1947 की आज़ादी वाली कपसती रात हों
या हो फिर 1984 के उन्मादी दहकते दंगे
मरते तो हैं लोग .. जलती हैं कई ज़िन्दगियाँ
क़ुर्बानी और बलि के चौपायों से भी देखो ना
ज्यादा निरीह हैं आज भी यहाँ लड़कियाँ
बस मंदिरों-गिरजों में हिफाज़त से रखी
बेजान "मूर्त्तियों" के हालात ठीक हैं ...
पुस्तकालयों के फर्नीचर हैं कुछ जर्जर
सरकारी अस्पतालों की स्थिति है बद से बदतर
सरकारी स्कूलों के "डे-मील" खा रहे हैं "बन्दर"
बस शहर के मंदिरों-मस्जिदों के फर्श चकाचक
और इनके कँगूरे-मीनारों के हालात ठीक हैं ...
उतरते हैं खादी कुर्ते .. और नंगी तोंदों के नीचे
नग्न बेटियाँ होती हैं दफ़न .. घुंट जाती हैं कई चीखें
फिर भी "विधाता" मौन .. कसाईखाना बन जाता है
"बालिका सुरक्षा गृह" रात के अँधियारे में
और जो पोल ना खुले जो दिन के उजियारे में
तो समझो रजिस्टर में नाम और गिनतियों के
सरकारी सारे आंकड़ों के हालात ठीक है ...
कुछ लड़कियों के लिए कोख़ बना है दोजख़
कुछ दहेज़ के लिए सताई या फिर जलाई गई है
टूटती हैं कानूनें .. उड़ती हैं इनकी धज्जियाँ
'नेफ्थलीन' वाली अलमारियों में कानूनों की
मोटी-मोटी किताबों के हालात ठीक हैं ...
बलात्कार सरेराह है हो रहा .. दिन हो या रात
हो गई है दिनचर्या .. जैसे हो कोई आम बात
बच्ची हो या युवती .. फटेहाल या फिटफाट
या फिर बुढ़िया कोई मोसमात
बलात्कार रुके ना रुके पर लग रहा
यहाँ सोशल मीडिया और मीडिया की
'टी.आर.पी.यों' के हालात ठीक हैं ...
दरअसल .. सजती हो जब अक़्सर यहाँ
पांचसितारा होटलों की मेजों पर प्लेटें
या 'डायनिंग टेबल' पर घर की थालियाँ
ज़िबह या झटका से मरे मुर्गों के टाँगों से
तो भला "मुर्गों" से पूछता कौन है कि -
" क्या हालात ठीक है ??? "...
या हो फिर 1984 के उन्मादी दहकते दंगे
मरते तो हैं लोग .. जलती हैं कई ज़िन्दगियाँ
क़ुर्बानी और बलि के चौपायों से भी देखो ना
ज्यादा निरीह हैं आज भी यहाँ लड़कियाँ
बस मंदिरों-गिरजों में हिफाज़त से रखी
बेजान "मूर्त्तियों" के हालात ठीक हैं ...
पुस्तकालयों के फर्नीचर हैं कुछ जर्जर
सरकारी अस्पतालों की स्थिति है बद से बदतर
सरकारी स्कूलों के "डे-मील" खा रहे हैं "बन्दर"
बस शहर के मंदिरों-मस्जिदों के फर्श चकाचक
और इनके कँगूरे-मीनारों के हालात ठीक हैं ...
उतरते हैं खादी कुर्ते .. और नंगी तोंदों के नीचे
नग्न बेटियाँ होती हैं दफ़न .. घुंट जाती हैं कई चीखें
फिर भी "विधाता" मौन .. कसाईखाना बन जाता है
"बालिका सुरक्षा गृह" रात के अँधियारे में
और जो पोल ना खुले जो दिन के उजियारे में
तो समझो रजिस्टर में नाम और गिनतियों के
सरकारी सारे आंकड़ों के हालात ठीक है ...
कुछ लड़कियों के लिए कोख़ बना है दोजख़
कुछ दहेज़ के लिए सताई या फिर जलाई गई है
टूटती हैं कानूनें .. उड़ती हैं इनकी धज्जियाँ
'नेफ्थलीन' वाली अलमारियों में कानूनों की
मोटी-मोटी किताबों के हालात ठीक हैं ...
बलात्कार सरेराह है हो रहा .. दिन हो या रात
हो गई है दिनचर्या .. जैसे हो कोई आम बात
बच्ची हो या युवती .. फटेहाल या फिटफाट
या फिर बुढ़िया कोई मोसमात
बलात्कार रुके ना रुके पर लग रहा
यहाँ सोशल मीडिया और मीडिया की
'टी.आर.पी.यों' के हालात ठीक हैं ...
दरअसल .. सजती हो जब अक़्सर यहाँ
पांचसितारा होटलों की मेजों पर प्लेटें
या 'डायनिंग टेबल' पर घर की थालियाँ
ज़िबह या झटका से मरे मुर्गों के टाँगों से
तो भला "मुर्गों" से पूछता कौन है कि -
" क्या हालात ठीक है ??? "...
मार्मिक और समाज का नंगा सच लिख कर रख दिया
ReplyDeleteनमन आपको और आभार आपका अनीता जी !...
Delete
ReplyDelete***
शेल्टर होम मे हो दुराचार
रक्षक स्वयं करे व्यभिचार ।
रक्षक ही भक्षक बन जाये
तो,नहीँ चाहिए ऐसे लोग ।
बेटियों पर करते अत्याचार
कन्या पूजन कर,दोगला व्यवहार
मुँह मे राम बगल मे छुरी हो
तो नहीँ चाहिए ऐसे लोग ।
पाखंडी बाबाओ के आश्रम
में होते है सारे दुष्कर्म
सुधारक ही भ्रष्ट हो जाये
तो नही चाहिए ऐसे लोग ।
बहुत अच्छी आक्रोश भरी पंक्तियाँ ...
Deleteमंदिरों में हो ख़ामोश मूर्तियाँ
मौन हों क़ानून की पोथियाँ
चैन से फिर भी जी रहे लोग
तो नहीं चाहिए ऐसे लोग।
(छोटी सी गुस्ताख़ी)...
जी सर... आपकी इस रचना ने मन-मस्तिष्क झकझोरकर रख दिया...व्यवस्था का आँखों-देखा हाल बयान करता हर बंध बेहद सटीक हैंं जो तीर की भाँति चुभकर मन को कोंचते है।
ReplyDeleteसारी रचना बेहद प्रशंसनीय है ये पंक्तियाँ बार-बार ध्यान आकृष्ट कर रही-
ज्यादा निरीह हैं आज भी यहाँ लड़कियाँ
बस मंदिरों-गिरजों में हिफाज़त से रखी
बेजान "मूर्त्तियों" के हालात ठीक हैं ...
कुछ पंक्तियाँ मेरी भी
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सन् और ईस्वी चाहे कुछ भी हो
मज़बूरों की ज़िंदगियाँ सदा सस्ती रही हैं
मासूम,निरीह की लाशों की नींव पर ही
स्वार्थी साम्राज्य की पक्की बस्ती रही है
आप गिनते गिनवाते दर्द से रो पड़ेगे साहेब
ऐसे जख़्मी समुंदर में हालात की कश्ती रही है।
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बहुत बधाई एक उत्कृष्ट,सार्थक सृजन के लिए
सादर।
श्वेता जी ! आभार आपका ..
Deleteकाश ! रचना से आगे जमीनी हक़ीक़त में कुछ कर पाता ... ख़ुद अच्छा बन जाता .. तो समाज अच्छा बन पाता लोग "समाज" को कोस कर अपना पल्ला झाड़ते है अक़्सर .. जब कि "समाज" हम सब से ही तो मिलकर बनता है .. शायद ...
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
९ दिसंबर २०१९ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।,
एक स्थापित मंच पर मेरी रचना (विचारधारा) को साझा करने के लिए मन से आभार आपका श्वेता जी ...
Deleteवाह!बहुत खूब!! दिल की गहराइयों तक छू गई आपकी रचना ।
ReplyDeleteआपका आभार रचना तक आने के लिए ...
Delete
ReplyDeleteउतरते हैं खादी कुर्ते .. और नंगी तोंदों के नीचे
नग्न बेटियाँ होती हैं दफ़न .. घुंट जाती हैं कई चीखें
फिर भी "विधाता" मौन .. कसाईखाना बन जाता है
"बालिका सुरक्षा गृह" रात के अँधियारे में
और जो पोल ना खुले जो दिन के उजियारे में
तो समझो रजिस्टर में नाम और गिनतियों के
सरकारी सारे आंकड़ों के हालात ठीक है ...
बहुत सटीक समसामयिक उत्कृष्ट सृजन..।
जी ! नमन और आभार आपका रचना तक आने और उसके मर्म की सराहना के लिए ...
Deleteकड़वी सच्चाई व्यक्त करती बहुत सुंदर रचना।
ReplyDeleteसराहना के लिए नमन और आभार ... काश ! ये कड़वाहट नीम की तरह असर कर पाता हम आम लोगों पर ...
Deleteदेश ,समाज ,वातावरण के हालत का मार्मिक और सटीक वर्णन , सादर नमन
ReplyDeleteआपको भी नमन और आभार आपका रचना तक आने के लिए ...
Deleteहालात की हालत नाजुक है.
ReplyDeleteदावात में कलम महफ़ूज़ है.
अच्छा आंकलन..
सादर..
आभार आपका ...
Deleteसच में यहाँ बड़ा दुःख है.
ज़िन्दा हैं हम, ताज्जुब है.