Thursday, October 31, 2019

सोना के सूप में ... (लघुकथा/कहानी).

अभी-अभी घर आकर थाना के बड़ा बाबू अपनी धर्मपत्नी - 'टोनुआ की मम्मी' के हाथों की बनी चाय की चुस्की का आनन्द ले रहे हैं।
अक़्सर हम स्थानीय भाषा में अपने करीबी या मातहत के नाम के आगे बिंदास 'या', 'आ' या 'वा' इत्यादि जोड़ कर उस नाम की संज्ञा को विशेषणनुमा अलंकृत कर देते हैं ।

बड़ा बाबू - दशरथ सिंह - पास ही सामने बैठी 'टोनुआ की मम्मी' से मुख़ातिब होते हुए बोले - " टोनुआ की मम्मी ! सोच रहे हैं कि इस बार (यानि इस साल) छठ में दू भरी (1 भर =11.66 ग्राम) सोना के सूप में तुम छट्ठी मईया ( छठ व्रत को इस नाम से भी बुलाते हैं) को अरग (अर्ध्य) दो । "

छठ - दरअसल चार दिनों तक क्रमशः अलग-अलग रस्म- 'नहाय-खाय', 'खरना', 'संझिया अरग' (साँझ का अर्ध्य) और 'भोरिया अरग' (प्रातःकाल का अर्ध्य) के साथ बिहार और बिहार के बाहर भी बिहारियों का सबसे बड़ा आस्था या सच कहें तो डर से भरा त्योहार जो इनकी आस्था के अनुसार सूर्य को भगवान मानकर उन्हें समर्पित  किया जाता है।

दशरथ सिंह बीच में एक लंबा डकार लेते हुए बोले - " हम ( मैं ) मनता (मन्नत) माने थे कि हमरी (हमारी) पोस्टिंग इह (इस) साल इन्हां (यहाँ) के थाना में हो जाएगा तअ (तो) छट्ठी मईया के सोना के सूप में अरग देंगें। "

टोनुआ की मम्मी अपने सिर पर का अंचरा (साड़ी का आँचल) ठीक से सिर ढंकने तक खींच कर और अपना ख़ुशी से हँसता हुआ मुँह आधा ढँक कर बोल पड़ी - " हाँ जी टोनुआ के पप्पा (पापा) ! हमहु ( हम भी) माने (मन्नत) थे पर .. डरे (डर से) ना बोल रहे थे आप से। आप तअ हमेशा खिसिआइले (गुस्साए हुए) ही रहते हैं। "

बड़ा बाबू प्यार से अपनी धर्मपत्नी की ओर देखते हुए - " एतना (इतना) डरती काहे (क्यों) हो हम से !? .. आयँ !? .. हम कोनो (कोई) बाघ हैं का (क्या) !? जे  (जो) खा जायेंगें .. बोलो !! "
अब तक अपनी खैनी की चुनौटी (खैनी और चूना रखने की डिब्बी) से खैनी और आनुपातिक चूना बड़ा बाबू की बायीं हथेली में निकल चुकी थी - " देखो (सुनो) .. एक्को ( एक भी) साल नहीं हुआ है और इहाँ (यहाँ) जेतना ( जितना) कमाएं हैं .. पूरी जिनगी (ज़िन्दगी) नहीं कमाए थे। है कि नहीं !? .. अरे एक्के लाख ना देबे (देना) पड़ा था इंहाँ (यहाँ) ट्रान्सफर (तबादला) के लिए। तअ (तो) का हुआ जी .. उस से कई गुणा जादा (ज्यादा) कमाइयो (कमा भी) लिए एतने (इतने) ही दिन में.. है ना जी !? "

अब तक टोनुआ की मम्मी भी अपने धर्मपति का अच्छा मूड देख कर उनसे मन की दबी बातें बोलने लगी - " हाँ जी .. आउर (और) एक- दू साल में सिलवा (शिला) के सोरह (सोलह) साल के होए (होने) पर बीआहो (ब्याह भी) तो करना है। ओकरा (उसके) बादो ( बाद भी) दू 'गो' बचिए (बच ही) जायेगी। है कि ना टोनुआ के पप्पा !? "

बिहार और झारखण्ड - जो कुछ साल पहले ही राजनितिक तौर पर बिहार से अलग होकर राज्य का दर्जा पाया है - में स्थानीय बोल-चाल के क्रम में किसी भी संख्या के बाद 'गो' या 'ठो' लगा कर ही बोलते हैं।

खैनी बायीं हथेली पर दाएँ अँगूठे से मलते हुए - " चिन्ता काहे (क्यों) करती हो !? पान (पाँच) साल और नौकरी बचा है। तब तक ओतना (उतना) कमा लेंगें। अब तीन-तीन 'गो' के बिआहे (ब्याह करना) पड़ेगा तअ (तो) बिआहेंगे। " - बीच में खैनी पर थपकी लगा कर उसका गर्दा झाड़ कर बोले - " पर देखो हम लोग भी हिम्मत नहीं हारे। केतना (कितना) मनता-दन्ता (मन्नत) से ये तीनों के बाद अंत में टोनुआ आइए  (आ ही) ना गया जी। खनदान (ख़ानदान) का नाम चलेगा ना अब !? मरला (मरने) के बाद मुँहवा (मुँह) में आग यही ना देगा टोनुआ की मम्मी ! तब्बे (तभी) ना मोछ (मोक्ष) मिलेगा !? है कि नहीं !? " - कहते हुए बड़ा बाबू  मल-मल कर तैयार खैनी को चुटकी में लेकर अपने निचले होंठ के पीछे दबा लिए।

" दूर ... थू .. थू .. थू ... (तथाकथित ग्रह कटने के लिए सामने वाले पर थूकने का एक टोटका) .. मार बढ़नी (झाड़ू) रे ! का (क्या) निहस् (नहस/अशुभ) बात करे लगे आप जी ! मरे आपका दुसमन (दुश्मन) । आपसे पहीले (पहले) छट्ठी मईया हमरे (हम ही को) ना उठाबेगीं (मृत्यु)। हम तअ एहबाते (सुहागन) मरेंगें। भर मांग टह-टह लाल सेनुर (सिन्दूर) भरल (भरा हुआ) जाएंगे जी ! आप देखिएगा टोनुआ के पप्पा । " - बोलते- बोलते टोनुआ की मम्मी भावना में रुआंसी हो गई।

" अच्छा - अच्छा ! बुढ़ापा में हम ही अकेले दुःख भोगेंगे। बाकिर (बाक़ी/लेकिन) ... पोतवा-पोतीया (पोता-पोती) को तेल कौन लगावेगा !? बोलो ! " - बोलते-बोलते खिड़की से बाहर के तरफ मुँह करके बड़ा बाबू 'पच्च' से थूक दिए।

खैनी खाने वाले की आदत होती है -किसी से भी हाथ पसार कर मांग लेना और कहीं भी मुँह घुमा के 'पच्च' से थूक देना।

बड़ा बाबू - " अब जाओ .. जा के खाना बनाओ। अबेर (देर) हो जाएगा खाना बनाने में तअ टोनुआ बिना खाए-पिए सो जाएगा। " - कहते हुए तरोताज़ा होने के लिए गुस्लखाने की ओर चल दिए।

और टोनुआ की मम्मी - " हे सुरुज (सूरज) भगवान् ! हे छट्ठी मईया ! सब ठीके (ठीक) से पार-घाट लगईह (कल्याण किजिएगा) ..." - मन  ही मन बड़बड़ाती हुई अपने 'अंचरा' से अपने गोल-मटोल गाल पर डबडबायी आँखों से भावना के ढलक आए आँसू पोंछते हुए चौकाघर की ओर चली जाती हैं ।.




Tuesday, October 29, 2019

पाई(π)-सा ...

180° कोण पर
 अनवरत फैली
  बेताब तुम्हारी
   बाँहों का व्यास
    मुझे अंकवारी
     भरने की लिए
      एक अनबुझी प्यास ...

और ...
 360° कोण तक
  निरन्तर पसरती
   तुम्हारी मायूस
    निगाहों की परिधि 
     करती मेरी किसी
      गुमशुदा-सी तलाश ...

तुम्हारे ...
 हृदय-स्पन्दन का केन्द्र
  जिसके इर्द-गिर्द
   मेरी ख़ातिर
    रचता तुम्हारा मन
     एक प्रेम-वृत्त
      और ...
       मैं और वजूद मेरा
        बस ...
         उस प्रेम-वृत्त का
          पाई(π)-सा ...

है ना ... !? ...


Friday, October 25, 2019

आप और आपका उल्लू ... - चन्द पंक्तियाँ - (२०) - बस यूँ ही ...

(१)#

घर-घर चमक रहा
सज रहा .. दमक रहा ..

पर ... शहर-गाँव की
गलियों के हर नुक्कड़ पर
बढ़ गया है इन दिनों
कूड़े-कचरों का ढेर
और .. मुहल्लों में
कबाड़ियों के फेर

शायद दिवाली आने वाली है .....

(२)#

त्योहारों के दौर में
विज्ञापनों के होड़ ने
करा दिया अहसास
अनायास गरीब होने का ...

वैसे कमी तो
कुछ भी ना थी और ..
इतने भी तो कभी
हम ग़रीब थे कहाँ !?......

(३)#

इस साल भी
दिवाली के नाम पर
साफ़ हुआ है
हाल ही में
घर का कोना-कोना .....

पर करूँ भी क्या
जो हटता ही नहीं
लाख कर लूँ सफाई
तेरी यादों का जाला
जब्र-ज़िद्दी वाला .....

(४)#

आज घर मेरे .....
ना सफेदी .. ना रंगाई ..
ना रंगोली .. ना दिए ..
ना मिठाईयों का प्रकार ..
ना ही कोई झिलमिल रंगीन झालर ...

दरअसल सोचा मैंने ...
देवी ! ... आप और आपका उल्लू ...
थक ही तो जाएगा ना
एक ही रात में
इतने भक्तों के घर-घर जा-जाकर ...

Sunday, October 20, 2019

होठों के 'क्रेटर' से ...

मन के मेरे सूक्ष्म रंध्रों ...
कुछ दरके दरारों ...
बना जिनसे मनःस्थली भावशून्य रिक्त ..
कुछ सगे-सम्बन्धों से कोई कोना तिक्त
जहाँ-जहाँ जब-जब अनायास
अचानक करता तुम्हारा प्रेम-जल सिक्त
और ... करता स्पर्श
कभी वेग से .. कभी हौले-हौले ...
मन बीच मेरे दबे हुए
कुछ भावनाओं के गर्म लावे
कुछ चाहत के गैस और
साथ चाहे-अनचाहे
अवचेतन मन के अवसाद के राख
तब-तब ये सारे के सारे
हो जाना चाहते हैं बस .. बस ...
बाहर छिटक कर जाने-अन्जाने
आच्छादित तुम्हारे वजूद पर
होठों के 'क्रेटर' से
चरमोत्कर्ष की ज्वालामुखी बन कर ...

Friday, October 18, 2019

मन को जला कर ...

माना कि ... बिना दिवाली ही
जलाई थी कई मोमबत्तियाँ
भरी दुपहरी में भीड़ ने तुम्हारी 
और कुछ ने ढलती शाम की गोधूली बेला में
शहर के उस मशहूर चौक पर खड़ी मूक
एक महापुरुष की प्रस्तर-प्रतिमा के समक्ष
चमके थे उस शाम ढेर सारे फ़्लैश कैमरे के
कुछ अपनों के .. कुछ प्रेस-मिडिया वालों के
कैमरे के होते ही सावधान मुद्रा में
गले पर जोर देने के लिए
कुछ अतिरिक्त हॉर्स-पॉवर खर्च करती
बुलंद कई नारे भी तुम्हारे चीख़े थे ...

जो कैमरे की क़वायद आराम मुद्रा में होते ही
तुम्हारी आपसी हँसी-ठिठोली में बदली थी
रह गईं थीं पीछे कुछ की छोड़ी जलती मोमबत्तियाँ
चौक पर वहीं जलती रही .. पिघलने तक ..
जैसे छोड़ आते हैं किसी नदी किनारे
बारहा जलती हुई चिता लावारिश लाश के ..
शहर के नगर-निगम वाले
और शेष ... लोड शेडिंग में काम आ जाने की
सोच लिए कुछ लोगों की मुठ्ठीयों में
या कुछ के झोले में बुझी ख़ामोश 
बेजान-सी बस दुबकी पड़ी थी निरीह मोमबत्तियाँ ..

और .. फिर .. कल सुबह के अख़बार में
अपनी-अपनी तस्वीर छपने की आस लिए
लौट गए घर सभी ... खा-पीकर सोने आराम से ...
अरे हाँ ! घर लौटने वाली बात से
याद आई एक बात ... आज ही तो तुम्हारे
तथाकथित राम वन-गमन के बाद
सीता और लक्ष्मण संग अयोध्या लौटे थे
पर आज हमने भी तस्वीर के सामने 'उनकी'
एल ई डी की रोशनी के बाद भी ..
की है एक रस्मअदायगी .. निभाया है एक परम्परा
अपनी संस्कृति जो ठहरी .. एक दिया है जलाया
फिर वापस घर मेरा सुहाग क्यों नहीं लौटा !???
कहते हैं सब कि वो ..  शहीद हो चुके ...

पर .. मानता नहीं मन मेरा ..एक उम्मीद अभी भी
इस दिया के साथ ही है जल रही
कर तो नहीं पाई तुम्हारी जलाई
अनेकों मोमबत्तियाँ भी रोशन घर मेरा ..
पर .. तुम्हारे जलते पटाखे .. चलते पटाखे ..
वो शोर .. वो धुआँ .. वो चकमकाहट ...
सारे के सारे .. उनके तन के चीथड़े करने वाले
गोलियों-बारूद की याद ताज़ा कर
बढ़ा देते हैं ... मन की अकुलाहट
ना मालूम कितनी दिवालियाँ बितानी होगी
मुझको इसी तरह उनकी तस्वीर के आगे
एक दिया जला कर ... और  संग अपने ..
बुझे-बुझे अपने मन को जला कर ...


Thursday, October 17, 2019

यार चाँद ! ...

यार चाँद ! .. बतलाओ ना जरा !...
जो है मेरे मन के करीब अपनी प्रियतमा
होकर करीब भी मन के जिसके
जिसे अक़्सर मैं मना नहीं पाता 
और बतलाओ ना जरा ...
मीलों दूरी से कैसे भला !? ..
"सब" से "सब कुछ" लेता है तू मनवा
लिए अंदाज़ जैसे तुम बोल रहे ऊपर से
" अक्खा मुम्बई का मैं दादा ...
अपुन का जो बोलूँ  .. वही इधरिच करने का "
चाहे आबादी थी कभी तीस-पैंतीस लाख की
या आज सवा करोड़ से भी ज्यादा
ख़ास है ... तेरा सबसे अपनी मनवाना ...

कुछ ही दिन पहले शरद-पूर्णिमा
के नाम पर तुम्हारे चर्चे थे बड़े
अब फिर आज करवा चौथ !?...
धत् यार ! तू तो पागल ही कर देगा ...
यार ! कभी अमावस्या .. कभी पूर्णिमा ..
कभी दूज .. तो कभी तीज ..
कभी तीज .. कभी करवा चौथ ..
कभी सिवईयाँ .. तो कभी क़ुर्बानी ..
कभी होलिका-दहन .. तो कभी रंगोली ..
कभी उपवास ..  जो करे सुहाग की आयु लम्बी

यार ! तू  राजनेता है कोई जनेऊधारी जो
इफ़्तार में टोपी पहन रोज़ा बिना किए
रोज़ा तोड़ने अक़्सर पहुँच जाता
या फिर कोई राष्ट्रनेता जो अलग-अलग
राज्यों में .. संस्कृतियों में ..
कभी पगड़ी, कभी मुरेठा, कभी टोपी
तो कभी पजामा, कभी लुंगी , कभी धोती से
भीड़ और कैमरे के समक्ष खुद को है सजाता
या कोई है तू अवार्ड मिला सफल अभिनेता
जो हर किरदार में क्षण भर में है ढल जाता
या फिर कोई किसी मुहल्ले-शहर की गली-गली में
चौक-चौराहों ... फुटपाथों पर ..
घुमने वाला कोई रंगीला बहुरूपिया
या सच में है तू एक धर्मनिरपेक्ष
भारतीय नागरिक सच्चा वाला

कहा जो है 'यार' तुम्हें तो अब गुस्सा मत जाना
कहूँगा नहीं अब तो तुमको कभी भी 'मामा'
देखो ! मैं हो गया हूँ कितना बड़ा ! ..
बड़ा क्या ... बुढ़ा भी ... हो रहे
बाल सफेद चमकदार चमचम
हो तुम्हारी चाँदनी जैसे ...
तू तो सदियों से है जस का तस .. बस जवान
ये भी राज की बात कभी
फ़ुर्सत में किसी दिन मुझे बतलाना
पर बहरहाल .. तुमने भी तो सुना ही होगा ना !? ...
बच्चे जब हो जाते हैं बड़े 
बड़ों के दोस्त हैं बन जाते
बतलाऊँ मैं एक बात राज की
अपने बेटे को हमने हर पल
बचपन से ही दोस्त ही है माना
अब तो तू अपनी राज की बात .. दादागिरी वाली
यार ... मेरे कान में फुसफुसा जरा ...
यार चाँद ! ... सच-सच ...बतलाओ ना जरा !...


Tuesday, October 15, 2019

मुआ चाँद ...

शरद-पूर्णिमा की सारी-सारी रात
चर्चे में था ये मुआ चाँद ..
है ना सजन !? ...
सुना है वो बरसाता रहा
प्रेम-रस .. अमृत-अंश ..
जिसे पी सभी होते रहे मगन
शहर सारा अपना निभाता रहा
जाग कर सारी-सारी रात
कोजागरी .. कौमुदी व्रत का चलन
वृन्दावन के निधिवन में रचाए
महारास श्री कृष्ण भी
राधा और गोपियों संग
हुआ बावरा .. करता कोजागरा
सागर करके ज्वार-भाटा का आवागमन
है ना सजन !? ...

पर ये चाँद .. ये कृष्ण .. ये सागर ...
कब भाता इन्हें भला
किसी एक का बंधन !? ...
चाँद मुआ सारे शहर का ..
सागर के भी किनारे कई ..
कृष्ण की राधा भी
संग कई-कई गोपियाँ ...
है ना सजन !? ...

पर जब होते हैं हम-दोनों साथ-साथ
होता नहीं साथ कोई दूसरा
ना हमारे-तुम्हारे बीच
और ना हमारे-तुम्हारे
रिश्ते के दरमियाँ .. है ना !?
हृदय-सागर के अलिंद-निलय तट पर
सजता रक्त-प्रवाह का ज्वार-भाटा
पूरी रात जब-जब संग जागते
हो जाता अपना कोजागरा
हथेलियों में जो अपनी थाम लो
सूरत मेरी तो हो जाए पूर्णिमा
सीने में तुम्हारे जो
छुपा लूँ मुखड़ा अपना
हो जाए पल में अमावस्या
रख दो जो मेरे अधरों पर
अधर अपना .. बरसाता ...
प्रेम-रस .. अमृत-अंश ..
जिसका ना कोई बँटवारा
केवल हमदोनों का यूँ
मन जाता है ना
हर रात सजन शरद-पूर्णिमा
है ना सजन !? ... बोलो ना ! ...