(१)
समय और समाज को ही है जब तय करना जिसे
ख़ातिर उसके तू भला क्यों है इतना मतवाला ?
है होना धूमिल आज नहीं तो कल-परसों जिसे
काल और सभ्यता की परतों का बन कर निवाला
हो आतुर व्याकुल मन उस शोहरत की चाह में
क्यों पल-पल खंडित करता है अंतर्मन की शाला ?
हो मदांध शोहरत में ऐसे साहित्यकार बन बैठे
समानुभूति को भूल कर सहानुभूति रचने वाला ?
(२)
किसी सुबह हाथ में चाय की प्याली, जम्हाई, सामने फैला अख़बार
या फिर किसी शाम वातानुकूलित कमरे में बैठा पूरा परिवार
उधर सामने चलते चालू टी वी के पर्दे पर चीख़ता पत्रकार
कहीं मॉब-लीचिंग में मारा गया कभी एक-दो, कभी तीन-चार
कभी तेज़ाब से नहाया कोई मासूम चेहरा तो कभी तन तो
कभी किसी अबला के सामूहिक बलात्कार का समाचार
इधर पास डायनिंग टेबल पर सजा कॉन्टिनेंटल डिनर
रोज की तरह ही भर पेट खाकर लेते हुए डकार
बीच-बीच में "च्-च्-च्" करता संवेदनशील बनता पूरा परिवार
अपलक निहारते हुए उस रात का चित्कार भरा समाचार
देख जिसे पनपती संवेदना, तभी संग जागते साहित्यकार
भोजनोपरांत फिर उन समाचार वाली लाशों से भी भारी-भरकम
सहेजना कई शब्दों का चंद लम्हों में मन ही मन अम्बार
कर के कुछ सोच-विचार, गढ़ना छंदों का सुविधानुसार श्रृंगार
मिला कर जिसमें अपनी तथाकथित संवेदना की लार
साहित्यकार करते हैं फिर शोहरत की चाह में एक कॉकटेल तैयार
फिर वेव-पृष्ठों पर सोशल मिडिया के करते ही प्रेषित-प्रचार
लग जाता है शोहरत जैसा ही कई लाइक-कमेंट का अम्बार
ना , ना, बिदकना मत मेरी बातों से साहित्यकार
वैसे तो क़ुदरत ना करे कभी ऐसा हो पर फिर भी ...
फ़र्ज़ करो मॉब लिंचिंग हो जाए आपकी या आपके रिश्तेदार की
या किसी दिन सामूहिक बलात्कार अपने ही किसी परिवार की
तब भी आप क्या रच पाओगे कोई रचना संवेदना भरी ?
आप क्या तब भी कोई पोस्ट करोगे सोशल मिडिया पर रोष भरी ?
नहीं .. शायद नहीं साहित्यकार ... तब होगी आपकी आँखें भरी
है शोहरत की चाह ये या संवेदनशीलता आपकी .. पता नहीं
साहित्यकार एक बार महसूस कीजिए समानुभूति भी कभी
सहानुभूति तो अक़्सर रखते हैं हम गली के कुत्तों से भी ...
है ना साहित्यकार ....???...
समय और समाज को ही है जब तय करना जिसे
ख़ातिर उसके तू भला क्यों है इतना मतवाला ?
है होना धूमिल आज नहीं तो कल-परसों जिसे
काल और सभ्यता की परतों का बन कर निवाला
हो आतुर व्याकुल मन उस शोहरत की चाह में
क्यों पल-पल खंडित करता है अंतर्मन की शाला ?
हो मदांध शोहरत में ऐसे साहित्यकार बन बैठे
समानुभूति को भूल कर सहानुभूति रचने वाला ?
(२)
किसी सुबह हाथ में चाय की प्याली, जम्हाई, सामने फैला अख़बार
या फिर किसी शाम वातानुकूलित कमरे में बैठा पूरा परिवार
उधर सामने चलते चालू टी वी के पर्दे पर चीख़ता पत्रकार
कहीं मॉब-लीचिंग में मारा गया कभी एक-दो, कभी तीन-चार
कभी तेज़ाब से नहाया कोई मासूम चेहरा तो कभी तन तो
कभी किसी अबला के सामूहिक बलात्कार का समाचार
इधर पास डायनिंग टेबल पर सजा कॉन्टिनेंटल डिनर
रोज की तरह ही भर पेट खाकर लेते हुए डकार
बीच-बीच में "च्-च्-च्" करता संवेदनशील बनता पूरा परिवार
अपलक निहारते हुए उस रात का चित्कार भरा समाचार
देख जिसे पनपती संवेदना, तभी संग जागते साहित्यकार
भोजनोपरांत फिर उन समाचार वाली लाशों से भी भारी-भरकम
सहेजना कई शब्दों का चंद लम्हों में मन ही मन अम्बार
कर के कुछ सोच-विचार, गढ़ना छंदों का सुविधानुसार श्रृंगार
मिला कर जिसमें अपनी तथाकथित संवेदना की लार
साहित्यकार करते हैं फिर शोहरत की चाह में एक कॉकटेल तैयार
फिर वेव-पृष्ठों पर सोशल मिडिया के करते ही प्रेषित-प्रचार
लग जाता है शोहरत जैसा ही कई लाइक-कमेंट का अम्बार
ना , ना, बिदकना मत मेरी बातों से साहित्यकार
वैसे तो क़ुदरत ना करे कभी ऐसा हो पर फिर भी ...
फ़र्ज़ करो मॉब लिंचिंग हो जाए आपकी या आपके रिश्तेदार की
या किसी दिन सामूहिक बलात्कार अपने ही किसी परिवार की
तब भी आप क्या रच पाओगे कोई रचना संवेदना भरी ?
आप क्या तब भी कोई पोस्ट करोगे सोशल मिडिया पर रोष भरी ?
नहीं .. शायद नहीं साहित्यकार ... तब होगी आपकी आँखें भरी
है शोहरत की चाह ये या संवेदनशीलता आपकी .. पता नहीं
साहित्यकार एक बार महसूस कीजिए समानुभूति भी कभी
सहानुभूति तो अक़्सर रखते हैं हम गली के कुत्तों से भी ...
है ना साहित्यकार ....???...
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में सोमवार 04 मई 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteजी ! आभार आपका अपने मंच पर साझा करने के लिए ...
Deleteकिसी की चन्ता मत करो...
ReplyDeleteबस बेबाक लिखते रहो।
जी ! किसी की चिन्ता नहीं करना और बेबाक कहना ही तो मेरा इकलौता अवगुण है ... शायद ..
Deleteबहुत खूब घाव करे गंभीर ।
ReplyDeleteजी ! आभार आपका ... वैसे घाव करने की कोई मंशा नहीं, बस मन की बात कही, बस यूँ ही ...
Deleteहो आतुर व्याकुल मन उस शोहरत को चाह में
ReplyDeleteक्यों पल -पल खंडित करता अन्तर्मन की शाला
सत्य ,सटीक नमन
जी ! आभार आपका रचना/विचार से सहमति के लिए ...
Deleteवाह!!बहुत खूब!!
ReplyDeleteजी ! आपका आभार रचना/विचार तक आने के लिए ...
Deleteसाहित्यकार एक बार महसूस कीजिए समानुभूति भी कभी
ReplyDeleteसहानुभूति तो अक़्सर रखते हैं हम गली के कुत्तों से भी ...
है ना साहित्यकार ....???...
बहुत खूब...सटीक।
जी ! नमन आपको और साथ ही आभार आपका रचना/विचार के मूल मर्म को स्पर्श करने के लिए ...
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