पुंश्चली .. (१), पुंश्चली .. (२), पुंश्चली .. (३), पुंश्चली .. (४ ) , पुंश्चली .. (५ ), पुंश्चली .. (६), पुंश्चली .. (७) और पुंश्चली .. (८) के बाद अपने कथनानुसार आज एक सप्ताह बाद पुनः वृहष्पतिवार को प्रस्तुत है आपके समक्ष पुंश्चली .. (९) .. (साप्ताहिक धारावाहिक) .. भले ही थोड़े ज्यादा ही विलम्ब के साथ .. बस यूँ ही ... :-
अभी-अभी मुहल्ले में रहने वाले सरकारी कॉलेज के प्रोफेसर साहब और सरकारी अस्पताल के स्टोरकीपर साहब, दोनों पड़ोसी, प्रतिदिन की तरह रसिक की चाय का आनन्द लेकर लगभग डेढ़-दो किलोमीटर दूर सुबह छः बजे से साढ़े नौ-दस बजे तक थोक राशन बाज़ार के फ़ुटपाथों और थोक विक्रेताओं की प्रायः ग्यारह बजे खुलने वाली दुकानों के 'शटर' के आगे बरामदे पर लगने वाली अस्थायी सब्जी मंडी की ओर जा रहे हैं। प्रोफेसर साहब तो एक हाथ में मोबाइल के साथ-साथ एक झोला और दूसरे हाथ में दूध का एक किलो वाला 'केन' भी लिए हुए जा रहे हैं। ऐसे में समय के सही सदुपयोग के साथ-साथ स्वास्थ्य की भी निगेहबानी हो जाती है। लगभग एक ही समय में रसिक की चाय का रसास्वादन, इधर-उधर की बातें, रसोईघर में पकने वाली दोनों शाम के लिए ताज़ी सब्जी की ख़रीदारी, सब्जी लेकर लौटते हुए .. रास्ते में ही ग्वाला द्वारा आँख के सामने गाय के थन से दुहा हुआ सुसुम-सुसुम दूध भी और ... अस्थायी सब्जी मंडी तक जाना और आना मिलाकर लगभग तीन-चार किलोमीटर का सुबह-सुबह पैदल टहलना भी हो जाता है दोनों लोगों का। मतलब .. आम के आम, गुठलियों के दाम और छिलकों के भी लाभकारी इंतज़ाम .. शायद ...
सिपाही जी तो पहले ही जा चुके हैं यहाँ से और अभी प्रोफेसर साहब और स्टोरकीपर साहब के चले जाने के बाद चाय दुकान के आसपास कोई भी ऐसा नहीं है, जिनसे भूरा और चाँद को किसी तरह की बात करने में किसी भी तरह की हिचक हो सकती है।
वैसे भी आम इंसानी फ़ितरत है कि अगर किसी चरित्रवान का सही-सही आकलन करना हो, तो उसे तथाकथित चरित्रहीन कृत्यों के लिए पहले एकांत और अँधेरा प्रदान करना चाहिए .. 'टी वी शो - बिग बॉस' की तरह .. हालांकि उस 'शो' में तो फिर भी तथाकथित ख़ुफ़िया कैमरे लगे होते हैं और आँखें चुँधियाती हुई तेज रोशनी भी होती हैं .. पर अगर उस प्रदान किए गए एकांत और अँधेरे के बाद भी वह इंसान चरित्रवान होने का प्रत्यक्ष प्रमाण दे पाता है, तभी हम उसे चरित्रवान मान या कह सकते हैं, क्योंकि उजियारे में तो सभी चरित्रवान ही होते हैं। वैसे तो हम सभी को स्कूल या कॉलेज की तरफ़ से चरित्र प्रमाण पत्र मिल ही जाते हैं, जिनका कोई औचित्य नहीं होता .. शायद ...
आपको याद होगा कि अभी थोड़ी देर पहले ही अंजलि भाभी को अपने काम पर मुहल्ले से जाते हुए देख कर मन्टू उन से नज़र बचा कर उनकी तरफ बढ़ गया था और यह उसकी रोजाना की आदत में शामिल है, जिसका आज तक अंजलि को भान तक नहीं है। हालांकि अंजलि के साथ उसका तीन वर्षीय बेटा- अम्मू भी रोज साथ ही होता है। दरअसल जिस स्कूल में अंजलि सहायिका के रूप में कार्यरत है, उसी में उसका बेटा अम्मू यानि अमन पढ़ता है।
अनुकंपा के आधार पर उसका कोई शुल्क भुगतान नहीं करना पड़ता है।
इधर तब से भूरा और चाँद यहीं बैठे हुए आपस में इधर-उधर की बातें करते हुए, अन्य आये हुए चाय के ग्राहकों की बतकही पर कान लगाए हुए हैं और अपनी नज़रें गड़ाए हुए हैं दूर जाते मन्टू और अंजलि भाभी पर। अभी थोड़ा एकांत पाकर फिर से चाँद और भूरा चालू हो गए हैं ...
चाँद - " अच्छा .. ये तो बता भूरा के बच्चे .. कि तू तब से 'केचप' की 'फैक्ट्री' बोल-बोल के सब को सनका रहा था।परबतिया दीदी तो नौकरी तक के सपने देखने लगीं थीं तुम्हारी बतकही से। "
भूरा - " अरे .. चाँद भाई .. वो तो .. "
चाँद - " वो तो, वो तो छोड़ .. पहले ये बता कि तुम्हें कैसे पता चला कि बी ब्लॉक की 213 नम्बर वाली भाभी को .. वो सब हुआ है ? बोल ! .."
भूरा - " ऐसा है ना चाँद भाई कि सरकार की लाख ताकीद के बाद भी जैसे शादी में दहेज़ की लेन-देन और सड़कों पर सिगरेट के धुएँ नहीं रुकते हैं, वैसे ही बार-बार बतलाने पर भी मुहल्ले वाले घर के कचरों को अलग-अलग नहीं देते हैं .. एक ही डब्बे में गीला कचरा और सूखा कचरा घर में जमा करते हैं और घर तक गाड़ी ले के जाने पर वही डब्बा पकड़ा देते हैं। कई लोग तो 'पॉलीथिन' की थैली पर 'बैन' होने के बाद भी उसी में कचरा पकड़ा देते हैं .."
चाँद - " अच्छा ! .. तो ? .. इस से 'केचप' की 'फैक्ट्री' का क्या लेना-देना भला ? .."
भूरा - " सीधी-सी बात है .. मुहल्ले वाले करें या ना करें, पर हमको तो नगर निगम की बातों को माननी होती है। अब भला जिस काम के पैसे से अपनी दाल-रोटी की जुगाड़ होती हो, उस काम से ग़द्दारी कैसे की जा सकती है चाँद भाई .. तो ऐसे में हर घर के बाहर उनके कचरे के डब्बे या थैली के सारे कचरे को गाड़ी के 'ट्रेलर' में फैला कर .. लगे हाथों गीले और सूखे कचरों को अलग-अलग नियत हिस्से में डालते जाना पड़ता है। "
चाँद - " तो ? ..."
भूरा - " तो क्या !! .. नहीं तो 'डंपिंग यार्ड' में खड़ा 'सुपरवाइजर' बमक कर "माँ-बहन" करने लग जाता है एकदम से ... "
चाँद - " तो ? ..."
भूरा - " तो-तो क्या !! .. कचरों को फैला कर अलग-अलग करते समय उस दौरान पुराने अख़बारों में लिपटे इस्तेमाल किए गए ख़ून से सने .. "
चाँद - " समझ गये .. समझ गये .. पर उसका इतना बखान कर के भी क्या करना है चूतिए .. "
भूरा - " कुछ नहीं चाँद भाई .. बस ऐसे ही थोड़ी हँसी-ठिठोली कर रहा था .."
चाँद - " वो भी माँ समान भाभी के लिए .. बेशर्म .. "
भूरा - " अब इसमें बेशर्मी की क्या बात हो गयी .. सच्ची बात बतलाऊँ ... "
चाँद - " अब कौन सी बेशर्मी उगलने वाला है तू ? .. आँ ..?.."
भूरा - " गुस्सा तो नहीं होगे ना ? .."
चाँद - " ना ! .. अब जब इतना बकबका दिए तो ये भी बक ही दो .. जल्दी से .."
भूरा - " हर महीने इन तीन-चार दिनों के बाद जब .. 213 नम्बर वाली भाभी अपनी कमर से बहुत ही नीचे-नीचे तक लम्बे शैम्पू किए बालों को खोल कर रखतीं हैं ना तो .. "
चाँद - " तो ? .. उस से तुझे क्या करना है बे ? .."
भूरा - " कुछ भी तो नहीं .. हम तो बस ये कह रहे हैं, कि तब वो बहुत ही सुंदर लगती हैं .. अब इसमें .. मतलब ये कहने में क्या बुराई है .. बोलो !! .. सुंदर को सुंदर कहना कोई बुरी बात है ? .. आयँ ..?..."
इनकी बेसिर-पैर की बातों को अचानक एक व्यवधान का सामना करना पड़ गया है अभी-अभी .. कुछ ही दूरी पर जहाँ कचरे फेंकने के लिए नगर निगम वालों द्वारा बड़े-बड़े कूड़ेदान रखे हुए हैं, मुहल्ले में दरवाज़े-दरवाज़े भटकने वाली काली कुतिया- "बसन्तिया" की "कायँ-कायँ" .. तेज चीखने की आवाज़ से दोनों का ध्यान आपसी बातों से हट कर उधर चला गया है।
चाँद - " लगता है मन्टू गुस्सा में उसको किसी बड़े पत्थर से मार दिया है .."
भूरा - " आज भी अंजलि भाभी के कचरे वाली थैली का 'पोस्टमार्टम' नहीं कर रही होगी बसन्तिया .."
चाँद - " हाँ .. लग तो ऐसा ही रहा है रे .."
दरअसल अपने गाँव से रंजन जब से इस शहर में अज़नबी की तरह आ कर काम की तलाश में भटक रहा था, तभी से मन्टू ही उसका एकमात्र सहारा बना था शहरी जीवन के हर मोड़ पर। चाहे शुरूआती दौर में अकेले के जीवनयापन के लिए अपनी 'गारंटी' देकर भाड़े पर हवा-हवाई चलाने के लिए अमीर कबाड़ी वाले से दिलवाना हो या तब शनिचरी चाची के घर में किराए पर मकान दिलवाना हो या 'स्कूल' के बच्चों को उनके घर से 'स्कूल' तक छोड़ने और छुट्टी होने पर वहाँ से उनके घर तक पहुँचा कर एक निश्चित मासिक आमदनी का जरिया उपलब्ध करवाना हो या फिर अंजलि से शादी करवाने में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेना हो .. और तो और रंजन की पत्नी- अंजलि को समय से पहले ही 'ऑपरेशन' से बच्चा होने पर हुई आर्थिक-मानसिक व शारीरिक परेशानी में सगे भाई से भी बढ़ कर मदद की बात हो .. सब के लिए मन्टू तत्पर खड़ा रहता था।
रात-रात भर अस्पताल में 'ड्यूटी' देता था। तब "डॉक्टरनी मैम" अपनी भाषा में उसके बेटे, जो अब तीन साल का हो चुका है- अम्मू यानि अमन, को 'प्रीमैच्योर बेबी' बोल रहीं थीं और शनिचरी चाची अपनी भाषा में "सतमासु" बच्चा बोलीं थीं।
रंजन के बेटे के नाम रखने तक में मन्टू का बहुत बड़ा योगदान रहा है। रंजन और अंजलि तो नाम तय कर ही नहीं पा रहे थे अपने इकलौते लाडले की। महीना निकल गया .. तब मन्टू ने ही एक रात सुझाया था नाम- "अमन" .. बोला था कि - "अंजलि भाभी के नाम का पहला अक्षर "अ" और रंजन के नाम का आख़िरी अक्षर "न" .. दोनों ही आता है "अमन" में .. और .. 'बाइ द वे' (By the way) ... इसमें मन्टू का "म" भी बीच में घुसा हुआ है .." - और यह बोल कर ख़ूब जोर से ठहाका लगा कर हँस पड़ा था वह। काफ़ी रात हो चुकी थी, फिर भी मन्टू के जोर के ठहाके की आवाज़ सुनकर शनिचरी चाची आ गयीं थीं वजह जानने के लिए रंजन के कमरे में .. वह भी "अमन" नाम पर अपनी हामी भर कर "अमन" नाम पर अपनी 'फाइनल' मुहर लगा दीं थीं।
वही रंजन आज इस दुनिया में नहीं है। कोरोना के दूसरे दौर में उसके चपेट में आने बाद अपने आप को नहीं बचा सका था रंजन और ना ही अंजलि बचा पायी थी उसे .. अपनी अब तक की, नगण्य ही सही, जमा-पूँजी लगा कर भी। उल्टा मन्टू और शनिचरी चाची से उधार भी लेना पड़ गया था, जो अभी भी पूरी तरह लौटा नहीं पायी है अंजलि .. अपनी सहायिका की नौकरी के दम पर। यह नौकरी भी मन्टू की मदद से या यूँ कहें कि स्कूल वालों से जान-पहचान के कारण अंजलि को मिल पायी थी। साथ में उसी स्कूल के बच्चों को अपनी हवा-हवाई से पहुँचाने-ले जाने के क्रम में अच्छे व्यवहार की वजह से भी। हालांकि इस 'प्राइमरी स्कूल' के संस्थापक के साथ अंजलि का एक गहरा सम्बन्ध रहा है, पर अपनी मर्ज़ी से रंजन के साथ शादी कर लेने के बाद वे उसी समय से खफा हैं। तभी तो वे इन दोनों की शादी के मौके पर शरीक़ नहीं हुए थे। वैसे 'प्राइमरी स्कूल' के संस्थापक के साथ अंजलि के सम्बन्ध के बारे में आगे किसी अंक में बात करते हैं।
उस वक्त रंजन को खोकर एक साल के अम्मू के साथ भी अंजलि अकेली पड़ गयी थी। उस वक्त भी मन्टू एक आलम्बन की तरह खड़ा रहा था। मुहल्ले भर के लोग जो उनकी शादी में छक कर भोज खाने जुटे थे, उनमें से मात्र एक-दो गिनती के लोग ही उस वक्त रंजन के दाह-संस्कार में शामिल हुए थे। बड़ी मुश्किल से चार कंधों का इंतजाम हो पाया था तब। कोरोना काल था ही ऐसा .. "अपनों" के बीच "अपनों" की पहचान कराने वाला .. शायद ...
【 अब शेष बतकहियाँ ... आगामी वृहष्पतिवार को .. "पुंश्चली .. (१०) .. (साप्ताहिक धारावाहिक)" में ... 】
गजब ये पूंछ लम्बी होती जा रही है अब हिली और चली भी ठीक रहेगा | बहुत सुन्दर |
ReplyDeleteजी ! .. नमन संग आभार आपका .. पूँछ को हिलाने और चलाने के लिए भी ... :)
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