Thursday, November 23, 2023

"उज्यालू आलो अँधेरो भगलू" ...



यूँ तो सर्वविदित है कि देशभर में या विश्व भर में जहाँ-जहाँ हिन्दूओं की जनसंख्या वास करती है, वहाँ-वहाँ चन्द्र-पंचांग पर आधारित कार्तिक माह में कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी, चतुर्दशी और अमावस्या को क्रमशः धनतेरस, छोटी दीपावली और बड़ी दीपावली यानी दिवाली धूमधाम से मनायी जाती है।

इनके अलावा इसी माह में "देव दीपावली" और "बूढ़ी दीपावली" भी क्रमशः देश के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग मान्यताओं के अनुसार मनायी जाती है। जिनमें देव दीपावली, तथाकथित राक्षस त्रिपुरासुर पर भगवान शिव की जीत के रूप में, दिवाली के पन्द्रह दिनों के बाद कार्तिक माह के पूर्णिमा के दिन विशेष तौर पर उत्तरप्रदेश में मनायी जाती है। जिसे लोग "त्रिपुरोत्सव" भी कहते हैं। 

वैसे भी सनातन धर्म की मान्यताओं के अनुसार कार्तिक मास को सर्वाधिक पुण्यप्रद मान कर हर दिन पर्व की तरह मनाने का विधान है। चन्द्र-पंचांग के प्रत्येक माह में होने वाली दो एकादशी तिथियों की तरह विशेष तौर पर पुराण-सम्मत कार्तिक माह के कृष्ण पक्ष की एकादशी को "रमा एकादशी" और शुक्ल पक्ष की एकादशी को "प्रबोधिनी एकादशी" कहा जाता है।

इसी शुक्ल पक्ष की एकादशी को लोक मान्यताओं के अनुसार कई क्षेत्रों में हिन्दुओं द्वारा तथाकथित भगवान विष्णु की विधि पूर्वक पूजा-आराधना करने का विधान है, जिसके अनुसार इस दिन पीला वस्त्र धारण करके उनको श्रद्धा-सुमन अर्पित करते हुए उनके सहस्त्रनाम का पाठ किया जाता है। इन सब के अलावा .. नेक संदेशें देती जो सबसे ख़ास धर्म-सम्मत बातें हैं .. इस दिन गरीब-असहाय लोगों की सहायता करने की और झूठ-अन्याय से बचने वाली मान्यताओं की, जो कर्मकांडों की धुँध में लगभग गौण ही हो चुकी हैं .. शायद ...

इन सभी से परे उत्तराखंड में इसी शुक्ल पक्ष की एकादशी को यानी देश भर में मनायी जाने वाली दीपावली के ग्यारह दिनों के बाद एक लोकपर्व- "बूढ़ी दीपावली" श्रद्धा और उल्लास के साथ मनायी जाती है, जिसे स्थानीय भाषा में "इगास बग्वाल" कहा जाता है, क्योंकि गढ़वाली भाषा के अनुसार एकादशी को "इगास" और दीपावली को "बग्वाल" बोला जाता है। जिसके तहत दीयों और पटाखों की जगह पर सांस्कृतिक व लोक परम्परागत तरीके से "भैलो" खेली जाती है। 

आपसी सौहार्द और सहभागिता का संदेश देता पारम्परिक "भैलो नृत्य" इस लोक पर्व का खास आकर्षण होता है।
"भैलो" भी एक गढ़वाली भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ होता है .. मशाल, लुआठी या लुकाठी; जो विशेष तौर से चीड़ की लकड़ी से बनायी जाती है। जिसके लिए चीड़ की लकड़ियों की छोटी-छोटी गाँठ एक रस्सी या तार से बाँधी जाती है। सर्वविदित है कि चीड़ की लकड़ी में प्राकृतिक रूप से उपलब्ध तेल, जिनसे तारपीन का तेल बनता है और चिपचिपे गोंद, जिनसे औषधीय गुणों वाले गंधविरोजा का निर्माण होता है, के कारण इससे बनी "भैलो" काफ़ी देर तक तेज प्रकाश बिखेरती हुई जलने की क्षमता रखती है। 

इनके अलावा पहाड़ी उपजों- भाँग, तिल, छिल्ले, हिसर आदि की सूखी लकड़ियों के गट्ठर को सिरालू या मालू की रस्सी से बाँध कर शाम के समय गाँव के किसी खाली खेत-खलिहान में या चौक-चौराहे जैसे किसी भी सार्वजनिक स्थल पर जलाया जाता है। जिसकी आग से "भैलो" को जलाने की परम्परा है और "भैलो" की रस्सी या तार को पकड़कर नृत्य करते हुए कलात्मक व लयबद्ध तरीके से अपने सिर के ऊपर से घुमायी जाती है। 

इस दौरान सामुदायिक रूप से लोक वाद्य-यंत्रों .. ढोल-दमाऊँ की थाप पर पारम्परिक लोकनृत्य "चाँछड़ी और झुमेलों" के साथ-साथ गीत-संगीत और आमोद-प्रमोद का माहौल व्याप्त रहता है। इस अवसर पर प्रसिद्ध गढ़वाली लोकगीतों- "भैला ओ भैला, चल खेली औला, नाचा कूदा मारा फाल, फिर बौड़ी एगी बग्वाल" या "भैलो रे भैलो, काखड़ी को रैलू, उज्यालू आलो अँधेरो भगलू" आदि को गाए जाते हैं। इस अवसर पर कहीं-कहीं पर "गैड़" यानी रस्साकस्सी का भी खेल खेला जाता है।

उत्तराखंडी पहाड़ी लोक संस्कृति से जुड़े इस लोक पर्व के दिन लोग घरों की विशेष साफ-सफाई के बाद मीठे-मीठे पकवान बनाते हैं और अपनी आस्था के अनुसार अपने देवी-देवताओं के साथ-साथ गाय-बैलों की भी पूजा करते हैं। यूँ है तो यह भी प्रकाश का ही पर्व, परन्तु सबसे ख़ास और अनुकरणीय बात है, "इगास बग्वाल" के अवसर पर विषाक्त पटाखों का उपयोग नहीं किया जाना। 

अन्य त्योहारों या लोक पर्वों की तरह इस लोक पर्व के पीछे की भी कई लोक मान्यताएँ हैं, जिनमें एक सबसे प्रमुख किंवदंती है, कि तथाकथित पुरूषोत्तम राम द्वारा रावण का वध करके अपने चौदह वर्षों के वनवास के पश्चात कार्तिक कृष्ण अमावस्या के दिन अयोध्या पहुँचने की जानकारी दूरस्थ पहाड़ वासियों को ग्यारह दिनों बाद मिली; तो इनके पुरख़े लोग मूल दिवाली के ग्यारह दिनों के बाद कार्तिक शुक्ल एकादशी को ख़ुशी प्रकट करने के लिए दिवाली मनाए थे, जिसे गढ़वाली भाषा में "इगास बग्वाल" कह कर आज भी मनाने की परम्परा है।

दूसरी किंवदंती ये भी है कि दिवाली के समय गढ़वाल के वीर माधो सिंह भंडारी के नेतृत्व में गढ़वाल की सेना तिब्बत और दापाघाट का युद्ध जीतकर दिवाली के ग्यारहवें दिन अपने-अपने घर पहुँची थी, तो उसी की खुशी में उस समय समस्त गढ़वाल में दिवाली मनाई गई थी .. शायद ...

तीसरी मान्यता ये भी है कि शुक्ल पक्ष की इसी "प्रबोधिनी एकादशी" या "हरिबोधनी एकादशी" के दिन तथाकथित श्रीहरि यानी विष्णु जी नाग शैया पर सोते हुए से जागते हैं, जिससे इसे "देवउठनी एकादशी" या अपभ्रंश रूप में "देवठान" भी कहते हैं। इसीलिए इस दिन विष्णु भगवान की पूजा का भी विधान है। यूँ तो उत्तराखंड में कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी यानी धनतेरस से ही दीप पर्व शुरू हो जाता है, जो कि इस दिन शुक्ल पक्ष की एकादशी तक चलता रहता है। 

अब विष्णु की बात हो और धन की तथाकथित देवी लक्ष्मी की चर्चा ना हो तो यह अन्यायपूर्ण कृत्य माना जाएगा .. शायद ... तो चौथी मान्यता ये भी है कि इस दिन ऐसा करने वालों को माता लक्ष्मी कष्टों को दूर करने के संग-संग सुख-समृद्धि भी देती हैं। 

हालांकि ये भी कहा जाता है कि दीपावली के समय पहाड़ों में लोग खेती में व्यस्त रहते हैं। इसीलिए खेती के काम को निपटाने के बाद वे लोग यह पर्व मनाते हैं।

ख़ैर ! .. जो भी हो .. लब्बोलुआब यही है कि सबसे बड़ा मानव-धर्म मानते हुए, हमें सामुदायिक रूप से अँधेरे को भगाने का प्रयास निरन्तर करते रहना चाहिए .. चाहे वो अँधेरा हमारे घर के किसी कोने का हो या मन के कोने का या फिर समाज में व्याप्त अंधपरम्पराओं का हो .. और .. विषाक्त आतिशबाज़ी को प्रतिबन्धित करते हुए अपने आसपास स्वच्छता के संग-संग गीत-संगीत, आमोद-प्रमोद और कोमल भावनाओं की मिठास को घोलने के लिए प्रयासरत रहना चाहिए .. बस यूँ ही ...


4 comments:

  1. लब्बोलुआब सही है| शुभकामनाएं |

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी ! .. नमन संग आभार आपका .. लब्बोलुआब को सही ठहराने के लिए .. साथ ही आज के संध्याकालीन व रात्री बेला वाले भैलो नृत्य की आपको भी मन से ढेरों शुभकामनाएँ ... :)

      Delete
  2. बहुत सुरूचिपूर्ण और ज्ञानवर्धक लेख।
    लोक.संस्कृति की सरस खुशबू मैं भीगे अलाव की मद्धम आँच में पकते किसी स्वादिष्ट पकवान सरीखी।
    सादर।
    ------
    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार २४ नवम्बर २०२३ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी ! .. नमन संग आभार आपका .. मेरी बतकही को अपने मंच की अनुपम प्रस्तुति में सम्मिलित करने हेतु ...

      Delete