हम फ़िलहाल तो फ़िल्म- "हम दिल दे चुके सनम" के इस्माइल दरबार जी के संगीत और कविता कृष्णमूर्ति जी की आवाज़ से सुज्जित राजस्थान की पारंपरिक लोक धुन पर आधारित गीत- "निंबूड़ा-निंबूड़ा .. निंबूड़ा ..~~~" को गाने या बजाने वाले नहीं हैं। बस एक तुकबंदी सूझी तो बतकही भय कर दिए कि "निंबूड़ा-निंबूड़ा नहीं, लिंगुड़ा-लिंगुड़ा" .. बस यूँ ही ...
वैसे तो "निंबूड़ा-निंबूड़ा" वाले गीत पर अभिनेत्री ऐश्वर्या राय बच्चन को नृत्य करते हुए हम सभी ने सम्भवतः देखा ही है और निबूड़ा के अर्थ और द्विअर्थी विशेषार्थ भी समझते ही हैं। पर अभी फ़िलहाल तो हमें "लिंगुड़ा" को जानना है .. बस यूँ ही ...
वैसे तो अगर मनपसंद खाना और गाना साथ-समक्ष हो, तो मानव मन पुलकित हो जाता है। बशर्ते मनपसंद खाना का पैमाना स्वाद नहीं, बल्कि सेहत के लिए केन्द्रित हो। केवल मानव ही क्यों, विज्ञान ने प्रयोग द्वारा बतलाया है, कि पेड़-पौधों और पशु-पक्षियों पर भी संगीत का असर होता है। साथ ही पुरखों की सीख को मानें तो- "जैसा अन्न, वैसा मन" यानि हमारे भोजन का असर हमारे तन के साथ-साथ मन पर भी पड़ता है .. शायद ...
हम अक़्सर घर या बाहर में भी किन्हीं को भी जब-तब जाति-उपजाति, धर्म-सम्प्रदाय, भाषा-बोली, रूप-रंग, कद-काठी, सभ्यता-संस्कृति, क्षेत्र-पहनावा, पद-पैसा, गाड़ी-बंगला इत्यादि जैसे पैमाने के आधार पर किसी मनुष्य विशेष के बारे में नुक्ताचीनी करते हुए या उसके विश्लेषण में उलझते हुए देखते-सुनते हैं, तब उनकी छोटी सोच के लिए मेरा एक सामान्य-सा कथनाश्रय (तकिया-कलाम) होता है, कि "दुनिया बहुत ही बड़ी है" या फिर ये कि "दुनिया बहुत ही रंगीन है" ...
शायद सच में ही इतनी बड़ी है भी ये दुनिया कि अगर अथाह विराट ब्रह्माण्ड की सम्पूर्ण जानकारियों की बातें ना करके तुलनात्मक एक गौण अंशमात्र- समस्त धरती पर ही उपलब्ध हर क्षेत्र में व्याप्त एक-एक तत्व-वस्तु या हरेक पादप-प्राणी को हम जानने-समझने की बातें तो दूर .. हम केवल ताउम्र उनके नाम सुनने या देखने भर की भी बातें सोचें तो .. हमारे श्वसन और स्पंदन की जुगलबन्दी पर चलने वाला हमारा यह जीवन भले ही हर क्षण या हरेक क्षणांश में अपघटित होते-होते इस धरती से तिरोहित हो जाए, परन्तु सूची ख़त्म नहीं होगी .. शायद ...
हमने अपनी अब तक की आयु में जिन-जिन फल-सब्जियों या अनाजों का नाम तक नहीं सुना था, उन्हें नौकरी के सिलसिले में गत एक वर्ष से वर्तमान में भी उत्तराखंड की राजधानी- देहरादून में रहते हुए, व्यक्तिगत रूचि के कारण भी, देखने और खाने में बहुत ही रोमांच अनुभव हो रहा है। हमारे जैसे भौगोलिक मैदानी क्षेत्र वाले निवासी के लिए तो आश्चर्यजनक हैं पहाड़ी क्षेत्र के ये प्राकृतिक उत्पाद सारे के सारे। किसी भी पैतृक भौगोलिक परिवेश से इतर परिवेश में एक पर्यटक की तरह कुछ दिनों के लिए जाना-आना या 'गूगल' पर 'सर्च' करके वहाँ की जानकारियों को खंगालना और दूसरी तरफ वहाँ जाकर सालों भर रहते हुए वहाँ की हर ऋतुओं को जीना-महसूस करना .. दो भिन्न अनुभूति कराते हैं .. शायद ...
कई विशेष पहाड़ी प्राकृतिक उत्पादों की एक साथ यहाँ चर्चा करते हुए इन्हें साझा करना तो सम्भव नहीं, तो कई भागों में साझा करने के लिए सोच ही रहे हैं हम साल भर से। दिन पर दिन सूची लम्बी होती जा रही है और मेरे मोबाइल की गैलरी भी भरती जा रही है .. साथ में मानसिक दबाव भी .. बस यूँ ही ...
आज वर्तमान मौसम में ही उपलब्ध एक सब्जी से शुरुआत करते हैं, जिसे गत वर्ष चूक जाने के बाद आज ही सुबह-सवेरे लाया स्थानीय सब्जी-मंडी से। यहाँ के लोग इसे लिंगुड़ा या लिंगड़ा कहते हैं।
(1) लिंगुड़ा :-
दरअसल लिंगुड़ा पहाड़ी क्षेत्रों में प्राकृतिक रूप से उगने वाली फर्न प्रजाति की एक वनस्पति है, जिसकी सब्जी को यहाँ बेहद ही पौष्टिक, स्वादिष्ट और गुणकारी माना जाता है।
और माना भी क्यों ना जाए भला !? .. बतलाया जाता है, कि इसके कोमल डंठल और सर्पिलाकार फुनगी में 'विटामिन ए', 'विटामिन बी कम्पलेक्स', 'विटामिन सी', 'ओमेगा-3', 'ओमेगा-6', 'आयरन', 'जिंक', 'पोटाशियम', 'कॉपर', 'मैंगनीशियम', 'फैटी ऐसिड', 'फॉस्फोरस', 'सोडियम', 'कैरोटीन' व अन्य कई 'मिनरल्स' प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं।
जिनकी वजह से यह मधुमेह, कुपोषण, हृदय रोग, चर्म रोग, अनियंत्रित 'कोलेस्ट्रोल', अनियंत्रित रक्तचाप, कमजोर पाचन शक्ति, 'एनीमिया' जैसे खतरनाक रोगों में लाभप्रद है। साथ ही हमारी अंदरुनी शक्ति यानि 'इम्यूनिटी पॉवर' और आँखों की रोशनी को भी बढ़ाने वाली सब्जी मानी जाती है।
लिंगुड़ा - लोहे की कड़ाही में पकते हुए 👆
जानकारी मिली है, कि यह उत्तराखण्ड (लिंगुड़ा, लेंगड़ा लुंगड़ू या लिंगड़) के अलावा हिमाचल प्रदेश (लिंगरी) और सिक्किम (नियुरो) और असम जैसे पहाड़ी राज्यों में भी लगभग जेठ-अषाढ़ महीने में स्वतः जंगलों और पहाड़ों के किनारे नमी वाले स्थानों में उग जाता है।
प्रायः स्थानीय लोग जंगलों-पहाड़ों से चुनकर इस की सब्जी या अचार बनाते हैं। इनके अलावा कुछ लोग अपनी आय के लिए शहरी बाज़ारों में इसकी बिक्री भी करते है, जहाँ से हमारे जैसे लोग खरीद कर खाने का अवसर प्राप्त करते हैं .. बस यूँ ही ...
आज सुबह की थाली में अन्य भोजन सामग्री के साथ लिंगुड़ा की सब्जी पहाड़ी झंगोरे के भात के साथ .. बस यूँ ही ... 🙂😛🙂
लिंगङा गुणकारी और स्वाद में बेहतर होता है
ReplyDeleteजी ! नमन संग आभार आपका .. आप तो स्वयं ऋषिकेश से ही हैं, अतः इसके गुण और स्वाद का दावे के साथ पुष्टिकरण कर पा रही हैं।
Deleteपहाड़ी राज्यों के निवासी, जहाँ यह वनस्पति भले ही साल के कुछ माह ही उगती है, उनके लिए ये सब्जी यूँ तो सहज उपलब्धता के कारण सामान्य हो सकती है, परन्तु हमारे जैसे अन्य राज्य के निवासियों के लिए तो एक अचरज और रोमांच ही है .. शायद ...
सचमुच.सही कहा आपने दुनिया विविधताओं से भरी हुई है इसे जितना समझो कम ही है।
ReplyDeleteरोचक एवं ज्ञानवर्धक लेख।
सादर।
----
जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार ३० जून २०२३ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
जी ! नमन संग आभार आपका .. काश !! .. विज्ञान कोई ऐसी तकनीक उत्पन्न कर पाता, जिनसे किसी भी बतकही को आपके अनुसार .. रोचक और ज्ञानवर्द्धक लेख को .. स्वादिष्ट भी बनाया जा सकता। मतलब किसी वस्तु विशेष की जानकारी और चित्रों के साथ-साथ उनके मोहक स्वाद और सुगन्ध को भी इस आभासी पन्ने पर चिपका कर प्रेषित किया जा सकता समस्त चाहने वालों तक .. ऐसे सुहाने मौके की आशा तो हम कर ही सकते हैं .. विज्ञान और वैज्ञानिकों से .. बस यूँ ही ...
Deleteसुंदर रचना
ReplyDeleteजी ! नमन संग आभार आपका ...
Deleteनई जानकारी
ReplyDeleteआभार
सादर
जी ! नमन संग आभार आपका ...
Deleteकितनी सुंदर तरह से लिंगुड़ा को सब्जी के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
ReplyDeleteजी ! नमन संग आभार आपका ...
Deleteजानकारी युक्त पोस्ट । पहली बार सुना इसके बारे में । 1962 से 1969 तक देहरादून और उसके आस पास के क्षेत्र में रहे हैं लेकिन इस वनस्पति के बारे में जानकारी नहीं थी ।
ReplyDeleteजी ! नमन संग आभार आपका .. अब अगर जानकारी के साथ-साथ स्वाद भी चखनी है, तो पुनः देहरादून आ जाइए ...
Deleteलगता है पहाड़ों से लगाव हो गया है आपको...तभी पहाड़ी फल और सब्जियां भी अच्छी लगने लगी हैं ...हो भी क्यों न..ये पहाड़ होते ही ऐसे हैं सबको अपना बना लेते हैं ।
ReplyDeleteजी ! नमन संग आभार आपका .. पहाड़ ही क्यों भला .. समस्त प्रकृति ही अपने आप में चुम्बकीय आकर्षण रखती हैं .. चाहे पहाड़ हो, सागर हो, जंगल हो या मैदानी खेत ...
Deleteबेशक़ ये पहाड़ तो अच्छे हैं ही, परन्तु पहाड़ के लोग भी अन्य क्षेत्रों की तरह क्षेत्रवादिता और जातीयता से कुछ ज्यादा ही ग्रस्त हैं .. शायद ...