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Monday, March 18, 2024

तीन तार की चाशनी ...


परतों के पल्लू में

सिमटी-सी,

सिकुड़ी-सी,

मैं थी ..

पके धान-सी।

मद्धिम .. मद्धिम 

आँच जो पायी,

प्रियतम 

तेरे प्यार की;

खिलती गयी,

निखरती गयी, 

मंद-मंद ..

मदमाती-सी,

खिली-खिली-सी

खील-सी खिल कर .. बस यूँ ही ...


था मन मेरा 

चाशनी ..

एक तार की, 

जो बन गयी

ना जाने कब ..

ताप में तेरे प्रेम के,

एक से दो .. 

दो से तीन ..

हाँ .. हाँ .. तीन ..

तीन तार की चाशनी

और ..

जम-सी गयी,

थम-सी गयी ..

मैं बताशे-सी 

बाँहों में तेरे प्रियवर .. बस यूँ ही ...


अमावस की रात-सी

थी ज़िन्दगी मेरी,

हुई रौशन 

दीपावली-सी,

दीपों की आवली से

तुम्हारे प्रेम की।

यूँ तो त्योहार और पूजन

हैं चोली-दामन जैसे।

फिर .. पूजन हो और ..

ना हों इष्ट देवता या देवी,

ऐसा भला होगा भी कैसे ?

अब .. तुम्हीं तो हो

इष्ट मेरे और .. तेरे लिए नैवेद्य ..

खील-बताशे जैसा मेरा तन-मन,

समर्पित तुझको जीवन भर .. बस यूँ ही ...