Saturday, December 7, 2019

हालात ठीक हैं ...

1947 की आज़ादी वाली कपसती रात हों
या हो फिर 1984 के उन्मादी दहकते दंगे
मरते तो हैं लोग .. जलती हैं कई ज़िन्दगियाँ
क़ुर्बानी और बलि के चौपायों से भी देखो ना
ज्यादा निरीह हैं आज भी यहाँ लड़कियाँ
बस मंदिरों-गिरजों में हिफाज़त से रखी
बेजान "मूर्त्तियों" के हालात ठीक हैं ...

पुस्तकालयों के फर्नीचर हैं कुछ जर्जर
सरकारी अस्पतालों की स्थिति है बद से बदतर
सरकारी स्कूलों के "डे-मील" खा रहे हैं "बन्दर"
बस शहर के मंदिरों-मस्जिदों के फर्श चकाचक
और इनके कँगूरे-मीनारों के हालात ठीक हैं ...

उतरते हैं खादी कुर्ते .. और नंगी तोंदों के नीचे
नग्न बेटियाँ होती हैं दफ़न .. घुंट जाती हैं कई चीखें
फिर भी "विधाता" मौन .. कसाईखाना बन जाता है
"बालिका सुरक्षा गृह" रात के अँधियारे में
और जो पोल ना खुले जो दिन के उजियारे में
तो समझो रजिस्टर में नाम और गिनतियों के
सरकारी सारे आंकड़ों के हालात ठीक है ...

कुछ लड़कियों के लिए कोख़ बना है दोजख़
कुछ दहेज़ के लिए सताई या फिर जलाई गई है
टूटती हैं कानूनें .. उड़ती हैं इनकी धज्जियाँ
'नेफ्थलीन' वाली अलमारियों में कानूनों की
मोटी-मोटी किताबों के हालात ठीक हैं ...

बलात्कार सरेराह है हो रहा .. दिन हो या रात
हो गई है दिनचर्या .. जैसे हो कोई आम बात
बच्ची हो या युवती .. फटेहाल या फिटफाट
या फिर बुढ़िया कोई मोसमात
बलात्कार रुके ना रुके पर लग रहा
यहाँ सोशल मीडिया और मीडिया की
'टी.आर.पी.यों' के हालात ठीक हैं ...

दरअसल .. सजती हो जब अक़्सर यहाँ
पांचसितारा होटलों की मेजों पर प्लेटें
या 'डायनिंग टेबल' पर घर की थालियाँ
ज़िबह या झटका से मरे मुर्गों के टाँगों से
तो भला "मुर्गों" से पूछता कौन है कि -
" क्या हालात ठीक है ??? "...

Thursday, December 5, 2019

" सूरज आग का गोला है। " (लघुकथा).

हमारे भारतीय समाज में परिवार की आदर्श पूर्णता वाले मापदण्ड यानि दो बच्चें - हम दो , हमारे दो - और ऐसे में अगर दोनों में एक तथाकथित मोक्षदाता- बेटा हो, तब तो सोने पर सुहागा। उसी मापदण्ड के तरह ही ट्रक-ड्राईवर रमुआ और उसकी धर्मपत्नी- रमरातिया को भी एक सात साल की बिटिया- सुगिया और एक पाँच साल का बेटा- कलुआ है।

दोनों भाई-बहन अपने गाँव के ही पास वाले एक ही मिडिल स्कूल के एक ही कक्षा- तीन में पढ़ते हैं। दरअसल  सुगिया के दो साल बड़ी होने के बावजूद उसकी पढ़ाई भी भाई कलुआ के साथ ही शुरू करवाई गई थी।

एक दिन सामान्य-विज्ञान की कक्षा में शिक्षक पढ़ा रहे थे - " बच्चों ! सूरज आग का गोला है। "
उसी समय दोनों भाई-बहन कक्षा में ही ऊँघ रहे थे। शिक्षक महोदय की नज़र उन दोनों पर पड़ते ही वे आग-बबूला हो गए। अपने हाथ की हमजोली ख़जूर की छड़ी सामने के मेज पर पटकते हुए बोले - " का (क्या) रे तुम दोनों रात भर खेत में  मिट्टी कोड़ रहा था का (क्या)? चल ! इधर आके (आकर) दुन्नो (दोनों) मुर्गा बन के खड़ा हो जाओ। "
कलुआ अपनी शरारती आदतानुसार मुर्गा बनने के पहले बोल पड़ा - " सर ! हम तअ (तो) मुर्गा बन ही जाएंगे, पर सुगिया दीदी के तअ (तो) मुर्गी बने पड़ेगा ना !? "
कक्षा के सारे विद्यार्थी ठहाका मार के हँस पड़े। पर प्रतिक्रिया में शिक्षक के चिल्लाते हुए डाँटते ही - " चुप !!! .. शांति से रहो सब। ना तो सब के धर (पकड़) के कूट देंगें। समझे की नहीं !? " सब सटक सीता-राम हो गए।

तभी सुगिया रुआंसी हो कर बोल पड़ी -" सर ! हमलोग सच में रात भर सो नहीं पाए हैं। कल भोरे (सुबह) से लेकर रातो (पूरी रात) भर आ स्कूल आबे (आने) के समय तक घर के  बगल में फूल्लन चच्चा (चाचा) के घरे (घर) "जागरण" हो रहा था सर। खूब जोर-जोर से लाउडस्पीकर में "हरे रामा- हरे कृष्णा - कृष्णा, कृष्णा - हरे-हरे " चिल्लाने की आवाज़ आ रही थी सर।"-  लगभग रो पड़ी थी सुगिया - " अब एकरा में हम दुन्नो (दोनों) भाई-बहिन के का (क्या) दोष है सर!? आज भर माफ़ कर दीजिए ना। अब से ना करेंगे ऐसा।"

"जाओ ! जा के बैठो दुन्नो (दोनों) अप्पन-अप्पन (अपना -अपना) सीट पर। " - शिक्षक महोदय के इतना कहते ही दोनों अपने-अपने जगह पर वापस जा कर बैठ गए।

लेकिन कलुआ तो ठहरा शरारती .. जाते-जाते तपाक से पूछ बैठा सर से - " आयँ ! सर ! भगवान जी बहिरा (बहरा) हैं का (क्या) !? .. जे (जो) एतना (इतना) जोर से सब चिल्लाते हैं। उ (वो) भी भोरे (सुबह) से लेके (लेकर) रातो (पूरी रात) भर। एकदम से मन अनसा (चिड़चिड़ा) जाता है। " - अपनी दीदी-सुगिया की ओर मुँह करके - " है की ना दीदी !? ".

" चुप ! चुपचाप बैठ। ना तो फिर मुर्गा बना देंगे तुमको। " - शिक्षक के गुर्रारते ही कलुआ शांत हो गया।

शिक्षक महोदय इस व्यवधान के बाद फिर से विज्ञान पढ़ाना शुरू कर दिए - " हाँ तो बच्चों ! सूरज आग का गोला है। "

तभी कलुआ से रहा नहीं गया। भरी कक्षा में खड़ा हो कर बीच में ही आश्चर्य भरे लहजे में अपने शिक्षक से बोला - " पर सर ! मम्मी आ दादी तअ कहती है कि सूरज भगवान हैं। ठेकुआ वाला भगवान। आउर (और) उनकी दु ठो (दो) पत्नी भी है। एगो (एक) रथ भी है जिसको सात गो घोड़ा मिलकर दौड़ाता है। उसी से तो दिन और रात होता है। "

" चुप ! चुपचाप बैठ। ना तअ (तो) अभी सच में मुर्गा बना देंगे तुमको। बहुत ज्यादा मुँह चलाता है। " - शिक्षक जी जोर से बमक कर उसे घुड़के और फिर पढ़ाने लगे - " हाँ .. तो बच्चों सूरज आग का गोला है। "

( "गो"/"ठो" - बिहार राज्य में स्थानीय भाषा में अंक या संख्या को बोलते समय उनके बाद "गो" या "ठो" का इस्तेमाल धड़ल्ले से होता है। )

Monday, December 2, 2019

मलिन मन के ...

बस कुछ माह भर ही .. साल भर में
मानो हो किसी मौसम विशेष में
जैसे कोयल की कूक बसंत में
या मेढकों की टर्रटर्र बरसात में
वैसे ही जाड़े की आहट पाते ही
कंधे पर लादे अपने "धुनकी" और "मुठिया"
साथ ही "गज" सम्भाले हाथों में
गली-गली मुहल्लों में फेरी लगाते
या फिर किसी रुई की दुकान पर
दिख ही जाते हो तुम हर साल बारहा
हर बार अपने दोनों सधे हाथों की
लयबद्ध मशीनी हरक़तों से
कोई भी पुरानी रजाई की
तकिया या तोशक की
पुरानी रुई के पुराने रेशे को
कर देते हो कुछ पल में ही
मैल-गर्द मुक्त और हल्के भी
मानो लयबद्ध धुन से सजे
बजता हो कोई जैसे एकतारा
है ना "धुनिया" भईया !!?

कई दफ़ा तो गढ़ते हो नई रजाई
तकिए .. मसनद और तोशक भी
नई विवाहित जोड़ों के लिए भी
नई-नई हल्की-मुलायम रुइयों से
और कई दफ़ा तो तुम
फैलाते हो आस-पास प्रदूषण भी
धुनते वक्त पुरानी रुइयाँ
खैर! जाने भी दो ना तुम
एक तुम ही तो नहीं हो जो
फैला रहे प्रदूषण
पर्यावरण में चहुँओर
कई सुसंस्कृत .. सुसभ्य लोगों ने भी
फैलाया है प्रदूषण पुरखों के परम्परा निभाते
हाल ही में तो दीपावली के बहाने
और बारात में हैसियत दिखाते
और हाँ .. अभी-अभी तो थी चर्चे में
बहुत 'पराली' भी भईया .. है ना !?
पर क्या करना जब हम कुछ
कर नहीं सकते इसकी ख़ातिर तो
फिर क्यों सोशल मिडिया पर
बेवज़ह हमारा बकबकाना 
है ना "धुनिया" भईया !!?

पर एक बात बार-बार क्यों मन में आती कि ..
काश ! होती "धुनकी" कोई ऐसी
जो साल में एक बार ही सही
उतार देती मलिन मन के भी
द्वेष-दुःख वाले गर्द सारे हमारे और
हो जाता फिर से हल्का हमारा मन
मानो लौट आया हो जैसे बचपन
या काश! उतार पाते तुम भाई
किसी पुरानी रजाई-सी समाज से
जाति-धर्म के पुराने खोल
और पहना देते फिर से नया-नया
केवल मानव का खोल अनोखा
है ना "धुनिया" भईया !!?

Saturday, November 30, 2019

शहर सारा ख़ामोश क्यों है ?

अक़्सर देखता हूँ शहर में हमारे
"लगन" वाली रातों के .. प्रायः हर बारात में
आतिशबाजियों के साथ-साथ में
उड़ती हैं धज्जियाँ चार-चार क़ानूनों की कैसे
एक ही साथ समक्ष अपने सभ्य समाज के ...
फिर भी बुद्धिजीवी शहर सारा ख़ामोश क्यों है ?
"एक असभ्य कुतर्की" बारहा ये पूछता है ...

उम्र भर की कमाई लुटाता कहीं मार कर मन
कुछ करते मन से भी दो नम्बरी कमा कर धन
पर कन्या का पिता फिर भी करता करबद्ध नमन
और रोता है "दहेज़ निषेध अधिनियम,1961"
कहीं बंद क़ानूनों की किताबों में सुबक कर
फिर भी बुद्धिजीवी शहर सारा ख़ामोश क्यों है ?
"एक असभ्य कुतर्की" बारहा ये पूछता है ...

भौंडी नागिन नाच .. भौंडे ऑर्केस्ट्रा के गाने
"डेसीबेल" से बेख़बर लाउडस्पीकर .. बैंड-बाजे
जिस राह से गुजरते करते शोर-शराबे
आग .. धुएँ .. शोर .. बिखेरते जलते पटाखे
संग-संग  "ध्वनि प्रदूषण नियम, 2000" और
"वायु अधिनियम, 1981" को सरेआम जलाते
फिर भी बुद्धिजीवी शहर सारा ख़ामोश क्यों है ?
"एक असभ्य कुतर्की" बारहा ये पूछता है ...

टूटता है क़ानून चौथा जब टूटती हैं खाली
बोतलें शहर "पटना"में हमारे जो है
राजधानी भी राज्य बिहार की
कहते हैं लोग कि शायद है लागू यहाँ
"बिहार शराबबंदी क़ानून,2016" अभी भी
दिख जाते हैं लड़खड़ाते बाराती फिर भी
फिर भी बुद्धिजीवी शहर सारा ख़ामोश क्यों है ?
"एक असभ्य कुतर्की" बारहा ये पूछता है ...

परम्पराएं हैं शायद सदियों से बनाई पुरखों की
कहते हैं सुसभ्य, सुसंस्कारी, अधिकारी भी सारे
भईया! इसको तो कर्ज़ लेकर भी निभानी पड़ेगी
होते ही हैं सभी बुद्धिजीवी भी हर बार शामिल
क़ीमती लिबासों में बन कर इनमें बाराती
टूटते क़ानूनों के साथ है सभ्यता बेबस कसमसाती
फिर भी बुद्धिजीवी शहर सारा ख़ामोश क्यों है ?
"एक असभ्य कुतर्की" बारहा ये पूछता है ...











Friday, November 29, 2019

अम्मा !...

अम्मा !
अँजुरी में तौल-तौल डालती हो
जब तुम आटे में पानी उचित
स्रष्टा कुम्हार ने मानो हो जैसे
सानी मिट्टी संतुलित
तब-तब तुम तो कुशल कुम्हार
लगती हो अम्मा !

गुँथे आटे की नर्म-नर्म लोइयाँ जब-जब
हथेलियों के बीच हो गोलियाती
प्रकृति ने जैसे वर्षों पहले गोलियाई होगी
अंतरिक्ष में पृथ्वी कभी
तब-तब तुम तो प्राणदायनि प्रकृति
लगती हो अम्मा !

गेंदाकार लोइयों से बेलती वृत्ताकार रोटियाँ
मानो करती भौतिक परिवर्त्तन
वृताकार कच्ची रोटियों से तवे पर गर्भवती-सी
फूलती पक्की रोटियाँ
मानो करती रासायनिक परिवर्त्तन
तब-तब तुम तो ज्ञानी-वैज्ञानिक
लगती हो अम्मा !

गूंथती, गोलियाती, बेलती,
पकाती, सिंझाती, फुलाती,
परोसती सोंधी-सोंधी रोटियाँ
संग-संग बजती कलाइयों में तुम्हारी
लयबद्ध काँच की चूड़ियाँ।
तब-तब तुम तो सफल संगीतज्ञ
लगती हो अम्मा !.


Thursday, November 28, 2019

शहीद-स्मारक

तुम्हारे सीनों को जब
फिरंगियों की बेधती
निर्दयी गोलियाँ
बना गई होगी
बेजान लाशें तुम्हें ..

बेअसर रही होगी
तब भी भले ही
मन्दिरों की
तमाम बेजान
पाषाण-प्रतिमाएं ..

पर बेज़ार
बिलखी होंगीं
घर तुम्हारे
बेबस .. बेताब
तुम्हारी जननी माँएं ...

सन् उन्नीस सौ बयालीस ईस्वी के ग्यारह अगस्त तदनुसार विक्रमी संवत उन्नीस सौ निन्यानवे के श्रावण मास कृष्ण पक्ष चतुदर्शी तिथि मंगलवार को बिहार की राजधानी पटना में अवस्थित




बिहार सचिवालय भवन पर राष्ट्रीय पताका फहराने के प्रयास में सात नवयुवक छात्रों ने विदेशी सरकार की गोलियों का सामना कर के वीर गति पाई। 1942 में ब्रिटिश हुकूमत को चुनौती देते हुए सूबे के ये सातों लाल पुलिस की गोलियों से छलनी कर दिए गए थे। बापू के आह्वान पर अगस्त क्रांति में शामिल हो गए और सचिवालय पर तिरंगा फहराने की कोशिश करते हुए शहीद हो गए।
भारत माता के नाम पर अपने प्राणों की आहूति दे दी। हमारी आजादी के लिए घर-परिवार भूल गए। अफसोस कि आज उन्हीं शहीदों को हम सब भूल रहे हैं।
हर साल 11 अगस्त को उनकी स्मृति एक रस्म अदायगी बनकर रह गई है। सातों युवा पटना के स्कूल-कॉलेजों के छात्र थे। देश या राज्य या फिर जिला की बात कौन कहे, उनके स्कूल-कॉलेज भी उन्हें याद रखने को तैयार नहीं। सात में से पांच की कोई तस्वीर नहीं है उनके संस्थान में। उनसे जुड़े तमाम रिकॉर्ड नष्ट हो चुके हैं।
स्वतन्त्र भारत की बिहार सरकार द्वारा निर्मित यह स्मारक भारत माता के इन सपूतों के बलिदान की पुण्य स्मृति में श्रद्धा समेत निवेदित है।

अहिंसक क्रांति में प्राणों की बलि देने वाले सात वीर :-
१) स्व. उमाकान्त प्रसाद सिंह
२) स्व. रामानन्द सिंह
३) स्व. सतीश प्रसाद झा
४) स्व. जगपति कुमार
५) स्व. देवी प्रसाद चौधरी
६) स्व. राजेंद्र सिंह
७) स्व. राम गोविन्द सिंह।

सालों भर इनकी मूर्तियाँ नभचरों के बीट और स्थानीय नागरिकों की तरह शहर की प्रदूषण भरी हवा के धूल-कणों की परत से आच्छादित होती रहती हैं।
आज मॉल और आधुनिक पार्कों की संस्कृति इनकी महत्ता को धूमिल करती जा रही है। इस राह से गुजरता शायद ही कोई व्यस्त यातायात में इनकी ओर देखता भर भी हो। मन्दिर की बेजान मूर्तियों की तरह इनके समक्ष कोई नतमस्तक नहीं होता। मन्दिरों के संगमरमरी फर्श की तरह इनका फर्श नहीं चमकता।
काश! किसी सरकारी एक दिवसीय खानापूर्ति से परे इन शहीदों के शहीद हुए हौसलों और सपनों को याद कर हम अपनी एक जोड़ी आँखे नम और उनकी मूर्तियों के आगे ही सही नमन कर पाते।
आज भी इनकी मूर्तियों की उपेक्षित सूनी आँखें पटना सचिवालय की ओर ताकती हुई मानो सचिवालय के घड़ी-स्तम्भ के चारों ओर की चारों घड़ियों की टिक-टिक में अपने ख़ामोश हो चुके हृदय-स्पन्दनों को महसूस कर रही हों।
भावी पीढ़ी को भी उनके पाठ्यक्रमों की पुस्तकों में हम इन्हें पढ़ा भी रहे हैं, तो बस .. अंक प्राप्ति के लिए। इस सन्दर्भ से हट कर भी हमें पढ़ाई को अंक-प्राप्ति के साधन से परे ज्ञान और अहसास का माध्यम बनाना चाहिए। चाहे वह विषय इतिहास-भूगोल का हो या विभिन्न विज्ञान का।
और हाँ ... खुद के और अपने परिवार के मोह से अलग अंग्रेजों की ग़ुलामी को नकारने वाले इन शहीद हुए उत्साही युवाओं के नाम के आगे लगा स्व. (स्वर्गीय) शब्द खटकता है। स्वर्गीय के जगह शहीद शब्द जोड़ा जाना चाहिए था .. शायद ..।
वैसे भी स्वर्ग की प्राप्ति के लिए तो कार्तिक माह में गंगा में और कुम्भ के समय संगम में स्नान करना पड़ता है ना !? पर ये लोग तो अपने गर्म लहू में नहाए थे। तब तो ये वैसे भी स्वर्गीय हो ही नहीं सकते ना ! ... है कि नहीं !???

Monday, November 25, 2019

एक विधवा पनपती है ... (आलेख).

एक ऐतिहासिक क़ब्रिस्तान के बहाने ...

जीत का ज़श्न हो कहीं या
हार का मातम कहीं .. कभी भी
अपनों की हो या दुश्मनों की
लाश तो लाश होती है
है ना !? ...

इस लाश की शाख़ पर
देखा है आपने भी अक़्सर
या तो कई अनाथ बिलखते हैं
या एक विधवा पनपती है
है ना !? ...

(निम्नलिखित एक ऐतिहासिक क़ब्रिस्तान-पटना सिटी क़ब्रिस्तान को निहारने के क्रम में उपर्युक्त चंद पंक्तियाँ मन में कुलबुलायी थीं। अब उसका ऐतिहासिक विवरण ...)

" पटना सिटी क़ब्रिस्तान "
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पूर्व की ओर लगातार ईस्ट इण्डिया कम्पनी से हारने और पीछे हटते जाने पर मज़बूर नवाब मीर कासिम ने September' 1763 में मुंगेर ( बिहार ) में नरसंहार किया। बदले की आग तब भी न बुझने पर  उसने 5 तथा 11 October'1763 को 198 अंग्रेज कैदियों को मौत के घाट उतार दिया।
वाल्टर रीनहार्ट या सोमरू (क्योंकि उनका चेहरा सदा गंभीर या 'Somber' बना रहता था) जो मीर क़ासिम के लिए कार्य करने वाले जर्मन काइयां कर्मचारी था, इस नरसंहार को अंजाम देने वाला मुख्य व्यक्ति था। पटना फैक्ट्री का एक सर्जन डॉ. फुलरटन इससे बच पाने वाला एकमात्र व्यक्ति था।

पुरातन पटना कब्रिस्तान के एक कोने पर बंगाल सरकार द्वारा 1880 में एक शिला लगवाई गई जिसमें नरसंहार में मारे गए ईस्ट इण्डिया कम्पनी  के केवल 28 व्यक्तियों के नाम हैं। यह शिला 70 फीट ऊँची है, जिसके शिखर पर एक अवशेष-पात्र ( Urn ) है। यह मृतकों की यादगारी और ब्रिटिश साम्राज्य की नई स्थापित शक्ति की उद्घोषणा दोनों का प्रतीक था। स्मारक की वास्तुकला विभिन्न प्रकार की है जो पुराने संगमरमर से बने हैं।
कहते हैं कि यह उसी कुएँ के ऊपर बना है, जिसमें अंग्रेजों के मृत शरीर डाल दिए गए थे। यह हत्याकांड अली वर्दी खां के एक भाई हाफ़िज़ अहमद के घर पर ( जो शायद आज की चैरिटेबल डिस्पेंसरी के स्थान पर था ) और एक 40 खम्भों वाले हॉल "चहल सातून" ( मदरसा- मस्जिद की बगल में चिमनी घाट पर ) में हुआ। इस इलाके को ' गुरहट्टा' नाम से जाना जाता है। शायद यह क़ब्रिस्तान ( गोरस्थान ) के बगल में लगने वाले बाज़ार ( हाट ) का मिश्रण है। कुछ लोगों का मानना है कि इस जगह का नाम 1763 में गोरों की हत्या ( गोरा-हत्या ) से पड़ा। .

(N. B. - लेख शिला-लेख के आधार पर).