौकों में शामिल ना होकर तो विरोध जताया ही जा सकता है ना भाई। "
दोनों आँखों में आँखें डाले मुस्कुराते हैं। अब बंटी के बोलने की बारी थी - " अपने वर्त्तमान अभिभावक या गुजरे पुरखे ना सही भईया .. हमारी और आगे आने वाली पीढ़ी कभी ना कभी तो इस मिथक की कलई उघाड़ सकेगी और मिथक के पीछे का ठोस धातु हम अंधपरम्परा और अंधश्रद्धा के चश्मे को हटाकर अपनी नंगी आँखों से निहार पायेंगें।"

लगभग 1980 के इस बीते घटना का चौदह वर्षीय चश्मदीद कुतर्की पप्पू  दरअसल  मैं  ही हूँ।

स्लीवलेस से झाँकती ...

बिग एफ़ एम् 92.7 पर सोम से शुक्र तक
बस यूँ ही देर रात सोते वक्त आँखें मूंदें 
9 से 11 जब तुम पास ही बिस्तर पर लेटे
खोई रहती हो कानों में ब्लू-टूथ लगाए हुए
"यादों का इडियट बॉक्स विद नीलेश मिश्रा" में
उसकी रुमानियत भरी कहानियों में कम और ...
कुछ थोड़ा ज्यादा ही उसकी खनकती आवाज़ों में
उस वक्त तुम्हारे इस स्टुपिड की उंगलियाँ रहती हैं
खोई-खोई खुले-बिखरे पर घने बालों में तुम्हारे
साथ में सोंधाती रहती है शैम्पू मिले सुगंध से मेरी साँसें...

अक़्सर फ़ुर्सत के पलों में अपने मोबाइल से
यू-ट्यूब में ढूंढ-ढूंढ कर निकालती हो
जब कभी कुमार विश्वास की कविताओं वाली
कई सारी वीडियो एक के बाद एक
पर उसकी कविताओं से थोड़ी कम
और मनमोहक अदाओं से ज्यादा जब-जब
चमक उठती हैं तुम्हारी शोख़ी भरी निगाहें
उस वक्त तलाशता रहता है तुम्हारा यह स्टुपिड
ख़ुद को उन चमक भरी तुम्हारी निगाहों में
टटोलते हुए तुम्हारे बचपन में तुमको लगाए गए
चेचक के टीके की दाग़ वाली स्लीवलेस से झाँकती तुम्हारी बाँहें...

निहारती हो सोशल मिडिया में जब-जब चिपके हुए
कई मनमोहक स्टेटस वाले चन्द चॉकलेटी चेहरे  
उन्हीं की दो-चार पंक्तियों पर जबरन चिपकायी हुई 
या कुछ उम्रदराज़ पर ... मनचले शायरों की रूमानी शायरी
कुछ अपने मनपसन्द ग़ज़लकारों की ग़ज़लें
या फिर ठहरती हो पढ़ने कुछ पोस्ट भी अतुकान्त रचनाओं वाले
मिले फ़ुर्सत के पलों में मानो गुम हो उनमेंं डूब-सी जाती हो ..
मन ही मन मुदित हो मंद-मंद मुस्कुराती हो
अपनी गुदगुदाती प्रतिक्रियाएं और लाल दिल वाली स्माइली
उछालने की ख़ातिर मोबाइल की स्क्रीन पर उंगलियाँ दौड़ाती हो
उस वक्त बस डूब-सा जाता है ये तुम्हारा स्टुपिड
तुम्हारे चेहरे की रुमानियत भरी झील की गहराइयों में ...




Friday, February 14, 2020

तलाशो ना जरा वसंत को ...

रंग चुके हैं अब तक मिलकर हम ने सभी
कई-कई कागजी पन्ने नाम पर वसंत के
'वेब-पेजों' को भी सजाए हैं कई-कई
आभासी दुनिया के 'सोशल मिडिया' वाले
गए भी खेतों में अगर कभी सरसों के
कोई भी हम में से .. मिली फ़ुर्सत जब जिसे
रही तब भी ध्यान कम फूलों पर सरसों के
रही ज्यादा अपनी 'सेल्फ़ियों' पर ही हम सब के
आओ ना ! मिल कर तलाशो ना जरा वसंत को 
जो 'वेलेंटाइन डे' में है अब शायद खो रही ...

कविताओं, कहानियों और गीतों में हम
शब्दकोश के चुराए शब्दों से अक़्सर
शब्दचित्र भर वसंत के हम इधर गढ़ते रहे
होते गए अनभिज्ञ उधर युवा भी सारे
मनमोहक, मादक, महुआ के सुगंध से
खोती भी गई कोयल की मीठी तरंगों वाली कूकें
कानफाड़ू 'डी. जे'. में 'कैफेटेरिया' .. 'रेस्तराओं' के
और .. बसन्ती बयार वातानुकूलित बहुमंजिली 'मॉलों' में
आओ ना ! मिल कर तलाशो ना जरा वसंत को 
जो 'वेलेंटाइन डे' में है अब शायद खो रही ...

माघ, फाल्गुन, चैत्र .. तीन माह वाली अपनी वसंत
खा रही है शायद अब तो साल-दर-साल मात 
सात दिनों वाले 'वैलेंटाइन डे' के बाज़ारीकरण से
मिठास मधु जैसी मधुमास की तो खो रही 'चॉकलेट डे' में
सरसों, सूरजमुखी, शिरीष, आम की मंजरियाँ, टेसू प्यारे
गुलदाउदी, गेंदा, डहेलिया, कमल, साल्विया ... सारे के सारे
सब खो रहे हो कर बोझिल 'रोज़ डे' के बाज़ारवाद में
मनुहार रूमानी मशग़ूल हो .. खो गई 'प्रोपोज़ डे' में
आओ ना ! मिल कर तलाशो ना जरा वसंत को 
जो 'वेलेंटाइन डे' में है अब शायद खो रही ...